सुप्रीम कोर्ट ने 18 अक्टूबर से कुछ ऐसी याचिकाओं पर सुनवाई शुरू कर दी है, जिसका भारतीय चुनावी प्रक्रिया और भारतीय संविधान पर दूरगामी असर पड़ सकता है।
पिछले कई दशकों से खास कर कर इधर, धार्मिक भावनाओं को उभारने ( भड़काने और अन्य कार्रवाई के जरिये ) वाली राजनीतिक पार्टियों के सामने आने के बाद चुनावी प्रक्रिया सांप्रदायिक रंग में रंग दी गई है।(1)
आजकल सुप्रीम कोर्ट उन याचिकाओं पर फिर विचार कर रहा है, जिनमें इस मुद्दे को उठाया गया है और इस संदर्भ में हिंदुत्व की व्याख्या की मांग की गई है। इस मुद्दे को स्पष्ट करने के लिए समीक्षा याचिकाएं और अपीलें दायर की गई हैं। सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच ने 1996 में (जस्टिस जेएस वर्मा, सरन सिंह और वेंकटस्वामी) शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे को जन प्रतिनिधित्व कानून, की धारा 123 (3) और 123 (3ए) के तहत भ्रष्ट चुनावी आचरण का दोषी ठहराया था। हालांकि उस दौरान धारा 123 (3) की व्याख्या सीमित दायरे में की गई थी। इस व्याख्या के लिए मुंबई के तत्कालीन मेयर रमेश प्रभु के पक्ष में बाल ठाकरे की ओर से 29 नवंबर, 10 और 12 दिसंबर 1987 के भाषणों को आधार बनाया गया था। रमेश प्रभु विधानसभा का चुनाव लड़ रहे थे।
ये भाषण बेहद स्पष्ट थे।
उर्दू और मराठी अखबारों ने 1.12.1987 को उर्दू और मराठी अखबारों में तस्वीरों के साथ छपे उनकी खबर का शीर्षक था- हिंदू देव-देवतावारील टीका सहा करनार नहीं - ठाकरे- मतलब यह कि हम हिंदू देवी-देवताओं की आलोचना बर्दाश्त नहीं करेंगे।
9.12.1987 को खार-डांडा इलाके के शंकर मंदिर के पास रात नौ से बारह बजे तक कई भाषण दिए गए। इन भाषणों को प्रतिवादी नंबर एक बाल ठाकरे, हरीश चंद्र दत्ताजी साल्वी (शिव सेना नेता) और गुजरात के एक धार्मिक नेता शंभू जी महाराज ने संबोधित किए थे। इन भाषणों में बाल ठाकरे ने कहा था- इस चुनाव में हिंदूवाद की जीत होगी और हिंदू धर्म पर खतरे के खात्मे में हम विजयी बन कर उभरेंगे। आप छगन भुजबल के साथ शामिल होने के लिए रमेश प्रभु का साथ निभाएं। अगर आप इन सारे मस्जिदों को खोदेंगे तो इन सभी के नीचे मंदिर पाएंगें। जो कोई भी हिंदुओं को खिलाफ खड़ा होगा उसकी जूतों से पूजा की जाएगी। धर्म के नाम पर प्रभु नाम के उम्मीदवार को जिताना चाहिए।
10.12.1987 की सभाएं रात नौ बजे से 12 बजे तक विले पार्ले (ईस्ट) में हुई थी। शाहाजी मार्ग पर शंभू महाराज, बाल ठाकरे, रमेश मेहता, ऋषि कपूर, जितेंद्र मधुकर जोशी और रमेश प्रभु ने भाषण दिए। सभा में ठाकरे ने जो भाषण दिया वह इस तरह था- हम हिंदुत्व की विचारधारा के साथ आए हैं। शिव सेना इस विचारधारा को लागू करेगी। यह देश हिंदुओं का है लेकिन यहां राम और कृष्ण को अपमानित किया जाता है। वे आपके वोटों से ज्यादा मुस्लिम वोटों की कद्र करते हैं। हमें मुस्लिम वोट नहीं चाहिए। शहाबुद्दीन जैसा सांप जनता पार्टी में बैठा हुआ है। निहाल अहमद जैसा शख्स भी जनता पार्टी में है। इसलिए विले पार्ले के लोगों को इस पार्टी (जनता