"शहीदे आजम भगत सिंह के जन्म दिन 28 सितंबर को सहारनपुर मंडल की ट्रेड यूनियनों के श्रमिक संगठन- मज़दूर संघर्ष समिति, नागरिक अधिकार एवं संयुक्त महिला मंच और नेशनल एलायंस फार लेबर राईटस के द्वारा विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी में "भगत सिंह की नजर में आजादी के सही मायने और मजदूर आंदोलन की भूमिका" पर उनके विचारों को लेकर विस्तृत चर्चा की गई।"
...शहीदे आजम भगत सिंह के लिए हिंदोस्तान की आज़ादी का अर्थ सिर्फ गोरे अंग्रेजों का चले जाना और उनकी जगह काले अंग्रेजों का चले आना भर नहीं है। वे भारत की जनता को, यहां के मजदूरों, किसानों और नौजवानों को सांमतवादी शोषण और साम्राज्यवाद- पूंजीवाद के बुनियादी ढांचे से मुक्त करना चाहते थे। भगत सिंह के विचारों की रोशनी में आज के भारत को देखें तो एक अद्भुत समानता दिखती है। पूंजीवादी भूमंडलीकरण और नवउदारवादी नीतियों के चलते तमाम सरकारें देशी और विदेशी पूंजीपतियों के हितों को पूरा करने में लगी हैं और उनके हाथों देश की तमाम धन संपदा, जल-जंगल-जमीन, नदियां बेचती जा रही है, कृषि तथा श्रम कानूनों में नकारात्मक परिवर्तन ला रही है। मौजूदा सरकार ने सत्ता में आते ही आनन फानन में श्रम कानूनों में ऐसे बहुत से बदलाव कर डाले हैं जिनसे मजदूरों का हक मारा जा रहा है और उनका और अधिक शोषण करने के लिए कारपोरेट को कानूनी सुविधा दी जा रही है।"
खास यह भी कि भगत सिंह के विचार की ताक़त और बलिदान के चलते, आज के दौर में उनको नकारना किसी के वश में नहीं है। वह नौजवानों में खासे लोकप्रिय हैं। इसलिए दूसरा तरीक़ा अपनाया जा रहा है कि... भगत सिंह को तो आदर्श मानो लेकिन उनके विचारों को सामने न आने दो। इसलिए एक साजिश के तहत, जानबूझकर उनके विचारों को दबाने का काम किया जा रहा है।
*'जो कोई भी कठिन श्रम से कोई चीज़ पैदा करता है, उसे यह बताने के लिए किसी ख़ुदाई पैग़ाम की जरूरत नहीं है कि पैदा की गई चीज़ पर उसी का अधिकार है' यह शब्द, जो अपनी जेल डायरी के सफा 16 में भगत सिंह द्वारा लिखे गए थे, उनके विचार का सार है। यह उस 23 वर्ष के नौजवान का अटूट विश्वास है जिसे आज के दौर में हमारे सामने पिस्तौल उठाये हुए, एक अति- उत्साही नायक के रूप में पेश किया जाता है। जिसे नौजवान सहज ही अपना आदर्श मान लेते हैं। लेकिन उनके विचारों से कभी रूबरू नहीं होते और न ही उनको आत्मसात करते हैं।*
जनवरी 1930 में असंबेली बम कांड में हाईकोर्ट में की गई अपील में अंग्रेजी हुकूमत के प्रचार की पोल खोलने के साथ-साथ, भगत सिंह आज के नौजवानों से कह रहे हैं कि 'बम और पिस्तौल इंकलाब नहीं लाते बल्कि इंकलाब की तलवार तो विचारों की सान पर तेज़ होती है।' भगत सिंह एक सुलझे हुए क्रांतिकारी थे, जो पूरी तरह से जानते थे कि वह क्या करना चाहते हैं। छोटी सी उम्र में उनकी लेखनी और उनका व्यापक अध्ययन, उनके एक गंभीर बुद्धिजीवी और प्रखर चिंतक होने की तरफ इशारा करता है। उनके द्वारा लिखे हुए मौलिक लेख जो उन्होंने अलग अलग नामों से लिखे, बहुत कुछ बयान करते हैं। उनकी जेल डायरी जिसमें उपरोक्त पंक्तियां उन्होंने अमेरिकी लेखक और पेशे से वकील राबर्ट जी. इंगरसोल को पढ़ते हुए नोट की थी, में अनेकों पुस्तकों का जिक्र है और अलग अलग विषयों से अनेक नोट हैं। उससे पता चलता है कि वह कितना पढ़ते थे, तब भी जब अपनी फांसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। सिद्धांत में पक्के और अभ्यास में निरंतर सटीक होने के चलते ही वह उस युग के क्रांतिकारियों की पहचान के रूप में विख्यात हुए।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी कहते हैं कि भगत सिंह की राजनीतिक सोच पर कभी चर्चा नहीं होती हैं। ज्यादातर लोग यही जानते हैं कि उन्हें ब्रिटिश हुकूमत के क्रूर पुलिस अधिकारी सैंडर्स की हत्या की वजह से फांसी दी गई थी, वे राष्ट्रवादी थे और तत्कालीन सेंट्रल असेंबली (आज की संसद) में उन्होंने बम फेंका था। पर ज्यादातर लोग यह बात नहीं जानते हैं कि भगत सिंह और उनका संगठन ‘‘हिन्दोस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’’ भारत की आज़ादी के लिए लड़ने वाले लोकप्रिय क्रांतिकारियों और संगठनों में सबसे विलक्षण था। उन्होंने बहुत स्पष्ट तौर पर आज़ादी का लक्ष्य पहचान लिया था और तय कर लिया था कि हिंदोस्तान की आज़ादी का अर्थ सिर्फ गोरे अंग्रेजों का चले जाना और उनकी जगह काले अंग्रेजों का चले आना भर नहीं है। वे भारत की जनता को, यहां के मजदूरों, किसानों और नौजवानों को सांमतवादी शोषण और साम्राज्यवाद- पूंजीवाद के बुनियादी ढांचे से मुक्त करना चाहते थे। वे सांप्रदायिकता, जातिवाद और पूंजीवाद के कट्टर विरोधी थे और इसे मानव सभ्यता के लिए खतरनाक मानते थे।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी
चौधरी के अनुसार, सेशन कोर्ट में अपने बयान में उन्होंने स्पष्ट कहा था ‘‘ ...जिस किसी ने भी कमरतोड़़ मेहनत करने वाले मूक मेहनतकशों की हालात पर हमारी तरह सोचा है, वह शायद स्थिर मन से यह सब नहीं देख सकेगा, ...आये दिन होने वाली मज़दूरों की मूक कुर्बानियों को देखकर जिस किसी का दिल रोता है, वह अपनी आत्मा की चीख की अपेक्षा नहीं कर सकता। ....क्रांति मानव जाति का जन्मजात अधिकार है तो श्रमिक वर्ग समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अंतिम लक्ष्य है।’’ उनकी सोच में श्रमिक वर्ग का हित और उनकी भूमिका केंद्रीय थी, वे सिर्फ अंग्रेजों को हटाने की लड़़ाई नहीं लड़ रहे थे, वे उससे आगे की लड़ाई भी लड़ रहे थे। जिसमें आज़ादी के बाद भारत का समाजिक, आर्थिक और राजनैतिक नक्शा क्या होगा जहां मज़दूर वर्ग की अहम भूमिका शामिल होगी। खास है कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जिस दिन असेंबली में बम फेंका था, उस दिन वहां भारत के मजदूर आंदोलन को कुचलने के लिए एक नए कानून, ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट (औद्योगिक विवाद विधेयक) पर चर्चा करके, उसे पास किया जाना था। भगत सिंह का बम फेंकना मज़दूरों के इस कानूनी दमन के विरोध का प्रतीक था।
भगत सिंह के शब्दो में ‘‘..हम इस संबंध में असेंबली की कार्रवाई देखने गए, वहां हमारा यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया कि भारत की लाखों मेहनतकश जनता एक ऐसी संस्था से किसी बात की आशा नहीं कर सकती जो भारत की बेबस मेहनतकशों की दासता तथा शोषकों की गलाघोटू शक्ति की संस्थान है। अंत में वह कानून जिसे हम बर्बर और अमानवीय समझते है, देश के प्रतिनिधियों के सरों पर पटक दिया गया और इस प्रकार करोड़ों संघर्षरत भूखे मज़दूरों को बुनियादी अधिकारों तक से भी वंचित कर दिया गया और उनके हाथों से उनकी आर्थिक मुक्ति का एकमात्र हथियार भी छीन लिया गया’’।
