सरकार शहरों और योजनाओं के नाम बदल रही है तो लोगों ने भी नाम में बदलाव कर, महंगाई का तोड़ ढूंढ निकाला है। जी हां, लोग 'किलो' से 'पाव' पर आ गए हैं। मसलन, बाजार में आप पूछेंगे टमाटर कैसे हैं तो जवाब मिलेगा पचास के…। यानी सब्जी-बाजार में किलोग्राम का नाम अब 'पाव' भर यानी ढाई सौ ग्राम हो गया है। सीधा मतलब है कि जो व्यक्ति पहले कोई सब्जी किलो की मात्रा में खरीदता था, अब वह उसे एक पाव खरीदता है। सब्जी से आगे चलते हैं फल पर। एक सेब रोज खाइए, डाक्टर को दूर भगाइए। अब तो लोग एक किलो सेब की कीमत सुन कर उसकी रेहड़ी से ही दूर भाग जाते हैं। घर में बच्चों को कैसे कहें कि एक सेब रोज खाओ…।
यही नहीं, विभिन्न कंपनियों के दुग्ध उत्पाद विक्रय केंद्रों पर दूध की 250 मिलीलीटर की थैली मिलने लगी है। लेकिन सवाल है कि आखिर क्यों जरूरत पड़ी 250 एमएल की थैली की? क्योंकि बहुत से लोग ऐसे हैं जो रोज एक लीटर दूध भी वहन नहीं कर पा रहे। वो एक लीटर से ढाई सौ मिलीलीटर की थैली पर आ गए। दूसरा, मंडी में टमाटर की कीमतों में भले कुछ हल्का फुल्का सुधार हुआ हो लेकिन अभी भी बड़ी संख्या में लोग टमाटर नहीं खरीद पा रहे हैं।
बात टमाटर की ही करें... तो याद करिए, नोएडा में रईसों का एक इलाका। करोड़ों के घर। यहां के लोग महंगी गाड़ियों में निकलते हैं, शापिंग माल में ब्रांडेड चीजों का ही रुख करते हैं। इनके सोशल मीडिया खाते में विदेशों में छुट्टियां बिताने की तस्वीरें हैं। पिछले दिनों इसी इलाके की एक तस्वीर इंटरनेट पर तैरने लगी। अमीरों की बस्ती के ‘कुछ लोग’ एक वाहन के आगे खड़े हैं। यह सरकारी वाहन सस्ते में टमाटर देने के लिए खड़ा है। अमीर बस्ती के ‘कुछ लोग’ कतार में इसलिए खड़े हैं कि उन्हें टमाटर बाजार दर से 50 रुपए किलो कम के दाम से मिल जाए। ये वैसे लोग हैं जो सरकार अपनी पसंद की बनाते हैं लेकिन हर ‘सरकारी’ चीज से नाक-भौं सिकोड़ते हैं। सरकारी स्कूल, सरकारी अस्पताल की इनकी जिंदगी में कोई जगह नहीं है।
एक राज्य में भारी बारिश से फसल खराब हुई तो दूसरे राज्य की फसल को अन्य राज्यों में पहुंचाने के लिए आपने क्या कदम उठाए? आपको कोई कदम उठाना ही नहीं है क्योंकि उसके लिए बुनियादी संरचनाओं पर काम करना होगा। जनसत्ता में महंगाई के विस्तृत विश्लेषण में वरिष्ठ पत्रकार मुकेश भारद्वाज कहते हैं कि टमाटर पहले भी महंगे होते थे, लेकिन कुछ दिनों बाद कीमत स्थिर हो जाती थी। इस बार महंगे रहने का लंबा अंतराल दिखा रहा है कि आम जनता ने मान लिया है कि उसे इसी दाम पर थोड़ा कम-ज्यादा कर टमाटर मिलेंगे। अब टमाटर का हल्ला है, लेकिन अदरक से लेकर तोरी तक, जीरा सौंफ आदि मसालों से लेकर चीनी और अनाज व दालों तक, हर चीज की कीमत आसमां पर है।
सब्जी बाजार में 'किलो' शब्द का नाम बदलकर कर दिया एक 'पाव'
महंगाई के मुद्दे पर देश के माहौल को इतना बदल दिया गया है कि अब महंगाई से सरकार नहीं बदलती है, बल्कि ‘मीम’ बनते हैं। एक किलो तोरई खरीदने वाला जो व्यक्ति अब 'पाव' भर तोरई खरीदता है वह भी टमाटर के चुटकुलों पर हंस रहा है। सब्जी बाजार में किलो शब्द का नाम बदल कर एक पाव कर दिया गया है। भारद्वाज के अनुसार, दुकानों पर दूध और दही की छोटी थैलियों की खरीददारी देख कर आम लोगों के शरीर में प्रोटीन और कैल्शियम की कमी का अंदाजा लगाया जा सकता है। एक सेब रोज खाइए, डाक्टर को दूर भगाइए कहने वाली कौम सेब की रेहड़ी देख कर दूर भाग जा रही है। आम आदमी की गुजारिश है कि दाल-दूध के पैकेटों पर चेतावनी लिखी जाए कि महंगाई स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। लेकिन, यह गुजारिश सत्ता समर्थकों के उस शोर में दब जा रही जिसमें महंगाई गर्व का कारण है, महंगाई विकास का पैमाना है, अमेरिका और यूरोप की बराबरी है।
सरकार के समर्थक किसी भी चीज की तुलना के लिए पिज्जा, मोबाइल और सिनेमा हाल की दुकानों के बाहर की भीड़ से किया करते थे। सिनेमा हाल की भीड़ में लग सकते हो तो नोटबंदी से लेकर फलां, फलां, फलां की लाइन में क्यों नहीं लग सकते? क्या महंगाई के समर्थक आज भी सिनेमा हाल की कतार का उदाहरण दे सकते हैं? सिनेमा देखना पारिवारिक मनोरंजन का एक साधन हुआ करता था। सिनेमा घर की बिक्री शुक्रवार से ज्यादा महीने की पहली तारीख पर निर्भर करती थी। तनख्वाह मिलने के बाद लोग परिवार के साथ फिल्म देखने जाते थे, बाहर खाना खा कर खुशी-खुशी लौटते थे। सिनेमा घर के बाहर की वो लंबी कतार हमारी खुशियों का सूचकांक थी। आमदनी रुपया और खर्चा अठन्नी यानी मध्य-वर्ग की बचत का एलान था।
आज एक मध्य-वर्गीय परिवार का अगुआ यही दुआ करता है कि सिनेमा घर में कोई अच्छी फिल्म नहीं लगे ताकि बच्चों के साथ वहां जाना नहीं पड़े, वरना महीने का पूरा बजट ही बिगड़ जाएगा। विद्वान लोग चाहे बालीवुड की हालत पर रोएं कि देखने लायक फिल्म नहीं बन रही, मध्य-वर्ग की मन्नत होती है कि न बने अच्छी फिल्म। और, अब फिल्म के टिकट के लिए कतार में लगने की मजबूरी भी नहीं है। ऑनलाइन टिकट लीजिए और जाइए। लेकिन सिनेमा-घर खाली हैं तो सिर्फ इसलिए नहीं कि फिल्में अच्छी नहीं बन रहीं। वे खाली हैं इसलिए कि इतना महंगा सिनेमा देखना लोग वहन नहीं कर सकते।
देश का दुर्भाग्य है कि अब जनसंचार माध्यमों से लेकर देश की संसद तक वैसे लोगों का वर्चस्व है जिन्होंने ‘सस्ता’ को गरीबी व पिछड़ेपन से जोड़ दिया है। किसी वस्तु का खर्च आपकी कमाई के अनुपात में वहन करने योग्य हो, इसकी मांग सुनते ही लगता है आपने कोई देशद्रोह जैसा काम कर दिया है। दुनिया भर के उदाहरण दे दिए जाते हैं कि वहां कितनी महंगाई है। ये उदाहरण डालर, यूरो वाले देशों के दिए जाते हैं। देश के आम लोगों के बच्चे भी अब विदेशों में पढ़ने जा रहे हैं। उन्हें भी इस बात का अंदाजा हो चुका है कि रुपए वालों की महंगाई मतलब डालर वालों की कमाई। हमारा रुपया डालर के मुकाबले जितना नीचे गिरेगा, डालर वालों की अर्थव्यवस्था उतनी ऊपर उठेगी।
पिज्जा खाना सेहत के लिए नुकसानदेह है, यह कहकर मध्यम-वर्ग अपने बच्चों को बहला देता है, लेकिन वह जानता है कि उसके बच्चों की सेहत के लिए सबसे नुकसानदेह महंगाई है। बच्चे तो पिज्जा कभी-कभी खाते हैं, लेकिन दूध रोज पीते हैं, फल रोज खाते हैं। ‘लार्ज फैमिली साइज’ पिज्जा का विज्ञापन तो हमारे आस-पास ऐसे रहता है जैसे वो हमारी बुनियादी जरूरत हो, लेकिन क्या महंगाई के समर्थकों को पता है कि विभिन्न कंपनियों के दुग्ध विक्रय केंद्र पर दूध की ढाई सौ मिलीलीटर की थैली मिलने लगी है।
लोग दूध भी एक किलो लेने की जगह 250 मिली लीटर ले रहे हैं