पार्टी ) को दफन कर देना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिकाओं में यह प्रमाणित करने के लिए इन भाषणों के प्रमाण दिए गए कि बाल ठाकरे ने रमेश प्रभु के समर्थन में भड़काने वाली बातें कहीं। ये भाषण भारत के विभिन्न वर्ग के लोगों के बीच दुश्मनी फैलाने वाली कार्रवाइयों के तौर पर पेश किए गए। इनका एक मात्र मकसद लोगों के बीच दुश्मनी पैदा करना और प्रभु के समर्थन में धर्म के नाम पर वोट मांगना था।
याचिकाओं पर पुनर्विचार के जरिये जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) के तहत चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार और धर्म से उसके संबंधों की व्याख्या की जानी है। साथ ही किसी उम्मीदवार और उसके घोषणापत्र के बीच संबंधों की व्याख्या होनी है। इस पर बहस के दौरान एक नई व्याख्या और धर्म और उम्मीदवार के बीच रिश्तों के मामले में फैसला आने की उम्मीद है।
इसलिए इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या और फैसले का काफी बड़ा असर होगा। खास कर ऐसे वर्चस्ववादियों पर जो उम्मीदवारों के धर्म के आधार पर बड़ी बेशर्मी से वोट उगाहने की अपील करते हैं।
इस बात पर भी बहस होगी क्या जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत चुनाव लड़ने वाला उम्मीदवार एक एजेंट है। क्या उसके पक्ष में प्रचार करने वाला भी एजेंट है जैसा कि जन प्रतिनिधत्व कानून की धारा 29 (ए) में उस पर लगने वाले कानूनी प्रतिबंधों की व्याख्या करते हुए बताया गया है।
अगर जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत रजिस्टर्ड पार्टी का कोई नेता भड़काने वाला भाषण देता है (चुनावी फायदे के लिए धर्म के नाम पर भड़काऊ भाषण) और इस कानून की धारा 123 (3) का उल्लंघन करता है तो उसे क्या नतीजे भुगतने होंगे?
कई बार चुनावी अभियान के दौरान इस तरह के भाषणों के समय चुनाव लड़ रहा उम्मीदवार खुद मौजूद होता है। कई बार उसकी पार्टी के दूसरे नेता भाषण देते हैं लेकिन वह वहां नहीं होता। चुनाव के दौरान इस्तेमाल होने वाले पोस्टरों, वीडियो और दूसरी प्रचार सामग्रियों में ( जो चुनावी कानून के उल्लंघन करते हुए प्रदर्शित किए जा रहे हों, या जो धर्म के नाम पर मतदाताओं को भड़का रहे हों।) भड़काने वाली बाती होती हैं। क्या ऐसे मामलों में उम्मीदवार को चुनावी कानून के उल्लंघन का दोषी करार दिया जा सकता है? इन सभी मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट की इस बहस के दौरान चर्चा होगी और इस पर कोई व्याख्या या फैसला निकल कर सामने आ सकता है।
बांबे हाई कोर्ट अपने फैसले में इस मुद्दे को लेकर ( उस दौरान शिवसेना-भाजपा के चुनावी अभियान को लेकर) काफी स्पष्ट रहा है। फैसले के दौरान अपनी व्याख्या में उसने कहा कि हिंदुत्व का नारा साफ तौर पर जन प्रतिनिधित्व कानून का उल्लंघन है। अपील के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया वह मिलाजुला था। सर्वोच्च अदालत की कुछ बेंचों ने बांबे हाई कोर्ट के फैसले के कुछ पहलुओं का समर्थन किया। जस्टिस वरियावा की बेंच और जस्टिस एनपी सिंह, अहमदी और जस्टिस पुंची वाली दूसरी बेंच ने साफ कहा कि बहुसंख्यक आबादी वाले धर्म हिंदुत्व के नाम पर लगाया गया नारा साफ तौर पर भारतीय संविधान और भारतीय चुनाव कानून का उल्लंघन है। लेकिन जस्टिस जेएस वर्मा ने डॉ.