निर्वाचन आयोग की देशव्यापी SIR अब 12 राज्यों में, दस्तावेज के बोझ को कम किया गया

Written by AMAN KHAN | Published on: October 29, 2025
निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा घोषित देशव्यापी स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न (SIR) -जो 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में लागू की गई है, जिनमें अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, केरल, लक्षद्वीप, मध्य प्रदेश, पुडुचेरी, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल शामिल हैं - अब बिहार के SIR में देखी गई कड़ी दस्तावेज-आधारित प्रक्रिया से पीछे हटती दिखती है। इस बार प्राथमिकता दस्तावेज़ी सबूत से अधिक, मतदाता सूची में अधिकतम समावेशन (inclusion) पर दी गई है।

 

निर्वाचन आयोग (ईसीआई) ने 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों - अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, केरल, लक्षद्वीप, मध्य प्रदेश, पुडुचेरी, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के दूसरे और सबसे व्यापक चरण की शुरुआत कर दी है। 27 अक्टूबर, 2025 के एक निर्देश के जरिए घोषित इस चरण की निर्धारित तारीख "01.01.2026" निर्धारित की गई है और इसमें बिहार के लिए 24 जून, 2025 के आदेश को प्रक्रियात्मक आधार के रूप में स्पष्ट रूप से उद्धृत किया गया है, हालांकि इसमें कुछ महत्वपूर्ण संशोधन भी किए गए हैं।

निर्देश में कहा गया है कि यह ‘बिहार SIR दिशानिर्देशों पर आधारित है, जिनमें कुछ बदलाव किए गए और शामिल किए गए हैं।’ इस बात से एक ओर यह दिखता है कि पुराना ढांचा बरकरार है, वहीं यह भी साफ है कि कुछ सुधार किए गए हैं। नतीजतन अब एक नया राष्ट्रीय मॉडल सामने आया है, जो दस्तावेजों की सख्त मांगों को कुछ हद तक आसान बनाता है - वही मांगें, जिन पर इस साल की शुरुआत में बिहार में इसे लागू करते वक्त काफी आलोचना हुई थी।

27 अक्टूबर का निर्देश: बिहार मॉडल को नया रूप देने की कोशिश

27 अक्टूबर 2025 को जारी देशव्यापी निर्देश अब उन विवादों के जवाब में एक सुधारात्मक कदम के तौर पर सामने आया है। इसमें बिहार मॉडल की प्रशासनिक रूपरेखा तो बरकरार रखी गई है, लेकिन उन हिस्सों को ढील दिया गया है, जिन पर कानूनी और राजनीतिक आपत्तियां उठी थीं - खास तौर पर दस्तावेज जमा करने और अपने-आप डेटा हटाने से जुड़ी शर्तों की।

चुनाव आयोग (ECI) ने अपने सर्कुलर में माना है कि देशभर में चल रहे इस प्रक्रिया में हर राज्य की ‘आखिरी व्यापक संशोधन की पात्रता तिथि’ को ध्यान में रखना होगा - जिनमें से कई तो दो दशक से भी पुराने हैं, जैसे 2002 (गुजरात, केरल) या 2003 (उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश)। इतने विविध प्रशासनिक ढांचे में नागरिकता से जुड़े एक जैसे दस्तावेजों की मांग करना व्यावहारिक नहीं था।

आयोग द्वारा किए गए ‘जोड़ने या हटाने’ से यह साफ है कि अब नीति का फोकस बदला है - पहले गणना होगी, फिर सत्यापन।

सबसे अहम बदलाव : गणना के समय अब किसी से दस्तावेज नहीं मांगे जाएंगे

सबसे अहम बदलाव यह है कि निर्देश में साफ कहा गया है कि ‘गणना के दौरान मतदाताओं से कोई दस्तावेज नहीं लिया जाएगा।’ यह एक प्रावधान ही बिहार मॉडल की पद्धति को पूरी तरह उलट देता है। अब बूथ-स्तरीय अधिकारी (BLO) मतदाताओं के घर जाकर उम्र या नागरिकता के प्रमाण नहीं जुटाएंगे। 4 नवंबर से 4 दिसंबर 2025 के बीच उनका काम केवल नए संशोधित गणना प्रपत्र (परिशिष्ट-III) और घोषणा प्रपत्र (परिशिष्ट-IV) में अपडेटेड जानकारी दर्ज करना होगा।

