मंडल पर जाति और पूँजी के गठजोड़ का हमला

Written by Vidya Bhushan Rawat | Published on: July 7, 2018
7 अगस्त 1990 का ऐतहासिक दिन जब भारतीय संसद के अन्दर तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की अनुसंशाओ को स्वीकारते हुए भारत सरकार की नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण की घोषणा की थी. भारत की राजनीती में इससे बड़ा भूचाल कभी नहीं आया जब देश की सारी सवर्ण जातीयां और उनका ‘संभ्रांत’ बुद्धिजीवी वर्ग इसके विरुद्ध खडा हो गया. देश भर में सवर्ण छात्रो ने इसके विरुद्ध आन्दोलन किया और मनुवादी मीडिया ने कोशिश की के सरकार इसको वापस ले ले. वी पी सिंह, शरद यादव और राम विलास पासवान की तिकड़ी ने इस सन्दर्भ में सबसे ज्यादा गालिया खाई. स्थान स्थान पर उनके पुतले फूंके गए और उनको भद्दी भद्दी गालियों और उपाधियो से नवाजा गया. सबसे बड़ी बात ये थी के मंडल के समर्थन में अम्बेद्कर्वादियो ने जो आन्दोलन खड़ा किया था उसे मीडिया ने पुर्णतः नज़रअंदाज कर दिया. उस दौर में दलित पिछड़े, आदिवासियों, और मुस्लिम समुदाय के पिछड़े तबको के बीच जो सहमती बनी वो बहुत बड़ी थी और उसके नतीजे अगले चुनावो में दिखाई दिए.



सरकार के एक बहुत बड़े फैसले ने भारत के राजनितिक पटल को बदल दिया. दलितों, पिछडों, आदिवासियों में एक अभूतपूर्व एकता दिखाई दी और स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहिली बार ऐसा लगा के कोई सरकार बहुजन समाज के प्रश्नों पर गंभीर है. बाबा साहेब संसद में आ चुके थे, उन्हें भारत रत्न प्रदान किया जा चूका था, उनकी स्वर्ण जयंती के अवसर पर अनेको कार्यक्रम थे लेकिन प्रमुख था उनके साहित्य को विभन्न भारतीय भाषाओं में पहुँचाना. सरकार इन डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान को मज़बूत किया और नव बौधो को भी आरक्षण के दायरे में लाने का काम किया. इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण था वो घोषणा के यू पी एस सी में अनुसूचित जातियों, जन जातियों की भर्ती का बैकलॉग उन्होने जातियों द्वारा भरा जाएगा क्योंकि इससे पहले ये बहुत चालाकी से कर दिया जाता था के अनुसूचित जाति जनजाति के अभ्यर्थियों को इंटरव्यू में फ़ैल करके ये कहकर के ‘योग्य अभ्यर्थियों के अभाव’ में तथाकथित जनरल से बैकलॉग भर दिया जाता था. यही कारण है आरक्षण के बावजूद भी कई वर्षो तक सरकारी सेवाओं में सवर्ण एकाधिकार बना रहा.

1990 में इस घटनाक्रम् के बाद से ही पुरोहितवादी-पूंजीवादी ताकते इकठा हो गयी और अनेक प्रकार से षड्यंत्र करने लगी. भाजपा ने राममंदिर का जो कार्ड खेला वो दलित पिछडो को सत्ता से दूर करने का एक सबसे बड़ा षड़यंत्र था लेकिन इसके लिए उसने न केवल दलितों, आदिवासियों अपितु बड़ी संख्या में पिछड़ी जाति के नेताओं की भी एक अच्छे फेहरिश्त तैयार की ताकि उनको आगे कर लोगो को भ्रमित किया जा सके. कांग्रेस का रवैय्या भी उनसे ज्यादा खतरनाक रहा क्योंकि राजीव गाँधी के समय से ही कांग्रेस ने खुले तौर पर मंडल का विरोध कर भाजपा से ज्यादा  बड़ी भूमिका लेने की कोशिश की. बहुजन समाज पार्टी उस समय तक इतनी ताकतवर नहीं थी के इस प्रतिरोध में कुछ भूमिका निभाती लेकिन उसका काडर तो शुरू से ही अम्बेडकरवादी आन्दोलन से जुड़ा रहा इसलिए वे तो शुरूआती दौर से ही आनुपातिक हिस्सेदारी के पक्षधर रहे. समाजवादी पार्टी उस समय तक बनी नहीं थी और चंद्रशेखर की पार्टी तो उसके विरोध में थी. चंद्रशेखर एक ‘समाजवादी’ नेता जरुर होंगे लेकिन उनके अन्दर की ठकुरात कभी गयी नहीं. सामंती सोच के कारण ही उन्होंने कभी भी सूरजदेव सिंह और अन्य बड़े मफ़िआओ के साथ अपने संबंधो को नाकारा नहीं हालाँकि वो इस सन्दर्भ में बेहद साफ़ थे और अपनी बात को रखने से भी नहीं डरते.

