नई दिल्ली। 13 फरवरी 2019 को वाइल्डलाइफ फर्स्ट, नेचर कंजर्वेशन सोसाइटी और टाइगर रिसर्च व कंजर्वेशन टेस्ट द्वारा दायर की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने वन आश्रित समुदाय के लाखों लोगों को वन क्षेत्र से विस्थापित करने का फैसला सुनाया। इस फैसले से लाखों वनाश्रित आदिवासियों पर विस्थापन की तलवार लटकी है। ऐसे में कई सामाजिक संगठन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले व केंद्र सरकार के लचर रवैये का विरोध कर रहे हैं। ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) लगातार इस मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन कर रहा है।
AIUFWP ने 5 मार्च को चित्रकूट, बहराइच और सोनभद्र में इस आदेश के खिलाफ प्रदर्शन किया। इसके बाद 6 मार्च को उत्तराखंड के देहरादून में प्रेस कांफ्रेंस की। इसके अलावा गोरखालैंड बिछबंगा के गांव में पब्लिक मीटिंग रखी।
AIUFWP 9 मार्च को प्रेस क्लब लखनऊ में प्रेस कांफ्रेंस करेगा। 11 मार्च को पश्चिम बंगाल के कोलकाता प्रेस क्लब में प्रेस कांफ्रेंस का प्लान है। 11 से 14 मार्च तक सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) के सहयोग से कॉलेजों व विश्विद्यालयों में जन जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाएंग। 15 मार्च को दिल्ली में फॉरेस्ट राइट्स अलायंस की मीटिंग होगी जिसमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मद्देनजर भविष्य की रणनीति पर चर्चा होगी।
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा विस्थापित करने के आदेश से वे लोग प्रभावित होंगे जिन्होंने वनाधिकार कानून 2006 के तहत अपने आवास और कृषि भूमि पर मान्यता के दावे पेश किए थे लेकिन अधिकारियों द्वारा खारिज कर दिए थे। अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन, वन पंचायत संगर्ष मोर्चा, वन एवं भू अधिकार अभियान, उत्तर प्रदेश ने वन क्षेत्र से वनाश्रित समुदाय के लाखों लोगों के विस्थापित करने के फैसले का विरोध करते हुए प्रेस विज्ञप्ति जारी की है।
विस्थापन के फैसले पर अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन ने कहा है कि यदि ऐसा होता है तो भयावाह स्थिति होगी जिससे देश के सभी लोग चिंतित हैं। हालांकि 28 फरवरी को केन्द्र सरकार की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने उक्त आदेश पर 10 जुलाई तक अस्थायी रोक लगा दी है लेकिन लाखों वनाश्रित परिवारों पर विस्थापन का खतरा अभी भी बना हुआ है।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन ने प्रेस विज्ञप्ति मे आगे लिखा है कि यूनियन वन क्षेत्र से वनाश्रित समुदाय के असंवैधानिक तरीके से विस्थापन का विरोध करता है तथा तथाकथित वन्यजीव प्रेमियों व वन अधिकारियों के द्वारा लाखों वन आश्रित समुदाय को बेदखल करने की साजिश की कठोर शब्दों में निंदा करता है। यह फैसला लाखों वनाश्रित समुदाय के संवैधानिक अधिकारों का हनन है और यह सदियों से चले आ रहे ऐतिहासिक अन्याय को और भी मजबूत करता है।
दरअसल, वन अधिकार कानून 2006, वन आश्रित समुदाय को अपने आवासीय और खेती की जमीन तथा वन उपज समेत 13 व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार पर मालिकाना हक सुनिश्चित करता है। हक सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में वनाश्रित समुदाय को अपना दावा पेश करना होता है। इस ऐतिहासिक कानून का पालन करने का संपूर्ण अधिकार ग्राम सभा को निहित है। दावा ग्रहण करने की जिम्मेदारी ग्राम स्तरीय समिति की है। जांच पड़ताल करने का अधिकार ग्राम स्तरीय वन अधिकार समिति को ही है जो जांच के उपरांत मान्यता के लिए उपखंड स्तरीय समिति को भेजेगी। उपखंड स्तरीय समिति इन दावों पर मान्यता स्वीकार करते हुए जिला स्तरीय समिति को अग्रेषित करेगी जो दावेदारों के दावे को मान्यता देगी।
