बिहार विधान सभा में विपक्ष के जन प्रतिनिधियों पर हुआ हमला विधान सभा में पहली बार हुए अराजक हमले के रूप में दर्ज किया जाएगा. किसी राज्य के मुख्यमंत्री की उपस्थिति में महिलाओं के साथ किया या करवाया गया दुर्व्यवहार फासीवादी तंत्र की तरफ़ बढ़ते राज्य का परिचायक है. यह हमला देश भर में महिलाओं द्वारा राजनीतिक स्थायित्व प्राप्त करने के लिए किए जा चुके या किए जा रहे संघर्षों की याद दिलाता है. पहले भी महिलाओं को इस तरह के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा है. यह घटना 1989 में तमिलनाडु की जयललिता, 1993 में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, और 1995 में उतर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के साथ हुए बदसुलूकी की याद दिलाता है. राजनीति में जगह बनाने की चाहत रखने वाली महिलाओं के लिए कुछ भी बदला नहीं है. हालाँकि इन महिलाओं ने इतिहास बनाने की लड़ाई लड़ी है लेकिन कई बार इन्हें भी हिंसा और बदसुलूकी का सामना करना पड़ा है.
दरअसल, बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक, 2021 बिहार विधान सभा में पेश किया गया जो बिहार मिलिट्री पुलिस (बीएमपी) का नाम बदलने का प्रस्ताव करता है. पुलिस बल को अधिक शक्तियां प्रदान करता है यहाँ तक कि बगैर वारंट के लोगों को गिरफ्तार करने तक का भी अधिकार देती है. बिहार के सैन्य और पुलिस बल के इतिहास पर अगर गौर किया जाए तो बिहार में 1861 और 1895 का बना बंगाल सैन्य कानून प्रदेश में 2007 तक जब नितीश कुमार की सरकार सत्ता में आ चुकी थी तब तक चल रहा था. मुख्यमंत्री नितीश कुमार के शासन काल में ही एक नए पुलिस कानून द्वारा उसे निरस्त कर नया कानून बनाया गया. अब वर्तमान में जबकि बिहार के किसी भी प्रदेश में कोई सामाजिक तनाव या उग्रवादी गतिविधि की स्थिति नहीं है तो इतने कम समय में फिर से इस कानून को निरस्त कर नए कानून की जरुरत क्यूँ पड़ गयी? बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक, 2021 तो जम्मू कश्मीर में लगाए गए पब्लिक सेफ्टी एक्ट की तरह है जिसमें आम जनता का अधिकार पुलिस की मर्जी और उनके आदेश तक सीमित होती है. कानून सदन में बनाए जरुर जाते हैं लेकिन उसका इस्तेमाल पुलिस के अफ़सर मनमाने तरीके से करते हैं. इतिहास गवाह है कि ऐसे कानून के बनाए जाने के बाद सत्ता पक्ष के लोग उसका इतेमाल राजनीतिक फायदे को साधने के लिए भी करते हैं. इंदिरा गाँधी द्वारा संसद में पारित कर बनाया गया मेंटेनेंस ऑफ़ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (मीसा) कानून और उसका इस्तेमाल इसका उदहारण है. मुख्यमंत्री नितीश कुमार अपने सहयोगी राजनीतिक दल बीजेपी के साथ मिलकर विपक्ष के आवाज को कुचलने के लिए हमलावर दीखते हैं. विधान सभा में हुए अलोकतांत्रिक घटना इस बात को पुख्ता भी करता है.
