मणिपुर हिंसा: जातीय संघर्ष या पहाड़ों और जंगलों पर क़ब्ज़ा करने की साज़िश?

Written by Navnish Kumar | Published on: July 26, 2023
"जब चुना ही था कत्लेआम का हुनर देखकर,
'फिर तुम्हें क्यों आश्चर्य है लाशों का शहर देखकर।।" 



सोशल मीडिया पर वायरल न्यूज 24 की ये 'क्लिप' (शेर) भले 'बांटो और राज करो' वाली 'वोट की राजनीति' की ओर इशारा करती हो और मुख्यमंत्री बिरेन सिंह, खुद मणिपुर हिंसा के पीछे चीन का हाथ देखते हो लेकिन जानकारों के अनुसार, मणिपुर हिंसा के पीछे का असली खेल, मणिपुर के पहाड़ों और जंगलों पर क़ब्ज़ा करने की साज़िश है। वरिष्ठ पत्रकार कृष्णन अय्यर के अनुसार, मणिपुर के पहाड़ों और जंगलों में मिनरल की भरमार है। लाइमस्टोन, निकेल, कॉपर, क्रोमाइट और बहुत सारे मिनरल है जो दुनिया में मुश्किल से मिलते हैं। 

मणिपुर में 89% भूमि पहाड़ियां हैं जो कि एक बहुमूल्य खनिज क्षेत्र हैं। भड़ास पर प्रकाशित अय्यर के लेख के अनुसार, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) के सर्वे में मणिपुर में निकेल, तांबा के अलावा प्लैटिनम समूह तत्व/धातुएं मैलाकाइट, अज़ुराइट और मैग्नेटाइट के पाए जाने की सूचना है। यहां थोड़ी बहुत माइनिंग तो कांग्रेस के वक़्त से हो रही है पर मोदी की भूख मिटने का नाम नहीं लेती। लेकिन सबसे बड़ी बाधा, मणिपुर में “धारा 371” का लागू होना है जिसके चलते ग़ैर आदिवासी, पहाड़ों पर ज़मीन नहीं ख़रीद सकते। यहां “ग़ैर आदिवासी” का मतलब “मितरों उद्योगपति” समझिए। 

यकायक मणिपुर के हिंदुओं (मैतेई) को “आदिवासी” बनाए जाने यानी पहाड़ों पर ज़मीन ख़रीदने का हक़दार बनाए जाने का पूरा खेल ”मूल आदिवासियों” को समझ आ गया। एक बार अगर “नए आदिवासी” ज़मीन ख़रीदने लगे तो “मित्तर उद्योगपति” अपना ख़ज़ाना खोल देंगे और मूल आदिवासियों का जंगल से खदेड़ा होना तय है। मणिपुर हिंसा के पीछे यह एक सोची समझी साज़िश है। ये “हिन्दू-‘ईसाई” की लड़ाई नहीं है बल्कि ये मणिपुर के पहाड़ों और जंगलों पर क़ब्ज़ा करने की साज़िश है। अय्यर के अनुसार, मित्तर उद्योगपति वही है जिसे आप समझ रहे है.. और ये खेल इतनी आसानी से नहीं रुकेगा।

दूसरी ओर, जानकार पूरे मामले को वन विभाग के 'खेल' के तौर पर देख रहे हैं। मसलन, वन विभाग आरक्षित वन भूमि से आदिवासियों को खदेड़ना चाह रहा है ताकि बहुमूल्य खनिज संपदा की लूट में साझेदार बन सके। आदिवासियों के रहते यह संभव नहीं है क्योंकि आदिवासी, पहाड़ों और जंगलों को उनके सामुदायिक (वन) अधिकार के तौर पर देखते हैं। यही सब कारण है कि, यहां पहाड़ों और जंगलों में खनिज संपदा को लेकर कोई भी ठेका, निर्माण आदि कोई भी काम करने के लिए ग्राम सभा यानी क्षेत्रीय लोगों (आदिवासियों) की सहमति/अनुमति लेना आवश्यकीय है। लेकिन बदले हालातों में अनुमति की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है।

