सुप्रीम कोर्ट में बोलीं आदिवासी महिला- FRA के तहत अधिकार मांगने वालों का दमन जारी है

Written by sabrang india | Published on: July 27, 2019
नई दिल्ली। आदिवासियों की जमीन के संबंध में 13 फरवरी 2019 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर आदिवासी मानवाधिकार कार्यकर्ता सुकालो गोंड और निवाडा राणा उच्चतम न्यायालय की शरण में पहुंची हैं। दोनों ने कोर्ट से लाखों आदिवासियों को बेदखली के फैसले से सुरक्षित करने की गुहार लगाई है। इन्होंने वाइल्डलाइफ फर्स्ट की अगुवाई में चल रहे मामले में हस्तक्षेप का आवेदन दिया है। दोनों ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई है कि वनाधिकार को लेकर उन्हें लगातार दमन का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में कोर्ट उनके ऊपर हो रहे अत्याचार का वर्णन सुने। 

उत्तर प्रदेश में सोनभद्र की रहने वाली सुकालो गोंड और निवादा राणा ने ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फोरेस्ट वर्किंग प्युपिल (AIUFWP) और तीस्ता सीतलवाड़ द्वारा समर्थित सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) के सहयोग से सुप्रीम कोर्ट में हस्तक्षेप याचिका दायर की है। सीजेपी द्वारा इससे पहले करीब 15 हस्तक्षेप याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं ताकि आदिवासियों और वनाश्रित समुदाय को उनका वनाधिकार एक्ट 2006 के तहत उनका संवैधानिक अधिकार मिल सके। 

सुकालो गोंड एफआरए 2006 लागू होने से पहले से आदिवासियों के हक के लिए लड़ रही हैं और जनजागरुकता फैलाती रही हैं। वहीं, निवादा राणा नेपाल बॉर्डर पर स्थित दुधवा नेशनल पार्क के क्षेत्र से आती हैं और थारू समुदाय से हैं। वे थारू आदिवासी महिला मजदुर किसान मंच की उपाध्यक्ष हैं। 

दलील में कहा गया है कि AIUFWP के अंडर में सोनभद्र, मिर्जापुर, चंदौली, चित्रकूट, लखीमपुर खीरी, ललितपुर, भारियाच, पीलीभीत में महिलाओं के नेपथ्य में आदिवासी समुदाय 1 लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर सामुहिक रूप खेती कर रहा है। यूपी के अलावा उत्तराखंड का शिवालिक क्षेत्र, बिहार, झारखंड, मप्र में बुंदेलखंड और पश्चिम बंगाल के सुंदरवन में भी इसी प्रकार से सामुहिक तौर पर खेती की जाती है। एफआरए ने वन और वन भूमि पर आदिवासी महिलाओं के बराबर और स्वतंत्र अधिकारों को निहित किया, जबकि राजस्व और अन्य सभी भूमि कानून शादी के बाद ही महिलाओं को यह अधिकार देते हैं। लेकिन अब उन्हें अतिक्रमणकारी करार देने की कोशिश की जा रही है। 

आवेदन में कहा गया है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन में फोरेस्ट राइट्स एक्ट 1927 के जरिए करीब 150 जनजातियों को अपराधी बना दिया गया था। इन पर अत्याचार के सारे रास्ते खोल दिए गए थे। पुलिस और प्रशासन को लगातार इनकी निगरानी करने की अनुमति दी गई थी। लकड़ी की मांग ने ब्रिटिश साम्राज्य की अंतहीन वाणिज्यिक भूख बढ़ा दी थी। स्थानीय माफिया, पुलिस और वन अधिकारियों की साठगांठ ने वन-निवासी समुदायों का व्यवस्थित रूप से शोषण और उत्पीड़न किया। अब एफआरए 2006 के बावजूद यह साठगांठ जारी है और वनाश्रितों का लगातार शोषण किया जा रहा है।  

आवेदन 15 वीं लोकसभा में सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण पर स्थायी समिति द्वारा पेश की गई 2010-11 की रिपोर्ट का हवाला देता है जिसने कड़ाई से कानून को लागू नहीं करने के लिए जनजातीय मामलों के मंत्रालय को कड़ा संकेत दिया था। यह 2014 और 2018 में, एफआरए के तहत दावों और उनकी अस्वीकृति के संबंध में विभिन्न राज्यों में नौकरशाही द्वारा नियोजित समस्याग्रस्त कार्यप्रणाली को हल करने के बारे में जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा राज्य सरकारों को दो संचार का हवाला देता है। 

आवेदन में कहा है कि जून 2018 में, आदिवासियों और ग्रामीणों द्वारा सोनभद्र में सुकालो गोंड के नेतृत्व में एफआरए के तहत अधिकारों को लेकर आंदोलन किया गया था। जिसके चलते राज्य पुलिस ने सुकालो गोंड और एक अन्य नेता किसमतिया गोंड को हिरासत में ले लिया था। जिसके बाद सीजेपी और एआईयूएफडब्लूपी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की थी। अदालत ने इस पर राज्य पुलिस को फटकार लगाते हुए स्पष्टीकरण देने का निर्देश दिया था साथ ही उन्हें रिहा करने का आदेश दिया था। इसके बाद पुलिस ने जवाब दिया कि उन्हें रिहा कर दिया गया है जबकि लंबे समय तक उनका कोई पता नहीं चला। लंबे प्रयासों के बाद आखिर नवंबर 2018 में सुकालो गोंड को मिर्जापुर जेल से रिहा किया गया।  

आवेदन में कहा गया है कि सुकालो गोंड ने 15 अन्य ग्राम सभाओं के सदस्यों के साथ, मार्च 2018 में सामुदायिक वन अधिकारों के लिए दावे दायर किए हैं, जिसमें महिलाएं प्राथमिक दावेदार हैं। महिलाएं आज यहां सामूहिक खेती और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का कार्य कर रही हैं। निवाडा राणा ने जुलाई 2013 में सामुदायिक वन अधिकारों के दावे को दायर करने में भी भाग लिया है, जो इस आधार पर प्रलेखन द्वारा समर्थित है कि महिलाओं को प्राकृतिक संसाधनों का पहला मालिक होना चाहिए। "लेकिन आज तक कोई भी सामुदायिक अधिकार दुधवा में महिलाओं को नहीं दिया गया है।"

बाकी ख़बरें