"सखी सईंया तो खूब ही कमात है,
महंगाई डायन खाये जात है।"
फिल्म ‘पीपली लाइव’ का यह गीत काफी लोकप्रिय हुआ था। इस गीत के माध्यम से प्रमुख सामाजिक आर्थिक समस्या 'महंगाई' पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया था।
आज एक बार फिर महंगाई आम आदमी को रुला रही है। सब्जी हो या फल या फिर अनाज, दालें और मसालें, हर चीज महंगी होती चली जा रही है। रेट बढ़ जा रहे हैं या फिर पैकेट छोटे हो जा रहे हैं। टमाटर की महंगाई से आम जनता पहले ही परेशान थी। अब तेल, गैस व मसालों से लेकर मिर्च, जीरा-प्याज, लहसुन तक के दाम आसमां की ओर हैं। ऐसे में लोग सब्जी और रेसिपी में टमाटर व जीरे आदि में कटौती करने को मजबूर हैं। लेकिन इतने पर भी महंगाई को लेकर सरकार एक-दूसरे को कोसने के अलावा कुछ नहीं कर रही है। कोई कहता है पुराने दिन भले थे, कोई अच्छे दिन की ढांढस बंधाता रह जाता है। लेकिन समस्या जस की तस मुंह बाय़े खड़ी है और आम आदमी पिस रहा है। हालात ये हो गए हैं कि जेब ढीली करने के साथ महंगाई, अब आम आदमी की जमा पूंजी यानी बैंक आदि की बचत और इंवेस्टमेंट को भी निगलने में लगी है।
बढ़ती महंगाई में ग्लोबल एनालिटिक्स कंपनी CRISIL ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसके अनुसार भारतीय रसोई में वेजिटेरियन और नॉन वेज दोनों थालियों के दाम कई गुणा बढ़ चुके हैं। बढ़ते टमाटर अदरक मसालों जैसी जरूरी चीजों के दाम एक आम आदमी की जेब पर कैसे और कितने भारी पड़ रहे हैं, इस रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है। CRISIL की रिपोर्ट के मुताबिक, वेज थाली जहां 34 फीसदी महंगी हुई है। वहीं, नॉन वेज थाली 13 फीसदी तक महंगी हुई है।
तीन बार महंगी हुई थाली
CRISIL की रिपोर्ट के मुताबिक बढ़ते टमाटर के दाम महंगी हुई थाली के पीछे की मुख्य वजह है। जुलाई में टमाटरों के बढ़ते दामों की वजह से थाली तीन बार महंगी हुई है। 34 फीसदी महंगी हुई वेज थाली में 25 फीसदी दाम बढ़ने की वजह टमाटर है। टामटर के दाम जुलाई में 233 फीसदी तक बढ़े हैं। टमाटरों का दाम जुलाई में 33 रूपये किलो से 210 रूपये किलो हो गया है। इसके अलावा प्याज और आलू के दामों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। प्याज 16 फीसदी और आलू 9 फीसदी महंगे हुए हैं।
मसालों में मिर्च और जीरे के दाम आसमान छू रहे है। मिर्च 69% और जीरा 160% महंगा हुआ है। क्योंकि नॉन वेज थाली मे ब्रॉयलर 50 फीसदी से ज्यादा थाली का हिस्सा है। इसी वजह से नॉन वेज थाली पर जुलाई के महीने में महंगाई का असर 13% पड़ा है। यही नहीं, टमाटर की कीमतों में महीने भर से जारी तेजी के बीच थोक व्यापारियों ने आने वाले दिनों में इस सब्जी के भाव 300 रुपये प्रति किलो तक पहुंच जाने की आशंका जताई है। दूसरी ओर दुकानदार और रेहड़ी पटरी वाले परेशान हैं। आजादपुर कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) के सदस्य अनिल मल्होत्रा ने कहा कि बाजार में टमाटर की आपूर्ति और मांग दोनों कम है जिससे विक्रेताओं को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। दूसरा, मंडी से महंगी सब्जी न खरीद पाने की बेबसी को लेकर एक फेरीवाले का वीडियो पिछले दिनों खासा वायरल हुआ था।
कैसे तय होती है थाली की कीमत?
CRISIL थाली की कीमत का आंकलन पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण, की कीमतों के आधार पर करता है। दामों में महीने के दौरान आने वाला बदलाव आम आदमी के खर्च पर निर्भर करता है। सिर्फ यही नहीं थाली कीमत दालों, अनाज, सब्जी, मसाले, तेल, और एडिबल ऑयल और कुकिंग गैस के दामों पर भी निर्भर करता है। वेज थाली में आलू, प्याज, टमाटर, दाल, दही और सलाद जैसी चीजों को काउंट किया गया है। वहीं नॉन वेज थाली में दालों की जगह चिकन को काउंट किया जाता है। वहीं मिर्च के दामों में 69 प्रतिशत और जीरे के दामों में 160 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। हालांकि इनका थाली में योगदान कम होता है, इसलिए इनकी कीमत को भी कम स्तर पर आंका जाता है।
रसोई (थाली) महंगी होने से आम आदमी की जेब ढीली हो ही रही थी लेकिन अब महंगाई आपकी बचत और आपके इंवेस्टमेंट को भी निगलने लगी है। जी हां, महंगाई जहां महीने का बजट बिगाड़ देती है, वहीं लंबी अवधि के निवेश में आपके पैसे की वैल्यू कम कर देती है। महंगाई दर जितनी ज्यादा रहेगी, आपके निवेश की वैल्यू उतनी ही तेजी से घटेगी। जीबिज के अनुसार, एक बेहद ही आसान फॉर्मूला (रूल ऑफ 70) के जरिए आप इसका अंदाजा लगा सकते हैं।
Rule of 70 का कैलकुलेशन समझें
आपके निवेश की वैल्यू कितने समय में घटकर आधी रह जाएगी, यह जानने का आसान तरीका यह है कि 70 में मौजूदा महंगाई दर का भाग दीजिए, जो रिजल्ट आता है, वही वह साल होगा जिसमें आपके निवेश की वैल्यू घटकर आधी जाएगी। इसे उदाहरण से समझते हैं- मान लीजिए अभी महंगाई दर 6 फीसदी चल रही है। अब रूल ऑफ 70 के मुताबिक हम 70 में 6 का भाग देते हैं। रिजल्ट 11.6 साल आता है। यानी, अगर आपने 10 लाख रुपये का निवेश किया है तो उसकी वैल्यू अगले 11 साल 6 महीने में घटकर 5 लाख यानि आधी रह जाएगी।
महंगाई से परेशान लोग अब ग़ैर- ज़रूरी खर्च कम करने पर विवश
भले महंगाई को लेकर लोग सड़कों पर ना हों लेकिन देश के मध्यम और निम्न मध्यम श्रेणी के लोग यानी आम आदमी महंगाई से परेशान हैं। इसी साल अप्रैल में, पीडब्ल्यूसी ग्लोबल कंज्युमर इनसाइट्स पल्स का एक सर्वे आया था। इसके मुताबिक़ छोटे ही नहीं, बड़े शहरों के लोग भी अगले छह महीने तक खर्च को लेकर चिंतित रहेंगे। इसके अनुसार 74 प्रतिशत भारतीय निजी खर्च कम करने और बचत को बढ़ाने के लिए लालायित हैं। दरअसल कोरोना में इसी बचत ने लोगों को बचाया था आगे भी यही बचत बचाएगी।