23 मार्च को बिहार विधान सभा में हुई घटना न सिर्फ़ राजनीतिक दलों और राजनेताओं बल्कि लोकतंत्र में विश्वास करने वाले देश के आम आवाम को भी झकझोरता है. यह आजाद भारत की शायद पहली ही घटना होगी जब किसी राज्य के विधान सभा के अन्दर पुलिस बल के द्वारा हथियार बंद गुंडों की तरह व्यवहार किया गया. विपक्ष के जनप्रतिनिधियों जिसमें महिलाएं भी शामिल थी उसके साथ बदसलूकी की गयी. पल-पल की ख़बरों को लेकर ट्वीट करने वाले प्रधानमंत्री मोदी सहित बिहार के मुख्यमंत्री व् किसी राजनेता ने ऐसी असंवैधानिक कुकृत्य के लिए अफ़सोस तक जाहिर नहीं किया. विपक्ष के सवालों के घेरे में आने के बाद मुख्यमंत्री नितीश कुमार नें ख़ुद के दामन को बचाते हुए लोकतंत्र के ऊपर लगे कलंक को साफ़ करने की कोशश की और विधान सभा अध्यक्ष को सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया और कहा कि सदन चलाने की जिम्मेदारी विधानसभा अध्यक्ष की होती है. यह भी सर्व विदित है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सदन के सभी पदों की अपनी गरिमा और पद पर आसीन लोगों की अलग जिम्मेदारियां होती है और जिम्मेदारियों को कुशलता पूर्वक निर्वहन नहीं किए जाने पर नैतिकता के आधार पर पद से इस्तीफ़ा देने का भी इतिहास देश में रहा है.
वर्तमान में बिहार विधान सभा के अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा है जो एनडीए गठबंधन के अंतर्गत भाजपा के राजनेता हैं और भाजपा की राजनीतिक मंशा किसी से छुपी हुई नहीं है. विधान सभा के अंतर्गत होने वाले कार्यों की जिम्मेवारी मुख्यमंत्री से पहले विधान सभा अध्यक्ष की जरुर होती है लेकिन विपक्ष भी केवल मुख्यमंत्री को सवालों के घेरे में ले रही है जो लोकतंत्र व् सदन के प्रति संकीर्णता से भरे नजरिये को दिखाता है. पक्ष और विपक्ष के तर्क को अगर छोड़ भी दिया जाए तो आम नागरिक के तौर पर यह सवाल जेहन में उभरता है कि विधान सभा के अन्दर किसके आदेश पर हथियार बंद पुलिस को बुलाया गया. ऐसे में प्राथमिक रूप से विधान सभा अध्यक्ष सवालों के दायरे में होते हैं.
आरोप-प्रत्यारोप के दायरे से हट कर अगर अवलोकन किया जाए तो पता चलता है कि इस कानून के तहत न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को सीमित किया गया है और पुलिस बल के अधिकार क्षेत्र को बढाया गया है. इस कानून के तहत पुलिस को अब तलाशी या गिरफ़्तारी के लिए कोर्ट के वारंट की जरुरत नहीं होगी. किसी भी जागरूक लोकतान्त्रिक नागरिक द्वारा इस विधेयक का विरोध किया जाना लाज़िमी है क्यूंकि फ़ासीवाद तानाशाही व्यवस्था की आहट हर लोकतान्त्रिक नागरिक के दरवाजे पर दस्तक दे रही है. फ़ासीवाद के संकेत को समझने के लिए बिहार विधान सभा में हुए जन प्रतिनिधियों पर हमले और सदन में उपस्थित लोगों की चुप्पी काफ़ी है. फ़ासीवादी सोच को लेकर राजनीति करने वाली पार्टी के अध्यक्ष द्वारा लोकतंत्र और सदन के समर्थन में कुछ भी नहीं कर पाना फ़ासीवाद के दस्तक का संकेत है जिसे समझने, समझाने और सत्ता में फ़ैलने से रोकने की जरुरत है.