जिला स्तरीय समिति इन दावों के संबंध में संलग्न कागजी कार्यवाही पर यदि कोई आपत्ति है तो वापस ग्राम सभा को भेज सकती है ताकि पुन: दावा प्रक्रिया पूर्ण की जा सके। उपखंड या जिला समिति को दावा खारिज करने का कोई अधिकार नहीं है बल्कि समिति को समीक्षा हेतु अपनी आपत्ति सहित ग्राम समिति के पास भेज सकती है। आपत्ति खारिज करने का अधिकार ग्राम स्तरीय समिति के पास ही है इसलिए न्यायालय को अधिकारियों के द्वारा खारिज करने के जो दृष्टांत दिए गए हैं वह अवैध हैं।
ज्यादातर आपत्तियां वन विभाग की ओर से आई हैं जो कि शुरू से इस कानून के खिलाफ रहा है और अपने निहित स्वार्थ के चलते रुकावट पैदा कर रहा है। उल्लेखनीय है कि वन अधिकार कानून 2000 के एक नागरिक अधिकार (सिविल राइट) का कानून है इसमें वन विभाग कोई दखलंदाजी नहीं कर सकता कि यह वन कानून में नहीं है। इस कारण फैसले के खिलाफ सभी वनाश्रित समुदाय के साथ खड़े संगठन और राजनीतिक दल विरोध कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में चले इस केस में भारत सरकार का रवैया बहुत गैर जिम्मेदाराना रहा क्योंकि उन्होंने इस प्रक्रिया में कोई सहयोग नहीं किया और ना ही अपने वकील खड़े किए, इसलिए एक तरफा फैसला हुआ जो स्पष्ट रूप से जाहिर करता है कि देश में वन अधिकार कानून को मिटाने की साजिश हो रही है।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की मांगें:-
1- सरकार इस विस्थापन की त्रासदी को रोकने के लिए वन अधिकार कानून में दी गई जिम्मेदारी को निभाते हुए अध्यादेश जारी करे ताकि विस्थापन की प्रक्रिया पर रोक लगे।
2- सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध पुनर्विचार याचिका दाखिल करे और मजबूती से कानून के प्रावधानों को लागू कराने हेतु पैरवी करे।
3- राज्य सरकारों को निर्देशित किया जाए कि वे वन विभाग द्वारा चलाए जा रहे विस्थापन की प्रक्रिया पर तुरंत रोक लगाएं।
4- वनाधिकार कानून के तहत आ रही अड़चनों को दूर करने हेतु तत्काल स्पष्ट दिशानिर्देश जारी किए जाएं।
5-वन अधिकार कानून 2006 के प्रावधानों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए।
AIUFWP ने 5 मार्च को चित्रकूट, बहराइच और सोनभद्र में इस आदेश के खिलाफ प्रदर्शन किया। इसके बाद 6 मार्च को उत्तराखंड के देहरादून में प्रेस कांफ्रेंस की। इसके अलावा गोरखालैंड बिछबंगा के गांव में पब्लिक मीटिंग रखी।
AIUFWP 9 मार्च को प्रेस क्लब लखनऊ में प्रेस कांफ्रेंस करेगा। 11 मार्च को पश्चिम बंगाल के कोलकाता प्रेस क्लब में प्रेस कांफ्रेंस का प्लान है। 11 से 14 मार्च तक सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) के सहयोग से कॉलेजों व विश्विद्यालयों में जन जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाएंग। 15 मार्च को दिल्ली में फॉरेस्ट राइट्स अलायंस की मीटिंग होगी जिसमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मद्देनजर भविष्य की रणनीति पर चर्चा होगी।
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा विस्थापित करने के आदेश से वे लोग प्रभावित होंगे जिन्होंने वनाधिकार कानून 2006 के तहत अपने आवास और कृषि भूमि पर मान्यता के दावे पेश किए थे लेकिन अधिकारियों द्वारा खारिज कर दिए थे। अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन, वन पंचायत संगर्ष मोर्चा, वन एवं भू अधिकार अभियान, उत्तर प्रदेश ने वन क्षेत्र से वनाश्रित समुदाय के लाखों लोगों के विस्थापित करने के फैसले का विरोध करते हुए प्रेस विज्ञप्ति जारी की है।