भगत सिंह ने अपने बयान में एक अन्य सवाल के उत्तर में कहा ‘‘...समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मज़दूरों को उनके बुनियादी अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प जाते हैं। दूसरा अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने को मोहताज है, दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया कराने वाले बुनकर अपने बच्चों का तन ढकने भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है, सुंदर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार, तथा बढई गंदी बस्तियों में पूरे जीवन भर रहने पर मजबूर हैं। .... स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठकर रंगरलियां मना रहा है और शोषित जनों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ड के कगार पर हैं।’’
अपने संगठन ‘‘हिंदोस्तां सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’’ के घोषणा पत्र में लिखे उनके ये वाक्य तो मानो आज ही लिखे गए लगते हैं, कि...भारत साम्राज्यवाद के दमन के नीचे पिस रहा है, इसमें करोड़ों लोग आज अज्ञानता और ग़रीबी के शिकार हो रहे हैं, भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या जो मजदूरों और किसानों की है, उनको विदेशी दबाव और आर्थिक लूट ने पस्त कर दिया है। भारत के मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गंभीर है, उसके सामने दोहरा खतरा है विदेशी पूंजीवाद का एक तरफ से और भारतीय पूंजीवाद के धोखे भरे हमले का दूसरी तरफ से। भारतीय पूंजीवाद, विदेशी पूंजी के साथ हर रोज बहुत से गठजोड़ कर रहा है।
*भगत सिंह के कोर्ट में दिए गए तमाम बयानों और उनके द्वारा लिखे गए तमाम लेखों में यह बात बहुत साफ तौर पर नज़र आती है कि वे देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए मजदूर वर्ग के हितों के प्रति समर्पित थे। वे मजदूर वर्ग की दुश्मन पूंजीवादी शक्तियों और विदेशी पूंजी के साथ उनके गठजोड़ की साजिश को भी समझते थे। उन्होंने बार-बार इस बारे में आगाह किया था। आज यह जरूरी है कि उन्हें बम फेंकने वाले एक राष्ट्रवादी क्रांतिकारी की जगह एक ऐसे शहीद के रूप में पहचाना जाए जो मज़दूर वर्ग की आज़ादी और सम्मान के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर गए।*
अंग्रेज सरकार को उखाड़ फेंकने की उनकी कोशिश के पीछे, अंग्रेज़ों से सत्ता हस्तांतरण के बजाय एक शोषणहीन, समाजवादी, प्रजातांत्रिक व्यवस्था स्थापित करना उद्देश्य था। जहां श्रमिक वर्ग समाज की निर्णायक शक्ति होंगें। हमें शहीद भगत सिंह को भारत में मज़दूर वर्ग और मज़दूर आंदोलन के महानायक के रूप में स्वीकार करना चाहिए और तमाम श्रमिकों को भी इस बारे में जागरूक करना चाहिए।
भगत सिंह के विचारों को रोशनी में अगर हम आज के भारत को देखें तो अद्भुत समानता दिखती है। पूंजीवादी भूमंडलीकरण और नवउदारवादी नीतियों के चलते तमाम सरकारें देशी और विदेशी पूंजीपतियों के हितों को पूरा करने में लगी है और उनके हाथों देश की तमाम धन संपदा, ज़मीन, जंगल, नदियां बेचती जा रही हैं। कृषि और श्रम कानूनों में नकारात्मक परिवर्तन ला रहे हैं। मौजूदा सरकार ने भी सत्ता में आते ही आनन फानन में ऐसे बहुत से श्रम कानूनों में बदलाव कर डाले जिनसे मज़दूरों का हक़ मारा जा रहा है उनका और अधिक शोषण करने के लिए कारपोरेट को कानूनी सुविधाए दी जा रही हैं।
केंद्र और राज्य सरकारें मजदूरों की जिंदगी आसान करने के लिए कोई काम नहीं करना चाहतीं, वे न तो न्यूनतम मजदूरी के कानून को लागू कर रही हैं, न प्रोविडेंट फंड और ग्रेच्युटी कानून को गंभीरता से लागू कर रही हैं, न प्रवासी मजदूरों के कानून को लागू कर रही हैं, न निर्माण मजदूरों के बारे में पहले बने कानून को ठीक से लागू कर रही हैं। बल्कि उद्योगों में ठेकेदारी व्यवस्था को मजबूत कर रही हैं और ठेका मज़दूरों को भी किसी भी प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं हो पा रहा है। महिला मज़दूरों की हालत और भी खराब है एक तो उनकी संख्या कम होती जा रही है और एक अनुमान के मुताबिक, पिछले चार सालों में करीब दो करोड़ महिला मज़दूर उद्यौगिक प्रक्रिया से ही गायब हो गई हैं। और इसके ऊपर नोटबंदी और लॉकडाउन ने मज़दूर वर्ग की कमर ही तोड़ कर रख दी। इसी तरह सरकार अपनी ही संसद द्वारा पास किए गए उन तमाम कानून को ठीक से न लागू करके पूरी तरह से असंवैधानिक और गैरकानूनी कार्य कर रही है। पूंजीपतियों के फायदे के लिए सरकार तमाम छूट दे रही है और उनके और विदेशी पूंजीपतियों के फायदे के लिए संसद के बाहर जाकर अध्यादेश लाया जा रहा है। मज़दूरों के अधिकारों पर संसद में किसी प्रकार की चर्चा ही नहीं हो रही है।
मेहनतकश वर्ग के खिलाफ पूंजीपति वर्ग ने एक युद्ध छेड़ा हुआ है, देश के पचास करोड़़ मजदूरों के लिए न कोई सामाजिक सुरक्षा है, न बुढ़ापे की पेंशन, न बीमारी का इलाज, न दुर्घटना का मुआवजा, न यूनियन बनाने का अधिकार है। उदाहरण के तौर पर मारुति कारखाने और नोएडा के सैकड़ों मजदूर अभी भी बिना जमानत के जेलो में बंद हैं। इन सारे हालात में मज़दूरों के संगठित विरोध की ताकत भी कमज़ोर हो रही है।
मजदूर वर्ग के बीच अपने सम्मान और अधिकारों के प्रति बढ़ती चेतना और सामूहिकता से ही मौजूदा संसद और कानून को मजदूर वर्ग की तरफ झुकाया जा सकता है। लोकतांत्रिक और संवैधानिक रास्ते पर चलकर ही मज़दूर आंदोलन अपनी राजनैतिक शक्ति को मजबूत कर सकते हैं और तभी संसद और विधानसभा में मज़दूर पक्ष की राजनीति मजबूत हो सकती है।
इसके लिए जरूरी है कि सारे मज़दूर और उनके संगठन, मज़दूरों के हमदर्द अन्य सामाजिक संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता, छात्र, नौजवान, लोकतंत्र और इंसाफ पसंद मध्यम वर्ग के लोग, अपने विचारधारात्मक मतभेदों को कम करते हुए अपनी आवाज़ उठायें कि हम ऐसा भारत चाहते हैं जहां मज़दूरों का सम्मान हो, श्रमिकों को उनका वाजिब हक़ मिले, देश के लोकतंत्र में उनकी पूरी भागीदारी सुनिश्चित हो, देश का विकास उनके शोषण के जरिए न हो, देश के विकास का उन्हें भी पूरा लाभ मिले।
*भगत सिंह की विचारधारा के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु...*
भगत सिंह के विचारों को आज क्यों जानबूझकर दबाया जा रहा?