रमेश प्रभु बनाम प्रभाकर कुंते के मामले में जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) की व्याख्या करने के दौरान अभद्र भाषण के लिए ठाकरे में कठघरे में खड़ा करते हुए परोक्ष रूप से ‘एक देश एक संस्कृति’ की विचारधारा को मान्यता दे दी, जो हिंदुत्व का आधार है। इसके बाद के घोषणापत्र में आरएसएस प्रेरित भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणापत्र में जस्टिस जेएस वर्मा की बेंच की इस निष्कर्ष का इस्तेमाल (1998, 2004 और 2009) किया। उसने बेंच की इस व्याख्या को अपनी विचारधारा को मिली आखिरी मान्यता मान ली।
भारतीय संविधान एक कानूनी और सामाजिक दस्तावेज, दोनों है। हमारा स्वतंत्रता संग्राम इस मायने में अनोखा है क्योंकि यह सच और अहिंसा पर आधारित है। यह सभी को खुद को समेटे में हुए- गरीब-अमीर, महिला-पुरुष, युवा सभी धार्मिक समुदाय चाहें वह हिंदू हों मुसलिम हों, ईसाई, पारसी, सिख या जैन हों। वास्तव में यह संविधान सभी जातियों और समुदायों को समेटे हुए है। भारतीय संविधान एक लंबी संसदीय बहस का नतीजा है, जिसमें न सिर्फ स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्य निहित हैं बल्कि यह मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को भी समेटे हुए है।
पिछले कुछ दशकों से संघ परिवार द्वारा संचालित बीजेपी अपने चुनावी अभियानों के जरिये इस देश के कानून को लगातार चुनौती देता रहा है। इन चुनावी अभियानों में वह लगातार ध्रुवीकरण और बंटवारे की राजनीति को हवा देता रहा है। इस साल पिछले कुछ महीनों के चुनावी अभियानों में खास कर यूपी में बीजेपी ने अपने अभियानों में लगातार ध्रुवीकरण और बंटवारे की राजनीति को हवा दी है।
देश की राजनीति की दिशा बताने वाले यूपी में अप्रैल-मई, 2016 में बीजेपी एक और विभाजनकारी राजनीतिक अभियान पर उतर आई। कुछ महीनों पहले यूपी के कई इलाकों में लगाए गए पोस्टरो में राज्य के बीजेपी चीफ केशव प्रसाद मौर्य को भगवान कृष्ण के तौर पर दिखाया गया। यह राज्य में सांप्रदायिक और धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर वोटों की लामबंदी के लिए होने वाली गिरोहबंदी का संकेत था। यह पोस्टर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में भी दिखाई दिया। इन पोस्टर में कई आपराधिक मामलों के आरोपी बीजेपी चीफ केशव प्रसाद मौर्य को कृष्ण के तौर पर दिखाया गया था और यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव समेत अन्य नेताओं को कौरवों के तौर पर।