यह सत्यापन से छूट नहीं है, बल्कि उसके समय और तर्क में बदलाव है। अब सत्यापन को ‘दावे और आपत्तियों’ के चरण तक टाल दिया गया है, ताकि गणना (enumeration) का फोकस ‘बहिष्कार’ नहीं बल्कि ‘शामिल करने’ पर रहे। इस बदलाव से उन परिस्थितियों में अनजाने में मताधिकार छिनने की आशंका कम होगी, जहां व्यावहारिक दिक्कतें होती हैं- जैसे फ़ॉर्म न मिल पाना, निरक्षरता, पलायन या भौगोलिक कठिनाइयां। यह विशेष रूप से द्वीपीय क्षेत्रों (अंडमान-निकोबार, लक्षद्वीप) और राजस्थान, उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के ग्रामीण इलाकों के लिए अहम है।

इस ढील का एक असर यह भी है कि अब बूथ-स्तरीय अधिकारी (BLO) की भूमिका ‘जांचकर्ता’ से बदलकर ‘सहायक’ की हो गई है - यानी अब उनका काम मदद करना होगा, न कि पूछताछ या सत्यापन करना। बिहार मॉडल में BLO की भूमिका कुछ हद तक पुलिस जैसी लगने लगी थी, लेकिन नए निर्देश इसे पूरी तरह बदल देते हैं।

फिर से तैयार गणना प्रक्रिया: अब मतदाता जुड़ेंगे पुराने रिकॉर्ड से

“नए निर्देशों के अनुसार, निरंतरता बनाए रखने और दोहराव रोकने के लिए चुनाव आयोग ने गणना प्रपत्र में दो नए कॉलम जोड़े हैं। इनमें मतदाता के पिछले SIR रिकॉर्ड से जुड़ाव का विवरण होगा - चाहे वह स्वयं का हो, माता-पिता का या किसी रिश्तेदार का।”

“बिहार में यह व्यवस्था बाद में जोड़ी गई थी, जब BLO को दस्तावेज जुटाने में कठिनाई हुई थी। लेकिन इस बार, पूरे देश में इसे शुरुआत से ही शामिल किया गया है।”

इसके अलावा, अब बीएलओ किसी भी राज्य की अंतिम गहन पुनरीक्षण सूची देख सकते हैं, न कि केवल उस राज्य की जहां मतदाता वर्तमान में रहता है। उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल की 2002 की सूची में पहले से पंजीकृत कोई मतदाता उस प्रविष्टि का इस्तेमाल तमिलनाडु में नामांकन कायम रखने के लिए कर सकता है - यह एक ऐसा कदम है जो विशेष रूप से घरेलू प्रवासियों और गतिशील कामकाजी आबादी के लिए लाभकारी है।

प्रमाण से निरंतरता तक: एक अलग साक्ष्य मानक

देशव्यापी SIR अब पात्रता के प्रमाण की परिभाषा भी बदल देता है। बिहार मॉडल में 2003 के बाद जिन मतदाताओं ने नाम दर्ज कराया था, उन्हें मतदाता सूची में बने रहने के लिए 11 सूचीबद्ध दस्तावेजों में से कोई एक जरूर दिखाना पड़ता था - इनमें राशन कार्ड से लेकर जमीन के कागज तक शामिल थे।

नई नीति में अब दस्तावेज सिर्फ उन्हीं मतदाताओं से मांगे जाएंगे जिनका नाम किसी भी राज्य की पिछली SIR सूची में नहीं है। जिनका कोई रिकॉर्ड पहले से मौजूद है, उनके लिए वही जुड़ाव पर्याप्त माना जाएगा। इस बदलाव से अब सबूत का मापदंड भी बदल गया है -कागजी प्रमाण से हटकर यह अब प्रशासनिक रिकॉर्ड में व्यक्ति की निरंतर उपस्थिति पर टिका है।

नन-इनक्लुजन प्रोटोकॉल: चुनाव आयोग ने ऑटो डिलिशन को हटाया

एक और महत्वपूर्ण बदलाव वापस न किए गए गणना प्रपत्रों के प्रबंधन से संबंधित है।

बिहार में, 25 जुलाई, 2025 की समय-सीमा तक प्रपत्र जमा न करने पर मसौदा सूची से स्वतः बाहर होने का खतरा था। नए राष्ट्रव्यापी निर्देश में बिना जांच के ऐसी प्रक्रिया पर स्पष्ट रूप से प्रतिबंध लगाया गया है।