विस्थापन के फैसले पर अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन ने कहा है कि यदि ऐसा होता है तो भयावाह स्थिति होगी जिससे देश के सभी लोग चिंतित हैं। हालांकि 28 फरवरी को केन्द्र सरकार की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने उक्त आदेश पर 10 जुलाई तक अस्थायी रोक लगा दी है लेकिन लाखों वनाश्रित परिवारों पर विस्थापन का खतरा अभी भी बना हुआ है।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन ने प्रेस विज्ञप्ति मे आगे लिखा है कि यूनियन वन क्षेत्र से वनाश्रित समुदाय के असंवैधानिक तरीके से विस्थापन का विरोध करता है तथा तथाकथित वन्यजीव प्रेमियों व वन अधिकारियों के द्वारा लाखों वन आश्रित समुदाय को बेदखल करने की साजिश की कठोर शब्दों में निंदा करता है। यह फैसला लाखों वनाश्रित समुदाय के संवैधानिक अधिकारों का हनन है और यह सदियों से चले आ रहे ऐतिहासिक अन्याय को और भी मजबूत करता है।
दरअसल, वन अधिकार कानून 2006, वन आश्रित समुदाय को अपने आवासीय और खेती की जमीन तथा वन उपज समेत 13 व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार पर मालिकाना हक सुनिश्चित करता है। हक सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में वनाश्रित समुदाय को अपना दावा पेश करना होता है। इस ऐतिहासिक कानून का पालन करने का संपूर्ण अधिकार ग्राम सभा को निहित है। दावा ग्रहण करने की जिम्मेदारी ग्राम स्तरीय समिति की है। जांच पड़ताल करने का अधिकार ग्राम स्तरीय वन अधिकार समिति को ही है जो जांच के उपरांत मान्यता के लिए उपखंड स्तरीय समिति को भेजेगी। उपखंड स्तरीय समिति इन दावों पर मान्यता स्वीकार करते हुए जिला स्तरीय समिति को अग्रेषित करेगी जो दावेदारों के दावे को मान्यता देगी।
जिला स्तरीय समिति इन दावों के संबंध में संलग्न कागजी कार्यवाही पर यदि कोई आपत्ति है तो वापस ग्राम सभा को भेज सकती है ताकि पुन: दावा प्रक्रिया पूर्ण की जा सके। उपखंड या जिला समिति को दावा खारिज करने का कोई अधिकार नहीं है बल्कि समिति को समीक्षा हेतु अपनी आपत्ति सहित ग्राम समिति के पास भेज सकती है। आपत्ति खारिज करने का अधिकार ग्राम स्तरीय समिति के पास ही है इसलिए न्यायालय को अधिकारियों के द्वारा खारिज करने के जो दृष्टांत दिए गए हैं वह अवैध हैं।
ज्यादातर आपत्तियां वन विभाग की ओर से आई हैं जो कि शुरू से इस कानून के खिलाफ रहा है और अपने निहित स्वार्थ के चलते रुकावट पैदा कर रहा है। उल्लेखनीय है कि वन अधिकार कानून 2000 के एक नागरिक अधिकार (सिविल राइट) का कानून है इसमें वन विभाग कोई दखलंदाजी नहीं कर सकता कि यह वन कानून में नहीं है। इस कारण फैसले के खिलाफ सभी वनाश्रित समुदाय के साथ खड़े संगठन और राजनीतिक दल विरोध कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में चले इस केस में भारत सरकार का रवैया बहुत गैर जिम्मेदाराना रहा क्योंकि उन्होंने इस प्रक्रिया में कोई सहयोग नहीं किया और ना ही अपने वकील खड़े किए, इसलिए एक तरफा फैसला हुआ जो स्पष्ट रूप से जाहिर करता है कि देश में वन अधिकार कानून को मिटाने की साजिश हो रही है।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की मांगें:-
1- सरकार इस विस्थापन की त्रासदी को रोकने के लिए वन अधिकार कानून में दी गई जिम्मेदारी को निभाते हुए अध्यादेश जारी करे ताकि विस्थापन की प्रक्रिया पर रोक लगे।
2- सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध पुनर्विचार याचिका दाखिल करे और मजबूती से कानून के प्रावधानों को लागू कराने हेतु पैरवी करे।
3- राज्य सरकारों को निर्देशित किया जाए कि वे वन विभाग द्वारा चलाए जा रहे विस्थापन की प्रक्रिया पर तुरंत रोक लगाएं।
4- वनाधिकार कानून के तहत आ रही अड़चनों को दूर करने हेतु तत्काल स्पष्ट दिशानिर्देश जारी किए जाएं।
5-वन अधिकार कानून 2006 के प्रावधानों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए।