नया नहीं है किसान आंदोलन, पहले भी सत्ता का दंभ चूर कर चुके हैं अन्नदाता

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: February 20, 2021
इतिहास का सबसे बड़ा व व्यापक किसान आन्दोलन दिन-प्रतिदिन वैश्विक रूप लेता जा रहा है. देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी वर्तमान में कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई है और इनके बेहतरी की बात करके ही देश को सशक्त बनाया जा सकता है. मोदी सरकार के सात साल के कार्यकाल में ऐसा पहली बार हुआ है कि कोई आन्दोलन गले की फांस बन कर रह गया है. दो तरफ़ा ज़िद की इस जंग में देश का किसान पिसता ही जा रहा है. शुरुआत में किसान आन्दोलन को सरकार द्वारा काफ़ी बदनाम करने की कोशिश की गयी लेकिन आज केन्द्रीय गृह मंत्री से लेकर कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर यह मान रहे हैं कि यह विशुद्ध रूप से किसान आन्दोलन है. देश में इससे पहले भी कई किसान आन्दोलन हुए हैं जिसनें उस दौर की सरकार के दंभ को चकनाचूर कर दिया था. 



भारत का अन्नदाता एक बार फिर सड़क पर है. केंद्र सरकार द्वारा तीन किसान विरोधी कृषि कानून के ख़िलाफ़ संघर्षरत किसानों का हौसला बुलंद है. वर्षों से असंतोष में जी रहे किसानों के सब्र का बाँध इस कानून के साथ ख़त्म हो गया और वे संघर्ष के लिए मजबूर हुए. 2017 में मंदसौर मध्यप्रदेश में हुए किसान आन्दोलन आज भी लोगों के जेहन में है जहाँ पुलिस की गोली लगने से सात किसानों की मौत हो गयी थी. 15 साल बाद मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई थी जिसके लिए किसानों की भूमिका को अहम माना जाता है. 

कर्जमाफ़ी और फसलों के डेढ़ गुना ज्यादा समर्थन मूल्य की मांग को लेकर तमिलनाडु के किसानों ने 2017 एवं 2018 में देश राजधानी दिल्ली में अर्धनग्न होकर, हाथों में मानव की खोपड़ियाँ और हड्डियाँ लेकर प्रदर्शन किए थे. महाराष्ट्र के नासिक से मुंबई तक किसानों का पैदल मार्च भारत के इतिहास में काले अक्षरों में दर्ज है.  

वर्तमान आन्दोलन की बात करें तो किसान आन्दोलन की चिंगारी से पंजाब हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, ओड़िसा, बंगाल, आंध्रप्रदेश, बिहार समेंत लगभग सभी भारतीय राज्य के किसान सड़कों पर उतर कर इस आन्दोलन का हिस्सा बन चुके हैं. फ़सल उत्पादन के साथ देश की आजादी और देश के निर्माण में भी किसान समाज की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. भारत में सदियों से किसान आन्दोलन का गौरवमय इतिहास रहा है. 

आजादी के पहले भी देश के किसानों ने अंग्रेजी हुकूमत को अपने आन्दोलन की ताकत को दिखाया था. आजादी से पहले किसानों का महत्वपूर्ण भूमिका भारत को आजाद करवाने में भी रहा है. उस समय भी अंग्रेजों या देशी रियासतों के ख़िलाफ़ होने वाले किसान आन्दोलन उनके शोषण के ख़िलाफ़ ही शुरू हुए थे जिनमें प्रमुख हैं:

कूका विद्रोह: 
सन 1872 में नामधारी सिखों (कूका लोगों) द्वारा किया गया यह एक सशस्त्र विद्रोह था. कृषि संबधी समस्याओं और अंग्रेजों द्वारा गायों की हत्या करने के विरोध में यह विद्रोह किया गया था. इस आन्दोलन के दौरान 66 नामधारी सिख शहीद हुए थे. 

दक्कन का विद्रोह: 
महाराष्ट्र के शिरूर तालुका के करडाह गाँव में 1874 में इस आन्दोलन की शुरुआत हुई थी. यह आन्दोलन किसानों का साहूकारों के विरुद्ध में था. इस आन्दोलन की ख़ास बात यह थी कि यह आन्दोलन देश के कई भागों तक फैला हुआ था.  

एका आन्दोलन:
यह आन्दोलन उतर प्रदेश से शुरू हुआ. 1919 में उतरप्रदेश के हरदोई, बहराइच एवम सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर यह आन्दोलन चलाया गया. 

मोपला विद्रोह: 
केरल के मालावार क्षेत्र में मोपला किसानो के द्वारा 1920 में यह विद्रोह किया गया था जो अंग्रेजों के ख़िलाफ़ था. 