बड़ा सवाल, आखिर क्यों जरूरत पड़ी ढाई सौ मिलीलीटर की थैली बनाने की? क्योंकि बहुत से लोग ऐसे हैं जो रोज एक लीटर दूध भी वहन नहीं कर पा रहे। वो महीने भर के लिए एक लीटर से ढाई सौ ग्राम की मिलीलीटर की थैली पर आ गए, आपको यह नहीं दिखता है, लेकिन महीने में एक बार बच्चों को खुश करने के लिए ‘लार्ज फैमिली साइज पिज्जा’ मंगवाते हैं तो उनकी कतार आपको दिख जाती है।
दरअसल महंगाई वस्तुनिष्ठ है। सरकार और उसके समर्थक इसे आंकड़ों में उलझा कर रख देते हैं। चार साल तक किसी वस्तु को महंगा रखा जाएगा और चुनाव के वक्त उसे थोड़ा सस्ता कर दिया जाएगा। लेकिन जो सस्ता होगा वह चौगुने महंगे के संदर्भ में होगा। एक बार सरकार का आंकड़ा आता है कि खुदरा महंगाई रिकार्ड स्तर पर बढ़ गई और कुछ समय बाद आंकड़ा आता है कि थोक महंगाई रिकार्ड स्तर पर गिरी। स्कूल के बच्चे भी पूछेंगे कि क्या थोक और खुदरे का कोई संबंध नहीं है? थोक सस्ता होगा तो खुदरा महंगा कैसे?
वरिष्ठ पत्रकार मुकेश भारद्वाज के अनुसार, महंगाई का सीधा ताल्लुक पेट्रोलियम ईंधन से जुड़ा हुआ है। दूध की थैली से लेकर रसोई गैस सिलेंडर और माचिस की तीली तक पर हम उसके परिवहन का कर चुकाते हैं। सवाल यह है कि मालवाहन के लिए आपने सस्ता परिवहन का कोई नया रास्ता निकाला है? एक देश, एक विधान, एक कर के दायरे से पेट्रोल बाहर ही है। पेट्रोल की कीमत तो वोट जुटाने का मानक है। साढ़े चार साल पेट्रोल के दाम बढ़ाते रहिए और चुनाव के छह महीने पहले साढ़े चार साल तक के बढ़े दाम पर कुछ कम कर दीजिए, जिसका नाम होगा-जनता को बड़ी राहत।
कॉलेजों की फीस कमर तोड़ रही तो हॉस्टल के कमरों पर अलग से GST
स्कूल और अन्य शिक्षण संस्थानों की फीस तो कमरतोड़ बढ़ ही चुकी है, हॉस्टल के कमरों पर अलग से जीएसटी है। अब कोई यह कहता है कि मेरा बच्चा पढ़ने के लिए विदेश जा रहा तो लोग चौंक कर खुश नहीं होते। देश के शिक्षण संस्थानों की फीस इतनी बढ़ चुकी है कि कुछ दिनों बाद विदेश जाने वाले बच्चे ही हीन भावना का शिकार हो जाएंगे। यूक्रेन से लौटे मेडिकल विद्यार्थियों का अनुभव हम उतनी जल्दी ही भूल गए जितनी जल्दी पाव भर तोरई कड़ाही में गल जाती है। चिंता होती है कि इतनी सब्जी में पांच लोग कैसे खाएंगे। तभी टीवी से आवाज आती है कि चुनावों में महंगाई कोई मुद्दा नहीं है…ये देखिए लोग हजार रुपए लीटर पेट्रोल भी खरीदने को तैयार हैं।
महंगाई पर ऐसा प्रहसन इसलिए चल रहा है क्योंकि सरकार इस मुद्दे पर जरा भी गंभीर नहीं है। लोगों ने महंगाई को स्थायी सच के रूप में स्वीकार कर लिया है। यहां हम देश की अदालतों से दरख्वास्त करेंगे कि आप ‘सेवा कर’ के मुद्दों पर सिर्फ सलाह न दें, कोई कार्रवाई करें। इस देश में सलाह की वैसे ही कोई इज्जत नहीं है, जैसे किसी रेस्त्रां में सेवा-कर घटा कर बिल मांगने वाले उपभोक्ता की। ऐसा करने के बाद उसका बिल इतनी देर से आएगा कि उसे दुबारा भूख लग जाएगी और कुछ खाना मंगवाना पड़ेगा।
महंगाई के मुद्दे पर जनता किलोग्राम से 'पाव' भर पर आ गई है तो सरकार और उसके समर्थकों को इस पर उदार हो जाना चाहिए। हवाई जुमलों और हवाई बातों से आगे बढ़िए। हवाई चप्पल वाला हवाई जहाज तो छोड़िए बैटरी रिक्शा पर भी चलने में सोचता है। सस्ता को खलनायक बनाना बंद कीजिए। जब देश में महंगाई गर्व का विषय बन जाए तो राजनीति को थोड़ी शर्म आनी चाहिए।