दैनिक भास्कर की मधुरेंद्र सिन्हा की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत और चीन दुनिया में दो ऐसे देश हैं जिसके लोग हजारों वर्षों से बचत करते रहे हैं। अपनी मेहनत की कमाई में से एक हिस्सा वे बचाकर रखते थे जो उनके बुरे वक्त या फिर सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वाह में काम आता था। यही नहीं, आपने मिट्टी के हांडियों में सोने के सिक्के पाये जाने की कई खबरें सुनी होंगी या फिर ज़मीन में गड़े धन के बारे में जरूर पढ़ा होगा। लेकिन मध्य काल के बाद जब अंग्रेज आये और उन्होंने अपने डेढ़ सौ साल के शासन में भारतीय अर्थव्यवस्था को लूटकर बर्बाद कर दिया जिससे भारतीयों की परचेजिंग पॉवर और इनकम दोनों ही निम्नतम स्तर पर जा पहुंची। लेकिन आज़ादी के बाद जब नई बैंकिंग व्यवस्था आई तब भारतीय बचत खाता के माध्यम से पैसे बचाने लगे। करोड़ों लोग बुढ़ापे के लिए तो काफी बड़ी तादाद में अपने घर की जिम्मेदारियों के लिए बचाने लगे। बेटे-बेटी की शादी के लिए बचत करना तो आदत का हिस्सा बना रहा है। लेकिन संभावित विपदा के लिए बचत करना उनकी आदत का हिस्सा रहा है और इसलिए सोना खरीदने की परंपरा यहां सदियों से रही है।
कोरोना काल में काम आई थी यही बचत
इस तरह की बचत उनके कठिन वक्त में बहुत काम आई है। 2020 में जब कोरोना संकट ने करोड़ों लोगों को बेरोजगार कर दिया और करोड़ों की आय में कमी कर दी। ऐसे बुरे समय में यही बचत का पैसा काम आया। उस पैसे की बदौलत लोगों ने अपने घर चलाये और रोटी का जुगाड़ भी किया। बचत का पैसा उनके लिए ऑक्सीजन बना। कोरोना काल खत्म हो गया फिर भी देश में बचत का वह स्तर नहीं रहा और लोगों की बचत की आदत कम होती चली गई। एक सर्वे के मुताबिक भारत में 50 फीसदी लोग शून्य से 20 फीसदी तक बचत कर रहे हैं और 20 फीसदी अपनी 20 से 30 फीसदी तक बचत कर लेते हैं।
सर्वे के मुताबिक कोरोना के बाद लोगों में संकट के प्रति चिंता हुई और सर्वे में भाग लेने वाले 54 फीसदी लोग आसन्न संकट के प्रति सावधान होकर वैसे समय के लिए बचत करने लगे हैं। लेकिन मिलेनियम यानी 35 साल से कम उम्र के लोग बचत के बारे में नहीं सोचते। हालांकि एक और रिपोर्ट के मुताबिक देंखे तो देश में बचत की स्थिति अभी नाजुक है और 31 मार्च 2022 तक के आंकड़ों के मुताबिक इस समय देश में बचत पांच वर्षों के न्यूनतम पर जा पहुंची है। हालांकि इसका कारण भी कोविड को ही बताया जा रहा है। साथ ही बढ़ती महंगाई ने भी भारतीयों की बचत की आदत को धक्का पहुंचाया है।
पर्चेजिंग पावर के साथ बचत भी घटी
देश में महंगाई की दर तकलीफदेह स्तर तक जा पहुंची है। हालांकि अभी इसमें थोड़ी राहत मिली है लेकिन इसने खर्च करने की शक्ति या यूं कहें कि परचेजिंग पॉवर में कटौती कर दी है। रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक 2022 में बचत घटकर भारत के जीडीपी का 10.02 फीसदी हो गया था जबकि 2021 में यह 15.9 फीसदी था। यह चिंता का विषय है। रिजर्व बैंक के अनुसार महंगाई और अंधाधुंध खरीदारी के कारण लोगों की बचत की आदत में अंकुश लग गया। इसके अलावा ब्याज दर घटने के कारण लोग बैंकों में पैसे रखने के प्रति उदासीन हो गये। उस समय बैंक सावधि जमा पर 5 फीसदी से कुछ ज्यादा ही ब्याज दे रहे थे जिससे जमाकर्ता हतोत्साहित हुए। आंकड़ों के मुताबिक 2022 की पहली तिमाही में बैंकों में डिपॉजिट 50 सालों के न्यूनतम पर जा पहुंचा। लोगों ने बैंकों की बजाय पैसा शेयर मार्केट में लगाया और जोखिम वाले निवेश पांच सालों के अधिकतम पर जा पहुंचे।
दूसरी ओर, आंकड़ों और रिपोर्ट के अनुसार लोगों में खर्च करने की आदत बढ़ी है। इसमें सबसे बड़ा खर्च टूरिज्म पर हो रहा है। भारतीय न केवल देश में बल्कि विदेशों में छुट्टियां मनाने जाने लगे हैं और इस पर खूब खर्च कर रहे हैं। खर्च करने में भारतीय किसी से कम नहीं हैं और हमारी अर्थव्यवस्था इसी से चलती है। इस तथ्य को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी बजट में स्वीकार किया। भारतीय अर्थव्यवस्था खपत आधारित है और इसके पहियों की गति उससे ही बढ़ती है। इसलिए सरकार भी चाहती है कि लोग खूब खर्च करें ताकि मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री को बढ़ावा मिले।
यह भी एक कारण है कि सरकार ने इस बार के बजट में नये टैक्स रिजीम को इस ढंग से पेश किया है कि लोगों को बचत करने की जरूरत ही न पड़े। अब जो करदाता नये टैक्स रिजीम को मानेगा, उसे बचत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। ऐसे करदाताओं को सात लाख रुपये तक की इनकम पर कोई टैक्स नहीं लगेगा। इसके लिए उन्हें पीपीएफ, एनएससी, साधारण बीमा तथा अन्य तरह की बचत योजनाओं में पैसे निवेश करने की जरूरत नहीं है। इसका मतलब हुआ कि उन्हें अब बचत करने की जरूरत नहीं है। उन्हें सीधे टैक्स में छूट मिलेगी या यूं कहें कि उन्हें सिर्फ रिटर्न फाइल करनी होगी।
यह स्थिति कोई खुशनुमा नहीं है। बचत और खासकर लघु बचत योजनाएं देश के लिए बेहद जरूरी हैं। इनके माध्यम से जनता भारी बचत कर लेती है जो उनके बुरे समय में काम आती हैं। यह रकम बहुत बड़ी होती है और 1917-18 में यह सात लाख करोड़ रुपये से ज्यादा थी। इससे सरकार को यह फायदा होता है कि यह रकम वह अपनी कई तरह की योजनाओं में भी इस्तेमाल करती है और उसके अपने वित्तीय घाटे को पूरा करने में भी यह पैसा काम आता है।
इसलिए सरकार के लिए भी इस पैसे का बड़ा महत्व है। वह भी चाहती है कि इसमें पैसे आते रहें। अब अगर लोगों में बचत करने की आदत कम हो जायेगी तो ज़ाहिर है कि सरकार पर भी दबाव पड़ेगा कि वह अन्य स्रोतों से पैसे जुटाये तो वह महंगा ही होगा। यह बात काफी महत्वपूर्ण है और इसलिए ताज्जुब है कि सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही है। पहले सरकार इसे प्रोत्साहित करती रही है लेकिन अब उसकी नीतियां बदल रही हैं।
अगर आपको 2008 की विश्वव्यापी मंदी याद हो तो यह भी याद होगा कि भारत और भारतीयों ने कैसे इस महामंदी का सामना किया। उस समय यह बचत आम आदमी के काम आयी क्योंकि कंपनियों ने बड़े पैमाने पर छंटनी की और लाखों बेरोजगार हो गये। ऐसे में अपने बचत के पैसे से उन्होंने बुरा वक्त काटा। आम आदमी ही नहीं कंपनी चलाने वालों ने भी इस तरह से बुरा वक्त गुजार दिया। लेकिन अभी जिस तरह से बचत की आदत को हतोत्साहित किया जा रहा है उसके बुरे परिणाम देखने में आ सकते हैं। सिर्फ खपत आधारित अर्थव्यवस्था बनाने से काम नहीं चलेगा, आर्थिक झटकों से बचने के लिए बचत की भी जरूरत है। क्योंकि आम चुनाव से पहले महंगाई की मार कम होने वाली नहीं दिखती है।
आम चुनाव से पहले कम नहीं होने वाली महंगाई
महंगाई की मार कम होने वाली नहीं है, टमाटर के अलावा दूसरे खाद्य पदार्थों की कीमतें भी सुरसा बनने की राह पर हैं। हालांकि सरकार ने भी अब मान लिया है कि देश में महंगाई है और टमाटर के दाम आसमान छू रहे हैं और उसके लिए उसने अपने छोटे पड़ोसी देश नेपाल का सहारा लेने का फैसला किया है। वित्तमंत्री निर्मला सीता रमण ने गुरुवार को लोकसभा में इसकी घोषणा करते हुए कहा कि शुक्रवार को उसकी पहली खेप यूपी के वाराणसी, लखनऊ और कानपुर जैसे शहरों तक पहुंच जायेगी। लेकिन जानकारों का मानना है कि इससे महंगाई पर काबू पाना मुश्किल है। और सरकार के इन उपायों से बहुत ज्यादा कुछ नहीं होने वाला है क्योंकि आने वाले दिनों में दूसरी चीजों की कीमतों में भी बड़े स्तर पर बढ़ोत्तरी देखने को मिल सकती है।
2023 के शुरुआती कुछ माह छोड़ दें तो पिछले वर्ष 2022 में महंगाई की मार से भारत ही नहीं पूरी दुनिया जूझ रही थी। यूरोप और अमेरिका सहित भारत में मुद्रास्फीति से निपटने के लिए दुनिया भर की सरकारों ने अपने केंद्रीय बैंकों के जरिये ब्याज दरों को लगातार बढ़ाकर मुद्रास्फीति से निपटने की कोशिशें कीं। लंबे प्रयास के बाद इसे एक हद तक रोकने में कामयाबी पाने में कामयाब हुई है, लेकिन भारत की तुलना में पश्चिम को एक और महंगाई की मार से दो-चार नहीं होना पड़ रहा है।
भारत में भी केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी कर इसे काबू में लाने का भरसक प्रयास किया है। लेकिन पिछले वर्ष की महंगाई पर यदि प्रभावी रूप से किसी चीज ने लगाम लगाई थी, तो वह उपभोक्ता वस्तुओं, विशेषकर सब्जी-फल एवं खाद्य तेल के दामों में आई कमी की वजह से हुई थी। लेकिन जून और जुलाई माह में अनपेक्षित मानसून की मार से कई क्षेत्रों में अचानक बाढ़ ने जहां टमाटर सहित कई सब्जियों की आवक और फसल को बर्बाद कर दिया, और अब गेहूं के बाद चावल के दामों में अचानक बढ़ोत्तरी ने मुद्रास्फीति में कमी के बजाय एक बार फिर से भारी महंगाई की दिशा में देश को झोंक दिया है। पिछले 2 माह से देश की बहुसंख्य आबादी ने टमाटर खाना लगभग छोड़ दिया है। देश में टमाटर की लूट के किस्से अब आम खबर का हिस्सा बन चुके हैं। टमाटर पर व्यंग्य और मीम बनाने का फैशन तक पुराना पड़ चुका है। केंद्र सरकार के उपभोक्ता मंत्रालय ने टमाटर के दामों पर तब कहा था कि अगले 10 दिनों में कीमतें सामान्य हो जाएंगी, सरकार सप्लाई चैन को इस बीच दुरुस्त कर देगी। यह मंत्रालय अब कहां है और इसके मंत्री किस दिशा में काम कर रहे हैं, यह पूछने की अब जरूरत भी नहीं बची है। यहां तक कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के “मैं तो प्याज नहीं खाती हूं” वाले जुमले को लोग टमाटर के लिए स्वीकार कर चुके हैं, और खुद से टमाटर खाना भूल चुके हैं।
वरिष्ठ पत्रकार रविंद्र पटवाल की जनचौक की एक रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार ने दिखावे के तौर पर फौरी राहत भी उन लोगों को दी है, जो मध्य, उच्च-मध्यम या केंद्रीय कर्मचारियों के परिवार हैं, जिन्हें 70 रुपये प्रति किलो के हिसाब से टमाटर खरीदने के लिए घंटों लाइन में टीवी न्यूज़ दिखाकर सवाल उठाने की कोशिश करते दिखते हैं कि क्या टमाटर खरीदने की लाइन में लगने पर उन्हें गुस्सा आता है या वे अब भी सरकार के प्रति कृतज्ञ भाव से देखते हैं? वैसे बाजार में टमाटर का भाव अब 200 रुपये प्रति किलो के पुराने भाव की तुलना में कम होने के बजाय 250-300 रुपये प्रति किलो पहुंच गया है। जाहिर है, 80% गरीब एवं वंचित भारत के साथ-साथ अब यह मध्य-उच्च मध्य वर्ग के तबके को भी प्रभावित करने लगा है। लेकिन एक टमाटर की महंगाई ही होती तो भी महंगाई इस कदर आम लोगों की जेब और दिल पर इतना भार नहीं डालती। आम लोगों की थाली में आज प्याज, आलू, लौकी, शिमला मिर्च, भिंडी, हरी सब्जियों, खाद्य तेल, जीरा, हल्दी, काली मिर्च, अरहर, उरद और मसूर सहित चीनी ने भी भारी चोट पहुंचाने का काम किया है।
सरकार को भी बखूबी इस बात का अहसास है और देश में 5 विधानसभा चुनावों के साथ-साथ 2024 के आम चुनावों में महंगाई का मुद्दा हावी रहा तो कैसे देश को विश्वगुरु बनाने के सारे दावे हवा हो सकते हैं, को लेकर सरकारी मशीनरी लगातार बेचैन है। इसी को ध्यान में रखते हुए चावल और गेहूं के निर्यात पर रोक लगाई गई है, जिस पर वैश्विक नेताओं की ओर से भारत पर दबाव और विरोध के स्वर उभर रहे हैं। दुनिया में चावल का सबसे बड़ा निर्यातक (करीब 40%) देश होने के नाते भारत से यदि निर्यात को प्रतिबंधित करने से चावल के दामों में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। वियतनाम सहित पूर्वी एशिया के देशों ने चावल के निर्यात पर कीमतों में करीब 25% का इजाफा कर दिया है। अब पिछले कुछ दिनों से भारत में जिस तेजी से गेहूं के दामों में वृद्धि देखने को मिल रही है, और थोक बाजार एवं आटा मिलों के पास गेहूं का स्टॉक चुक गया है, वह गेहूं के दामों को तेजी से नई ऊंचाई पर पहुंचा रहा है।
यदि यही हाल रहा तो गेहूं और चावल के दाम आसमान छू सकते हैं, और 80% आबादी जो आज टमाटर, दाल सहित विभिन्न खाद्य वस्तुओं से किनारा कर सिर्फ जीने के लिए गेहूं, चावल पर निर्भर है के सामने भुखमरी का संकट खड़ा हो सकता है। इसी को मद्देनजर रखते हुए केंद्र सरकार गेहूं के निर्यात के बजाय आयात के लिए कदम उठाने जा रही है। बुधवार को केंद्र ने अपने स्टॉक से 50 लाख टन गेहूं और 25 लाख टन चावल को ओपन मार्केट में उतारने का फैसला लिया है। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि जून माह में जब सरकार की ओर से यह प्रक्रिया शुरू की गई थी तो 15 लाख टन गेहूं को खुले बाजार में लाने के बावजूद खरीदारों की ओर से 8.2 लाख टन की ही खरीद की गई, जो कुल प्रस्तावित स्टॉक का 55% बैठता है। चावल की खरीद का आंकड़ा इससे भी बदतर रहा था, जिसमें 5 लाख टन चावल में सिर्फ 38% खरीद ही ओपन मार्केट में संभव हो सकी।
