वन अधिकार के लिए आजीवन संघर्ष करने वाली भारती राय चौधरी उर्फ भारती दीदी के 67वें जन्मदिवस पर एक अहम परिचर्चा महिला पितृसत्ता, जाति और साम्प्रदायिकता पर आयोजित की जा रही है। यह परिचर्चा आगामी 27 अक्टूबर 2020 को अखिल भारतीय वनश्रमजीवी यूनियन, दिल्ली समर्थक समूह और सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस द्वारा दोपहर 2:30 बजे से 5:00 बजे तक आयोजित की जा रही है।
महिलाओं की सामाजिक समानता, बराबरी व मुक्ति की बुनियादी संघर्ष सदियों से चली आ रही पितृसत्ता को समाप्त करने से ही हासिल हो पायेगी। यह कोई आसान लड़ाई नहीं है बल्कि बेहद पेचीदा और कठिन संघर्ष है जिसे महिलाओं को खुद ही लड़ना पड़ेगा। इस संघर्ष को लड़ने के लिए पितृसत्ता की सामाजिक और राजनीतिक पहलू को बुनियादी रूप से समझना होगा तभी संगठित होकर इस लड़ाई को लड़ा जा सकेगा। इस संघर्ष की अगुआ महिलाएं होंगी लेकिन इस संघर्ष में प्रगतिशील पुरुष समाज, नौजवान पुरुष भी शामिल रहेंगे। भारतीजी के जन्मदिन पर उनको श्रद्धांजलि देते हुए पिछले 9 साल से हम महिलाओं की शोषण व गैर बराबरी से मुक्ति के ऊपर महिला आंदोलन की भूमि और वन अधिकार संघर्ष से जोड़कर अध्ययन व चर्चा कर रहे हैं।
इन चर्चाओं से काफी समझदारी साफ हो रही है की महिलाओं के जब तक उत्पादन के साधनों जैसे भूमि, वन एवं प्राकृतिक संसाधनों पर मिल्कियत नहीं होती तब तक पितृसत्ता से मुक्ति नहीं मिल सकती। राजकुमारी भुइयां आदिवासी महिला कहती है कि "मैं भी माई यह धरती भी माई तो पितृसत्ता कहां से आई।" यह एक बहुत बड़ी समझदारी है जिस पर हमारे संगठन से जुड़ी महिलाएं विचार कर रही हैं। क्योंकि पिछले दो दशकों में उन्होंने संगठन से जुड़कर अपने बाप दादाओ की पूर्वजों की भूमि पर पुनरदखल कायम किया और सामंतों , वन विभाग, पूंजीपतियों से जमीनों को छीना। इससे उनकी एक राजनैतिक समझ बनी कि जब तक महिलाओं के भूमि अधिकार स्वतंत्र रूप से उनको नहीं मिलेंगे तब तक गुलामी और शोषण से उनकी मुक्ति संभव नहीं है। पूरी विवाह संस्था उत्पादन के संसाधनों पर पुरुषों के एकाधिकार को स्थापित करने के आधार पर ही बनाई गई जिसमें भूमि, पशु, महिला, बच्चे व दलित तमाम उत्पादक शक्तियों को गुलाम और सम्पति बनाया गया। हजारों साल पहले समाज को वर्ण व्यवस्था में बदलने वाली मनुस्मृति भी यही कहती है की ढोल, पशु, शूद्र, नारी सब ताड़न के अधिकारी। उसी तरह मशहूर दार्शनिक फ्रेड्रिक ऐंगल्स ने भी अपने लेख परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पति में फॅमिली शब्द का उल्लेख करते हुए यह लिखा की फॅमिली का अर्थ ही है "गुलामों का जमावड़ा"। पूरी दुनिया में पूंजी पर एकाधिकार कायम करने के लिए पितृसत्ता की नींव रखी गई। इसलिए पहले यह समझना जरूरी है की महिलाओं की गुलामी परिवार के अंदर ही निहित है जिस से आजादी पाने के लिए परिवार जैसी संस्था मे व्यापत गैरबराबरी को ही निशाना बनाना होगा।
वर्ण व्यवस्था और धर्मो में बंटी महिलाओं के लिए इन जंजीरों की जकड़न से बाहर निकलना बेहद ही कठिन और पीड़ा दायक प्रक्रिया है।