पहाड़ी संपदा पर कब्जे का खेल

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, सत्ता के करीबी जानी-मानी निजी कंपनियां, वन क्षेत्रों में खनन अधिकार प्राप्त करने में रुचि रखती हैं। इसी से भाजपा सरकार ने अपनी बुद्धिमत्ता और रणनीति के तहत मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का निर्णय लिया। एक बार मैतेई को एसटी का दर्जा मिल जाए, तो वे उसकी आड़ में आसानी से पहाड़ी संपदा पर कब्जा कर, भारी मुनाफा कमा सकते हैं। इतिहास गवाह है कि विश्व के जिन भागों में बहुमूल्य धातुएं और खनिज वन भूमि में पाए जाते हैं। वहां से अनुचित मुआवजे के साथ आदिवासियों को जबरन बाहर कर दिया गया/जाता है। ...उनका कसूर सिर्फ यही होता है कि वे जन्मजात आदिवासी थे। अब हम जो जातीय हिंसा मणिपुर में देख रहे हैं, उसके पीछे भी कहीं न कहीं कीमती धातुओं और खनिजों की लूट, खनन लॉबी, वन विभाग और राजनीतिक लाभों की यही अनकही कहानी है।

... लेकिन आखिर क्यों आमने-सामने आ गए मैतेई और कुकी? 

सवाल हैं कि आखिर हिंसा के पीछे वजह क्या है और क्यों मणिपुर के लोग आपस में ही लड़ रहे हैं? इसके लिए सबसे पहले हमें मणिपुर की भौगोलिक स्थिति को समझना जरूरी है। 16 जिलों और करीब 37 लाख की जनसंख्या वाले इस राज्य की राजधानी इंफाल बिलकुल बीच तलहटी में है। क्षेत्रफल के हिसाब से इंफाल राज्य की भूमि का केवल 10% हिस्सा है। लेकिन आबादी के लिहाज से देखें तो राज्य की 57% आबादी यहां रहती है। इंफाल के चारों तरफ का 90% हिस्सा पहाड़ी क्षेत्र है। इन क्षेत्रों में राज्य की 43 प्रतिशत आबादी रहती है। न्यूज नेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, अगर हम केवल इंफाल घाटी की बात करें तो यहां सबसे ज्यादा आबादी मैतेई समुदाय की है। इस समुदाय के लोग ज्यादातर हिंदू होते हैं। राज्य की कुल आबादी में मैतेई की हिस्सेदारी भी करीब 50% बताई जाती है। राजनीतिक रूप से भी मैतेई समुदाय का खासा वर्चस्व माना जाता है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि 60 विधायकों वाली मणिपुर विधानसभा में 40 विधायक मैतेई समुदाय से आते हैं।

बता दें कि मैतई राजाओं का शासन म्यांमार में छिंदविन नदी से लेकर मौजूदा बांग्लादेश की सूरमा नदी के इलाकों तक फैला हुआ था। भारत में शामिल होने के बाद ये समुदाय राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 9 फीसदी भूभाग पर ही सिमट गया है। मैतेई समुदाय के बुजुर्गों के मुताबिक, उन्‍होंने 17वीं और 18वीं सदी में हिंदू धर्म को स्‍वीकार कर लिया था। वहीं, दूसरी तरफ मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में 33 मान्यता प्राप्त ट्राइब्स यानी जनजातियां रहती हैं। इनमें प्रमुख रूप से नगा और कुकी ट्राइब हैं। ये दोनों जनजातियां मुख्य रूप से ईसाई धर्म को मानती हैं। इसके अलावा मणिपुर में 8-8 प्रतिशत आबादी मुस्लिम और सनमही समुदाय की है। मणिपुर में पहाड़ी ट्राइब्स को आर्टिकल 371(C) के अंतर्गत स्पेशल स्टेटस मिला है। ये स्टेटस मैतेई समुदाय को नहीं है। इसके अलावा यहां भूमि सुधार अधिनियम की वजह से मैतेई लोग पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीद-कर बस नहीं सकते। वहीं दूसरी तरफ ट्राइबल्स को पहाड़ों से घाटी में आकर बसने पर कोई रोक नहीं है। ये रियायत भी दोनों समुदायों में मतभेद का बढ़ा कारण बताई जाती हैं।