वर्तमान दौर में भगत सिंह के विचार की ताकत तथा बलिदान के चलते, उनको नकारना किसी के वश का नहीं। वह नौजवानों में बहुत लोकप्रिय हैं। इसलिए दूसरा तरीका अपनाया गया है। भगत सिंह को तो आदर्श मानो लेकिन उनके विचारों को सामने न आने दो। यह साजिश से कम नहीं है। अशोक चौधरी के शब्दों में, भगत सिंह व्यवस्था परिवर्तन की बात करते थे। यही कारण है कि उस वक्त भी शासक वर्ग उनके विचारों से डरते थे और आज भी डरते हैं। ..जो भगत सिंह को उनकी लेखनी से जानते हैं, उनको पता है भगत सिंह खुद को इंक़लाब के विचार के बिना कुछ नहीं मानते थे। इसलिए आज नौजवानों को जरूरत है उनके विचारों को समझने की।
*नौजवानों की जिम्मेवार भूमिका सबसे महत्वपूर्ण*
भगत सिंह नौजवानों को बहुत महत्व देते थे। उस दौर में भी नौजवानों को राजनीति से दूर रहने की नसीहतें दी जाती थीं। भगत सिंह इसके मुखर विरोधी थे। उन्होंने 'विद्यार्थी और राजनीति' शीर्षक से एक लेख लिखा जो जुलाई 1928 में ‘कीर्ति’ में छपा था। भगत सिंह लिखते हैं, "जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज ही अक्ल के अन्धे बनाने की कोशिश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें ख़ुद समझ लेना चाहिए। हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगाना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना, उस शिक्षा में शामिल नहीं है? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं, जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए हासिल की जाये। ऐसी शिक्षा की ज़रूरत ही क्या है?"
वह लिखते हैं, " कुछ ज़्यादा चालाक आदमी ये कहते हैं- “काका, तुम पॉलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो ज़रूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो। तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फ़ायदेमंद साबित होगे। ..क्या इंग्लैंड के सभी विद्यार्थियों का कॉलेज छोड़कर जर्मनी के खि़लाफ़ लड़ने के लिए निकल पड़ना पॉलिटिक्स नहीं थी? तब ये उपदेशक कहां थे जो उनसे कहते– जाओ, जाकर शिक्षा हासिल करो।”
वह मानते थे कि नौजवानों का काम केवल नेताओं को माला पहनाना और उनके लिए नारे लगाना नहीं है बल्कि उनको तो नीति निर्धारण में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करना चाहिए। उन्हें संघर्षो का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। यह आज के दौर में भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है जब देश के नौजवानों को राजनीतिक पार्टियां धरना-रैली और चुनाव प्रचार के लिए तो प्रयोग करती हैं लेकिन जब यही नौजवान अपने हकों के लिए संगठित होते हैं तो उन्हें राजनीति से दूर रहने की नसीहत दी जाती है। जी हां, जब तक नौजवान सांप्रदायिक हिंसा के लिए पैदल सैनिकों की तरह काम करते हैं तो ठीक है लेकिन अगर वही नौजवान शिक्षा और रोजगार के लिए आंदोलन का नेतृत्व करते हैं तो नौजवानों को इन सब से दूर रहने के लिए ताकीद किया जाता है। भगत सिंह तब इसके खिलाफ लड़े थे और आज हमें इसके खिलाफ लड़ते हुए नौजवानों को, उनके जनवादी अधिकारों के बारे में सजग करते हुए, नीति निर्धारण में हस्तक्षेप करने को तैयार करना होगा।
अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य, क्रांति' की स्पष्ट अवधारणा: आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद बनने बाले देश के बारे में, भगत सिंह अपने समय के नेताओं से कहीं ज्यादा स्पष्ट थे। वह साफ़ घोषित करते हैं कि उनका मक़सद केवल अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पाना नहीं है बल्कि सत्ता परिवर्तन के लिए क्रांति करना है जिससे वास्तविक सत्ता मज़दूरों और किसानों के हाथ में आ जाए। इस गंभीर मुद्दे पर उन्होंने नौजवानों से चर्चा 'नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र' में की है। इसके साथ ही उन्होंने क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसविदा' में भी इस पर लिखा है।
हालांकि अदालत में सुनवाई के दौरान उनके राजनीतिक बयान और कई लेख और पर्चे हैं जिनमें क्रांति के बारे में चर्चा की है। लेकिन हम यहां केवल नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र के जरिये, उनके विचार को समझने का प्रयास करते हैं। वह इस पत्र में साफ़ लिखते है कि, "हम समाजवादी क्रांति चाहते हैं, जिसके लिए बुनियादी जरूरत राजनीतिक क्रांति की है। यही है जो हम चाहते हैं। राजनीतिक क्रांति का अर्थ राजसत्ता (यानी मोटे तौर पर ताकत) का अंग्रेजी हाथों से भारतीय हाथों में आना है और वह भी उन भारतीयों के हाथों में, जिनका अंतिम लक्ष्य हमारे लक्ष्य से मिलता हो। और स्पष्टता से कहें तो- राजसत्ता का सामान्य जनता की कोशिश से क्रांतिकारी पार्टी के हाथों में आना। इसके बाद पूरी संजीदगी से पूरे समाज को समाजवादी दिशा में ले जाने के लिए जुट जाना होगा। यदि क्रांति से आपका यह अर्थ नहीं है तो महाशय, मेहरबानी करें और ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाने बंद कर दें।"
आगे वह बड़े ही सरल तरीके से सत्ता परिवर्तन, सामान्य विद्रोहों और सर्वहारा क्रांति के बीच का फर्क समझाते हैं, “क्रांति से हमारा क्या आशय है, यह स्पष्ट है। इस शताब्दी में इसका सिर्फ एक ही अर्थ हो सकता है- जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही है ‘क्रांति’, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं। किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जतायी हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छिपा सकती, लोग छल को पहचानते हैं। भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को— भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगार हटाकर जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें, शोषण पर आधारित हैं— आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते।
क्रांति की असल अवधारणा की इतनी तीखी समझ के चलते ही सत्ताधारी वर्ग आज भी उनके विचारों से डरता है। वह शोषण के मूल आधार को चिंहित करते थे और इसे बदलने का सीधा तरीका बताते थे, जिसका मक़सद केवल सत्ता परिवर्तन से केवल शोषकों को बदलना नहीं बल्कि शोषण की समूल व्यवस्था का नाश करना है।
*क्रांति के लिए मज़दूरों और किसानों के आंदोलन का महत्व*
क्रांति में किसानों और मज़दूरों की भूमिका को वह पहचानते थे। उनका मानना था कि पैदावार करने वाले इन वर्गों के बिना मुक्कमल बदलाव संभव ही नहीं। इसके लिए वह सरमायेदार नेताओं को उलाहना भी दिया करते थे कि वह जानबूझकर उनकी सक्रिय भागीदारी आज़ादी की लड़ाई में सुनिश्चित नहीं करते हैं। हां, उनका आह्वान होता है, केवल आंदोलनों को लागू करने के लिए लेकिन नेतृत्व और निर्णय लेने से उन्हें दूर ही रखा जाता है।