पितृसत्ता को चुनौती कैसे मिलेगी और कहां से मिलेगी इसके बारे में भी हमें स्पष्ट रूप से समझना होगा। यह संघर्ष भी वर्गीय संघर्ष है चूँकि जिस समाज की महिलाएं सामाजिक भेदभाव, जातिगत हिंसा, सांप्रदायिक भेदभाव और हिंसा, राजसत्ता सत्ता की हिंसा झेल रही हैं (जो कि पितृसत्ता को मजबूत करने के लिए की जाती है) वो समाज ही पितृसत्ता को उखाड़ फेंक सकता है। इसलिए हम देखते हैं कि जब दलित समाज की महिलाएं शिक्षित हो कर सामंती गुलामी से बाहर आ रही है या फिर मुस्लिम महिलाएं नागरिकता विरोधी संशोधन कानून के खिलाफ सड़कों पर उतर आती हो या फिर दलित आदिवासी समाज की महिलाएं राज्य सत्ता को चुनौती देते हुए अपने जल' जंगल,जमीन पर दखल कायम करती हो तो यह उच्च जाति उच्च वर्ग समाज के गले नहीं उतरती। इसलिए वो यथास्थिति को बनाए रखने के लिए महिलाओं पर तरह तरह से हमले कर रहे हैं। जिसका ताजा उदाहरण हमें हाथरस में नौजवान महिला के साथ रेप व हत्याकांड के रूप में देखने को मिला। यह घटना ऐसी ही अचानक नही घटी है बल्कि ये एक सुनियोजित आक्रमण है दलित या मेहनतकश अवाम के खिलाफ। दलितों के खिलाफ हो रहे हमलों में या न्यायालय में तमाम दलित के सम्बन्ध में पड़े मामले के पीछे भूमि विवाद ही मुख्य कारण है। हाथरस वाली घटना के पीछे भी पीड़ित महिला के परिवार का पुराना भूमि विवाद ठाकुर समुदाय के साथ कई वर्षों से चल रहा था। जिसमें मुक़दमे में पीड़िता के परिवार की जीत हुई थी वही खुनस लिए ठाकुरो ने इस घटना को अंजाम दिया। इस तरह का हमला करने की हिम्मत उन्हें सरकार से मिलती है चुकी इस वक़्त उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है और उच्च जाति के हौसले बुलंद है। राज सत्ता में ही पितृसत्ता निहित होती है हाथरस की घटना उसका एक वीभत्स रूप है।
इस लिए हमें यह समझना जरूरी है परिवार से लेकर राजसत्ता तक पितृसत्ता की जड़े है जिसके लिए हर स्तर पर संघर्ष करना होगा। यह संघर्ष वर्गीय चेतना के बगैर नही हो सकता। यह वर्गीय चेतना और वर्गीय संघर्ष परिवार की संस्था के ढांचे में अमूल चूल परिवर्तन ला सकती है।
इसका क्या आधार होगा क्या स्वरूप होगा इसके बारे में कोई तैयार मसौदा नहीं है लेकिन एक दर्शन है कि परिवार में यह परिवर्तन मातृसत्ता के आधार पर ही परिवार का निर्माण करेगी। यह मसौदा भी संघर्ष से निकल कर आएगा। जिसमें परिवार के सभी सदस्यों को बराबरी का दर्जा मिलना , बच्चों के लालन-पालन में सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों का होना , आजीविका के संसाधन जैसे जल जंगल और जमीन का बाजारीकरण और निजीकरण के बजाय संसाधनों का समुदाय के लिए और समाज के लिए और पर्यावरण के लिए इस्तेमाल होना। ऐसे परिवार की स्थापना जहां महिलाओं के प्रजनन एवं शरीर पर महिलाओं की सोच के आधार पर नियंत्रण होना, जहां बलात्कार जैसे अपराध व अन्य यौन शोषण की जगह ही नहीं रहेगी। इस बुनियादी संघर्ष के लिए भी महिलाओं का एक बड़ा तबका जो कि उच्च वर्ग, उच्च जाति या मध्यम वर्ग से है शायद तैयार नहीं होगा क्योंकि उनके अंदर भी पितृसत्ता की जड़े मजबूत है और वह यथास्थिति को बनाए रखना ही चाहते हैं ताकि पितृसत्ता की व्यवस्था से उनको जो सुविधाएं मिल रही हैं वह मिलती रहे। लेकिन माध्यम वर्ग की प्रगतिशील महिला और आज की पीढ़ी की युवा महिलाये इस संघर्ष में ज़रूर शामिल होंगे।