मंडल की पहली हार 2004 के चुनावो में पुर्णतः हो गयी और कांग्रेस के ब्राह्मणवादी नेतृत्व ने इतनी दिक्कतों के बाद सत्ता मिलने पर भी अपने गलतियों को नहीं सुधारा. कांग्रेस में अर्जुन सिंह जैसे लोग थे जिन्होंने शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की बात की और उसे लागू करने के प्रयास किये लेकिन मनमोहन-चिदंबरम-मोंटेक अहलुवालिया के ‘उदारीकरण’ और सोनिया गाँधी के ‘मनरेगा’ ब्रांड समाजवाद ने कांग्रेस को दरअसल कही का नहीं छोड़ा. कांग्रेस ने इस पूरे 10 वर्षीय दौर में पिछड़ी जातियों या किसानो की तरफ देखने तक के प्रयास नहीं किये. उसके पास कृषि क्षेत्र को मज़बूत करने के लिए कोई ठोस योजना नहीं थी और न ही उसके पास पिछड़े जातियों के किसी भी विश्वसनीय नेता का नाम. 2009 में कांग्रेस जब दोबारा सत्ता में आई तो उसके हौसले असमान पर थे और मंत्री अब कार्यकरताओ की और तक नहीं देख रहे थे. चिदंबरम जैसो ने कांग्रेस की जीत को अपने उदारिकरण की जात माना और फिर जो देश के विभिन्न हिस्सों में पार्टी की अधिग्रहण जैसी नीतियों के खिलाफ घमासान हुआ उसने उसकी कमर तोड़ दी. 2013 आते आते कांग्रेस ने कई बेहतरीन कानून बनाये लेकिन तब तक उसके विरुद्ध माहौल बहुत बन चूका था. राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी ने कांग्रेस के अजेंडे को बदलने के प्रयास किये और उसमे दलित पिछडो की भागीदारी की कोशिश की लेकिन कांग्रेस के सशक्त ब्राह्मण लॉबी सब फ़ैल कर दी. दलित पिछडो के नेतृत्व ने पार्टी के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. जब राजनैतिक शक्तिया लोगो के सवाल उठाने में असमर्थ होते है तो फिर लोग स्वयं ही अपने हाथ में सत्ता लेलेते है. पिछड़ी जातियों, खासकर किसानो और अन्य तबको में भयानक असंतोष था, दलित में वही बात थी, मुसलमानों में तो पिछड़ी और दलितों के प्रश्न उनके ही नेता नहीं उठाने देते थे लेकिन सचर आयोग की रिपोर्ट ने सबकी आँखे खोल दी और कई राज्य सरकारों ने पिछड़े जातियों के आरक्षण में मुसलमानों को भी जगह देदी हालाँकि अभी भी मुस्लिम दलित के नाम पर आरक्षण नहीं है जो उन तबको के साथ घोर अन्याय है जो आज भी छुआछूत और अन्य किस्म के जातीय भेदभाव झेल रहे है.