वह लिखते हैं, "वास्तविक क्रांतिकारी सेनाएं तो गांवों और कारखानों में हैं- किसान और मजदूर। लेकिन हमारे ‘बुर्ज़ुआ’ नेताओं में उन्हें साथ लेने की हिम्मत नहीं है, न ही वे ऐसी हिम्मत कर सकते हैं। यह सोये हुए सिंह यदि एक बार गहरी नींद से जग गये तो वे हमारे नेताओं की लक्ष्य-पूर्ति के बाद भी रुकने वाले नहीं हैं।" वह मेहनतकश वर्ग के सक्रिय नेतृत्व में विश्वास करते थे। इतनी छोटी सी उम्र में यह उनकी राजनीतिक और वैचारिक परिपक्वता थी। इसके चलते वह क्रांति में उत्पादन करने वाले वर्ग के नेतृत्व की अपरिहार्यता को समझते थे, तो यह कुशल संगठनकर्ता के तौर पर उनकी अद्भुत क्षमता थी कि वह इस वर्ग को लामबंद करने के तरीके को भी पहचानते थे।
उस समय के बाकी बुर्ज़ुआ नेताओं की तरह वह मज़दूरों और किसानो को केवल अनुयायी नहीं मानते थे, जिनको आसानी से कोई भी अपनी राजनीति के पीछे लगा ले। वह कमेरे वर्ग को एक सजग वर्ग मानते थे जिनको गंभीरता से समझाना होगा कि क्रांति उनके हित में है और उनकी अपनी है और सर्वहारा श्रमिक वर्ग की क्रांति, सर्वहारा के लिए। इसी पत्र में वह स्पष्ट लिखते हैं," हम इस बात पर विचार कर रहे थे कि क्रांति किन-किन ताकतों पर निर्भर है? लेकिन यदि आप सोचते हैं कि किसानों और मजदूरों को सक्रिय हिस्सेदारी के लिए आप मना लेंगे तो मैं बताना चाहता हूँ कि वे किसी प्रकार की भावुक बातों से बेवकूफ नहीं बनाये जा सकते। वे साफ-साफ पूछेंगे कि उन्हें आपकी क्रांति से क्या लाभ होगा, वह क्रांति जिसके लिए आप उनके बलिदान की मांग कर रहे हैं। भारत सरकार का प्रमुख लार्ड रीडिंग की जगह यदि सर पुरुषोत्तम दास ठाकुर दास हो तो उन्हें (जनता को) इससे क्या फर्क पड़ता है? एक किसान को इससे क्या फर्क पड़ेगा, यदि लार्ड इरविन को जगह सर तेज बहादुर सप्रू आ जायें।"
*उपरोक्त बातों से साफ़ है कि भगत सिंह एक सच्चे कम्युनिस्ट थे लेकिन आज जब भगत सिंह के विचार को तिलांजलि देकर भी, उनके नाम को हड़पने की होड़ लगी है तो कई तरह का भ्रामक प्रचार किया जाता है। उनकी विरासत को हथियाने के लिए उन्हें कम्युनिस्टों से दूर किया जाता है। यहां तक कि अब तो सांप्रदायिक पार्टियां भी, जिनका विचार, उन्हें खुले तौर पर आतंकवादी कहता रहा है, जिनके साथी उनकी मूर्तियां तोड़ने जैसे नीच काम में लिप्त रहे हैं, भगत सिंह को अपने परिवार का हिस्सा बताते हैं। लेकिन बहुत ही साफ़ और स्पष्ट चेतावनी देने की जरुरत है इन सभी अवसरवादी ताकतों को कि वह भगत सिंह के नाम और विरासत से दूर रहें। जो देश सरकारों ने बनाया है और जिस दिशा में भाजपा देश को लेकर जा रही है वह भगत सिंह के सपनों का देश नहीं है। वह तो एक कम्युनिस्ट थे जिसने एक समाजवादी देश बनाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।*
क्रांति की यह अवधारणा किसी नौजवान का सपना मात्र नहीं था जिसे वह आसानी से पा लेने के किसी भ्रम में थे। यह तो भगत सिंह के मार्क्सवादी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का ठोस विश्लेषण है। अपने मकसद को पूरा करने की कठिनाई और उसके लिए लाज़मी बलिदानों से वह भलीभांति परिचित और तैयार हैं। वह लिखते हैं, "क्रांति या आजादी के लिए कोई छोटा रास्ता नहीं है। ‘यह किसी सुंदरी की तरह सुबह-सुबह हमें दिखाई नहीं देगी’ और यदि ऐसा हुआ तो वह बड़ा मनहूस दिन होगा। बिना किसी बुनियादी काम के, बगैर जुझारू जनता के और बिना किसी पार्टी के, अगर (क्रांति) हर तरह से तैयार हो, तो यह एक असफलता होगी।"
इसके लिए वह समर्पित कार्यकर्ताओं का आह्वान करते हैं और खुद इसका नेतृत्व करते हैं। वह क्रांति के विज्ञान को समझते हैं। इसलिए सामाजिक- आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप काम करने पर बल देते है। इसी खत में वह आगे लिखते हैं, “यह तो विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से पैदा होती है और एक संगठित पार्टी को ऐसे अवसर को सम्भालना होता है और जनता को इसके लिए तैयार करना होता है। क्रांति के दुस्साध्य कार्य के लिए सभी शक्तियों को संगठित करना होता है। इस सबके लिए क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं को अनेक कुर्बानियां देनी होती हैं। लेनिन के शब्दों में कहें तो ‘पेशेवर क्रांतिकारी’ की आवश्यकता है।
*नारा तब भी इंक़लाब था नारा आज भी इंक़लाब है*
हमारे देश की वर्तमान हालात को देख कर समझ में आता है कि भगत सिंह के विचार कितने सटीक थे। देश आज़ादी का अमृतोत्सव मना रहा है लेकिन देश का मेहनतकश मज़दूर, किसान और खेत मज़दूर आत्महत्या करने के लिए मज़बूर हो रहा है। देश के संसाधनों में उसकी हिस्सेदारी और उसकी आमदनी लगातार कम होती जा रही है। अगर हालात वही हैं जिनका संकेत भगत सिंह ने दिया था तो इलाज़ भी वही है जो उन्होंने बताया था। मज़दूरों और किसानों के संघर्ष।
वैश्विक पूंजी के दबाव के आगे नग्न समर्पण करके तथा पूरी तरह साम्राज्यवादी देशों के हितों के साथ खड़े होकर, मोदी सरकार उनकी साम्राज्यवाद-विरोधी विरासत को पहले ही तिलांजलि दे चुकी है। पिछले वर्षो में हमारे अनुभव भी यही बताते हैं जब देश में शोषणकारी कॉर्पोरेट सांप्रदायिक नापाक गठजोड़ को मज़दूरों और किसानों के आंदोलन ने चुनौती दी। देश के नौजवानों को इसे समझते हुए मेहनतकश की एकता और आंदोलनों का नेतृत्व करना चाहिए तभी भगत सिंह का देश हम बना पाएंगे। दूसरे शब्दों में दुश्मन तब भी साम्राज्यवाद था दुश्मन आज भी साम्राज्यवाद है- नारा तब भी इंक़लाब था नारा आज भी इंक़लाब है।
*सांप्रदायिकता के घोर विरोधी थे भगत सिंह*
भगत सिंह सांप्रदायिकता के घोर विरोधी थे। उन्होंने अपने जीवन में सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ समझौताविहीन लड़ाई लड़ी। उन्होंने अपने संगठन में किसी भी सांप्रदायिक संगठन से जुड़े व्यक्ति के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। वे इस सवाल पर कितने दृढ़ थे इसको इस तथ्य से समझा जा सकता है कि जिस लाजपत राय के लिए पंजाब के राष्ट्रीय हीरो के बतौर उनके मन में गहरा सम्मान था और जिनके ऊपर जानलेवा हमले का बदला लेने के लिए ही अंग्रेज अधिकारी की हत्या के आरोप में अंततः उन्हें फांसी की सजा हुई, उन लाजपत राय के अंदर एक समय जब सांप्रदायिक रुझान दिखे, तब भगत सिंह ने उनकी कटु आलोचना में उतरने में लेशमात्र भी संकोच नहीं किया और उन्हें वर्ड्सवर्थ के लिए रॉबर्ट ब्राउनिंग द्वारा प्रयुक्त "The Lost Leader" की संज्ञा से विभूषित किया। उनकी समझ बिल्कुल स्पष्ट थी। उन्होंने लिखा, "लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके बहकावे में आकर कुछ नहीं करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इससे एक दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और आर्थिक आज़ादी हासिल होगी। "