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बात टमाटर की ही करें... तो याद करिए, नोएडा में रईसों का एक इलाका। करोड़ों के घर। यहां के लोग महंगी गाड़ियों में निकलते हैं, शापिंग माल में ब्रांडेड चीजों का ही रुख करते हैं। इनके सोशल मीडिया खाते में विदेशों में छुट्टियां बिताने की तस्वीरें हैं। पिछले दिनों इसी इलाके की एक तस्वीर इंटरनेट पर तैरने लगी। अमीरों की बस्ती के ‘कुछ लोग’ एक वाहन के आगे खड़े हैं। यह सरकारी वाहन सस्ते में टमाटर देने के लिए खड़ा है। अमीर बस्ती के ‘कुछ लोग’ कतार में इसलिए खड़े हैं कि उन्हें टमाटर बाजार दर से 50 रुपए किलो कम के दाम से मिल जाए। ये वैसे लोग हैं जो सरकार अपनी पसंद की बनाते हैं लेकिन हर ‘सरकारी’ चीज से नाक-भौं सिकोड़ते हैं। सरकारी स्कूल, सरकारी अस्पताल की इनकी जिंदगी में कोई जगह नहीं है।
एक राज्य में भारी बारिश से फसल खराब हुई तो दूसरे राज्य की फसल को अन्य राज्यों में पहुंचाने के लिए आपने क्या कदम उठाए? आपको कोई कदम उठाना ही नहीं है क्योंकि उसके लिए बुनियादी संरचनाओं पर काम करना होगा। जनसत्ता में महंगाई के विस्तृत विश्लेषण में वरिष्ठ पत्रकार मुकेश भारद्वाज कहते हैं कि टमाटर पहले भी महंगे होते थे, लेकिन कुछ दिनों बाद कीमत स्थिर हो जाती थी। इस बार महंगे रहने का लंबा अंतराल दिखा रहा है कि आम जनता ने मान लिया है कि उसे इसी दाम पर थोड़ा कम-ज्यादा कर टमाटर मिलेंगे। अब टमाटर का हल्ला है, लेकिन अदरक से लेकर तोरी तक, जीरा सौंफ आदि मसालों से लेकर चीनी और अनाज व दालों तक, हर चीज की कीमत आसमां पर है।
सब्जी बाजार में 'किलो' शब्द का नाम बदलकर कर दिया एक 'पाव'
महंगाई के मुद्दे पर देश के माहौल को इतना बदल दिया गया है कि अब महंगाई से सरकार नहीं बदलती है, बल्कि ‘मीम’ बनते हैं। एक किलो तोरई खरीदने वाला जो व्यक्ति अब 'पाव' भर तोरई खरीदता है वह भी टमाटर के चुटकुलों पर हंस रहा है। सब्जी बाजार में किलो शब्द का नाम बदल कर एक पाव कर दिया गया है। भारद्वाज के अनुसार, दुकानों पर दूध और दही की छोटी थैलियों की खरीददारी देख कर आम लोगों के शरीर में प्रोटीन और कैल्शियम की कमी का अंदाजा लगाया जा सकता है। एक सेब रोज खाइए, डाक्टर को दूर भगाइए कहने वाली कौम सेब की रेहड़ी देख कर दूर भाग जा रही है। आम आदमी की गुजारिश है कि दाल-दूध के पैकेटों पर चेतावनी लिखी जाए कि महंगाई स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। लेकिन, यह गुजारिश सत्ता समर्थकों के उस शोर में दब जा रही जिसमें महंगाई गर्व का कारण है, महंगाई विकास का पैमाना है, अमेरिका और यूरोप की बराबरी है।
सरकार के समर्थक किसी भी चीज की तुलना के लिए पिज्जा, मोबाइल और सिनेमा हाल की दुकानों के बाहर की भीड़ से किया करते थे। सिनेमा हाल की भीड़ में लग सकते हो तो नोटबंदी से लेकर फलां, फलां, फलां की लाइन में क्यों नहीं लग सकते? क्या महंगाई के समर्थक आज भी सिनेमा हाल की कतार का उदाहरण दे सकते हैं? सिनेमा देखना पारिवारिक मनोरंजन का एक साधन हुआ करता था। सिनेमा घर की बिक्री शुक्रवार से ज्यादा महीने की पहली तारीख पर निर्भर करती थी। तनख्वाह मिलने के बाद लोग परिवार के साथ फिल्म देखने जाते थे, बाहर खाना खा कर खुशी-खुशी लौटते थे। सिनेमा घर के बाहर की वो लंबी कतार हमारी खुशियों का सूचकांक थी। आमदनी रुपया और खर्चा अठन्नी यानी मध्य-वर्ग की बचत का एलान था।