यदि किसी मतदाता का प्रपत्र वापस नहीं किया जाता है, तो बीएलओ को स्थानीय जांच के आधार पर संभावित कारण का पता लगाना होगा कि क्या वह व्यक्ति अनुपस्थित है, अपना निवास स्थान बदल चुका है, उसकी मृत्यु हो गई है या वह डुप्लिकेट के रूप में है।

गुप्त तरीके से हटाने के बजाय, निर्देश में सार्वजनिक तौर पर प्रकट करने को अनिवार्य किया गया है:

“जिन मतदाताओं के नाम ड्राफ्ट रोल में शामिल नहीं हैं, उनकी बूथवार सूचियां संबंधित पंचायत भवन/नगरीय स्थानीय निकाय कार्यालय के नोटिस बोर्ड और मुख्य निर्वाचन अधिकारी की वेबसाइट पर प्रदर्शित की जाएंगी।”

भौतिक और डिजिटल दोनों प्रकाशनों की यह आवश्यकता बिहार में अनुपस्थित एक संरचनात्मक पारदर्शिता तंत्र को दर्शाती है। नन-इनक्लुजन अब एक सत्यापन योग्य प्रशासनिक कार्य है, जो दावों और आपत्तियों के चरण के दौरान जांच और चुनौती के लिए खुला है।

ऐसा पब्लिक डिस्प्ले प्रक्रियात्मक लग सकता है, लेकिन व्यवहार में यह मनमाने ढंग से मताधिकार से वंचित किए जाने के खिलाफ एक सुरक्षा कवच का काम करता है - यह चिंता बिहार की सुनवाई के दौरान बार-बार जाहिर की गई थी।

चरणबद्ध जांच: मसौदा प्रकाशन के बाद सत्यापन

चुनाव आयोग की नई समय-सीमा दो-चरणीय संरचना को औपचारिक रूप देती है:

1. गणना और ड्राफ्ट रोल प्रकाशन (4 नवंबर - 9 दिसंबर, 2025)
2. दावे, आपत्तियां और सत्यापन (9 दिसंबर, 2025 - 31 जनवरी, 2026)

इस मॉडल के तहत, जिन मतदाताओं का नामांकन किसी भी पिछली एसआईआर रोल से नहीं जोड़ा जा सकता, उन्हें ड्राफ्ट प्रकाशन के बाद ही नोटिस जारी किए जाएंगे। इससे यह सुनिश्चित होता है कि बीएलओ का नवंबर का काम पूरी तरह से सटीक डेटा संग्रह पर केंद्रित होगा, न कि दस्तावेजों की निगरानी पर।

गणना को सत्यापन से अलग करके, आयोग अपने पहले के बिहार मॉडल की अव्यवहारिकता को स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है, जिसने दोनों को एक ही, अधिक-दबाव वाले चरण में मिला दिया था।



चुनाव आयोग के 27 अक्टूबर, 2025 के निर्देश [12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कवर करने वाला राष्ट्रव्यापी एसआईआर] यहां पढ़े जा सकते हैं।




बिहार विवाद के साये में राष्ट्रव्यापी कार्यान्वयन

चुनाव आयोग की राष्ट्रव्यापी एसआईआर योजना, जिस पर 10 सितंबर, 2025 को नई दिल्ली में आयोजित मुख्य निर्वाचन अधिकारियों (सीईओ) के तीसरे सम्मेलन में औपचारिक रूप से चर्चा की गई थी, मतदाता सूचियों को सुधारने और अपडेट करने के लिए एक "एकीकृत" योजना के रूप में की गई थी। फिर भी, राज्य-स्तरीय वास्तविकताओं ने प्रक्रियागत गहरे अंतरों को उजागर किया है।



बिहार में, एसआईआर की वैधता और मंशा को लेकर विवाद तब शुरू हुआ जब राज्य की पूरी मतदाता सूची को फिर से गणना के दायरे में डाल दिया गया। बूथ स्तरीय अधिकारियों (बीएलओ) को निर्देश दिया गया कि वे हर घर जाएं, पहले से भरे हुए फॉर्म बांटें और सभी मौजूदा मतदाताओं, यहां तक कि लंबे समय से पंजीकृत मतदाताओं से भी, नागरिकता और उम्र के दस्तावेज़ी प्रमाण इकट्ठा करें। इससे संशोधन एक तरह से सत्यापन अभियान बन गया और प्रमाण देने का बोझ मतदाता पर आ गया।