महंगाई को काबू में रखने के लिए सरकार ने चावल की रिजर्व प्राइस में बड़ी कटौती करते हुए 3100 रुपये प्रति क्विंटल को 200 रुपये घटाकर 2,900 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया है। इसके बाद अब उम्मीद की जा रही है कि व्यापारी चावल की खरीद में उत्साह दिखाएं। इसके साथ ही सरकार ने दावा किया है कि उसके स्टॉक में पीडीएस एवं अन्य कल्याणकारी योजनाओं के लिए पर्याप्त गेहूं चावल के भंडार के अलावा भी 2.87 करोड़ टन गेहूं और चावल का भंडार है, जिससे दामों में किसी भी प्रकार के भारी उछाल को रोकने में वह समर्थ है। भारतीय खाद्य निगम के प्रबंध निदेशक अशोक के मीणा के अनुसार, इस वर्ष 28 जून से ई-बोली के माध्यम से गेहूं और चावल की खुले बाजार में बिक्री शुरू की गई है। अभी तक 7 बार ई-बोलियों के माध्यम से कुल 8 लाख टन गेहूं की बिक्री की जा चुकी है। लेकिन यही काम जब राज्य सरकारों के द्वारा अपने प्रदेश की जनता के विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिए किये जाने के लिए कदम उठाया गया, तो केंद्र ने कर्नाटक को केंद्रीय पूल से चावल देने से मना कर दिया था। यानि खुले बाजार में व्यापारियों, बिचौलियों को तो मोदी सरकार गेहूं, चावल दे सकती है, लेकिन विपक्षी राज्यों की सरकारें केंद्र के 5 किलो अनाज के साथ अतिरिक्त 5 किलो अनाज देने का प्रयास करती है तो उसे ऐसा करने से रोका जायेगा।
मजे की बात यह है कि कर्नाटक ने इसके लिए 3,400 रुपये प्रति क्विंटल देने का प्रस्ताव किया था, जबकि खुले बाजार के लिए केंद्र ने 3,100 रुपये और अब उसे भी घटाकर 2,900 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया है। इससे क्या निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं? पहला तथ्य यह है कि अपेक्षा के विपरीत इस बार धान और गेहूं का उत्पादन कम हुआ है। दूसरा, इस कमी के चलते बाजार में लगातार दाम बढ़ रहे हैं। तीसरा, केंद्र के पास पीडीएस एवं अन्य योजनाओं के अलावा भी करोड़ों टन गेहूं और चावल का पर्याप्त भंडार मौजूद है, जिसे उसने खुले बाजार में महंगाई की सूरत में ई-बोलियों के माध्यम से बाहर निकालना शुरू कर दिया है, लेकिन बिचौलिए और व्यापारी कम दाम पर भी खरीद में आनाकानी कर रहे हैं।
इसका अर्थ यह है कि गेहूं और चावल की पैदावार की कमी का फायदा उठाते हुए बाजार भाव को ऊंचा बनाये रखने में स्टॉकिस्ट और बिचौलियों की कोशिश है, जिसे केंद्र सरकार समझती तो है, लेकिन आवश्यक कार्रवाई करने से बच रही है। चौथा, कर्नाटक जैसे विपक्षी राज्य यदि अपने राज्य के आम लोगों की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए देश में मौजूद विपुल भंडार में से व्यापारियों की तुलना में ऊंचे दाम पर भी अनाज की खरीद करना चाहें तो उनके लिए यह रास्ता बंद कर दिया गया है। यह इन राज्यों की जनता के लिए डबल इंजन सरकार का चयन न करने की सजा मानी जा सकती है।
बहरहाल, केंद्र सरकार के आंकड़ों पर विश्वास करें तो गेहूं और चावल का पर्याप्त भंडार होने के चलते इन दो वस्तुओं की कीमतों में असाधारण वृद्धि की संभावना नहीं है। लेकिन जिस प्रकार से गेहूं की बिकवाली के सीजन के दौरान ही दाम कम होने के बजाय बढ़ने लगे थे, वह साफ़ इशारा करता है कि मांग एवं आपूर्ति के इस गैप में बेहद छोटे से अंतर को भी देश का व्यापारी वर्ग अपने हित में भुनाने के लिए किस हद तक तत्पर है और वह इस कृत्रिम कमी का भरपूर दोहन करने से बाज नहीं आ रहा है। यह वही साहसिक उद्यमी समुदाय है, जिसकी प्रशंसा में एक बार प्रधानमंत्री ने खुलकर कसीदे पढ़े थे और उन्हें सबसे साहसी बताया था। अब जबकि महाराष्ट्र की मंडी में प्याज की कीमत करीब 1,300 प्रति क्विंटल से बढ़कर 1,700 रुपये हो चुकी है, दिल्ली के खुदरा बाजार में 25-30 रुपये प्रति किलो प्याज की कीमत बढ़कर 40 रुपये हो चुकी है। बताया जा रहा है कि महाराष्ट्र की मंडी में प्याज की आपूर्ति पहले की तुलना में बढ़ी है, इसके बावजूद प्याज की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं। यही हाल रहा तो टमाटर के बाद प्याज भी महंगाई के आंसू रुलायेगा। रूस-यूक्रेन युद्ध में एक बार फिर से नया गतिरोध का नतीजा सूरजमुखी तेल के आयात पर ब्रेक भारत में किचन के बजट को फिर से बिगाड़ने की दिशा में बढ़ चुका है।
पहली बार है कि चीनी और चावल की सीमा पार स्मगलिंग की खबर सुर्खियां बनी हैं। चीनी के मामले में भी महंगाई अपना असर दिखाने लगी है। मोदी सरकार ने हाल के वर्षों में चीनी से एथनॉल बनाने की जिस प्रकिया को अग्रगति दी थी, उसके चलते चीनी का मौजूदा उत्पादन पिछले वर्ष की तुलना में गिरा है, जो आम भारतीय के लिए जल्द ही एक नई मुसीबत बन सकता है। कुल मिलाकर देखें तो भारतीय रिजर्व बैंक जहां एक माह पहले महंगाई को काबू में कर लेने के दावे कर रही थी, और 4% होने के दावे के साथ कथित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल के एंकर देश की वर्तमान सरकार के सक्षम, सबल और कुशल नेतृत्व का गुणगान करते नहीं थक रहे थे, उनके सामने जुलाई माह में महंगाई के आंकड़े एक बड़ी चुनौती बनकर उभर सकते हैं। रायटर्स के मुताबिक आरबीआई ने मौजूदा तिमाही के लिए 5.2% मुद्रास्फीति का अनुमान लगाया था, वह गलत साबित हुआ है। रायटर्स के 3-8 अगस्त के बीच 53 अर्थशास्त्रियों के साथ किये गये सर्वेक्षण में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में औसतन 6.40% वृद्धि का अनुमान लगाया गया है। आरबीआई 2-6% के बीच की मुद्रास्फीति को नियंत्रित मानती आई है, जिसकी सीमा से बाहर जाने का अर्थ है आम लोगों का बजट बिगड़ रहा है। इन अर्थशास्त्रियों का आकलन ये भी बता रहा कि खाद्य वस्तुओं की महंगाई अभी कुछ महीने आगे भी बनी रहने वाली है। बेरोजगारी, महिला सुरक्षा-सम्मान, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता के हनन, केंद्र-राज्य संबंध, ईडी-सीबीआई, मणिपुर के साथ-साथ बढ़ती महंगाई की मार का मुद्दा जो शहरी निम्न एवं मध्यवर्गीय मतदाताओं को विशेष रूप से प्रभावित करता है, को लेकर केंद्र सरकार वास्तव में क्या कोई ठोस कदम उठाने जा रही है, देखना महत्वपूर्ण होगा।