उन्होंने एक सच्ची धर्मनिरपेक्षता की वकालत की " 1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सबको एक साथ मिलकर काम नहीं करने देता। इसीलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिंदू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे। धर्म को राजनीति से अलग करना झगड़ा मिटाने का एक सुंदर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं। यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठा हो सकते हैं, धर्मों में हम चाहे अलग- अलग ही रहें।"
...शहीदे आजम भगत सिंह के लिए हिंदोस्तान की आज़ादी का अर्थ सिर्फ गोरे अंग्रेजों का चले जाना और उनकी जगह काले अंग्रेजों का चले आना भर नहीं है। वे भारत की जनता को, यहां के मजदूरों, किसानों और नौजवानों को सांमतवादी शोषण और साम्राज्यवाद- पूंजीवाद के बुनियादी ढांचे से मुक्त करना चाहते थे। भगत सिंह के विचारों की रोशनी में आज के भारत को देखें तो एक अद्भुत समानता दिखती है। पूंजीवादी भूमंडलीकरण और नवउदारवादी नीतियों के चलते तमाम सरकारें देशी और विदेशी पूंजीपतियों के हितों को पूरा करने में लगी हैं और उनके हाथों देश की तमाम धन संपदा, जल-जंगल-जमीन, नदियां बेचती जा रही है, कृषि तथा श्रम कानूनों में नकारात्मक परिवर्तन ला रही है। मौजूदा सरकार ने सत्ता में आते ही आनन फानन में श्रम कानूनों में ऐसे बहुत से बदलाव कर डाले हैं जिनसे मजदूरों का हक मारा जा रहा है और उनका और अधिक शोषण करने के लिए कारपोरेट को कानूनी सुविधा दी जा रही है।"
खास यह भी कि भगत सिंह के विचार की ताक़त और बलिदान के चलते, आज के दौर में उनको नकारना किसी के वश में नहीं है। वह नौजवानों में खासे लोकप्रिय हैं। इसलिए दूसरा तरीक़ा अपनाया जा रहा है कि... भगत सिंह को तो आदर्श मानो लेकिन उनके विचारों को सामने न आने दो। इसलिए एक साजिश के तहत, जानबूझकर उनके विचारों को दबाने का काम किया जा रहा है।
*'जो कोई भी कठिन श्रम से कोई चीज़ पैदा करता है, उसे यह बताने के लिए किसी ख़ुदाई पैग़ाम की जरूरत नहीं है कि पैदा की गई चीज़ पर उसी का अधिकार है' यह शब्द, जो अपनी जेल डायरी के सफा 16 में भगत सिंह द्वारा लिखे गए थे, उनके विचार का सार है। यह उस 23 वर्ष के नौजवान का अटूट विश्वास है जिसे आज के दौर में हमारे सामने पिस्तौल उठाये हुए, एक अति- उत्साही नायक के रूप में पेश किया जाता है। जिसे नौजवान सहज ही अपना आदर्श मान लेते हैं। लेकिन उनके विचारों से कभी रूबरू नहीं होते और न ही उनको आत्मसात करते हैं।*
जनवरी 1930 में असंबेली बम कांड में हाईकोर्ट में की गई अपील में अंग्रेजी हुकूमत के प्रचार की पोल खोलने के साथ-साथ, भगत सिंह आज के नौजवानों से कह रहे हैं कि 'बम और पिस्तौल इंकलाब नहीं लाते बल्कि इंकलाब की तलवार तो विचारों की सान पर तेज़ होती है।' भगत सिंह एक सुलझे हुए क्रांतिकारी थे, जो पूरी तरह से जानते थे कि वह क्या करना चाहते हैं। छोटी सी उम्र में उनकी लेखनी और उनका व्यापक अध्ययन, उनके एक गंभीर बुद्धिजीवी और प्रखर चिंतक होने की तरफ इशारा करता है। उनके द्वारा लिखे हुए मौलिक लेख जो उन्होंने अलग अलग नामों से लिखे, बहुत कुछ बयान करते हैं। उनकी जेल डायरी जिसमें उपरोक्त पंक्तियां उन्होंने अमेरिकी लेखक और पेशे से वकील राबर्ट जी. इंगरसोल को पढ़ते हुए नोट की थी, में अनेकों पुस्तकों का जिक्र है और अलग अलग विषयों से अनेक नोट हैं। उससे पता चलता है कि वह कितना पढ़ते थे, तब भी जब अपनी फांसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। सिद्धांत में पक्के और अभ्यास में निरंतर सटीक होने के चलते ही वह उस युग के क्रांतिकारियों की पहचान के रूप में विख्यात हुए।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी कहते हैं कि भगत सिंह की राजनीतिक सोच पर कभी चर्चा नहीं होती हैं। ज्यादातर लोग यही जानते हैं कि उन्हें ब्रिटिश हुकूमत के क्रूर पुलिस अधिकारी सैंडर्स की हत्या की वजह से फांसी दी गई थी, वे राष्ट्रवादी थे और तत्कालीन सेंट्रल असेंबली (आज की संसद) में उन्होंने बम फेंका था। पर ज्यादातर लोग यह बात नहीं जानते हैं कि भगत सिंह और उनका संगठन ‘‘हिन्दोस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’’ भारत की आज़ादी के लिए लड़ने वाले लोकप्रिय क्रांतिकारियों और संगठनों में सबसे विलक्षण था। उन्होंने बहुत स्पष्ट तौर पर आज़ादी का लक्ष्य पहचान लिया था और तय कर लिया था कि हिंदोस्तान की आज़ादी का अर्थ सिर्फ गोरे अंग्रेजों का चले जाना और उनकी जगह काले अंग्रेजों का चले आना भर नहीं है। वे भारत की जनता को, यहां के मजदूरों, किसानों और नौजवानों को सांमतवादी शोषण और साम्राज्यवाद- पूंजीवाद के बुनियादी ढांचे से मुक्त करना चाहते थे। वे सांप्रदायिकता, जातिवाद और पूंजीवाद के कट्टर विरोधी थे और इसे मानव सभ्यता के लिए खतरनाक मानते थे।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी
चौधरी के अनुसार, सेशन कोर्ट में अपने बयान में उन्होंने स्पष्ट कहा था ‘‘ ...जिस किसी ने भी कमरतोड़़ मेहनत करने वाले मूक मेहनतकशों की हालात पर हमारी तरह सोचा है, वह शायद स्थिर मन से यह सब नहीं देख सकेगा, ...आये दिन होने वाली मज़दूरों की मूक कुर्बानियों को देखकर जिस किसी का दिल रोता है, वह अपनी आत्मा की चीख की अपेक्षा नहीं कर सकता। ....क्रांति मानव जाति का जन्मजात अधिकार है तो श्रमिक वर्ग समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अंतिम लक्ष्य है।’’ उनकी सोच में श्रमिक वर्ग का हित और उनकी भूमिका केंद्रीय थी, वे सिर्फ अंग्रेजों को हटाने की लड़़ाई नहीं लड़ रहे थे, वे उससे आगे की लड़ाई भी लड़ रहे थे। जिसमें आज़ादी के बाद भारत का समाजिक, आर्थिक और राजनैतिक नक्शा क्या होगा जहां मज़दूर वर्ग की अहम भूमिका शामिल होगी। खास है कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जिस दिन असेंबली में बम फेंका था, उस दिन वहां भारत के मजदूर आंदोलन को कुचलने के लिए एक नए कानून, ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट (औद्योगिक विवाद विधेयक) पर चर्चा करके, उसे पास किया जाना था। भगत सिंह का बम फेंकना मज़दूरों के इस कानूनी दमन के विरोध का प्रतीक था।