मैतेई समुदाय 2012 से कर रहा ST का दर्जा दिए जाने की मांग

मणिपुर शेड्यूल ट्राइब डिमांड कमेटी के नेतृत्व में मैतेई समुदाय 2012 से ST का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहा है। मैतेई का तर्क है कि 1949 में मणिपुर के भारत में विलय से पहले उन्हें एक जनजाति के रूप में मान्यता दी गई थी, लेकिन भारत में विलय के बाद उनकी ये पहचान समाप्त हो गई। इसके बाद मामला मणिपुर हाईकोर्ट पहुंचा। इस पर सुनवाई करते हुए मणिपुर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से 19 अप्रैल को 10 साल पुरानी सेंट्रल ट्राइबल अफेयर मिनिस्ट्री की सिफारिश प्रस्तुत करने के लिए कहा था। इस सिफारिश में मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने के लिए कहा गया है। कोर्ट ने मैतेई समुदाय को एसटी स्टेटस देने का आदेश दे दिया। हालांकि हाईकोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। साथ ही राज्य सरकार द्वारा अफीम की खेती रोकने और वन भूमि पर अतिक्रमण हटाने की आड़ में पहाड़ियों में लैंड सर्वे कराना भी विवाद की जद में एक बड़ा कारण है। 

गवर्नमेंट लैंड सर्वे को लेकर बिगड़ी बात

हाईकोर्ट के फैसले के बाद हिंसा की शुरुआत राज्य के चुराचंदपुर जिले से हुई। कुकी आदिवासी बाहुल्य इस जिले में, गवर्नमेंट लैंड सर्वे के विरोध में 28 अप्रैल को द इंडिजेनस ट्राइबल लीडर्स फोरम ने 8 घंटे बंद का ऐलान किया था। देखते ही देखते इस बंद ने हिंसक रूप ले लिया। उसी रात तुइबोंग एरिया में कुछ उपद्रवियों ने वन विभाग के ऑफिस को आग के हवाले कर दिया। 27-28 अप्रैल की हिंसा में मुख्य तौर पर पुलिस और कुकी आदिवासी आमने-सामने थे। इसमें मैतेई समुदाय शाम नहीं था। लेकिन इसके ठीक पांचवें दिन यानी 3 मई को ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ मणिपुर ने 'आदिवासी एकता मार्च' निकाला। ये मैतेई समुदाय को एसटी का दर्जा देने के विरोध में था। यहीं से स्थिति बिगड़ गई। आदिवासियों के इस प्रदर्शन के विरोध में मैतेई समुदाय के लोग खड़े हो गए।

एक तरफ मैतेई समुदाय के लोग थे तो दूसरी ओर कुकी और नगा समुदाय के लोग। और देखते ही देखते पूरा प्रदेश इस हिंसा की आग में जलने लगा। आरक्षण विवाद के बीच मणिपुर सरकार की वन क्षेत्र में अवैध अतिक्रमण के खिलाफ (लैंड सर्वे की) कार्रवाई ने आग में घी डालने का काम किया। मणिपुर सरकार का कहना है कि आदिवासी समुदाय के लोग संरक्षित जंगलों और वन अभयारण्य में गैरकानूनी कब्जा करके अफीम की खेती कर रहे हैं। ये कब्जे हटाने के लिए सरकार मणिपुर फॉरेस्ट रूल 2021 के तहत फॉरेस्ट लैंड पर किसी तरह के अतिक्रमण को हटाने के लिए एक अभियान चला रही है।

वहीं, आदिवासियों का कहना है कि ये उनकी पैतृक जमीन है। उन्होंने अतिक्रमण नहीं किया, बल्कि हजारों सालों से वहां रहते आ रहे हैं। सरकार के इस अभियान को आदिवासियों ने अपनी पैतृक जमीन से हटाने की तरह पेश किया। जिससे आक्रोश और फैल गया। हिंसा के बीच कुकी विद्रोही संगठनों ने भी 2008 में हुए केंद्र सरकार के साथ समझौते को तोड़ दिया। दरअसल, कुकी जनजाति के कई संगठन 2005 तक सैन्य विद्रोह में शामिल रहे हैं। मनमोहन सिंह सरकार के समय, 2008 में तकरीबन सभी कुकी विद्रोही संगठनों से केंद्र सरकार ने उनके खिलाफ सैन्य कार्रवाई रोकने के लिए सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन यानी SoS एग्रीमेंट किया। इसका मकसद राजनीतिक बातचीत को बढ़ावा देना था। तब समय-समय पर इस समझौते का कार्यकाल बढ़ाया जाता रहा, लेकिन इसी साल 10 मार्च को मणिपुर सरकार कुकी समुदाय के दो संगठनों के लिए इस समझौते से पीछे हट गई।

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