बूढ़े गरीब के मेहनत का पैसा हड़पकर जजमान ने पंडित जी को पूजा में दक्षिणा दे दिया

Written by Mithun Prajapati | Published on: September 26, 2018
पंडित भृगु नारायन ने गणेश जी की वंदना वाले श्लोक 'गजाननं भूत गणादिसेवितं ' से पूजा आरम्भ की। सामने बैठे जजमान अपनी पत्नी के साथ धोती में गांठ जोड़े ,पैर में रंग ना लगाये हाथ में अक्षत और दक्षिणा के इक्यावन रूपये लिये  पंडित जी के फटाफट हिलते होंठ से निकले हुए श्लोक के शब्दों को समझने का असफल प्रयास कर रहे थे। न उन्हें एक भी शब्द स्पष्ट सुनाई दे रहा था और न ही वे उन शब्दों सुनने के लिए लालायित थे। जो शब्द स्पष्ट सुनाई दे जाते उन्हें उनका मतलब न पता होता। वे उन्हें समझना भी नहीं चाहते। वे तो बस चाहते थे पूजा झट से खत्म हो।



श्लोक ख़त्म हुआ। पंडित जी ने कहा-जजमान हाथ में पड़ा अक्षत और दक्षिणा कुल देवता (सामने रखी हांड़ी  और उसके ऊपर रखा तेल से जलता दीपक) को अर्पित कीजिए।
पंडी जी की आज्ञा को सिरोधार्य मानते हुए जजमान और उनकी पत्नी ने कुल देवता को हाथ में पड़ी सामग्री और पैसे अर्पित कर दिए।

पंडी जी ने कहा- अब दूसरा श्लोक शुरु हो रहा है, जजमान अक्षत और दक्षिणा हाथ में ले लीजिए। जजमान और उनकी धरम पत्नी ने हाथ में अक्षत ले लिया और साथ में इक्यावन रूपये फिर से रख लिए। पंडी जी ने श्लोक पढ़ा और हाथ की सामग्री सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा को अर्पित करवा दिया।

यही दौर चल रहा था। पंडी जी श्लोक पढ़ते और कभी देवी ,कभी कुल देवता तो कभी फलाना देवता को दक्षिणा अर्पित करवा देते। जजमान का अर्पण देखकर उनका मन खिल जाता, चेहरा पहले से ज्यादा दमक जाता।  दरअसल जजमान ने  नया-नया घर बनवाया था ,उसी के गृह प्रवेश के लिए सत्य नारायण की पूजा सुन रहे थे। उनका मानना था पूजा सुनने से घर में दिक्कतें नही आएंगी। घर मजबूत होगा। घर की मजबूती सीमेंट बालू की क्वालिटी से नहीं पंडित जी के मंत्रों से बढ़ेगी।

शाम को भोजन का भी प्रबन्ध था। सारी तैयारियां चल रही थीं । लोग व्यस्त थे। घर के मुखिया जजमान  साहब पूजा पर बैठे थे इसलिए अन्य कामों में भी अड़चने आ रही थीं।

दोपहर का वक्त था। गर्मी चरम पर थी। उमस के कारण हर किसी के चेहरे पर चिड़चिड़ाहट का भाव देखा जा सकता था। छोटे-मोटे काम करने में लोगों के पसीनें छूट रहे थे। एक ठेलिये पर खटिया कुर्सी कुछ टेंट का सामान लादे एक बुजुर्ग पसीनें से लतपथ द्वार पर आकर खड़ा हुआ। वह थका हुआ और प्यास से व्याकुल था। उसे उम्मीद थी की पहुँचते ही लोग पानी पूछेंगे। पानी पिऊंगा थोड़ा सुस्ता के फिर सामान उतारूंगा। वह द्वार पर पहुँचकर कुछ देर इधर-उधर नजर दौड़ाता रहा, लेकिन किसी ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। बूढा उतरा, ठेलिया  छाँव में खड़ी की और नल की ओर बढ़ने लगा। अचानक घर के दरवाजे से जजमान के बड़े लड़के ने आवाज दी-अरे ओ बुढऊ, एक तो इतनी देर में आये हो और पहुँचते ही प्यासे हो गए ! पहले ये समान उतार दो फिर पीते रहना पानी।

बूढ़े ने पलटते हुए उनकी तरफ देखा और पूछा- कहाँ उतार के रखें बाबू सामान ? 