लेकिन जैसे ही दलित पिछडो आदिवासियों और मुसलमानों के पसमांदा तबको ने अपने अधिअरो के लिए बाते उठाना शुरू की, पुरोहितवादी पूंजीवादी गठजोड़ ने भी उनको पुर्णतः अशक्त करने के तरीके ढूंढ लिए. जल जंगल जमीन पर अब सामुदायिक हको से ज्यादा निजी मल्कियातो का कब्ज़ा होने लगा. लेकिन जनता के दवाब में जैसे ही भूमि अधिग्रहण बिल २०१३ पास हुआ वो पूंजीवादी शक्तियों ने सीधे अपने पर हमला समझा.संघ परिवार जानता है के सीधे वह लड़ाई में कभी भी जीत नहीं पायेगा इसलिए भ्रष्टाचार का प्रश्न बनाकर अन्ना का आन्दोलन खड़ा करा गया जिसे इसे देश के पूंजीवादी पुरोहितवादी समूह का पूरा समर्थन था. और यहाँ भी वैसे ही हुआ जैसे मंडल के दौर में हुआ था. देश का ‘प्रगतिशील’ वामपंथी भी अन्ना की हवा में बह गया जैसे वह मंडल विरोध में 1990 में उतर गया था. आखिर क्या कारण था देश के गाँधीवादी, मार्क्सवादी, संघी सभी अन्ना जैसे निहायत ही पुरातनपंथी और ढकोसलेबाज व्यक्ति में क्रांति देखने लग गए. रामदेव से लेकर स्वामी अग्निवेश तक और सामाजिक आन्दोलनों के बड़े बड़े नाम इस पूरी ‘आंधी’ में नेस्तनाबूद हो गए. गलती उनकी नहीं थी, अपितु सत्ता से जुड़ने का जो प्रभाव या प्रभामंडल है, वो ही इसके पीछे था. नेता चाहे कुछ बोले लेकिन जंतर मंतर और रामलीला मैदान पर इकठ्ठा हुई वो भीड़ दलित और आरक्षण विरोधी थी. मेरी नज़र में वो संविधान के विरुद्ध भी एक संकट था जो केवल ये कह रहा था के रामलीला मैदान में उपस्थित ये कुछ हज़ार लोग ही ‘देश’ है और ‘आम’ है और उनके हाथ खड़ा कर देने मात्र से संविधान में बदलाव आ जाना चाहिए. हम ऐसे खतरनाक मंसूबो को समझना होगा.

कांग्रेस के खिलाफ लोगो के गुस्से को बहुत धूर्तता और चालाकी से पुरोहितवादी पूंजीपरस्त ताकतों ने अपने नियंत्रण में ले लिया और आज देश में जो इन ताकतों ने राजनैतिक तौर पर प्राप्त किया उसे वे अब खोने के लिए तैयार नहीं है. सवर्ण जातियों को अब समझ आ चूका है के दलित, पिछडो, आदिवासियों में अपने साथ हुए ऐतहासिक अन्याय को अब आगे सहन करने की सहनशक्ति नहीं है और इसलिए वे इस ‘स्वर्णिम’ अवसर के जरिये इन समुदायों के लिए प्रदान किये सभी अवसरों को साम दाम दंड भेद सभी के जरिये समाप्त कर देना चाहते है. संघ परिवार और भाजपा इस मसले को मुख में राम बगल में छुरी वाले तरीके से ख़त्म कर देना चाहते है. संघ परिवार, भाजपा का आई टी सेल हिन्दू मुसलमान, भारत पाकिस्तान, राम जनम भूमि बाबरी मस्जिद की बाते करते रहेंगे और नरेन्द्र मोदी जी बाबा साहेब आंबेडकर, कबीर और हो सके तो रैदास जी का गुणगान करते रहेंगे और इन सभी के नाम कर अरबो फूंक डालेंगे, दलित और पिछडो के अंतर्व्द्वन्दो का इस्तेमाल करेंगे, दलित की अन्य जातियों को चमारो और जाटवो के खिलाफ खड़ा करेंगे, पिछडो की अन्य जातियों को यादवो के विरूद्ध करेंगे और मोटे तौर पर सभी को हिन्दू बोलकर मुसलमानों के खिलाफ लड़ाएँगे. देश का मीडिया ऐसे सभी मसलो पर बाते करता रहेगा जिसमे सवर्णों के बढ़ चढ़कर न केवल भागीदारी होती है अपितु उनका नेतृत्व भी होता है.