भगत सिंह के शब्दो में ‘‘..हम इस संबंध में असेंबली की कार्रवाई देखने गए, वहां हमारा यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया कि भारत की लाखों मेहनतकश जनता एक ऐसी संस्था से किसी बात की आशा नहीं कर सकती जो भारत की बेबस मेहनतकशों की दासता तथा शोषकों की गलाघोटू शक्ति की संस्थान है। अंत में वह कानून जिसे हम बर्बर और अमानवीय समझते है, देश के प्रतिनिधियों के सरों पर पटक दिया गया और इस प्रकार करोड़ों संघर्षरत भूखे मज़दूरों को बुनियादी अधिकारों तक से भी वंचित कर दिया गया और उनके हाथों से उनकी आर्थिक मुक्ति का एकमात्र हथियार भी छीन लिया गया’’।
भगत सिंह ने अपने बयान में एक अन्य सवाल के उत्तर में कहा ‘‘...समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मज़दूरों को उनके बुनियादी अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प जाते हैं। दूसरा अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने को मोहताज है, दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया कराने वाले बुनकर अपने बच्चों का तन ढकने भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है, सुंदर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार, तथा बढई गंदी बस्तियों में पूरे जीवन भर रहने पर मजबूर हैं। .... स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठकर रंगरलियां मना रहा है और शोषित जनों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ड के कगार पर हैं।’’
अपने संगठन ‘‘हिंदोस्तां सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’’ के घोषणा पत्र में लिखे उनके ये वाक्य तो मानो आज ही लिखे गए लगते हैं, कि...भारत साम्राज्यवाद के दमन के नीचे पिस रहा है, इसमें करोड़ों लोग आज अज्ञानता और ग़रीबी के शिकार हो रहे हैं, भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या जो मजदूरों और किसानों की है, उनको विदेशी दबाव और आर्थिक लूट ने पस्त कर दिया है। भारत के मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गंभीर है, उसके सामने दोहरा खतरा है विदेशी पूंजीवाद का एक तरफ से और भारतीय पूंजीवाद के धोखे भरे हमले का दूसरी तरफ से। भारतीय पूंजीवाद, विदेशी पूंजी के साथ हर रोज बहुत से गठजोड़ कर रहा है।
*भगत सिंह के कोर्ट में दिए गए तमाम बयानों और उनके द्वारा लिखे गए तमाम लेखों में यह बात बहुत साफ तौर पर नज़र आती है कि वे देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए मजदूर वर्ग के हितों के प्रति समर्पित थे। वे मजदूर वर्ग की दुश्मन पूंजीवादी शक्तियों और विदेशी पूंजी के साथ उनके गठजोड़ की साजिश को भी समझते थे। उन्होंने बार-बार इस बारे में आगाह किया था। आज यह जरूरी है कि उन्हें बम फेंकने वाले एक राष्ट्रवादी क्रांतिकारी की जगह एक ऐसे शहीद के रूप में पहचाना जाए जो मज़दूर वर्ग की आज़ादी और सम्मान के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर गए।*
अंग्रेज सरकार को उखाड़ फेंकने की उनकी कोशिश के पीछे, अंग्रेज़ों से सत्ता हस्तांतरण के बजाय एक शोषणहीन, समाजवादी, प्रजातांत्रिक व्यवस्था स्थापित करना उद्देश्य था। जहां श्रमिक वर्ग समाज की निर्णायक शक्ति होंगें। हमें शहीद भगत सिंह को भारत में मज़दूर वर्ग और मज़दूर आंदोलन के महानायक के रूप में स्वीकार करना चाहिए और तमाम श्रमिकों को भी इस बारे में जागरूक करना चाहिए।
भगत सिंह के विचारों को रोशनी में अगर हम आज के भारत को देखें तो अद्भुत समानता दिखती है। पूंजीवादी भूमंडलीकरण और नवउदारवादी नीतियों के चलते तमाम सरकारें देशी और विदेशी पूंजीपतियों के हितों को पूरा करने में लगी है और उनके हाथों देश की तमाम धन संपदा, ज़मीन, जंगल, नदियां बेचती जा रही हैं। कृषि और श्रम कानूनों में नकारात्मक परिवर्तन ला रहे हैं। मौजूदा सरकार ने भी सत्ता में आते ही आनन फानन में ऐसे बहुत से श्रम कानूनों में बदलाव कर डाले जिनसे मज़दूरों का हक़ मारा जा रहा है उनका और अधिक शोषण करने के लिए कारपोरेट को कानूनी सुविधाए दी जा रही हैं।
केंद्र और राज्य सरकारें मजदूरों की जिंदगी आसान करने के लिए कोई काम नहीं करना चाहतीं, वे न तो न्यूनतम मजदूरी के कानून को लागू कर रही हैं, न प्रोविडेंट फंड और ग्रेच्युटी कानून को गंभीरता से लागू कर रही हैं, न प्रवासी मजदूरों के कानून को लागू कर रही हैं, न निर्माण मजदूरों के बारे में पहले बने कानून को ठीक से लागू कर रही हैं। बल्कि उद्योगों में ठेकेदारी व्यवस्था को मजबूत कर रही हैं और ठेका मज़दूरों को भी किसी भी प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं हो पा रहा है। महिला मज़दूरों की हालत और भी खराब है एक तो उनकी संख्या कम होती जा रही है और एक अनुमान के मुताबिक, पिछले चार सालों में करीब दो करोड़ महिला मज़दूर उद्यौगिक प्रक्रिया से ही गायब हो गई हैं। और इसके ऊपर नोटबंदी और लॉकडाउन ने मज़दूर वर्ग की कमर ही तोड़ कर रख दी। इसी तरह सरकार अपनी ही संसद द्वारा पास किए गए उन तमाम कानून को ठीक से न लागू करके पूरी तरह से असंवैधानिक और गैरकानूनी कार्य कर रही है। पूंजीपतियों के फायदे के लिए सरकार तमाम छूट दे रही है और उनके और विदेशी पूंजीपतियों के फायदे के लिए संसद के बाहर जाकर अध्यादेश लाया जा रहा है। मज़दूरों के अधिकारों पर संसद में किसी प्रकार की चर्चा ही नहीं हो रही है।
मेहनतकश वर्ग के खिलाफ पूंजीपति वर्ग ने एक युद्ध छेड़ा हुआ है, देश के पचास करोड़़ मजदूरों के लिए न कोई सामाजिक सुरक्षा है, न बुढ़ापे की पेंशन, न बीमारी का इलाज, न दुर्घटना का मुआवजा, न यूनियन बनाने का अधिकार है। उदाहरण के तौर पर मारुति कारखाने और नोएडा के सैकड़ों मजदूर अभी भी बिना जमानत के जेलो में बंद हैं। इन सारे हालात में मज़दूरों के संगठित विरोध की ताकत भी कमज़ोर हो रही है।
मजदूर वर्ग के बीच अपने सम्मान और अधिकारों के प्रति बढ़ती चेतना और सामूहिकता से ही मौजूदा संसद और कानून को मजदूर वर्ग की तरफ झुकाया जा सकता है। लोकतांत्रिक और संवैधानिक रास्ते पर चलकर ही मज़दूर आंदोलन अपनी राजनैतिक शक्ति को मजबूत कर सकते हैं और तभी संसद और विधानसभा में मज़दूर पक्ष की राजनीति मजबूत हो सकती है।
इसके लिए जरूरी है कि सारे मज़दूर और उनके संगठन, मज़दूरों के हमदर्द अन्य सामाजिक संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता, छात्र, नौजवान, लोकतंत्र और इंसाफ पसंद मध्यम वर्ग के लोग, अपने विचारधारात्मक मतभेदों को कम करते हुए अपनी आवाज़ उठायें कि हम ऐसा भारत चाहते हैं जहां मज़दूरों का सम्मान हो, श्रमिकों को उनका वाजिब हक़ मिले, देश के लोकतंत्र में उनकी पूरी भागीदारी सुनिश्चित हो, देश का विकास उनके शोषण के जरिए न हो, देश के विकास का उन्हें भी पूरा लाभ मिले।
*भगत सिंह की विचारधारा के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु...*
भगत सिंह के विचारों को आज क्यों जानबूझकर दबाया जा रहा?