महंगाई डायन खाये जात है।"
फिल्म ‘पीपली लाइव’ का यह गीत काफी लोकप्रिय हुआ था। इस गीत के माध्यम से प्रमुख सामाजिक आर्थिक समस्या 'महंगाई' पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया था।
आज एक बार फिर महंगाई आम आदमी को रुला रही है। सब्जी हो या फल या फिर अनाज, दालें और मसालें, हर चीज महंगी होती चली जा रही है। रेट बढ़ जा रहे हैं या फिर पैकेट छोटे हो जा रहे हैं। टमाटर की महंगाई से आम जनता पहले ही परेशान थी। अब तेल, गैस व मसालों से लेकर मिर्च, जीरा-प्याज, लहसुन तक के दाम आसमां की ओर हैं। ऐसे में लोग सब्जी और रेसिपी में टमाटर व जीरे आदि में कटौती करने को मजबूर हैं। लेकिन इतने पर भी महंगाई को लेकर सरकार एक-दूसरे को कोसने के अलावा कुछ नहीं कर रही है। कोई कहता है पुराने दिन भले थे, कोई अच्छे दिन की ढांढस बंधाता रह जाता है। लेकिन समस्या जस की तस मुंह बाय़े खड़ी है और आम आदमी पिस रहा है। हालात ये हो गए हैं कि जेब ढीली करने के साथ महंगाई, अब आम आदमी की जमा पूंजी यानी बैंक आदि की बचत और इंवेस्टमेंट को भी निगलने में लगी है।
बढ़ती महंगाई में ग्लोबल एनालिटिक्स कंपनी CRISIL ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसके अनुसार भारतीय रसोई में वेजिटेरियन और नॉन वेज दोनों थालियों के दाम कई गुणा बढ़ चुके हैं। बढ़ते टमाटर अदरक मसालों जैसी जरूरी चीजों के दाम एक आम आदमी की जेब पर कैसे और कितने भारी पड़ रहे हैं, इस रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है। CRISIL की रिपोर्ट के मुताबिक, वेज थाली जहां 34 फीसदी महंगी हुई है। वहीं, नॉन वेज थाली 13 फीसदी तक महंगी हुई है।
तीन बार महंगी हुई थाली
CRISIL की रिपोर्ट के मुताबिक बढ़ते टमाटर के दाम महंगी हुई थाली के पीछे की मुख्य वजह है। जुलाई में टमाटरों के बढ़ते दामों की वजह से थाली तीन बार महंगी हुई है। 34 फीसदी महंगी हुई वेज थाली में 25 फीसदी दाम बढ़ने की वजह टमाटर है। टामटर के दाम जुलाई में 233 फीसदी तक बढ़े हैं। टमाटरों का दाम जुलाई में 33 रूपये किलो से 210 रूपये किलो हो गया है। इसके अलावा प्याज और आलू के दामों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। प्याज 16 फीसदी और आलू 9 फीसदी महंगे हुए हैं।
मसालों में मिर्च और जीरे के दाम आसमान छू रहे है। मिर्च 69% और जीरा 160% महंगा हुआ है। क्योंकि नॉन वेज थाली मे ब्रॉयलर 50 फीसदी से ज्यादा थाली का हिस्सा है। इसी वजह से नॉन वेज थाली पर जुलाई के महीने में महंगाई का असर 13% पड़ा है। यही नहीं, टमाटर की कीमतों में महीने भर से जारी तेजी के बीच थोक व्यापारियों ने आने वाले दिनों में इस सब्जी के भाव 300 रुपये प्रति किलो तक पहुंच जाने की आशंका जताई है। दूसरी ओर दुकानदार और रेहड़ी पटरी वाले परेशान हैं। आजादपुर कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) के सदस्य अनिल मल्होत्रा ने कहा कि बाजार में टमाटर की आपूर्ति और मांग दोनों कम है जिससे विक्रेताओं को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। दूसरा, मंडी से महंगी सब्जी न खरीद पाने की बेबसी को लेकर एक फेरीवाले का वीडियो पिछले दिनों खासा वायरल हुआ था।
कैसे तय होती है थाली की कीमत?
CRISIL थाली की कीमत का आंकलन पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण, की कीमतों के आधार पर करता है। दामों में महीने के दौरान आने वाला बदलाव आम आदमी के खर्च पर निर्भर करता है। सिर्फ यही नहीं थाली कीमत दालों, अनाज, सब्जी, मसाले, तेल, और एडिबल ऑयल और कुकिंग गैस के दामों पर भी निर्भर करता है। वेज थाली में आलू, प्याज, टमाटर, दाल, दही और सलाद जैसी चीजों को काउंट किया गया है। वहीं नॉन वेज थाली में दालों की जगह चिकन को काउंट किया जाता है। वहीं मिर्च के दामों में 69 प्रतिशत और जीरे के दामों में 160 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। हालांकि इनका थाली में योगदान कम होता है, इसलिए इनकी कीमत को भी कम स्तर पर आंका जाता है।
रसोई (थाली) महंगी होने से आम आदमी की जेब ढीली हो ही रही थी लेकिन अब महंगाई आपकी बचत और आपके इंवेस्टमेंट को भी निगलने लगी है। जी हां, महंगाई जहां महीने का बजट बिगाड़ देती है, वहीं लंबी अवधि के निवेश में आपके पैसे की वैल्यू कम कर देती है। महंगाई दर जितनी ज्यादा रहेगी, आपके निवेश की वैल्यू उतनी ही तेजी से घटेगी। जीबिज के अनुसार, एक बेहद ही आसान फॉर्मूला (रूल ऑफ 70) के जरिए आप इसका अंदाजा लगा सकते हैं।
Rule of 70 का कैलकुलेशन समझें
आपके निवेश की वैल्यू कितने समय में घटकर आधी रह जाएगी, यह जानने का आसान तरीका यह है कि 70 में मौजूदा महंगाई दर का भाग दीजिए, जो रिजल्ट आता है, वही वह साल होगा जिसमें आपके निवेश की वैल्यू घटकर आधी जाएगी। इसे उदाहरण से समझते हैं- मान लीजिए अभी महंगाई दर 6 फीसदी चल रही है। अब रूल ऑफ 70 के मुताबिक हम 70 में 6 का भाग देते हैं। रिजल्ट 11.6 साल आता है। यानी, अगर आपने 10 लाख रुपये का निवेश किया है तो उसकी वैल्यू अगले 11 साल 6 महीने में घटकर 5 लाख यानि आधी रह जाएगी।
महंगाई से परेशान लोग अब ग़ैर- ज़रूरी खर्च कम करने पर विवश
भले महंगाई को लेकर लोग सड़कों पर ना हों लेकिन देश के मध्यम और निम्न मध्यम श्रेणी के लोग यानी आम आदमी महंगाई से परेशान हैं। इसी साल अप्रैल में, पीडब्ल्यूसी ग्लोबल कंज्युमर इनसाइट्स पल्स का एक सर्वे आया था। इसके मुताबिक़ छोटे ही नहीं, बड़े शहरों के लोग भी अगले छह महीने तक खर्च को लेकर चिंतित रहेंगे। इसके अनुसार 74 प्रतिशत भारतीय निजी खर्च कम करने और बचत को बढ़ाने के लिए लालायित हैं। दरअसल कोरोना में इसी बचत ने लोगों को बचाया था आगे भी यही बचत बचाएगी।