इस तरह के पोस्टर या तस्वीरें साफ तौर पर राजनीतिक फायदे के मकसद से लगाए जाती हैं। दरअसल चुनाव का ऐलान के बाद ही जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (ए) और 123 (3) लागू होती है। यूपी चुनाव होने में अभी देर है। यह 2017 में किसी वक्त हो सकता है। इससे पहले बीजेपी कानून की इस धारा के पहलू का फायदा उठाने में लगी है। उम्मीद है चुनाव आचारसंहिता लागू होने से पहले इस तरह के कई और पोस्टर अभी इस राज्य में दिखेंगे।
पिछले कई दशकों से इस तरह के अभियान और राजनीति बीजेपी और संघ की यूएसपी रहे हैं। गुजरात हो या दिल्ली या फिर महाराष्ट्र, असम, केरल या कोई दूसरा राज्य, भाजपा कानूनों का उल्लंघन करती रही है। इन राज्यों में उसने साफ तौर पर धर्म के आधार पर वोटरों की लामबंदी की।
दस साल पहले 2007 के यूपी चुनावों के दौरान भारतीय निर्वाचन आयोग ने बीजेपी को खासी लताड़ लगाई थी और यहां तक कि राज्य की पार्टी इकाई की ओर से नफरत की भावनाएं भड़काने वाली सीडी बांटने के आरोप में सीनियर बीजेपी नेताओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का भी निर्देश दिया था। चुनाव आयोग ने वरिष्ठ बीजेपी नेता लालजी टंडन और सीडी तैयार करने वाले अन्य नेताओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के निर्देश दिए थे। इन सीडी में बाबरी मस्जिद और 2002 में गोधरा में ट्रेन में हुई आगजनी का हवाला दिया गया था। ये सीडीज लोगों के बीच बड़े पैमाने पर बांटी गई थीं।
बीजेपी की राज्य इकाइयों की ओर से बांटी गई इन सीडीज को पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की मंजूरी मिली हुई थी। ये इतनी आपत्तिजनक और आक्रामक थीं कि कई नागरिक समूहों और दूसरे राजनीतिक दलों ने चुनाव आयोग से बीजेपी की मान्यता रद्द करने की अपील की थी। आयोग ने बीजेपी को इस मामले में नोटिस भी जारी किया था।
मिलीजुली संस्कृति
भारतीय संविधान में राष्ट्रवाद की भावनाएं समाई हुई हैं। इसे टेरेटोरियल नेशनलिज्म कहा जाता है। यानी भारतीय की धरती पर पैदा हुआ हर व्यक्ति भारतीय है। भारतीय क्षेत्र के अंदर पैदा होने या नागरिकता की वजह से हर नागरिक के कुछ मौलिक अधिकार हैं और ये समान हैं। चाहे वह महिला हो पुरुष हो या हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन पारसी या नास्तिक हो। संविधान में लोगों के बीच सहिष्णुता और एकता कायम करने का अधिकार निहित है। इसके तहत भाषाई, धार्मिक और वर्गीय विविधता कायम रखने का अधिकार है। संविधान में भारत की मिलीजुली संस्कृति को बरकरार रखने की शक्ति और अधिकार निहित है।
प्रभाव और व्याख्या
सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों को ओर से 1996 में दिए गए फैसले ने हिंदुत्व के समर्थकों को कुछ दलीलें मुहैया करा दी हैं। हालांकि उस फैसले से सुप्रीम कोर्ट की बाद की दो बेंचों ने असहमति जताई थी। यही वजह है कि संविधान और चुनावी कानून के संदर्भ में हिंदुत्व की व्याख्या पर सात सदस्यीय बेंच का फैसला बेहद महत्वपूर्ण साबित होने वाला है।