आज एक मध्य-वर्गीय परिवार का अगुआ यही दुआ करता है कि सिनेमा घर में कोई अच्छी फिल्म नहीं लगे ताकि बच्चों के साथ वहां जाना नहीं पड़े, वरना महीने का पूरा बजट ही बिगड़ जाएगा। विद्वान लोग चाहे बालीवुड की हालत पर रोएं कि देखने लायक फिल्म नहीं बन रही, मध्य-वर्ग की मन्नत होती है कि न बने अच्छी फिल्म। और, अब फिल्म के टिकट के लिए कतार में लगने की मजबूरी भी नहीं है। ऑनलाइन टिकट लीजिए और जाइए। लेकिन सिनेमा-घर खाली हैं तो सिर्फ इसलिए नहीं कि फिल्में अच्छी नहीं बन रहीं। वे खाली हैं इसलिए कि इतना महंगा सिनेमा देखना लोग वहन नहीं कर सकते।
देश का दुर्भाग्य है कि अब जनसंचार माध्यमों से लेकर देश की संसद तक वैसे लोगों का वर्चस्व है जिन्होंने ‘सस्ता’ को गरीबी व पिछड़ेपन से जोड़ दिया है। किसी वस्तु का खर्च आपकी कमाई के अनुपात में वहन करने योग्य हो, इसकी मांग सुनते ही लगता है आपने कोई देशद्रोह जैसा काम कर दिया है। दुनिया भर के उदाहरण दे दिए जाते हैं कि वहां कितनी महंगाई है। ये उदाहरण डालर, यूरो वाले देशों के दिए जाते हैं। देश के आम लोगों के बच्चे भी अब विदेशों में पढ़ने जा रहे हैं। उन्हें भी इस बात का अंदाजा हो चुका है कि रुपए वालों की महंगाई मतलब डालर वालों की कमाई। हमारा रुपया डालर के मुकाबले जितना नीचे गिरेगा, डालर वालों की अर्थव्यवस्था उतनी ऊपर उठेगी।
पिज्जा खाना सेहत के लिए नुकसानदेह है, यह कहकर मध्यम-वर्ग अपने बच्चों को बहला देता है, लेकिन वह जानता है कि उसके बच्चों की सेहत के लिए सबसे नुकसानदेह महंगाई है। बच्चे तो पिज्जा कभी-कभी खाते हैं, लेकिन दूध रोज पीते हैं, फल रोज खाते हैं। ‘लार्ज फैमिली साइज’ पिज्जा का विज्ञापन तो हमारे आस-पास ऐसे रहता है जैसे वो हमारी बुनियादी जरूरत हो, लेकिन क्या महंगाई के समर्थकों को पता है कि विभिन्न कंपनियों के दुग्ध विक्रय केंद्र पर दूध की ढाई सौ मिलीलीटर की थैली मिलने लगी है।
लोग दूध भी एक किलो लेने की जगह 250 मिली लीटर ले रहे हैं
बड़ा सवाल, आखिर क्यों जरूरत पड़ी ढाई सौ मिलीलीटर की थैली बनाने की? क्योंकि बहुत से लोग ऐसे हैं जो रोज एक लीटर दूध भी वहन नहीं कर पा रहे। वो महीने भर के लिए एक लीटर से ढाई सौ ग्राम की मिलीलीटर की थैली पर आ गए, आपको यह नहीं दिखता है, लेकिन महीने में एक बार बच्चों को खुश करने के लिए ‘लार्ज फैमिली साइज पिज्जा’ मंगवाते हैं तो उनकी कतार आपको दिख जाती है।
दरअसल महंगाई वस्तुनिष्ठ है। सरकार और उसके समर्थक इसे आंकड़ों में उलझा कर रख देते हैं। चार साल तक किसी वस्तु को महंगा रखा जाएगा और चुनाव के वक्त उसे थोड़ा सस्ता कर दिया जाएगा। लेकिन जो सस्ता होगा वह चौगुने महंगे के संदर्भ में होगा। एक बार सरकार का आंकड़ा आता है कि खुदरा महंगाई रिकार्ड स्तर पर बढ़ गई और कुछ समय बाद आंकड़ा आता है कि थोक महंगाई रिकार्ड स्तर पर गिरी। स्कूल के बच्चे भी पूछेंगे कि क्या थोक और खुदरे का कोई संबंध नहीं है? थोक सस्ता होगा तो खुदरा महंगा कैसे?