वर्तमान दौर में भगत सिंह के विचार की ताकत तथा बलिदान के चलते, उनको नकारना किसी के वश का नहीं। वह नौजवानों में बहुत लोकप्रिय हैं। इसलिए दूसरा तरीका अपनाया गया है। भगत सिंह को तो आदर्श मानो लेकिन उनके विचारों को सामने न आने दो। यह साजिश से कम नहीं है। अशोक चौधरी के शब्दों में, भगत सिंह व्यवस्था परिवर्तन की बात करते थे। यही कारण है कि उस वक्त भी शासक वर्ग उनके विचारों से डरते थे और आज भी डरते हैं। ..जो भगत सिंह को उनकी लेखनी से जानते हैं, उनको पता है भगत सिंह खुद को इंक़लाब के विचार के बिना कुछ नहीं मानते थे। इसलिए आज नौजवानों को जरूरत है उनके विचारों को समझने की।
*नौजवानों की जिम्मेवार भूमिका सबसे महत्वपूर्ण*
भगत सिंह नौजवानों को बहुत महत्व देते थे। उस दौर में भी नौजवानों को राजनीति से दूर रहने की नसीहतें दी जाती थीं। भगत सिंह इसके मुखर विरोधी थे। उन्होंने 'विद्यार्थी और राजनीति' शीर्षक से एक लेख लिखा जो जुलाई 1928 में ‘कीर्ति’ में छपा था। भगत सिंह लिखते हैं, "जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज ही अक्ल के अन्धे बनाने की कोशिश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें ख़ुद समझ लेना चाहिए। हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगाना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना, उस शिक्षा में शामिल नहीं है? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं, जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए हासिल की जाये। ऐसी शिक्षा की ज़रूरत ही क्या है?"
वह लिखते हैं, " कुछ ज़्यादा चालाक आदमी ये कहते हैं- “काका, तुम पॉलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो ज़रूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो। तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फ़ायदेमंद साबित होगे। ..क्या इंग्लैंड के सभी विद्यार्थियों का कॉलेज छोड़कर जर्मनी के खि़लाफ़ लड़ने के लिए निकल पड़ना पॉलिटिक्स नहीं थी? तब ये उपदेशक कहां थे जो उनसे कहते– जाओ, जाकर शिक्षा हासिल करो।”
वह मानते थे कि नौजवानों का काम केवल नेताओं को माला पहनाना और उनके लिए नारे लगाना नहीं है बल्कि उनको तो नीति निर्धारण में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करना चाहिए। उन्हें संघर्षो का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। यह आज के दौर में भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है जब देश के नौजवानों को राजनीतिक पार्टियां धरना-रैली और चुनाव प्रचार के लिए तो प्रयोग करती हैं लेकिन जब यही नौजवान अपने हकों के लिए संगठित होते हैं तो उन्हें राजनीति से दूर रहने की नसीहत दी जाती है। जी हां, जब तक नौजवान सांप्रदायिक हिंसा के लिए पैदल सैनिकों की तरह काम करते हैं तो ठीक है लेकिन अगर वही नौजवान शिक्षा और रोजगार के लिए आंदोलन का नेतृत्व करते हैं तो नौजवानों को इन सब से दूर रहने के लिए ताकीद किया जाता है। भगत सिंह तब इसके खिलाफ लड़े थे और आज हमें इसके खिलाफ लड़ते हुए नौजवानों को, उनके जनवादी अधिकारों के बारे में सजग करते हुए, नीति निर्धारण में हस्तक्षेप करने को तैयार करना होगा।
अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य, क्रांति' की स्पष्ट अवधारणा: आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद बनने बाले देश के बारे में, भगत सिंह अपने समय के नेताओं से कहीं ज्यादा स्पष्ट थे। वह साफ़ घोषित करते हैं कि उनका मक़सद केवल अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पाना नहीं है बल्कि सत्ता परिवर्तन के लिए क्रांति करना है जिससे वास्तविक सत्ता मज़दूरों और किसानों के हाथ में आ जाए। इस गंभीर मुद्दे पर उन्होंने नौजवानों से चर्चा 'नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र' में की है। इसके साथ ही उन्होंने क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसविदा' में भी इस पर लिखा है।
हालांकि अदालत में सुनवाई के दौरान उनके राजनीतिक बयान और कई लेख और पर्चे हैं जिनमें क्रांति के बारे में चर्चा की है। लेकिन हम यहां केवल नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र के जरिये, उनके विचार को समझने का प्रयास करते हैं। वह इस पत्र में साफ़ लिखते है कि, "हम समाजवादी क्रांति चाहते हैं, जिसके लिए बुनियादी जरूरत राजनीतिक क्रांति की है। यही है जो हम चाहते हैं। राजनीतिक क्रांति का अर्थ राजसत्ता (यानी मोटे तौर पर ताकत) का अंग्रेजी हाथों से भारतीय हाथों में आना है और वह भी उन भारतीयों के हाथों में, जिनका अंतिम लक्ष्य हमारे लक्ष्य से मिलता हो। और स्पष्टता से कहें तो- राजसत्ता का सामान्य जनता की कोशिश से क्रांतिकारी पार्टी के हाथों में आना। इसके बाद पूरी संजीदगी से पूरे समाज को समाजवादी दिशा में ले जाने के लिए जुट जाना होगा। यदि क्रांति से आपका यह अर्थ नहीं है तो महाशय, मेहरबानी करें और ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाने बंद कर दें।"
आगे वह बड़े ही सरल तरीके से सत्ता परिवर्तन, सामान्य विद्रोहों और सर्वहारा क्रांति के बीच का फर्क समझाते हैं, “क्रांति से हमारा क्या आशय है, यह स्पष्ट है। इस शताब्दी में इसका सिर्फ एक ही अर्थ हो सकता है- जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही है ‘क्रांति’, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं। किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जतायी हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छिपा सकती, लोग छल को पहचानते हैं। भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को— भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगार हटाकर जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें, शोषण पर आधारित हैं— आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते।
क्रांति की असल अवधारणा की इतनी तीखी समझ के चलते ही सत्ताधारी वर्ग आज भी उनके विचारों से डरता है। वह शोषण के मूल आधार को चिंहित करते थे और इसे बदलने का सीधा तरीका बताते थे, जिसका मक़सद केवल सत्ता परिवर्तन से केवल शोषकों को बदलना नहीं बल्कि शोषण की समूल व्यवस्था का नाश करना है।
*क्रांति के लिए मज़दूरों और किसानों के आंदोलन का महत्व*
क्रांति में किसानों और मज़दूरों की भूमिका को वह पहचानते थे। उनका मानना था कि पैदावार करने वाले इन वर्गों के बिना मुक्कमल बदलाव संभव ही नहीं। इसके लिए वह सरमायेदार नेताओं को उलाहना भी दिया करते थे कि वह जानबूझकर उनकी सक्रिय भागीदारी आज़ादी की लड़ाई में सुनिश्चित नहीं करते हैं। हां, उनका आह्वान होता है, केवल आंदोलनों को लागू करने के लिए लेकिन नेतृत्व और निर्णय लेने से उन्हें दूर ही रखा जाता है।