नारायण सिंह बनाम सुंदरलाल पटवा मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच इस मामले में जस्टिस वर्मा के फैसले से असहमत थी। यही वजह है कि इसने इस सात सदस्यीय बेंच को रेफर कर दिया था। इसमें कहा गया था कि 1996 में जस्टिस वर्मा में फैसला सुनाने के वक्त एसआर बोम्मई केस और करतार सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की अनदेखी की थी। उन्होंने इस फैसले के दौरान जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) एक के तहत ऐसा फैसला दिया, जो चुनाव में भ्रष्ट आचरण को सीमित तौर पर व्याख्यायित करता है।
जस्टिस वर्मा के आदेश में कहा गया कि उम्मीदवार जब तक ‘अपने’ धर्म के आधार पर वोट न मांगे तब तक इसे भ्रष्ट चुनावी आचरण नहीं माना जाएगा। अगर उसने वोटरों के धर्म के आधार पर चुनाव मांगा है तो इसे भ्रष्ट आचरण नहीं माना जाएगा। जस्टिस रामास्वामी ने इस पांच सदस्यीय बेंच को केस रेफर करते हुए कहा- पूरे केस को पांच सदस्यीय बेंच द्वारा सुने जाने का फैसला दिया।
अभिराम सिंह बनाम सीडी उमाचंद के मामले में जस्टिस के रामास्वामी की अगुआई वाली तीन जजों की बेंच ने पूरे मामले को पांच सदस्यीय बेंच को यह कह कर रेफर कर दिया कि चूंकि यह फैसला चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता और शुद्धता के सवाल से जुड़ा है। और यह पूरी प्रक्रिया लोकतांत्रिक राजनीति में घातक प्रभावों से भर गई है। इसलिए इसे पांच सदस्यीय बेंच के सुपुर्द करना ही ठीक होगा। जस्टिस रामास्वामी का आकलन सही था। 1996 के इस फैसले के बाद भी चुनावी संदर्भ में धर्म की व्याख्या को ठोस तरीके से निरूपित नहीं किया जा सका क्योंकि इसी साल एक और फैसले ( मनोहर जोशी बनाम एनबी पार्टिल के मामले में) दुर्भाग्य से कोर्ट ने मनोहर जोशी के बयान को धर्म के आधार पर की गई अपील नहीं माना। मनोहर जोशी ने कहा था कि महाराष्ट्र को पहला हिंदू राज्य बनाया जाएगा।
अब सुप्रीम कोर्ट की ओर से हिंदुत्व और हिंदूवाद की पूरी व्याख्या पर दोबारा विचार किया जा रहा है। दो फैसलों ने कहा है कि हिंदुत्व और हिंदूवाद में कोई अंतर नहीं है। इनमें यह भी कहा गया कि हिंदुत्व ‘इस महाद्वीप में लोगों के जीवन जीने का तरीका है,। इस शब्द को भारतीयकरण के पर्यायवाची के तौर पर इस्तेमाल किया गया है और समझा गया। इसका मतलब यह कि इस तरह की व्याख्या से इस देश में अलग-अलग संस्कतियों के बीच भेद मिटा कर एक एकांगी और समान संस्कृति के विकास को व्याख्यायित किया गया। अब सुप्रीम कोर्ट की ओर से होने वाली सुनवाई में दूसरी न्यायिक व्याख्याएं भी अहम भूमिका अदा करेंगी। सबसे अहम तो सुप्रीम कोर्ट की ओर से एसआर बोम्मई केस में दिया गया निर्णायक फैसला है। ये फैसले दोनों लिहाज से अहम है। चुनावी कानूनों यानी जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123-3 की व्याख्या के लिहाज से भी और धर्मनिरपेक्षता व भारतीय संविधान के बुनियादी मूल्य के संदर्भ में भी।
वर्चस्ववादी और सांप्रदायिक ताकतों ने 1995 और 1996 के न्यायिक फैसले को अपनी विभाजनकारी विचारधारा की न्यायिक स्वीकृति के तौर पर समझ लिया है। भारतीय राजनीति में हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र की रणनीति जब से एक आक्रामक रणनीति के तौर पर सामने आई है, देश में विभाजन और समुदायों के बीच ध्रुवीकरण की राजनीति चरम पर है। आज खुले आम हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र के झंडे के नीचे धार्मिक अल्पसंख्यकों की जिंदगी में दखल दिया जा रहा है।