पिछले चार वर्षो में इस सरकार ने बड़ी धूर्तता से ब्राह्मणवादी पूंजीवादी ताकतों की मजबूती का काम किया है और दलित, पिछड़े, आदिवासियों और मुसलमानों को पुर्णतः शक्तिहीन करने के प्रयास किये. एक तरफ दलितों और मुसलमानों पर स्थान स्थान पर गाय, गौमांस, पाकिस्तान, और राष्ट्रभक्ति के नाम पर हमले होते रहे जिसमे सरकार ने दोषियों पर कार्यवाही करने के बजाय उत्पीडित लोगो को ही और तंग किया. शुरुआत में ही विश्विद्यालयो में छात्रो पर हमला किया गया. रोहित वेमुला की मौत के लिए जिम्मेवार लोग अभी भी पुरुस्कृत हो रहे है. जे एन यू जैसे संसथान में प्रसाशन जिस घटिया भूमिका में है वो आश्चर्य करती है. देश भर में विश्विद्यालयो में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जातियों के लिए जो आरक्षण निर्धारित था उसको ख़त्म करने के लिए बेहद बेशर्मी से आरक्षण को डिपार्टमेंट वाइज कर दिया गया. मतलब ये के पहले एक विश्विद्यालय में यदि 100 सीटें होती थी तो 17% दलितों, 7% आदिवासियों और 27% पिछडो को आरक्षण मिलने की सम्भावना होती थी लेकिन भाजपा ने सत्ता में आने के बाद से ही इसको ‘क़ानूनी’ तरीके से ख़त्म करने के इंतज़ाम किये ताकि ये भी न लगे के संविधान का उलंघन है और सवर्णों को खुश भी किया जा सके. अब विभागों की सीटो के हिसाब से आरक्षण मिलेगा. यदि किसी विभाग में एक ही सीट है तो आरक्षण की कोई गुंजाइश नहीं है. इस प्रकार की व्यवस्था से सभी विश्विद्यालयो से चुपचाप आरक्षण ख़त्म कर दिया गया है.

इस वर्ष यदि आप छात्रो से पूछे तो एस सी, एस टी, ओ बी सी छात्रो को छात्र्व्रतीया तक नहीं मिली है. प्राथमिक, माध्यमिक, सेकेंडरी की कक्षाओं के हाल और भी ख़राब है. बच्चो को मिल रहा मिड डे माल अधिकांश राज्यों में ख़त्म है या उसमे कोई गंभीरता नहीं है. अभी उत्तर प्रदेश में उत्तर प्रदेश रोडवेज की बसों में भर्ती का विज्ञापन आया और शर्मनाक बात ये के उसमे पिछड़ी जातियों के आरक्षण की कोई बात नहीं कही गयी है. पिछडो पर तो कई तरीको से हमला है. उनकी खेती पर इतना जानलेवा हमला कभी नहीं था जब चालाकी से ये प्रयास किये जा रहे है के किसान स्वयं ही खेती छोड़ दे ताकि उनकी जमीनों पर कॉर्पोरेट को काबिज कर उनसे खेती करवाए. जब बाज़ार में आटे से लेकर सब्जिय तक पूंजीपतियों की दुकानों पर मिलेगा तो किसान और छोटे दुकानदार तो मरेंगे ही. पूरा गौमाता की जय जयकार का अभियान पिछड़ी जातियों पर हमला है जो अब गायो की खरीद फरोक्त नहीं कर सकते. धीरे धीरे करके भारत के विशालकाय बाज़ार पर पूंजीपति कब्ज़ा करके दूध से लेकर आटा चावल तक बेचेंगे और ये सब होगा किसान की मौत पर. किसानो को ऐसे उलजलूल सवालो में फंसाओ जो उसी तरक्की और अधिकारों से दूर हो और ऐसे आर्थिक सामजिक स्थितिया पैदा कर दो के किसान स्वयं ही खेती छोड़ दे. देश की खाद्यान्न सुरक्षा के लिए भी ये खतरनाक है लेकिन गुजराती प्रवासियों की कंपनियों को फायदा पहुचाने के लिए दालो, चीनी, प्याज आदि का भी आयात किया जा रहा है.छत्र आखिर इससे प्रभावित होने वाला समाज कौन है ?