24 जून 2025 की अधिसूचना - जो बाद में कई याचिकाओं के केंद्र में रही - में कहा गया था कि यदि किसी निर्वाचन निबंधन अधिकारी (ईआरओ) या सहायक ईआरओ को किसी प्रस्तावित मतदाता की पात्रता पर “दस्तावेजों की अनुपस्थिति या अन्य किसी कारण से” संदेह हो, तो उन्हें स्वतः संज्ञान लेकर जांच शुरू करनी होगी, नोटिस जारी करना होगा और यहां तक कि “संदिग्ध विदेशी नागरिकों” के मामलों को नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत सक्षम प्राधिकारी को भेजना होगा।

24 जून 2025 की बिहार एसआईआर संबंधी निर्देशिका यहां पढ़ी जा सकती है।



एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) जैसी संस्थाओं और कई राजनीतिक दलों ने बिहार में चलाए गए इस अभियान की अचानक शुरुआत और इसके दायरे- दोनों पर सवाल उठाए। विवाद तब और गहराया जब शिकायतें सामने आईं कि बीएलओ (बूथ लेवल अधिकारी) मतदाताओं को केवल एक प्रति फॉर्म की दे रहे थे, जबकि मतदाताओं से डुप्लिकेट प्रतियां जमा करने को कहा गया था। इसके अलावा, अनुचित दबाव और अवास्तविक समय-सीमाओं की भी कई रिपोर्टें सामने आईं।

न्यायिक दखल: सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप

सितंबर की शुरुआत तक भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप किया।

बिहार एसआईआर को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमल्या बागची की पीठ ने चुनाव आयोग द्वारा दस्तावेज जमा कराने की अनिवार्यता और मतदाताओं की नागरिकता के आकलन में उसकी भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए। 8 सितंबर 2025 को दिए गए आदेश को सुप्रीम कोर्ट का निर्णायक मोड़ माना गया। इसका उल्लेख LiveLaw की रिपोर्ट में किया गया।

न्यायाधीशों ने यह स्पष्ट किया कि आधार कार्ड को पहचान प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन इसे “नागरिकता के प्रमाण” के रूप में नहीं माना जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश ने जहां एक ओर चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र से आगे बढ़ने की प्रवृत्ति पर रोक लगाई, वहीं दूसरी ओर आधार को बारहवां स्वीकृत पहचान दस्तावेज के रूप में शामिल भी किया - जो 24 जून की अधिसूचना के परिशिष्ट ‘सी’ और ‘डी’ में सूचीबद्ध पहले के ग्यारह दस्तावेजों के अतिरिक्त है। अदालत ने यह भी स्पष्ट निर्देश दिया कि यदि किसी मतदाता का आधार कार्ड स्वीकार करने से इनकार किया जाता है, तो उसे “अत्यंत गंभीरता से लिया जाएगा।”

सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करते हुए, निर्वाचन आयोग (ईसीआई) ने 9 सितंबर 2025 को बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी (सीईओ) को विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (SIR) के दौरान आधार कार्ड के इस्तेमाल से संबंधित दिशा-निर्देश जारी किए।

ईसीआई का 09.09.2025 को जारी आधार संबंधी निर्देश यहां पढ़ा जा सकता है।



इस न्यायिक हस्तक्षेप ने एसआईआर ढांचे को नये सिरे से परिभाषित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने एक स्पष्ट कानूनी सीमा खींच दी -पहचान सत्यापन जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 (धारा 23(4)) के तहत अनुमति है, लेकिन नागरिकता का आकलन निर्वाचन आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। वास्तव में, बिहार एक राष्ट्रीय परीक्षण मामला बन गया, जिससे आयोग को अन्य राज्यों में इसे लागू करने से पहले अपनी प्रक्रिया को पुनः संशोधित करने के लिए बाध्य होना पड़ा।

पश्चिम बंगाल: ऐतिहासिक मानचित्रण, प्रशासनिक पृथक्करण

इसके विपरीत, टेलीग्राफ की रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिम बंगाल की एसआईआर को एक अलग तर्क के आधार पर तैयार किया गया है यानी पुनर्गणना के बजाय ऐतिहासिक मानचित्रण। यहां, चुनाव आयोग ने 2002 की मतदाता सूची के आधार पर घर-घर जाकर सत्यापन का आदेश दिया है, जो राज्य में पिछली बार गहन पुनरीक्षण का कार्य था। बीएलओ को प्रत्येक मौजूदा मतदाता की 2002 की सूची से जांच करने और नए दस्तावेज मांगने के बजाय निरंतरता की पुष्टि करने का काम सौंपा गया है।