इसलिए सब महिलाएं इस बुनियादी संघर्ष को लड़ने के लिए तैयार होंगी ऐसा भी नहीं लगता है। संघर्ष के लिए महिलाओं के एक वर्ग को खास तौर पर अपने आप को तैयार करना होगा और अपने संघर्ष के साथ इस पितृसत्ता के विचार के तारों को जोड़ना होगा तभी इसके खिलाफ एक निर्णायक लड़ाई हो सकती है। हालांकि इस संघर्ष में जहां पितृसत्ता के बगैर समाज का निर्माण हो उसमें सभी को फायदा मिलेगा वह चाहे सामंती वर्ग हो , उच्च जाति वर्ग हो या फिर पूंजीपति वर्ग हो।
जो उत्पीडत है उन तबको को एकजुट करना एक हमारा एक मुख्य काम है। महिलओं ने आपने शोषण के खिलाफ पिछले दशकों में राजनीतिक चेतना आयी है। दलित, आदिवासी और मुस्लिम महिलाये जिस तरह से सड़क पर उतर कर अपने अधिकारों के बारे में सजक हो रहे है उस पर गहराई से काम करना होगा। देखा जाए तो दुनिया के सामाजिक बदलाव के जितने भी आंदोलन हुए है उसमें महिलाओ की मुख्य भूमिका रही है लेकिन जो बुनयादी मुद्दा उनके अपने शोषण से जुड़ा है वो अनसुलझा ही रह जाता है फिर पितृसत्ता उन्हें परिवार की जेल में कैद कर देती है। इस कार्य को करने के लिए हमारे संगठन ने इस वर्ष पहल की जब नागरिकता विरोधी संशोधन कानून के खिलाफ मुस्लिम महिलाये दिल्ली के शाहीन बाग़ में आंदोलन कर रही थी तब दो बार देश भर से तमाम आदिवासी महिलाये उनके आंदोलन के समर्थन में जुडी थी और ये कार्यक्रम भी बना था की मुस्लिम महिलाओ का नेतृत्व भी इन आदिवासी क्षेत्रों में उनपर हो रहे उत्पीड़न के खिलाफ और संघर्ष के साथ जुड़ेगा ा लेकिन तालाबंदी के चलते यह कार्यक्रम आगे नही कर पाए। लेकिन इसकी शुरुआत हो चुकी है और संवाद जारी है जो की आगे चल कर उत्पीड़ित समाज को एकजुट करने में एक बड़ी भूमिका अदा करेगा।
इसलिए जाति साम्प्रदायिकता और पितृसत्ता से मुक्ति पाने के लिए महिलाओं को ही संघर्ष का बीड़ा उठाना पड़ेगा और ऐसे समाज का निर्माण करना होगा जहां बलात्कारी महिलाओ की कोख से पैदा न हो। उत्पादन के संसाधनों खास तौर पर भूमि के अधिकारों की लड़ाई आज दलित आदिवासी महिलाओ के नेतृत्व में लड़े जा रहे है इस आंदोलन में तमाम प्रगतिशील ताकतों को उनके साथ आना होगा और उनके नेतृत्व को स्वीकार करना होगा। उन्हें वह तमाम मदद मुहैया करनी होगी जिससे पितृसत्ता, जाति और साम्प्रदायिकता के ज़हर के खिलाफ संघर्ष को तेज़ किया जा सके.
द्वारा जारी
रोमा, सोकलो गोंड, आँचल, तीस्ता सीतलवाड़
(लेखिका अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन की डेप्युटी जनरल सेक्रेट्री हैं।)
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इन चर्चाओं से काफी समझदारी साफ हो रही है की महिलाओं के जब तक उत्पादन के साधनों जैसे भूमि, वन एवं प्राकृतिक संसाधनों पर मिल्कियत नहीं होती तब तक पितृसत्ता से मुक्ति नहीं मिल सकती। राजकुमारी भुइयां आदिवासी महिला कहती है कि "मैं भी माई यह धरती भी माई तो पितृसत्ता कहां से आई।" यह एक बहुत बड़ी समझदारी है जिस पर हमारे संगठन से जुड़ी महिलाएं विचार कर रही हैं। क्योंकि पिछले दो दशकों में उन्होंने संगठन से जुड़कर अपने बाप दादाओ की पूर्वजों की भूमि पर पुनरदखल कायम किया और सामंतों , वन विभाग, पूंजीपतियों से जमीनों को छीना। इससे उनकी एक राजनैतिक समझ बनी कि जब तक महिलाओं के भूमि अधिकार स्वतंत्र रूप से उनको नहीं मिलेंगे तब तक गुलामी और शोषण से उनकी मुक्ति संभव नहीं है। पूरी विवाह संस्था उत्पादन के संसाधनों पर पुरुषों के एकाधिकार को स्थापित करने के आधार पर ही बनाई गई जिसमें भूमि, पशु, महिला, बच्चे व दलित तमाम