दिल्ली विश्वविद्यालय के बहुजन अध्यापक कम से कम पिछले तीन महीनो से आरक्षण बचाने के लड़ाई लड़ रहे है. आज आलम ये है विश्विद्यालयो में छात्रो की पढ़ाई की फीस बहुत बढ़ चुकी है. सरकार और विश्विद्यालय अनुदान आयोग अब ये कह रहे है के सभी कालेज और विश्विद्यालय अपने धन की व्यवस्था खुद करेंगे. इसका मतलब क्या है. यदि सरकार शिक्षा से पुर्णतः हाथ खींच लेगी तो क्या होगा ? इसकी मार सब पर पड़ेगी, गरीब सवर्णों पर भी लेकिन जो सबसे ज्यादा प्रभावित तबका होगा वो होगा बहुजन समाज.

अब सरकार ने एक और नयी घोषणा की है. वह है के विश्विद्यालय अनुदान आयोग को ख़त्म कर वह एक उच्च शिक्षा का नया आयोग बनाना चाहती है. जिसमे अध्क्यक्ष, उपाध्यक्ष, और मेम्बर सेक्रेटरी के अलावा 12 अन्य सदस्य होंगे. इनमे एक देश के ‘नामी गिरामी’ उद्योगपति भी होंगे. उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बनाने के नाम पर लाये जा रहे इस ड्राफ्ट बिल को देखकर तो लगता है के सरकार इस पर कोई बहस नहीं चाहती और वह सीधे यू जी सी को ख़त्म कर अपना पूरण नियंत्रण वाला आयोग बना देना चाहती है. गुणवत्ता के नाम पर स्किल इंडिया का प्रचार होगा. इसके अलावा सरकार के नए आयोग को निजी विश्विद्यालयो को खोलने की अनुमती देने का अधिकार होगा. अभी ये प्रक्रिया विधानसभाओ  या संसद के हाथ में थी. नए कमीशन को विश्विद्यालयो की मान्यता रद्द करने का अधिकार भी होगा और विदेशी विश्विद्यालयो या देश में भी नामी गिरामी कालेजो को भी विश्विद्यालाओ के समकक्ष डिग्री देने की स्वतंत्रता होगी. यानी शिक्षा में वर्ग चरित्र भी बढेगा क्योंकि दिल्ली के सेंट स्टीफेंस, लेडी श्री राम कालेज, श्रीराम कालेज ऑफ़ कॉमर्स और कई ऐसे कालेज है जिनके बारे में कहा जाता है के वे डीम्ड यूनिवर्सिटी होने के सपने देख रहे है और विदेशी विश्विद्यालयो के साथ मिलकर कार्य करना चाहते है. आज भी ऐसे विद्यालयों में आम छात्रो का एडमिशन मुश्किल होता है. क्या जब इनको क्वालिटी के नाम पर कुछ भी करने की आजदी होगी तो ये बहुजन समाज के छात्रो को कोई स्थान देंगे. हम तो ये मानते है देश में विविधता को अपने कैंपस में समेटने का थोडा बहुत काम जे एन यू ने किया है. चाहे जो है, वहा से दलित, ओ बी सी, मुस्लिम, आदिवासी छात्र छात्राए बड़ी संख्या में आये है और दिल्ली विश्विद्यालय में उनकी संख्या बढ़ी है. देश के अन्य विश्विद्यालयो में भी बहुजन छात्र भरी संख्या में आ रहे है.

प्रतियोगी परीक्षाओं में भी अब एस सी एसटी और ओ बी सी छात्र न केवल आरक्षण  से आ रहे है अपितु जनरल सीटो से भी टॉप कर रहे है लेकिन चालाकी से उनको भी आरक्षण में डाला जा रहा है. इस प्रकार से धूर्त अधिकारियों ने ‘जनरल’ या ‘सामान्य’ सीटो को सवर्णों की ‘घोषित कर दिया है जो संविधान के साथ मक्कारी है. जनरल या सामान्य का मतलब सवर्ण नहीं अनारक्षित है. जैसे रेलवे के अनारक्षित कोच में टिकेट लेकर कोई भी बैठ सकता है वैसे ही अनारक्षित सीट पर साधारण कम्पटीशन के जरिये आने वाले सफल प्रतियोगियों को आरक्षण की केटेगरी में डालना दरअसल दलित ओ बी सी , आदिवासी समुदायों के अधिकारों पर डाका डालने जैसे है.