दैनिक भास्कर की मधुरेंद्र सिन्हा की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत और चीन दुनिया में दो ऐसे देश हैं जिसके लोग हजारों वर्षों से बचत करते रहे हैं। अपनी मेहनत की कमाई में से एक हिस्सा वे बचाकर रखते थे जो उनके बुरे वक्त या फिर सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वाह में काम आता था। यही नहीं, आपने मिट्टी के हांडियों में सोने के सिक्के पाये जाने की कई खबरें सुनी होंगी या फिर ज़मीन में गड़े धन के बारे में जरूर पढ़ा होगा। लेकिन मध्य काल के बाद जब अंग्रेज आये और उन्होंने अपने डेढ़ सौ साल के शासन में भारतीय अर्थव्यवस्था को लूटकर बर्बाद कर दिया जिससे भारतीयों की परचेजिंग पॉवर और इनकम दोनों ही निम्नतम स्तर पर जा पहुंची। लेकिन आज़ादी के बाद जब नई बैंकिंग व्यवस्था आई तब भारतीय बचत खाता के माध्यम से पैसे बचाने लगे। करोड़ों लोग बुढ़ापे के लिए तो काफी बड़ी तादाद में अपने घर की जिम्मेदारियों के लिए बचाने लगे। बेटे-बेटी की शादी के लिए बचत करना तो आदत का हिस्सा बना रहा है। लेकिन संभावित विपदा के लिए बचत करना उनकी आदत का हिस्सा रहा है और इसलिए सोना खरीदने की परंपरा यहां सदियों से रही है।
कोरोना काल में काम आई थी यही बचत
इस तरह की बचत उनके कठिन वक्त में बहुत काम आई है। 2020 में जब कोरोना संकट ने करोड़ों लोगों को बेरोजगार कर दिया और करोड़ों की आय में कमी कर दी। ऐसे बुरे समय में यही बचत का पैसा काम आया। उस पैसे की बदौलत लोगों ने अपने घर चलाये और रोटी का जुगाड़ भी किया। बचत का पैसा उनके लिए ऑक्सीजन बना। कोरोना काल खत्म हो गया फिर भी देश में बचत का वह स्तर नहीं रहा और लोगों की बचत की आदत कम होती चली गई। एक सर्वे के मुताबिक भारत में 50 फीसदी लोग शून्य से 20 फीसदी तक बचत कर रहे हैं और 20 फीसदी अपनी 20 से 30 फीसदी तक बचत कर लेते हैं।
सर्वे के मुताबिक कोरोना के बाद लोगों में संकट के प्रति चिंता हुई और सर्वे में भाग लेने वाले 54 फीसदी लोग आसन्न संकट के प्रति सावधान होकर वैसे समय के लिए बचत करने लगे हैं। लेकिन मिलेनियम यानी 35 साल से कम उम्र के लोग बचत के बारे में नहीं सोचते। हालांकि एक और रिपोर्ट के मुताबिक देंखे तो देश में बचत की स्थिति अभी नाजुक है और 31 मार्च 2022 तक के आंकड़ों के मुताबिक इस समय देश में बचत पांच वर्षों के न्यूनतम पर जा पहुंची है। हालांकि इसका कारण भी कोविड को ही बताया जा रहा है। साथ ही बढ़ती महंगाई ने भी भारतीयों की बचत की आदत को धक्का पहुंचाया है।
पर्चेजिंग पावर के साथ बचत भी घटी
देश में महंगाई की दर तकलीफदेह स्तर तक जा पहुंची है। हालांकि अभी इसमें थोड़ी राहत मिली है लेकिन इसने खर्च करने की शक्ति या यूं कहें कि परचेजिंग पॉवर में कटौती कर दी है। रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक 2022 में बचत घटकर भारत के जीडीपी का 10.02 फीसदी हो गया था जबकि 2021 में यह 15.9 फीसदी था। यह चिंता का विषय है। रिजर्व बैंक के अनुसार महंगाई और अंधाधुंध खरीदारी के कारण लोगों की बचत की आदत में अंकुश लग गया। इसके अलावा ब्याज दर घटने के कारण लोग बैंकों में पैसे रखने के प्रति उदासीन हो गये। उस समय बैंक सावधि जमा पर 5 फीसदी से कुछ ज्यादा ही ब्याज दे रहे थे जिससे जमाकर्ता हतोत्साहित हुए। आंकड़ों के मुताबिक 2022 की पहली तिमाही में बैंकों में डिपॉजिट 50 सालों के न्यूनतम पर जा पहुंचा। लोगों ने बैंकों की बजाय पैसा शेयर मार्केट में लगाया और जोखिम वाले निवेश पांच सालों के अधिकतम पर जा पहुंचे।
दूसरी ओर, आंकड़ों और रिपोर्ट के अनुसार लोगों में खर्च करने की आदत बढ़ी है। इसमें सबसे बड़ा खर्च टूरिज्म पर हो रहा है। भारतीय न केवल देश में बल्कि विदेशों में छुट्टियां मनाने जाने लगे हैं और इस पर खूब खर्च कर रहे हैं। खर्च करने में भारतीय किसी से कम नहीं हैं और हमारी अर्थव्यवस्था इसी से चलती है। इस तथ्य को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी बजट में स्वीकार किया। भारतीय अर्थव्यवस्था खपत आधारित है और इसके पहियों की गति उससे ही बढ़ती है। इसलिए सरकार भी चाहती है कि लोग खूब खर्च करें ताकि मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री को बढ़ावा मिले।
यह भी एक कारण है कि सरकार ने इस बार के बजट में नये टैक्स रिजीम को इस ढंग से पेश किया है कि लोगों को बचत करने की जरूरत ही न पड़े। अब जो करदाता नये टैक्स रिजीम को मानेगा, उसे बचत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। ऐसे करदाताओं को सात लाख रुपये तक की इनकम पर कोई टैक्स नहीं लगेगा। इसके लिए उन्हें पीपीएफ, एनएससी, साधारण बीमा तथा अन्य तरह की बचत योजनाओं में पैसे निवेश करने की जरूरत नहीं है। इसका मतलब हुआ कि उन्हें अब बचत करने की जरूरत नहीं है। उन्हें सीधे टैक्स में छूट मिलेगी या यूं कहें कि उन्हें सिर्फ रिटर्न फाइल करनी होगी।
यह स्थिति कोई खुशनुमा नहीं है। बचत और खासकर लघु बचत योजनाएं देश के लिए बेहद जरूरी हैं। इनके माध्यम से जनता भारी बचत कर लेती है जो उनके बुरे समय में काम आती हैं। यह रकम बहुत बड़ी होती है और 1917-18 में यह सात लाख करोड़ रुपये से ज्यादा थी। इससे सरकार को यह फायदा होता है कि यह रकम वह अपनी कई तरह की योजनाओं में भी इस्तेमाल करती है और उसके अपने वित्तीय घाटे को पूरा करने में भी यह पैसा काम आता है।
इसलिए सरकार के लिए भी इस पैसे का बड़ा महत्व है। वह भी चाहती है कि इसमें पैसे आते रहें। अब अगर लोगों में बचत करने की आदत कम हो जायेगी तो ज़ाहिर है कि सरकार पर भी दबाव पड़ेगा कि वह अन्य स्रोतों से पैसे जुटाये तो वह महंगा ही होगा। यह बात काफी महत्वपूर्ण है और इसलिए ताज्जुब है कि सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही है। पहले सरकार इसे प्रोत्साहित करती रही है लेकिन अब उसकी नीतियां बदल रही हैं।
अगर आपको 2008 की विश्वव्यापी मंदी याद हो तो यह भी याद होगा कि भारत और भारतीयों ने कैसे इस महामंदी का सामना किया। उस समय यह बचत आम आदमी के काम आयी क्योंकि कंपनियों ने बड़े पैमाने पर छंटनी की और लाखों बेरोजगार हो गये। ऐसे में अपने बचत के पैसे से उन्होंने बुरा वक्त काटा। आम आदमी ही नहीं कंपनी चलाने वालों ने भी इस तरह से बुरा वक्त गुजार दिया। लेकिन अभी जिस तरह से बचत की आदत को हतोत्साहित किया जा रहा है उसके बुरे परिणाम देखने में आ सकते हैं। सिर्फ खपत आधारित अर्थव्यवस्था बनाने से काम नहीं चलेगा, आर्थिक झटकों से बचने के लिए बचत की भी जरूरत है। क्योंकि आम चुनाव से पहले महंगाई की मार कम होने वाली नहीं दिखती है।