जिनके नाम दोनों सूचियों में हैं, उन्हें कोई प्रमाण देने की जरूरत नहीं होगी। बच्चे – यदि उनका नामांकन 2002 के बाद हुआ है – अपने माता-पिता के विवरण का इस्तेमाल संबंध स्थापित करने के लिए कर सकते हैं। 2002 की सूची में शामिल न होने वालों के लिए, बीएलओ आगामी दावों और आपत्तियों के चरण के दौरान संभावित समावेशन हेतु जानकारी इकट्ठा करेंगे।

यह दृष्टिकोण – जो तकनीकी लगता है – महत्वपूर्ण प्रशासनिक और राजनीतिक निहितार्थ रखता है। मानचित्रण के साथ-साथ, चुनाव आयोग ने मुख्य निर्वाचन अधिकारी (सीईओ) कार्यालय को पश्चिम बंगाल के गृह और पर्वतीय मामलों के विभाग से अलग कर दिया है और इसे केंद्र सरकार के नियंत्रण वाले परिसर में स्थानांतरित कर दिया है। आधिकारिक तर्क: "प्रशासनिक तटस्थता।" लेकिन एक ऐसे राज्य में जहां लंबे समय से एक विपक्षी दल का शासन है, यह कदम विश्वास और नियंत्रण पर सवाल उठाता है।

आयोग जहां जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 का हवाला देकर इस डिलिंकिंग को उचित ठहराता है, वहीं पर्यवेक्षकों का कहना है कि भाजपा शासित राज्यों में इस तरह के हस्तक्षेप दुर्लभ हैं, जो तटस्थता के सिद्धांत के असमान अनुप्रयोग (uneven application) का संकेत देता है।

असम: नागरिकता और बाहर करने की राजनीति

हालांकि देश के किसी और हिस्से में SIR प्रक्रिया का नागरिकता राजनीति से इतना गहरा संबंध नहीं दिखता, जितना असम में। अगस्त 2025 में घोषित राज्यव्यापी पुनरीक्षण ने एक बार फिर उन पुरानी आशंकाओं को सामने ला दिया जो लंबे समय से “अवैध मतदाताओं” की बहस के इर्द-गिर्द घूमती रही हैं -यह वही शब्दावली है जो राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के विवादों से गहराई से जुड़ी रही है। ईसीआई को नोटिफिकेशन सोशल मीडिया पर उपलब्ध है:





https://www.facebook.com/story.php?story_fbid=1821672638704928&id=100025...

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि एसआईआर मतदाता सूचियों को "साफ" करेगा। असम के मुख्य निर्वाचन अधिकारी (सीईओ) अनुराग गोयल ने जिला अधिकारियों को बीस दिनों के भीतर तैयारी पूरी करने का निर्देश दिया है-यह रफ्तार बिहार में चल रही अधिक-दबाव वाली प्रक्रिया के जैसा है। यहां संदर्भ बिंदु 2005 का संशोधन है, जिसे अब तुलना के लिए राजनीतिक दलों के साथ साझा किया जा रहा है।



व्यवहार में, इसने चयनात्मक जांच की आशंकाओं को फिर से जगा दिया है। मतदाता सूची सत्यापन को नागरिकता से जोड़कर, असम मॉडल उसी अस्पष्ट क्षेत्र को और मजबूत करता है जिसको लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार मामले में आगाह किया था।

यह त्रिकोणीय समीकरण-बिहार का न्यायिक रूप से संयमित सुधार, बंगाल का अभिलेखीय सत्यापन और असम का राजनीतिक रूप से संवेदनशील अभियान -चुनाव आयोग की राष्ट्रीय योजना की "एकीकृत लेकिन भिन्न" प्रकृति को उजागर करता है। एसआईआर की परिकल्पना भले ही केंद्रीय स्तर पर की गई हो, लेकिन इसका क्रियान्वयन संदर्भ, न्यायालय और राजनीति के कारण बिखड़ा हुआ है।