वैसे न्यायपालिका में कही पर बहुजन समाज का प्रतिनिधित्व नहीं है. मीडिया उनकी पहुँच से बाहर है. एकेडेमिया में थोडा जगह थी वो भी हाथ से निकल चुकी है, सिविल सर्विसेज में नरेन्द्र मोदी की सरकार अब बाहर से ‘विशेषज्ञों’ के नाम पर नयी भर्ती करेगी जो सीधे सीधे आरक्षण पर हमला है. सारे काम चुप चाप या बेशर्मी से हो रहे है लेकिन दलित बहुजन समाज के राजनैतिक नेतृत्व इन प्रश्नों पर अपने साथियो के साथ में जो युवा है और समाज को वैचरिक नेत्रत्व देने के लिए आगे आयेंगे, चुप चाप है.

आज 7 जुलाई शाम तक यू जी सी को ख़त्म करने वाले ड्राफ्ट बिल पर जनता की राय देने की डेड लाइन है जो शिक्षा में सीधे सीधे निजीकरण को आगे करने और आरक्षण को ख़त्म करने की चाल है. हमारे नेता चुप है. क्यों ? शिक्षा का प्रश्न दलित बहुजन समाज के सम्मान सहित मरने जीने का प्रश्न है. राजनैतिक गणित छोड़कर अब इन प्रश्नों पर सवाल खड़े करने का प्रश्न है. शिक्षा का निजीकरण या व्यवसायीकरण सभी समाजो के गरीब और होनहार बच्चो के साथ धोखा और अन्याय है. क्या इन प्रश्नों पर अब बोलने और अनोद्लन का समय नहीं है.

7 अगस्त 1990 को विश्वनाथ प्रताप सिंह ने संसद के अन्दर पिछड़ी जातियों को आरक्षण की घोषणा की और देश में सवर्णों ने इसे अपने अधिकारों पर हमला मानते हुए उस सरकार के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया था. हम लोगो उस समय एक एक पल याद् है. अखबारों की भद्दी गालिया याद है. उस समय के योध्या लोग आज मंत्री भी है और कुछ विपक्ष में भी. क्या हम जागेंगे या नहीं. सवाल उस राजनैतिक नेतृत्व का है जो अपने युवाओं की भावनाओ से खेल रहा है और उसके प्रश्नों को दमदार तरीके से नहीं उठा रहा. ये चुनाव का प्रश्न है. अभी इस बिल और हो रही धोकेबाजी को रोकना जरुरी है. क्या हमारी साल की महत्वपूर्ण लिस्ट में आज का दिन है या नहीं. यदि नहीं तो भविष्य में ये तारीख जरुर याद दिला देगी के हम अपने अधिकारों के लिए सतर्क नहीं थे और कारवा कैसे लुटा. उम्मीद है सामाजिक न्याय और सामाजिक परिवर्तन में विश्वास करने वाले सभी लोग इस पर अपना विरोध जताएंगे और इस ड्राफ्ट बिल को वापस लेने के मजबूर करेंगे या इसमें बहुजन समाज के हितो को सुरक्षित करने के लिए व्यापक बहस की बात करेंगे. मात्र संसद में बहस से इस बिल को पास करना अन्याय होगा क्योंकि इस ड्राफ्ट पर सभी विश्विद्यालयो, और अन्य शोध संस्थानों, छात्रो और छात्र संगठनों के बीच भी चर्चा होना जरुरी है. क्या हमारे नेता थोडा समय निकालकर इन प्रश्नों पर कोई निर्णायक लड़ाई लड़ने को तैयार है या नहीं, यदि वे ऐसा नहीं करते तो भविष्य की पीढ़िया उन्हें कभी माफ़ नहीं करेंगी.

बाकी ख़बरें