सवर्णों के मुकाबले ज्यादा घातक है दलित-पिछड़ों की दमनकारी भाषा

Written by अरविंद शेष | Published on: May 4, 2018
किसी समाज के किन्हीं खास तबकों के पीछे रह जाने में सत्ताधारी तबकों की भाषा बड़ी भूमिका निभाती है. भारत में दलित-पिछड़ी जातियों की पढ़ाई-लिखाई से लेकर सत्ता-तंत्र तक में वाजिब भागीदारी नहीं होने की जिम्मेदारी सत्ताधारी तबकों का व्यवहार और उनकी भाषा भी रही है!



संबोधित करने की एक भाषा नींद में पड़े लोगों को जगा कर दौड़ में सबसे आगे कर दे सकती है. और एक भाषा मनोबल को इतना तोड़ दे सकती है कि दौड़ में सबसे अव्वल रहने वाला भी पिछड़ जाए. भारत में ब्राह्मण-तंत्र में सत्ता पर काबिज लोगों ने दलित-पिछड़ी जातियों को संबोधित करने के लिए हमेशा ही ऐसी चालाक भाषा का इस्तेमाल किया है, जिससे उनका मनोबल कमजोर रहे और वे बेहतर के लिए काबिल होने के बावजूद कम में ही संतोष कर लें!

तो भारत में इस यथास्थिति को बनाए रखने के लिए अगर सत्ताधारी सामंती जातियां दलित-पिछड़ी जातियों के साथ दमनकारी भाषा में बात करती हैं तो यह उनकी धूर्तता के मद्देनजर स्वाभाविक ही है.

लेकिन अगर कोई दलित-पिछड़ी जाति की पृष्ठभूमि का ही चार कदम आगे बढ़ गया व्यक्ति अपने समुदाय के लोगों को आगे बढ़ने के लिए चुनौती देने के लहजे में उसी सामंती भाषा का इस्तेमाल करता है, तो जाहिर है वह एक तरह से ब्राह्मण-परंपरा का ही निर्वाह कर रहा है और उसका हासिल भी वही होगा!

अपने लोगों को जगाने के लिए गाली-गलौज की भाषा में चुनौती देने से ज्यादा बेहतर है कि समाज, उसके स्तर, समाज-व्यवस्था में दलित-पिछड़ी जातियों की अवस्थिति, उसमें तैयार होने वाला मनोविज्ञान, उससे तय होने वाले व्यवहार, जीवन से जुड़े फैसले पर उसका असर, सामने खड़ी चुनौतियों से निपटने की उसकी शैली आदि मसलों का ठीक से अध्ययन कर लिया जाए.

इसके बाद शायद अपने लोगों के हित में सोचते हुए उनके लिए गाली-गलौज की भाषा के बजाय एक प्रेरक और जागरूक भाषा में बात की जा सकेगी.

सीधे कहें तो ब्राह्मण-भाषा दरअसल ब्राह्मणों या सवर्णों के मुंह से स्वाभाविक है. लेकिन यही भाषा अगर चार कदम आगे बढ़ जाने का दावा करने वाले गैर-ब्राह्मणों या दलित-बहुजनों के मुंह से निकलती है, खासतौर पर अपने लोगों के लिए तो वह सवर्णों के मुकाबले ज्यादा तकलीफदेह और घातक होती है.

पढ़े-लिखे की ऊंची डिग्री हासिल करने और किसी प्रगतिशील धारा की राजनीति करने का दावा करने के बाद ऐसी भाषा और ज्यादा अफसोसजनक है. काबिलियत हमेशा ही हौसला-अफ़जाई से निखरती है, ज़लील करने वाली भाषा में तैयार होती काबिलियत मर जा सकती है!

(ये लेखक के निजी विचार हैं। अरविंद शेष वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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