बड़ा सवाल: प्रक्रिया एक, लागू करने के तरीके अलग-अलग

चुनाव आयोग का राष्ट्रव्यापी एसआईआर अब एक विरोधाभास पर टिका है। इसे एक एकीकृत अभ्यास के रूप में डिजाइन किया गया है-एक ही अनुसूची, एक ही प्रपत्र, एक ही योग्यता तिथि-लेकिन इसका जमीनी क्रियान्वयन संदर्भ और बाध्यताओं के कारण स्पष्ट रूप से अलग अलग है।

● बिहार का एसआईआर न्यायिक निगरानी में है और इसकी दस्तावेज तैयार करने नीति को न्यायालय द्वारा फिर से लिखा किया गया है।

● पश्चिम बंगाल की प्रक्रिया ऐतिहासिक रूप से राज्य सरकार से जुड़ी हुई है और प्रशासनिक रूप से उससे अलग है।

● असम का संशोधन नागरिकता विमर्श में उलझा हुआ है।

● और शेष बारह राज्यों में, यह प्रक्रिया अब एक शिथिल दस्तावेज़ीकरण व्यवस्था के तहत क्रियान्वित की जा रही है जो बिहार की प्रतिक्रिया को स्वीकार करती है।

नतीजा यह हुआ कि एक राष्ट्रीय ढांचा, जो कागज पर तो एकीकृत दिखता है, जमीन पर राज्यवार वास्तविकताओं में बिखर गया। देशभर में चल रहा SIR अभियान, एकरूपता से ज्यादा भारत की राजनीतिक और प्रशासनिक विविधता का प्रतिबिंब बनकर उभरा है।

पुनः समायोजन, सामंजस्य की पहल नहीं

27 अक्टूबर, 2025 का निर्देश एक रणनीतिक पुनः समायोजन का प्रतीक है-यह एक सावधानीपूर्वक उठाया गया कदम है - उस हाइपर नौकरशाही और नागरिकता-आधारित मॉडल से दूरी बनाने की दिशा में, जिसने बिहार के SIR को परिभाषित किया था। राष्ट्रव्यापी एसआईआर निर्देश, प्रक्रिया की गति और स्वरूप पर चुनाव आयोग के नियंत्रण को बनाए रखते हुए, तत्काल सत्यापन की तुलना में समावेशन, पारदर्शिता और प्रक्रियागत निष्पक्षता को प्राथमिकता देते प्रतीत होते हैं।

फिर भी, यह पुनः समायोजन अनिवार्य रूप से मूल प्रश्नों का समाधान नहीं करता है:

● क्या कोई संवैधानिक रूप से स्वतंत्र निकाय प्रक्रियागत त्रुटि स्वीकार किए बिना अपने दिशानिर्देशों को बीच में ही संशोधित कर सकता है?
● क्या एक राज्य में न्यायिक निगरानी पूरे देश में एक समान वैधता सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त है?
● और, सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि क्या विकेन्द्रीकृत कार्यान्वयन लोकतांत्रिक भागीदारी को बढ़ाता है - या इलेक्टोरल इनक्लुजन के असमान मानकों को जन्म देने का जोखिम उठाता है?

चूंकि राष्ट्रव्यापी गणना 4 नवंबर, 2025 से शुरू होगी, इसलिए चुनाव आयोग को सुधार और निरंतरता के बीच संतुलन बनाना होगा। संशोधित ढांचा बिहार जैसी सख्त जांच-पड़ताल की गलतियों से तो बच गया है, मगर राज्यों में इसके अलग-अलग रूप साफ दिखाते हैं कि “एकीकृत” कहे जाने वाला SIR वास्तव में एक बिखरा हुआ तंत्र है जहां कानूनी दायरे सीमित हैं, राजनीतिक रूप से विवादित है और प्रशासनिक संतुलन अब भी असमान है।

Related

देशभर में 30 सितंबर तक एसआईआर शुरू करने को लेकर चुनाव आयोग ने राज्यों के चुनाव अधिकारियों को तैयार रहने को कहा

बिहार एसआईआर: मतदाताओं के नाम हटाने के कारण और ‘अवैध प्रवासियों’ की संख्या की जानकारी मुख्य चुनाव आयुक्त ने नहीं दी

भाजपा के नाम पर बिहार के एक निर्वाचन क्षेत्र में लगभग 80,000 मुस्लिम मतदाताओं के नाम हटाने के बार-बार प्रयास किए गए

बाकी ख़बरें