शहीद दिवस: भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को ब्रिटिश सरकार ने आज के दिन ही दी थी फांसी

Written by Sabrangindia Staff | Published on: March 23, 2021
अंग्रेज अधिकारी की हत्या और असेंबली में बम फेंकने के आरोप में राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को 24 मार्च 1931 को फांसी का एलान हुआ था। हालांकि जेल अधिकारियों ने एक रोज पहले आज ही के दिन रातोंरात उन्हें सूली पर चढ़ा दिया।



आज ही के दिन यानी 23 मार्च 1931 को क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरु को ब्रिटिश हुकूमत के दौरान फांसी की सजा सुनाई गई थी। तीनों ने लाला लाजपत राय का मौत का बदला लेने के लिए अंग्रेज पुलिस अधिकारी जेपी सांडर्स की हत्या कर दी थी। फांसी के समय आजादी के ये दीवाने बहुत कम उम्र के थे। इसके बाद से ही देश में 30 जनवरी के अलावा आज के दिन को भी शहीद दिवस के तौर पर मनाया जाता है।

देश में कई तारीखें शहीद दिवस के तौर पर मानी जाती हैं। 23 मार्च को भी शहीद दिवस कहा जाता है क्योंकि इस रोज एक साथ तीन क्रांतिकारियों को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी गई थी। कई जगह इस बात का जिक्र है कि जिस दिन उन्हें फांसी दी गई थी उस दिन वो तीनों मुस्कुराते हुए आगे बढ़े और एक-दूसरे को गले से लगाया था।

वैसे राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फांसी एक रोज बाद मिलने वाली थी, लेकिन अंग्रेज सरकार को डर लगा कि कहीं कोई फसाद न हो जाए। तब तक इन तीनों युवाओं के बारे में देश का चप्पा-चप्पा जानने लगा था और उनकी सजा को लेकर आक्रोश भी दिखने लगा था। यही कारण है कि तीनों को एक दिन पहले बगैर किसी को खबर किए रातोंरात फांसी पर चढ़ा दिया गया, तब जाकर जानकारी जेल से बाहर निकल सकी।

सूली पर चढ़ते समय भगत सिंह की उम्र 24, राजगुरु की 23 और सुखदेव लगभग 24 साल के थे। इतनी कम उम्र में ही इन क्रांतिकारियों की कोशिशों से पूरी ब्रितानिया हुकूमत घबरा गई थी। हुआ ये था कि साल 1928 में राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह तीनों साथियों ने योजना बनाकर ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स की गोली मारकर हत्या कर दी थी। लाला लाजपत राय की मौत के जिम्मेदार इस अधिकारी की हत्या के बाद वे युवा चुप नहीं बैठे, बल्कि हुकूमत के खिलाफ अपना आक्रोश जताने के लिए सेंट्रल एसेंबली में बम फेंक दिया।

इसके बाद एसेंबली में अफरा-तफरी मच गई। चाहते तो वे आराम से निकल सकते थे लेकिन वे भागे नहीं, बल्कि मजबूती से वहीं खड़े रहे और साथ में पर्चे भी फेंकते रहे। उनका इरादा था कि इससे आजादी को लेकर जनभावना और भड़के। हुआ भी यही। लोग काबू में रहें, इसके लिए सरकार को लाहौर में धारा 144 लगा दी गई थी ताकि लोग जमा होकर किसी योजना को अंजाम न दे सकें। 

फांसी से पहले भगतसिंह ने एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने आजादी का मोल समझाते हुए देश के युवाओं से आंदोलन का हिस्सा बनने को कहा था। उर्दू में लिखे पत्र का एक अंश आज भी काफी पढ़ा जाता है-

साथियो,
स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ, कि मैं क़ैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता।

मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है - इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज़ नहीं हो सकता।

आज मेरी कमज़ोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वो ज़ाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक-चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरज़ू किया करेंगी और देश की आज़ादी के लिए कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।

हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थी, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतंत्र, ज़िंदा रह सकता तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता।

इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे ख़ुद पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतज़ार है। कामना है कि यह और नज़दीक हो जाए।

आपका साथी,
भगत सिंह
 

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