वह लिखते हैं, "वास्तविक क्रांतिकारी सेनाएं तो गांवों और कारखानों में हैं- किसान और मजदूर। लेकिन हमारे ‘बुर्ज़ुआ’ नेताओं में उन्हें साथ लेने की हिम्मत नहीं है, न ही वे ऐसी हिम्मत कर सकते हैं। यह सोये हुए सिंह यदि एक बार गहरी नींद से जग गये तो वे हमारे नेताओं की लक्ष्य-पूर्ति के बाद भी रुकने वाले नहीं हैं।" वह मेहनतकश वर्ग के सक्रिय नेतृत्व में विश्वास करते थे। इतनी छोटी सी उम्र में यह उनकी राजनीतिक और वैचारिक परिपक्वता थी। इसके चलते वह क्रांति में उत्पादन करने वाले वर्ग के नेतृत्व की अपरिहार्यता को समझते थे, तो यह कुशल संगठनकर्ता के तौर पर उनकी अद्भुत क्षमता थी कि वह इस वर्ग को लामबंद करने के तरीके को भी पहचानते थे।
उस समय के बाकी बुर्ज़ुआ नेताओं की तरह वह मज़दूरों और किसानो को केवल अनुयायी नहीं मानते थे, जिनको आसानी से कोई भी अपनी राजनीति के पीछे लगा ले। वह कमेरे वर्ग को एक सजग वर्ग मानते थे जिनको गंभीरता से समझाना होगा कि क्रांति उनके हित में है और उनकी अपनी है और सर्वहारा श्रमिक वर्ग की क्रांति, सर्वहारा के लिए। इसी पत्र में वह स्पष्ट लिखते हैं," हम इस बात पर विचार कर रहे थे कि क्रांति किन-किन ताकतों पर निर्भर है? लेकिन यदि आप सोचते हैं कि किसानों और मजदूरों को सक्रिय हिस्सेदारी के लिए आप मना लेंगे तो मैं बताना चाहता हूँ कि वे किसी प्रकार की भावुक बातों से बेवकूफ नहीं बनाये जा सकते। वे साफ-साफ पूछेंगे कि उन्हें आपकी क्रांति से क्या लाभ होगा, वह क्रांति जिसके लिए आप उनके बलिदान की मांग कर रहे हैं। भारत सरकार का प्रमुख लार्ड रीडिंग की जगह यदि सर पुरुषोत्तम दास ठाकुर दास हो तो उन्हें (जनता को) इससे क्या फर्क पड़ता है? एक किसान को इससे क्या फर्क पड़ेगा, यदि लार्ड इरविन को जगह सर तेज बहादुर सप्रू आ जायें।"
*उपरोक्त बातों से साफ़ है कि भगत सिंह एक सच्चे कम्युनिस्ट थे लेकिन आज जब भगत सिंह के विचार को तिलांजलि देकर भी, उनके नाम को हड़पने की होड़ लगी है तो कई तरह का भ्रामक प्रचार किया जाता है। उनकी विरासत को हथियाने के लिए उन्हें कम्युनिस्टों से दूर किया जाता है। यहां तक कि अब तो सांप्रदायिक पार्टियां भी, जिनका विचार, उन्हें खुले तौर पर आतंकवादी कहता रहा है, जिनके साथी उनकी मूर्तियां तोड़ने जैसे नीच काम में लिप्त रहे हैं, भगत सिंह को अपने परिवार का हिस्सा बताते हैं। लेकिन बहुत ही साफ़ और स्पष्ट चेतावनी देने की जरुरत है इन सभी अवसरवादी ताकतों को कि वह भगत सिंह के नाम और विरासत से दूर रहें। जो देश सरकारों ने बनाया है और जिस दिशा में भाजपा देश को लेकर जा रही है वह भगत सिंह के सपनों का देश नहीं है। वह तो एक कम्युनिस्ट थे जिसने एक समाजवादी देश बनाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।*
क्रांति की यह अवधारणा किसी नौजवान का सपना मात्र नहीं था जिसे वह आसानी से पा लेने के किसी भ्रम में थे। यह तो भगत सिंह के मार्क्सवादी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का ठोस विश्लेषण है। अपने मकसद को पूरा करने की कठिनाई और उसके लिए लाज़मी बलिदानों से वह भलीभांति परिचित और तैयार हैं। वह लिखते हैं, "क्रांति या आजादी के लिए कोई छोटा रास्ता नहीं है। ‘यह किसी सुंदरी की तरह सुबह-सुबह हमें दिखाई नहीं देगी’ और यदि ऐसा हुआ तो वह बड़ा मनहूस दिन होगा। बिना किसी बुनियादी काम के, बगैर जुझारू जनता के और बिना किसी पार्टी के, अगर (क्रांति) हर तरह से तैयार हो, तो यह एक असफलता होगी।"
इसके लिए वह समर्पित कार्यकर्ताओं का आह्वान करते हैं और खुद इसका नेतृत्व करते हैं। वह क्रांति के विज्ञान को समझते हैं। इसलिए सामाजिक- आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप काम करने पर बल देते है। इसी खत में वह आगे लिखते हैं, “यह तो विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से पैदा होती है और एक संगठित पार्टी को ऐसे अवसर को सम्भालना होता है और जनता को इसके लिए तैयार करना होता है। क्रांति के दुस्साध्य कार्य के लिए सभी शक्तियों को संगठित करना होता है। इस सबके लिए क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं को अनेक कुर्बानियां देनी होती हैं। लेनिन के शब्दों में कहें तो ‘पेशेवर क्रांतिकारी’ की आवश्यकता है।
*नारा तब भी इंक़लाब था नारा आज भी इंक़लाब है*
हमारे देश की वर्तमान हालात को देख कर समझ में आता है कि भगत सिंह के विचार कितने सटीक थे। देश आज़ादी का अमृतोत्सव मना रहा है लेकिन देश का मेहनतकश मज़दूर, किसान और खेत मज़दूर आत्महत्या करने के लिए मज़बूर हो रहा है। देश के संसाधनों में उसकी हिस्सेदारी और उसकी आमदनी लगातार कम होती जा रही है। अगर हालात वही हैं जिनका संकेत भगत सिंह ने दिया था तो इलाज़ भी वही है जो उन्होंने बताया था। मज़दूरों और किसानों के संघर्ष।
वैश्विक पूंजी के दबाव के आगे नग्न समर्पण करके तथा पूरी तरह साम्राज्यवादी देशों के हितों के साथ खड़े होकर, मोदी सरकार उनकी साम्राज्यवाद-विरोधी विरासत को पहले ही तिलांजलि दे चुकी है। पिछले वर्षो में हमारे अनुभव भी यही बताते हैं जब देश में शोषणकारी कॉर्पोरेट सांप्रदायिक नापाक गठजोड़ को मज़दूरों और किसानों के आंदोलन ने चुनौती दी। देश के नौजवानों को इसे समझते हुए मेहनतकश की एकता और आंदोलनों का नेतृत्व करना चाहिए तभी भगत सिंह का देश हम बना पाएंगे। दूसरे शब्दों में दुश्मन तब भी साम्राज्यवाद था दुश्मन आज भी साम्राज्यवाद है- नारा तब भी इंक़लाब था नारा आज भी इंक़लाब है।
*सांप्रदायिकता के घोर विरोधी थे भगत सिंह*
भगत सिंह सांप्रदायिकता के घोर विरोधी थे। उन्होंने अपने जीवन में सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ समझौताविहीन लड़ाई लड़ी। उन्होंने अपने संगठन में किसी भी सांप्रदायिक संगठन से जुड़े व्यक्ति के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। वे इस सवाल पर कितने दृढ़ थे इसको इस तथ्य से समझा जा सकता है कि जिस लाजपत राय के लिए पंजाब के राष्ट्रीय हीरो के बतौर उनके मन में गहरा सम्मान था और जिनके ऊपर जानलेवा हमले का बदला लेने के लिए ही अंग्रेज अधिकारी की हत्या के आरोप में अंततः उन्हें फांसी की सजा हुई, उन लाजपत राय के अंदर एक समय जब सांप्रदायिक रुझान दिखे, तब भगत सिंह ने उनकी कटु आलोचना में उतरने में लेशमात्र भी संकोच नहीं किया और उन्हें वर्ड्सवर्थ के लिए रॉबर्ट ब्राउनिंग द्वारा प्रयुक्त "The Lost Leader" की संज्ञा से विभूषित किया। उनकी समझ बिल्कुल स्पष्ट थी। उन्होंने लिखा, "लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके बहकावे में आकर कुछ नहीं करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इससे एक दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और आर्थिक आज़ादी हासिल होगी। "
उन्होंने एक सच्ची धर्मनिरपेक्षता की वकालत की " 1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सबको एक साथ मिलकर काम नहीं करने देता। इसीलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिंदू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे। धर्म को राजनीति से अलग करना झगड़ा मिटाने का एक सुंदर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं। यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठा हो सकते हैं, धर्मों में हम चाहे अलग- अलग ही रहें।"