संविधान में समावेशी और मिलीजुली संस्कृति को बढ़ावा देने की शक्ति निहित है। जस्टिस वर्मा के फैसले और एक अन्य निर्णय में हिंदुत्व की जो संकीर्ण कानूनी व्याख्या की गई, इससे समावेशी और मिलीजुली संस्कृति की इस धारणा के बारे में एक अलग राय पैदा हुई है। लिहाजा संवैधानिक दृष्टि और देश के अंदर अन्य धर्म और संस्कृतियों के लोगों के एक निश्चित भविष्य के लिए इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट में जारी पुनर्विचार बेहद जरूरी है।
हिंदुत्व और हिंदूवाद
यहां सवाल यह है पैदा होता है कि क्या अदालतें हिंदुत्व को आध्यात्मिक और सामाजिक तौर पर परिभाषित करने में सक्षम हैं। कुछ जजों के लिए हिंदुत्व और हिंदूवाद पर्यायवाची हैं। इसी तरह एस आर बोम्मई मामले में अलग-अलग ढंग से सुनवाई के दौरान जजों ने महात्मा गांधी और विवेकानंद की ओर से दिए गए उद्धरणों का जिक्र किया है, जिनमें कहा गया है कि सभी धर्मों के प्रति आदर और सहिष्णुता इस हिंदू धर्म के मूल्य रहे हैं।
इतिहासकार तपन रायचौधुरी के मुताबिक विवेकानंद ने कहा था- सभी धार्मिक व्यवस्था और आदर्शों की नैतिकता एक ही है- मैं ओम कहता हूं और कोई यहोवा। कोई अल्लाह हो मोहम्मद कहता है तो कोई यीशु को पुकारता है। रायचौधुरी के मुताबिक विवेकानंद पहले ऐसे राष्ट्रवादी विचारकों में से थे, जो देश के भारतीय-इस्लामी अतीत को भारतीय विरासत मानते थे।
महात्मा गांधी कहते हैं हिंदूवाद, इस्लाम, ईसाई और बौद्ध धर्म भले ही अलग हों लेकिन एक बिंदु पर वे एक दूसरे में समाहित हो जाते हैं। जैसे पेड़ का तना तो एक होता है लेकिन शाखाएं अलग-अलग। दुनिया में एक ही संपूर्ण धर्म है लेकिन मानव माध्यम से गुजरने के बाद इसके कई रूप हो जाते हैं। मुस्लिम का अल्लाह, ईसाई का गॉड और हिंदू का ईश्वर समान है। अगर आप दूसरे धर्मों से नफरत करते हैं तो हिंदू नहीं हो सकते। मैं खुद को इस्लाम, ईसाई धर्म और जरथुस्ट्रवाद समेत सभी धर्मों का अनुयायी मानता हूं क्योंकि मैं एक सच्चा हिंदू हूं।
हिंदुत्व
हिंदुत्व को संकीर्णता में देखने वालों के आलोचकों का कहना है कि निश्चत तौर पर हिंदुत्व और हिंदूवाद पर्यायवाची नहीं हैं। सावरकर की 1923 में आई किताब हिंदुत्व, कौन हिंदू है। कि लगता है कि फैसला देते वक्त अनदेखी की गई। सावरकर राष्ट्रीयता को परिभाषित करने के प्रति खासे आग्रही रहे हैं। उन्होंने लिखा है- हिंदू का मतलब ऐसे व्यक्ति से है जो सिंधु से लेकर सागर तक फैले इस विशाल भारतवर्ष को पितृभूमि और पुण्यभूमि समझता है। मुसलमानों और ईसाइयों के संदर्भ में उन्होंने कहा हिन्दुस्तान उनके लिए पितृभूमि है लेकिन पुण्यभूमि नहीं। उनकी पुण्यभूमि दूर अरब या फिलीस्तीन में है। हिंदुत्व के जरूरी तत्व हैं- समान धर्म, एक जाति और एक संस्कृति। संस्कृति शब्द पुण्यभूमि से आया है। संस्कृति संस्कार में निहित है जैसे धार्मिक संस्कार और उत्सवों से जुड़े रीति-रिवाज। ऐसे संस्कार, जिनसे यह धरती उनकी पुण्यभूमि बनती है।