लड़के ने कहा- वहीँ बगल के नीम के नीचे उतार दो।

बूढ़े ने पानी पीना छोड़ सामान उतारना शुरू कर दिया। जजमान के लड़के का हुक्म मालिक की तरह था जिसे बूढ़े को पानी पीने से पहले पूरा करना था।  सामान उतारने के बाद बूढ़े ने नल से चलाकर पानी पिया। बूढ़े के कपड़े पसीने से लथपथ थे। कंधे पर एक गमछा था जो कई दिन से न धुलने के कारण मटमैला हो चुका था और रास्ते भर पसीना पोछने के कारण गीला भी हो गया था। बूढ़े ने उस गंदे मटमैले गमछे से मुंह पोछकर एक राहत की सांस ली और  इधर उधर देखने लगा की कोई घर का दिखे तो भाड़ा मांग लें और निकलें। उसे और भी जगह सामान छोड़ने जाना था। उसनें अगल बगल निगाह दौड़ाई पर कोई न दिखा जिससे वह पैसे मांग सके। 

उसनें फिर जजमान की तरफ देखा और न चाहते हुए भी उनकी तरफ बढ़ा। जजमान पंडी जी के साथ पूजा में व्यस्त थे। बूढ़े ने आवाज लगाई- बाबू साहब, पाइसवा दे दो और भी जगह जाना है।

बाबू साहब पर इसका कोई असर नहीं हुआ। फिर बूढ़े ने थोड़ी देर के अंतराल पर अपनी बात दुहराई। तीन चार बार इसी प्रक्रिया के बाद जजमान घूमें और गुस्से में बोले- थोड़ी देर ठहर जाओगे तो छोट हो जाओगे का।

"नहीं मालिक, ऐसी कोई बात नहीं।"

"तो फिर काहें तूफान खड़ा किये हो ?"

"वो क्या है न मालिक एक भाड़ा अभी और ले जाना है न इसलिए।"

"हाँ तो कितना पैसा हुआ ।"

"बस मालिक 150 रुपये"

"बौरा गये हो का, इतने कम दूरी के 150 ?"

"मालिक, सामान भी त बहुत रहे, और सड़क भी तो कितनी खराब है !"

"फिर भी 150 बहुत हैं।"

"मालिक, रास्ता भी त बहुत लंबा रहे, अढ़ाई कोस से आ रहे इस गर्मी में।"

"लंबा रास्ता है तो क्या हुआ, आज से दस साल पहले 30 रुपये होते थे पर तुम लोगों के भाव इतने बढ़ गए हैं कि सुनने को तैयार नहीं।"

"बाबू साहेब, महंगाई भी भी तो कितना बढ़ गयी है।"

"तो हम क्या करें महंगाई का ! क्या सिर्फ तुम्हारे लिए बढ़ी है ये ?"

"मालिक ,कोई ट्रेक्टर वाला आया होता तो 1000 से कम नहीं लेता।"

"तो क्या तू ट्रेक्टर वाला है, ये लो 100 रुपये।"

"लेकिन मालिक 100 तो बहुत कम हैं ?"

"इतनी कम दूरी के 100 रूपये भी बहुत हैं, अगली बार लाना तो दस बीस बढ़ाकर दे देंगे, अब जाओ।"

बूढ़े को देर हो रही थी। उसने ज्यादा बहस करना उचित न समझा और हाथ जोड़कर रिक्शे की तरफ बढ़ गया। उसने गांधी जी की  मुस्कुराती हुई तस्वीर वाली 100 की नोट गमछे में गठिया ली और अपना ठेलिया लिए बाज़ार की ओर निकल गया। पैसे पाकर मुस्कुराहट यो उसके भी चेहरे पर थी पर कुछ फीकी सी। आखिर उसका हक जो मार लिया गया था। 

बूढ़ा जा चुका था। बाबू साहब के मुंह पर विजयी मुस्कान दौड़ पड़ी। आखिर उन्होंने पचास रुपये बचाये जो अब पंडित जी के अनुसार भगवान को अर्पण करने के काम आएगा। 
पंडित जी ने कहा- बैठिये जजमान ,विलम्ब हो रहा है। मुहूरत निकला जा रहा है। अगला श्लोक शुरू करने वाला हूँ ,अक्षत और दक्षिणा हाथ में ले लीजिए। 
जजमान ने अक्षत और दक्षिणा हाथ में ले लिया और घर की शान्ति और मजबूत नींव के लिए पूजा में लीन हो गए।

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