वरिष्ठ पत्रकार मुकेश भारद्वाज के अनुसार, महंगाई का सीधा ताल्लुक पेट्रोलियम ईंधन से जुड़ा हुआ है। दूध की थैली से लेकर रसोई गैस सिलेंडर और माचिस की तीली तक पर हम उसके परिवहन का कर चुकाते हैं। सवाल यह है कि मालवाहन के लिए आपने सस्ता परिवहन का कोई नया रास्ता निकाला है? एक देश, एक विधान, एक कर के दायरे से पेट्रोल बाहर ही है। पेट्रोल की कीमत तो वोट जुटाने का मानक है। साढ़े चार साल पेट्रोल के दाम बढ़ाते रहिए और चुनाव के छह महीने पहले साढ़े चार साल तक के बढ़े दाम पर कुछ कम कर दीजिए, जिसका नाम होगा-जनता को बड़ी राहत।
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स्कूल और अन्य शिक्षण संस्थानों की फीस तो कमरतोड़ बढ़ ही चुकी है, हॉस्टल के कमरों पर अलग से जीएसटी है। अब कोई यह कहता है कि मेरा बच्चा पढ़ने के लिए विदेश जा रहा तो लोग चौंक कर खुश नहीं होते। देश के शिक्षण संस्थानों की फीस इतनी बढ़ चुकी है कि कुछ दिनों बाद विदेश जाने वाले बच्चे ही हीन भावना का शिकार हो जाएंगे। यूक्रेन से लौटे मेडिकल विद्यार्थियों का अनुभव हम उतनी जल्दी ही भूल गए जितनी जल्दी पाव भर तोरई कड़ाही में गल जाती है। चिंता होती है कि इतनी सब्जी में पांच लोग कैसे खाएंगे। तभी टीवी से आवाज आती है कि चुनावों में महंगाई कोई मुद्दा नहीं है…ये देखिए लोग हजार रुपए लीटर पेट्रोल भी खरीदने को तैयार हैं।
महंगाई पर ऐसा प्रहसन इसलिए चल रहा है क्योंकि सरकार इस मुद्दे पर जरा भी गंभीर नहीं है। लोगों ने महंगाई को स्थायी सच के रूप में स्वीकार कर लिया है। यहां हम देश की अदालतों से दरख्वास्त करेंगे कि आप ‘सेवा कर’ के मुद्दों पर सिर्फ सलाह न दें, कोई कार्रवाई करें। इस देश में सलाह की वैसे ही कोई इज्जत नहीं है, जैसे किसी रेस्त्रां में सेवा-कर घटा कर बिल मांगने वाले उपभोक्ता की। ऐसा करने के बाद उसका बिल इतनी देर से आएगा कि उसे दुबारा भूख लग जाएगी और कुछ खाना मंगवाना पड़ेगा।
महंगाई के मुद्दे पर जनता किलोग्राम से 'पाव' भर पर आ गई है तो सरकार और उसके समर्थकों को इस पर उदार हो जाना चाहिए। हवाई जुमलों और हवाई बातों से आगे बढ़िए। हवाई चप्पल वाला हवाई जहाज तो छोड़िए बैटरी रिक्शा पर भी चलने में सोचता है। सस्ता को खलनायक बनाना बंद कीजिए। जब देश में महंगाई गर्व का विषय बन जाए तो राजनीति को थोड़ी शर्म आनी चाहिए।
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