इस संकीर्ण व्याख्या के हिसाब से अल्पसंख्यकों के लिए अपने धर्म और अपनी भारतीय राष्ट्रीयता, दोनों को बनाए रखने का रास्ता खत्म हो जाता है। हिंदुत्व के आधार पर बनने वाले हिंदू राष्ट्र का यही यथार्थ है ! हिंदुत्व, हिंदूवाद का पुनर्कथन नहीं है। यह विशिष्ट राष्ट्रवाद का नया वैचारिक फॉर्मूला है। हिंदुत्व धर्म और राजनीति की मिलावट है। यह भारतीय संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों का विरोधी मूल्य है। सुप्रीम कोर्ट ने भी धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों को संविधान का बुनियादी आधार घोषित कर चुका है। जेएस वर्मा ने हिंदुत्व के फैसले पर जो व्याख्या दी वह एस आर बोम्मई मामले में दिए गए फैसले से बिल्कुल उलट है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही लगातार हिंदुत्व की दुहाई देता रहता है और यह बीजेपी और शिवसेना दोनों को राजनीतिक घोषणापत्र का हिस्सा है।
क्या कोई धर्म काफी विविध है इसिलए इसे जीवन जीने का तरीका कहा जा सकता है। धर्म सामान्य तौर पर धार्मिक ग्रंथों, समुदाय के उत्सवों, कर्मकांड, नैतिकता, नियम और पुरोहितों के अधिकार से जुड़ा होता है। ये किसी धर्म के ज्यादा दिखने वाले प्रतीक होते हैं। हिंदू धर्म की भी अपनी विशेषता है। जाति पर आधारित व्यवस्था हिंदू धर्म की पहचान है। यह हिंदू धर्म की विभेदकारी पहचान है। जीने का तरीका या जीवन शैली एक व्यापक शब्द है। इसमें सिर्फ धर्म नहीं बल्कि क्षेत्र, भाषा,रीति-रिवाज,खान-पान का तरीका, साहित्यिक और जीवन से जुड़े सांस्कृतिक पहलू शामिल हैं, जिनका धर्म से कोई वास्ता नहीं भी हो सकता है। किसी भी व्यक्ति के जीवन का धर्म एक मात्र तत्व नहीं हो सकता।
हिंदू धार्मिक परंपरा की कई धाराएं हैं। श्रमणवाद, तंत्र भक्ति, शैव और वर्चस्ववादी ब्राह्मणवाद। आरएसएस और संघ परिवार की विचारधारा पर ब्राह्मणवाद हावी है। और आज इस विशिष्ट और श्रेष्ठतावादी विचारधारा हिंदुत्व को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की तरह पेश किया जा रहा है। यह ऊंची जाति के हिंदुओं की संस्कृति है। यह राम, गीता और आचार्यों की संस्कृति है। ऐसी संस्कृति जो संस्कृत को देव भाषा समझती है और जो मनु के कानूनों से निर्देशित होता है। यह दलितों, बहुजनों, आदिवासियों और भारतीयों के एक बड़े वर्ग की संस्कृति नहीं है।
अल्पसंख्यकों के हितों के खिलाफ हिंदुत्व सिर्फ एक विचारधारा नहीं है बल्कि यह संकीर्ण, रुढ़ और अधिनायकवादी व्याख्या है। जो अधिकतर बहुसंख्यक हिंदुओं के खिलाफ जाती है। निश्चित तौर पर यह हिंदूवाद का पर्याय नहीं है
बहरहाल इन सभी अहम पहलुओं पर सुप्रीम कोर्ट में शुरू हो चुकी न्यायिक कवायद फिर से विचार हो रहा है और इसके दूरगामी प्रभाव पड़ने तय हैं। हिंदुत्व शब्द की न्यायिक व्याख्या का संविधान के बुनियादी ढांचे के मूल घटकों पर असर पर तो होगा ही।