उत्पादक शक्तियों को गुलाम और सम्पति बनाया गया। हजारों साल पहले समाज को वर्ण व्यवस्था में बदलने वाली मनुस्मृति भी यही कहती है की ढोल, पशु, शूद्र, नारी सब ताड़न के अधिकारी। उसी तरह मशहूर दार्शनिक फ्रेड्रिक ऐंगल्स ने भी अपने लेख परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पति में फॅमिली शब्द का उल्लेख करते हुए यह लिखा की फॅमिली का अर्थ ही है "गुलामों का जमावड़ा"। पूरी दुनिया में पूंजी पर एकाधिकार कायम करने के लिए पितृसत्ता की नींव रखी गई। इसलिए पहले यह समझना जरूरी है की महिलाओं की गुलामी परिवार के अंदर ही निहित है जिस से आजादी पाने के लिए परिवार जैसी संस्था मे व्यापत गैरबराबरी को ही निशाना बनाना होगा।
वर्ण व्यवस्था और धर्मो में बंटी महिलाओं के लिए इन जंजीरों की जकड़न से बाहर निकलना बेहद ही कठिन और पीड़ा दायक प्रक्रिया है।
पितृसत्ता को चुनौती कैसे मिलेगी और कहां से मिलेगी इसके बारे में भी हमें स्पष्ट रूप से समझना होगा। यह संघर्ष भी वर्गीय संघर्ष है चूँकि जिस समाज की महिलाएं सामाजिक भेदभाव, जातिगत हिंसा, सांप्रदायिक भेदभाव और हिंसा, राजसत्ता सत्ता की हिंसा झेल रही हैं (जो कि पितृसत्ता को मजबूत करने के लिए की जाती है) वो समाज ही पितृसत्ता को उखाड़ फेंक सकता है। इसलिए हम देखते हैं कि जब दलित समाज की महिलाएं शिक्षित हो कर सामंती गुलामी से बाहर आ रही है या फिर मुस्लिम महिलाएं नागरिकता विरोधी संशोधन कानून के खिलाफ सड़कों पर उतर आती हो या फिर दलित आदिवासी समाज की महिलाएं राज्य सत्ता को चुनौती देते हुए अपने जल' जंगल,जमीन पर दखल कायम करती हो तो यह उच्च जाति उच्च वर्ग समाज के गले नहीं उतरती। इसलिए वो यथास्थिति को बनाए रखने के लिए महिलाओं पर तरह तरह से हमले कर रहे हैं। जिसका ताजा उदाहरण हमें हाथरस में नौजवान महिला के साथ रेप व हत्याकांड के रूप में देखने को मिला। यह घटना ऐसी ही अचानक नही घटी है बल्कि ये एक सुनियोजित आक्रमण है दलित या मेहनतकश अवाम के खिलाफ। दलितों के खिलाफ हो रहे हमलों में या न्यायालय में तमाम दलित के सम्बन्ध में पड़े मामले के पीछे भूमि विवाद ही मुख्य कारण है। हाथरस वाली घटना के पीछे भी पीड़ित महिला के परिवार का पुराना भूमि विवाद ठाकुर समुदाय के साथ कई वर्षों से चल रहा था। जिसमें मुक़दमे में पीड़िता के परिवार की जीत हुई थी वही खुनस लिए ठाकुरो ने इस घटना को अंजाम दिया। इस तरह का हमला करने की हिम्मत उन्हें सरकार से मिलती है चुकी इस वक़्त उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है और उच्च जाति के हौसले बुलंद है। राज सत्ता में ही पितृसत्ता निहित होती है हाथरस की घटना उसका एक वीभत्स रूप है।
इस लिए हमें यह समझना जरूरी है परिवार से लेकर राजसत्ता तक पितृसत्ता की जड़े है जिसके लिए हर स्तर पर संघर्ष करना होगा। यह संघर्ष वर्गीय चेतना के बगैर नही हो सकता। यह वर्गीय चेतना और वर्गीय संघर्ष परिवार की संस्था के ढांचे में अमूल चूल परिवर्तन ला सकती है।