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दरअसल, बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक, 2021 बिहार विधान सभा में पेश किया गया जो बिहार मिलिट्री पुलिस (बीएमपी) का नाम बदलने का प्रस्ताव करता है. पुलिस बल को अधिक शक्तियां प्रदान करता है यहाँ तक कि बगैर वारंट के लोगों को गिरफ्तार करने तक का भी अधिकार देती है. बिहार के सैन्य और पुलिस बल के इतिहास पर अगर गौर किया जाए तो बिहार में 1861 और 1895 का बना बंगाल सैन्य कानून प्रदेश में 2007 तक जब नितीश कुमार की सरकार सत्ता में आ चुकी थी तब तक चल रहा था. मुख्यमंत्री नितीश कुमार के शासन काल में ही एक नए पुलिस कानून द्वारा उसे निरस्त कर नया कानून बनाया गया. अब वर्तमान में जबकि बिहार के किसी भी प्रदेश में कोई सामाजिक तनाव या उग्रवादी गतिविधि की स्थिति नहीं है तो इतने कम समय में फिर से इस कानून को निरस्त कर नए कानून की जरुरत क्यूँ पड़ गयी? बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक, 2021 तो जम्मू कश्मीर में लगाए गए पब्लिक सेफ्टी एक्ट की तरह है जिसमें आम जनता का अधिकार पुलिस की मर्जी और उनके आदेश तक सीमित होती है. कानून सदन में बनाए जरुर जाते हैं लेकिन उसका इस्तेमाल पुलिस के अफ़सर मनमाने तरीके से करते हैं. इतिहास गवाह है कि ऐसे कानून के बनाए जाने के बाद सत्ता पक्ष के लोग उसका इतेमाल राजनीतिक फायदे को साधने के लिए भी करते हैं. इंदिरा गाँधी द्वारा संसद में पारित कर बनाया गया मेंटेनेंस ऑफ़ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (मीसा) कानून और उसका इस्तेमाल इसका उदहारण है. मुख्यमंत्री नितीश कुमार अपने सहयोगी राजनीतिक दल बीजेपी के साथ मिलकर विपक्ष के आवाज को कुचलने के लिए हमलावर दीखते हैं. विधान सभा में हुए अलोकतांत्रिक घटना इस बात को पुख्ता भी करता है.
23 मार्च को बिहार विधान सभा में हुई घटना न सिर्फ़ राजनीतिक दलों और राजनेताओं बल्कि लोकतंत्र में विश्वास करने वाले देश के आम आवाम को भी झकझोरता है. यह आजाद भारत की शायद पहली ही घटना होगी जब किसी राज्य के विधान सभा के अन्दर पुलिस बल के द्वारा हथियार बंद गुंडों की तरह व्यवहार किया गया. विपक्ष के जनप्रतिनिधियों जिसमें महिलाएं भी शामिल थी उसके साथ बदसलूकी की गयी. पल-पल की ख़बरों को लेकर ट्वीट करने वाले प्रधानमंत्री मोदी सहित बिहार के मुख्यमंत्री व् किसी राजनेता ने ऐसी असंवैधानिक कुकृत्य के लिए अफ़सोस तक जाहिर नहीं किया. विपक्ष के सवालों के घेरे में आने के बाद मुख्यमंत्री नितीश कुमार नें ख़ुद के दामन को बचाते हुए लोकतंत्र के ऊपर लगे कलंक को साफ़ करने की कोशश की और विधान सभा अध्यक्ष को सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया और कहा कि सदन चलाने की जिम्मेदारी विधानसभा अध्यक्ष की होती है. यह भी सर्व विदित है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सदन के सभी पदों की अपनी गरिमा और पद पर आसीन लोगों की अलग जिम्मेदारियां होती है और जिम्मेदारियों को कुशलता पूर्वक निर्वहन नहीं किए जाने पर नैतिकता के आधार पर पद से इस्तीफ़ा देने का भी इतिहास देश में रहा है.
वर्तमान में बिहार विधान सभा के अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा है जो एनडीए गठबंधन के अंतर्गत भाजपा के राजनेता हैं और भाजपा की राजनीतिक मंशा किसी से छुपी हुई नहीं है. विधान सभा के अंतर्गत होने वाले कार्यों की जिम्मेवारी मुख्यमंत्री से पहले विधान सभा अध्यक्ष की जरुर होती है लेकिन विपक्ष भी केवल मुख्यमंत्री को सवालों के घेरे में ले रही है जो लोकतंत्र व् सदन के प्रति संकीर्णता से भरे नजरिये को दिखाता है. पक्ष और विपक्ष के तर्क को अगर छोड़ भी दिया जाए तो आम नागरिक के तौर पर यह सवाल जेहन में उभरता है कि विधान सभा के अन्दर किसके आदेश पर हथियार बंद पुलिस को बुलाया गया. ऐसे में प्राथमिक रूप से विधान सभा अध्यक्ष सवालों के दायरे में होते हैं.
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