आम चुनाव से पहले कम नहीं होने वाली महंगाई
महंगाई की मार कम होने वाली नहीं है, टमाटर के अलावा दूसरे खाद्य पदार्थों की कीमतें भी सुरसा बनने की राह पर हैं। हालांकि सरकार ने भी अब मान लिया है कि देश में महंगाई है और टमाटर के दाम आसमान छू रहे हैं और उसके लिए उसने अपने छोटे पड़ोसी देश नेपाल का सहारा लेने का फैसला किया है। वित्तमंत्री निर्मला सीता रमण ने गुरुवार को लोकसभा में इसकी घोषणा करते हुए कहा कि शुक्रवार को उसकी पहली खेप यूपी के वाराणसी, लखनऊ और कानपुर जैसे शहरों तक पहुंच जायेगी। लेकिन जानकारों का मानना है कि इससे महंगाई पर काबू पाना मुश्किल है। और सरकार के इन उपायों से बहुत ज्यादा कुछ नहीं होने वाला है क्योंकि आने वाले दिनों में दूसरी चीजों की कीमतों में भी बड़े स्तर पर बढ़ोत्तरी देखने को मिल सकती है।
2023 के शुरुआती कुछ माह छोड़ दें तो पिछले वर्ष 2022 में महंगाई की मार से भारत ही नहीं पूरी दुनिया जूझ रही थी। यूरोप और अमेरिका सहित भारत में मुद्रास्फीति से निपटने के लिए दुनिया भर की सरकारों ने अपने केंद्रीय बैंकों के जरिये ब्याज दरों को लगातार बढ़ाकर मुद्रास्फीति से निपटने की कोशिशें कीं। लंबे प्रयास के बाद इसे एक हद तक रोकने में कामयाबी पाने में कामयाब हुई है, लेकिन भारत की तुलना में पश्चिम को एक और महंगाई की मार से दो-चार नहीं होना पड़ रहा है।
भारत में भी केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी कर इसे काबू में लाने का भरसक प्रयास किया है। लेकिन पिछले वर्ष की महंगाई पर यदि प्रभावी रूप से किसी चीज ने लगाम लगाई थी, तो वह उपभोक्ता वस्तुओं, विशेषकर सब्जी-फल एवं खाद्य तेल के दामों में आई कमी की वजह से हुई थी। लेकिन जून और जुलाई माह में अनपेक्षित मानसून की मार से कई क्षेत्रों में अचानक बाढ़ ने जहां टमाटर सहित कई सब्जियों की आवक और फसल को बर्बाद कर दिया, और अब गेहूं के बाद चावल के दामों में अचानक बढ़ोत्तरी ने मुद्रास्फीति में कमी के बजाय एक बार फिर से भारी महंगाई की दिशा में देश को झोंक दिया है। पिछले 2 माह से देश की बहुसंख्य आबादी ने टमाटर खाना लगभग छोड़ दिया है। देश में टमाटर की लूट के किस्से अब आम खबर का हिस्सा बन चुके हैं। टमाटर पर व्यंग्य और मीम बनाने का फैशन तक पुराना पड़ चुका है। केंद्र सरकार के उपभोक्ता मंत्रालय ने टमाटर के दामों पर तब कहा था कि अगले 10 दिनों में कीमतें सामान्य हो जाएंगी, सरकार सप्लाई चैन को इस बीच दुरुस्त कर देगी। यह मंत्रालय अब कहां है और इसके मंत्री किस दिशा में काम कर रहे हैं, यह पूछने की अब जरूरत भी नहीं बची है। यहां तक कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के “मैं तो प्याज नहीं खाती हूं” वाले जुमले को लोग टमाटर के लिए स्वीकार कर चुके हैं, और खुद से टमाटर खाना भूल चुके हैं।
वरिष्ठ पत्रकार रविंद्र पटवाल की जनचौक की एक रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार ने दिखावे के तौर पर फौरी राहत भी उन लोगों को दी है, जो मध्य, उच्च-मध्यम या केंद्रीय कर्मचारियों के परिवार हैं, जिन्हें 70 रुपये प्रति किलो के हिसाब से टमाटर खरीदने के लिए घंटों लाइन में टीवी न्यूज़ दिखाकर सवाल उठाने की कोशिश करते दिखते हैं कि क्या टमाटर खरीदने की लाइन में लगने पर उन्हें गुस्सा आता है या वे अब भी सरकार के प्रति कृतज्ञ भाव से देखते हैं? वैसे बाजार में टमाटर का भाव अब 200 रुपये प्रति किलो के पुराने भाव की तुलना में कम होने के बजाय 250-300 रुपये प्रति किलो पहुंच गया है। जाहिर है, 80% गरीब एवं वंचित भारत के साथ-साथ अब यह मध्य-उच्च मध्य वर्ग के तबके को भी प्रभावित करने लगा है। लेकिन एक टमाटर की महंगाई ही होती तो भी महंगाई इस कदर आम लोगों की जेब और दिल पर इतना भार नहीं डालती। आम लोगों की थाली में आज प्याज, आलू, लौकी, शिमला मिर्च, भिंडी, हरी सब्जियों, खाद्य तेल, जीरा, हल्दी, काली मिर्च, अरहर, उरद और मसूर सहित चीनी ने भी भारी चोट पहुंचाने का काम किया है।
सरकार को भी बखूबी इस बात का अहसास है और देश में 5 विधानसभा चुनावों के साथ-साथ 2024 के आम चुनावों में महंगाई का मुद्दा हावी रहा तो कैसे देश को विश्वगुरु बनाने के सारे दावे हवा हो सकते हैं, को लेकर सरकारी मशीनरी लगातार बेचैन है। इसी को ध्यान में रखते हुए चावल और गेहूं के निर्यात पर रोक लगाई गई है, जिस पर वैश्विक नेताओं की ओर से भारत पर दबाव और विरोध के स्वर उभर रहे हैं। दुनिया में चावल का सबसे बड़ा निर्यातक (करीब 40%) देश होने के नाते भारत से यदि निर्यात को प्रतिबंधित करने से चावल के दामों में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। वियतनाम सहित पूर्वी एशिया के देशों ने चावल के निर्यात पर कीमतों में करीब 25% का इजाफा कर दिया है। अब पिछले कुछ दिनों से भारत में जिस तेजी से गेहूं के दामों में वृद्धि देखने को मिल रही है, और थोक बाजार एवं आटा मिलों के पास गेहूं का स्टॉक चुक गया है, वह गेहूं के दामों को तेजी से नई ऊंचाई पर पहुंचा रहा है।
यदि यही हाल रहा तो गेहूं और चावल के दाम आसमान छू सकते हैं, और 80% आबादी जो आज टमाटर, दाल सहित विभिन्न खाद्य वस्तुओं से किनारा कर सिर्फ जीने के लिए गेहूं, चावल पर निर्भर है के सामने भुखमरी का संकट खड़ा हो सकता है। इसी को मद्देनजर रखते हुए केंद्र सरकार गेहूं के निर्यात के बजाय आयात के लिए कदम उठाने जा रही है। बुधवार को केंद्र ने अपने स्टॉक से 50 लाख टन गेहूं और 25 लाख टन चावल को ओपन मार्केट में उतारने का फैसला लिया है। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि जून माह में जब सरकार की ओर से यह प्रक्रिया शुरू की गई थी तो 15 लाख टन गेहूं को खुले बाजार में लाने के बावजूद खरीदारों की ओर से 8.2 लाख टन की ही खरीद की गई, जो कुल प्रस्तावित स्टॉक का 55% बैठता है। चावल की खरीद का आंकड़ा इससे भी बदतर रहा था, जिसमें 5 लाख टन चावल में सिर्फ 38% खरीद ही ओपन मार्केट में संभव हो सकी।