रामोसी किसानों का विद्रोह: 
महाराष्ट्र में जमींदारों के अत्याचार के विरुद्ध वासुदेव बलबंत फड़के के नेतृत्व में इस विद्रोह की शुरुआत की गयी. इसी समय में आंध्रप्रदेश में भी किसान आन्दोलन चल रहा था. 

ताना भगत आन्दोलन: 
1914 में लगान की ऊँची दर और चौकीदारी कर के विरुद्ध ताना भगत आन्दोलन की शुरुआत बिहार में हुई. मुंडा आन्दोलन की समाप्ति के बाद यह आन्दोलन शुरू हुआ. इस आन्दोलन के प्रवर्तक जतरा भगत थे. 

तेलंगाना आन्दोलन: 
आंध्रप्रदेश में यह आन्दोलन साहूकारों व जमींदारों के शोषण के ख़िलाफ़ 1946 में शुरू किया गया था. 

बिजोलिया किसान आन्दोलन:
यह आन्दोलन भारत भर में प्रसिद्ध है. यह आन्दोलन 1847 से प्रारंभ होकर करीब आधी शताब्दी तक चलता रहा. इस समय किसानों ने निरंकुश नौकरशाह व सामंतों का संगठित रूप से मुकाबला किया. यह आन्दोलन ऐतिहासिक रहा. 

नील विद्रोह (चंपारण सत्याग्रह): 
नील विद्रोह की शुरुआत बंगाल के किसानों के द्वारा की गई. दूसरी तरफ बिहार के चंपारण में किसानों से अंग्रेज बगान मालिकों ने एक अनुबंध करवा लिया जिसके अंतर्गत किसानों को अपनी जमीन के कुछ हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था. ऐसी खेती को तीनकठिया पद्धति भी कहते हैं.

खेड़ा सत्याग्रह: 
1918 में खेड़ा किसानों की समस्याओं को लेकर आन्दोलन शुरू किया. खेड़ा जो गुजरात में स्थित है वहां से गाँधी जी ने अपने किसान सत्याग्रह की शुरुआत की थी. खेड़ा के कुनबी-पाटीदार किसानों सरकार से लगान में रहत की मांग की लेकिन उन्हें कोई रियायत नहीं मिली. जिसके बाद खेड़ा आन्दोलन की शुरुआत हुई.   
 
बारदोली सत्याग्रह:  
सूरत (गुजरात) के बारदोली तालुका में किसानों द्वारा अंग्रेजों को लगान नहीं देने के लिए आन्दोलन चलाया गया. इस आन्दोलन में कुनबी-पाटीदार जातियों के भू स्वामियों के साथ-साथ सभी जनजातियों के लोगों ने भी हिस्सा लिया. 

तेभागा आन्दोलन: 
किसान आन्दोलन में बंगाल का तेभागा आन्दोलन सबसे सशक्त आन्दोलन था जिसे 1946 में चरम पर था. इस आन्दोलन में किसानों ने फ्लाइड कमीशन की सिफारिशों के अनुरूप लगान की दर घटा कर एक तिहाई करने के लिए संघर्ष शुरू किया गया था. बंगाल का तेभागा आन्दोलन फ़सल का दो-तिहाई हिस्सा उत्पीड़ित बटाईदार किसानों को दिलाने के लिए किया गया था. इस आन्दोलन में लगभग 50 लाख किसानों नें भाग लिया था और यह करीब 15 जिलों में फैला हुआ था. इस आन्दोलन को वर्तमान आन्दोलन की तरह खेतिहर मजदूर वर्ग का भी व्यापक समर्थन प्राप्त था. 

इन प्रमुख किसान आन्दोलन के अलावे भी भारत में कुछ किसान आन्दोलन हुए थे जिसमें 1921 का बेंगू किसान आन्दोलन, मारवाड़ किसान आन्दोलन(1923), बीकानेर किसान आन्दोलन (1925), अलवर-भरतपुर मेव आन्दोलन (1932) ,गुर्जर किसान आन्दोलन (1936), बूंदी किसान आन्दोलन (1926), महाजन किसान आन्दोलन (1934) प्रमुख था. 

वर्तमान में सरकार कृषि कानूनों को ख़त्म न करने को लेकर ज़िद पर अड़ गयी है लेकिन किसानों का हौसला टूटता हुआ नजर नहीं आ रहा है जो सरकार के लिए कई तरह की मुश्किलें खड़ी कर सकता है. सरकार द्वारा अन्नदाताओं के आशाओं पर कुठाराघात किया गया है और अब अपने अधिकारों की मांग के लिए किसान प्रतिबद्ध हैं. देश के माटीपुत्र सरकारी जुल्मों और साजिशों के आगे नतमस्तक होने को तैयार नहीं हैं. 

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