इसका क्या आधार होगा क्या स्वरूप होगा इसके बारे में कोई तैयार मसौदा नहीं है लेकिन एक दर्शन है कि परिवार में यह परिवर्तन मातृसत्ता के आधार पर ही परिवार का निर्माण करेगी। यह मसौदा भी संघर्ष से निकल कर आएगा। जिसमें परिवार के सभी सदस्यों को बराबरी का दर्जा मिलना , बच्चों के लालन-पालन में सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों का होना , आजीविका के संसाधन जैसे जल जंगल और जमीन का बाजारीकरण और निजीकरण के बजाय संसाधनों का समुदाय के लिए और समाज के लिए और पर्यावरण के लिए इस्तेमाल होना। ऐसे परिवार की स्थापना जहां महिलाओं के प्रजनन एवं शरीर पर महिलाओं की सोच के आधार पर नियंत्रण होना, जहां बलात्कार जैसे अपराध व अन्य यौन शोषण की जगह ही नहीं रहेगी। इस बुनियादी संघर्ष के लिए भी महिलाओं का एक बड़ा तबका जो कि उच्च वर्ग, उच्च जाति या मध्यम वर्ग से है शायद तैयार नहीं होगा क्योंकि उनके अंदर भी पितृसत्ता की जड़े मजबूत है और वह यथास्थिति को बनाए रखना ही चाहते हैं ताकि पितृसत्ता की व्यवस्था से उनको जो सुविधाएं मिल रही हैं वह मिलती रहे। लेकिन माध्यम वर्ग की प्रगतिशील महिला और आज की पीढ़ी की युवा महिलाये इस संघर्ष में ज़रूर शामिल होंगे।
इसलिए सब महिलाएं इस बुनियादी संघर्ष को लड़ने के लिए तैयार होंगी ऐसा भी नहीं लगता है। संघर्ष के लिए महिलाओं के एक वर्ग को खास तौर पर अपने आप को तैयार करना होगा और अपने संघर्ष के साथ इस पितृसत्ता के विचार के तारों को जोड़ना होगा तभी इसके खिलाफ एक निर्णायक लड़ाई हो सकती है। हालांकि इस संघर्ष में जहां पितृसत्ता के बगैर समाज का निर्माण हो उसमें सभी को फायदा मिलेगा वह चाहे सामंती वर्ग हो , उच्च जाति वर्ग हो या फिर पूंजीपति वर्ग हो।
जो उत्पीडत है उन तबको को एकजुट करना एक हमारा एक मुख्य काम है। महिलओं ने आपने शोषण के खिलाफ पिछले दशकों में राजनीतिक चेतना आयी है। दलित, आदिवासी और मुस्लिम महिलाये जिस तरह से सड़क पर उतर कर अपने अधिकारों के बारे में सजक हो रहे है उस पर गहराई से काम करना होगा। देखा जाए तो दुनिया के सामाजिक बदलाव के जितने भी आंदोलन हुए है उसमें महिलाओ की मुख्य भूमिका रही है लेकिन जो बुनयादी मुद्दा उनके अपने शोषण से जुड़ा है वो अनसुलझा ही रह जाता है फिर पितृसत्ता उन्हें परिवार की जेल में कैद कर देती है। इस कार्य को करने के लिए हमारे संगठन ने इस वर्ष पहल की जब नागरिकता विरोधी संशोधन कानून के खिलाफ मुस्लिम महिलाये दिल्ली के शाहीन बाग़ में आंदोलन कर रही थी तब दो बार देश भर से तमाम आदिवासी महिलाये उनके आंदोलन के समर्थन में जुडी थी और ये कार्यक्रम भी बना था की मुस्लिम महिलाओ का नेतृत्व भी इन आदिवासी क्षेत्रों में उनपर हो रहे उत्पीड़न के खिलाफ और संघर्ष के साथ जुड़ेगा ा लेकिन तालाबंदी के चलते यह कार्यक्रम आगे नही कर पाए। लेकिन इसकी शुरुआत हो चुकी है और संवाद जारी है जो की आगे चल कर उत्पीड़ित समाज को एकजुट करने में एक बड़ी भूमिका अदा करेगा।
इसलिए जाति साम्प्रदायिकता और पितृसत्ता से मुक्ति पाने के लिए महिलाओं को ही संघर्ष का बीड़ा उठाना पड़ेगा और ऐसे समाज का निर्माण करना होगा जहां बलात्कारी महिलाओ की कोख से पैदा न हो। उत्पादन के संसाधनों खास तौर पर भूमि के अधिकारों की लड़ाई आज दलित आदिवासी महिलाओ के नेतृत्व में लड़े जा रहे है इस आंदोलन में तमाम प्रगतिशील ताकतों को उनके साथ आना होगा और उनके नेतृत्व को स्वीकार करना होगा। उन्हें वह तमाम मदद मुहैया करनी होगी जिससे पितृसत्ता, जाति और साम्प्रदायिकता के ज़हर के खिलाफ संघर्ष को तेज़ किया जा सके.
द्वारा जारी
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