महंगाई को काबू में रखने के लिए सरकार ने चावल की रिजर्व प्राइस में बड़ी कटौती करते हुए 3100 रुपये प्रति क्विंटल को 200 रुपये घटाकर 2,900 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया है। इसके बाद अब उम्मीद की जा रही है कि व्यापारी चावल की खरीद में उत्साह दिखाएं। इसके साथ ही सरकार ने दावा किया है कि उसके स्टॉक में पीडीएस एवं अन्य कल्याणकारी योजनाओं के लिए पर्याप्त गेहूं चावल के भंडार के अलावा भी 2.87 करोड़ टन गेहूं और चावल का भंडार है, जिससे दामों में किसी भी प्रकार के भारी उछाल को रोकने में वह समर्थ है। भारतीय खाद्य निगम के प्रबंध निदेशक अशोक के मीणा के अनुसार, इस वर्ष 28 जून से ई-बोली के माध्यम से गेहूं और चावल की खुले बाजार में बिक्री शुरू की गई है। अभी तक 7 बार ई-बोलियों के माध्यम से कुल 8 लाख टन गेहूं की बिक्री की जा चुकी है। लेकिन यही काम जब राज्य सरकारों के द्वारा अपने प्रदेश की जनता के विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिए किये जाने के लिए कदम उठाया गया, तो केंद्र ने कर्नाटक को केंद्रीय पूल से चावल देने से मना कर दिया था। यानि खुले बाजार में व्यापारियों, बिचौलियों को तो मोदी सरकार गेहूं, चावल दे सकती है, लेकिन विपक्षी राज्यों की सरकारें केंद्र के 5 किलो अनाज के साथ अतिरिक्त 5 किलो अनाज देने का प्रयास करती है तो उसे ऐसा करने से रोका जायेगा।
मजे की बात यह है कि कर्नाटक ने इसके लिए 3,400 रुपये प्रति क्विंटल देने का प्रस्ताव किया था, जबकि खुले बाजार के लिए केंद्र ने 3,100 रुपये और अब उसे भी घटाकर 2,900 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया है। इससे क्या निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं? पहला तथ्य यह है कि अपेक्षा के विपरीत इस बार धान और गेहूं का उत्पादन कम हुआ है। दूसरा, इस कमी के चलते बाजार में लगातार दाम बढ़ रहे हैं। तीसरा, केंद्र के पास पीडीएस एवं अन्य योजनाओं के अलावा भी करोड़ों टन गेहूं और चावल का पर्याप्त भंडार मौजूद है, जिसे उसने खुले बाजार में महंगाई की सूरत में ई-बोलियों के माध्यम से बाहर निकालना शुरू कर दिया है, लेकिन बिचौलिए और व्यापारी कम दाम पर भी खरीद में आनाकानी कर रहे हैं।
इसका अर्थ यह है कि गेहूं और चावल की पैदावार की कमी का फायदा उठाते हुए बाजार भाव को ऊंचा बनाये रखने में स्टॉकिस्ट और बिचौलियों की कोशिश है, जिसे केंद्र सरकार समझती तो है, लेकिन आवश्यक कार्रवाई करने से बच रही है। चौथा, कर्नाटक जैसे विपक्षी राज्य यदि अपने राज्य के आम लोगों की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए देश में मौजूद विपुल भंडार में से व्यापारियों की तुलना में ऊंचे दाम पर भी अनाज की खरीद करना चाहें तो उनके लिए यह रास्ता बंद कर दिया गया है। यह इन राज्यों की जनता के लिए डबल इंजन सरकार का चयन न करने की सजा मानी जा सकती है।
बहरहाल, केंद्र सरकार के आंकड़ों पर विश्वास करें तो गेहूं और चावल का पर्याप्त भंडार होने के चलते इन दो वस्तुओं की कीमतों में असाधारण वृद्धि की संभावना नहीं है। लेकिन जिस प्रकार से गेहूं की बिकवाली के सीजन के दौरान ही दाम कम होने के बजाय बढ़ने लगे थे, वह साफ़ इशारा करता है कि मांग एवं आपूर्ति के इस गैप में बेहद छोटे से अंतर को भी देश का व्यापारी वर्ग अपने हित में भुनाने के लिए किस हद तक तत्पर है और वह इस कृत्रिम कमी का भरपूर दोहन करने से बाज नहीं आ रहा है। यह वही साहसिक उद्यमी समुदाय है, जिसकी प्रशंसा में एक बार प्रधानमंत्री ने खुलकर कसीदे पढ़े थे और उन्हें सबसे साहसी बताया था। अब जबकि महाराष्ट्र की मंडी में प्याज की कीमत करीब 1,300 प्रति क्विंटल से बढ़कर 1,700 रुपये हो चुकी है, दिल्ली के खुदरा बाजार में 25-30 रुपये प्रति किलो प्याज की कीमत बढ़कर 40 रुपये हो चुकी है। बताया जा रहा है कि महाराष्ट्र की मंडी में प्याज की आपूर्ति पहले की तुलना में बढ़ी है, इसके बावजूद प्याज की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं। यही हाल रहा तो टमाटर के बाद प्याज भी महंगाई के आंसू रुलायेगा। रूस-यूक्रेन युद्ध में एक बार फिर से नया गतिरोध का नतीजा सूरजमुखी तेल के आयात पर ब्रेक भारत में किचन के बजट को फिर से बिगाड़ने की दिशा में बढ़ चुका है।
पहली बार है कि चीनी और चावल की सीमा पार स्मगलिंग की खबर सुर्खियां बनी हैं। चीनी के मामले में भी महंगाई अपना असर दिखाने लगी है। मोदी सरकार ने हाल के वर्षों में चीनी से एथनॉल बनाने की जिस प्रकिया को अग्रगति दी थी, उसके चलते चीनी का मौजूदा उत्पादन पिछले वर्ष की तुलना में गिरा है, जो आम भारतीय के लिए जल्द ही एक नई मुसीबत बन सकता है। कुल मिलाकर देखें तो भारतीय रिजर्व बैंक जहां एक माह पहले महंगाई को काबू में कर लेने के दावे कर रही थी, और 4% होने के दावे के साथ कथित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल के एंकर देश की वर्तमान सरकार के सक्षम, सबल और कुशल नेतृत्व का गुणगान करते नहीं थक रहे थे, उनके सामने जुलाई माह में महंगाई के आंकड़े एक बड़ी चुनौती बनकर उभर सकते हैं। रायटर्स के मुताबिक आरबीआई ने मौजूदा तिमाही के लिए 5.2% मुद्रास्फीति का अनुमान लगाया था, वह गलत साबित हुआ है। रायटर्स के 3-8 अगस्त के बीच 53 अर्थशास्त्रियों के साथ किये गये सर्वेक्षण में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में औसतन 6.40% वृद्धि का अनुमान लगाया गया है। आरबीआई 2-6% के बीच की मुद्रास्फीति को नियंत्रित मानती आई है, जिसकी सीमा से बाहर जाने का अर्थ है आम लोगों का बजट बिगड़ रहा है। इन अर्थशास्त्रियों का आकलन ये भी बता रहा कि खाद्य वस्तुओं की महंगाई अभी कुछ महीने आगे भी बनी रहने वाली है। बेरोजगारी, महिला सुरक्षा-सम्मान, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता के हनन, केंद्र-राज्य संबंध, ईडी-सीबीआई, मणिपुर के साथ-साथ बढ़ती महंगाई की मार का मुद्दा जो शहरी निम्न एवं मध्यवर्गीय मतदाताओं को विशेष रूप से प्रभावित करता है, को लेकर केंद्र सरकार वास्तव में क्या कोई ठोस कदम उठाने जा रही है, देखना महत्वपूर्ण होगा।