"अनुसूचित जनजाति के सदस्यों और 13 दिसंबर, 2005 के पहले से कथित क्षेत्र में रह रहे और जमीन जोत रहे अन्य पारंपरिक वनवासियों को एफआरए भूमि पर व्यक्तिगत वन अधिकार (IFR) दाखिल करने का अधिकार देता है लेकिन तरह तरह की विभागीय अड़ंगेबाजी के चलते, वनाधिकार मिल पाना एक मृग मरीचिका ही साबित हो रहा है। दूसरी ओर, NCST भी इन मामलों में चुप नजर आता है।"
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क्या है मामला
फॉरेस्ट राइट एक्ट (FRA) की संवैधानिकता पर एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी, 2019 को सभी राज्यों को निर्देश दिया कि जिन दावेदारों के आईएफआर खारिज कर दिए गए हैं, उन्हें बेदखल किया जाए। इसका मतलब 16 राज्यों में 11,91,324 लोगों को जमीन से बेदखल किया जाना था। इस फैसले के खिलाफ बड़े पैमाने पर आक्रोश को देखते हुए केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय (एमओटीए) ने आदेश में संशोधन के लिए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक आवेदन दायर किया। इस आवेदन में ऐसे उदाहरणों का जिक्र था जहां संबंधित राज्यों ने नामंजूरी की प्रक्रिया का सख्ती से पालन नहीं किया था। 28 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने बेदखली के आदेश पर रोक लगा दी। एमओटीए ने तब संबंधित राज्यों के साथ आदेश पर चर्चा की, जिसमें खारिज किए गए दावों की समीक्षा करने का निर्णय लिया।
अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो... 24 फरवरी, 2020 को जनजातीय मामलों के मंत्रालय (एमओटीए) की बैठक के अनुसार, कुल 14 राज्यों ने 5,43,432 आईएफआर की समीक्षा के दावों को खारिज किया था। इसका मतलब है कि लगभग 50 प्रतिशत दावे दोबारा नामंजूर हो गए। और यह इन दावों पर अंतिम निर्णय है। इन निवासियों को अब कभी भी बेदखल किया जा सकता है। समीक्षा दावों को खारिज करने में राज्यों की सूची में छत्तीसगढ़ शीर्ष पर है। 2019 में इस राज्य ने सभी 4.5 लाख खारिज किए गए आईएफआर के दावों की समीक्षा करने का फैसला किया। एमओटीए वेबसाइट के अनुसार, 3,94,851 आईएफआर की समीक्षा के दावे फरवरी 2020 तक खारिज कर दिए गए।
डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार, अक्टूबर 2022 की मीटिंग (जिसमें जनजातीय मामलों के केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा शामिल थे) के अनुसार, राज्य ने लगभग 34,000 दावों को खारिज करने के फैसले को वापस लिया है। इसका मतलब है कि 10 प्रतिशत से भी कम समीक्षाओं को ही मंजूरी दी गई। उल्लेखनीय है कि जनजातीय आबादी वाले एक अन्य राज्य ओडिशा ने जिला स्तरीय समिति (डीएलसी) के स्तर पर 1,48,870 खारिज किए गए आईएफआर के दावों की समीक्षा की है और उनमें से 1,40,504 को फिर से खारिज कर दिया है। यानी 94 प्रतिशत दावों दोबारा नामंजूर कर दिया गया।
ओडिशा स्थित गैर-लाभकारी संस्था वसुंधरा के कार्यकारी निदेशक वाई गिरी राव के अनुसार, 2019 से पहले डीएलसी ने दावों को खारिज नहीं किया, क्योंकि इसका निर्णय बाध्यकारी है और आवेदकों के पास अदालत जाने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। लेकिन 2019 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ओडिशा में डीएलसी ने बड़ी संख्या में दावों को खारिज करना शुरू कर दिया। राव कहते हैं, “जिनके दावों को खारिज कर दिया गया है, वे वहां रह सकते हैं। विभाग कोर्ट केस दायर कर सकता है। दावेदारों के पास तब यह साबित करने का एक और मौका होगा कि वो जमीन पीढ़ियों से उनके कब्जे में रही है।”
बेदखली का खतरा
16 राज्यों में 5 लाख से अधिक आदिवासियों पर उनके व्यक्तिगत वन अधिकारों (आईएफआर) की नामंजूरी की वजह से उनकी वनभूमि से बेदखल होने का खतरा मंडरा रहा है। 13 फरवरी, 2019 को दिए अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने 16 राज्यों को उन आदिवासियों को बेदखल करने का निर्देश दिया, जिनके व्यक्तिगत वन अधिकार खारिज कर दिए गए थे। इन आदिवासियों की संख्या 11.5 लाख से अधिक है।
केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय (एमओटीए) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर किए गए आवेदन में दावा किया गया है कि राज्यों के द्वारा वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत प्रक्रियाओं का सख्ती से पालन किए बिना ही कई दावों को नामंजूर कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने 28 फरवरी, 2019 को बेदखली के आदेश पर रोक लगा दी। एमओटीए ने 6 मार्च, 2019 को खारिज किए गए दावे की समीक्षा के मुद्दे पर राज्यों के साथ बैठक की।
मध्य प्रदेश ने सितंबर 2019 में समीक्षा के दावों को दर्ज करने और नए दावों को प्रस्तुत करने में आसानी के लिए एमपी वनमित्र वेब पोर्टल लॉन्च किया। जबकि मध्य प्रदेश के अलावा, देश के 14 अन्य राज्यों ने 24 फरवरी, 2020 तक समीक्षा के 5,43,432 से अधिक ऑफलाइन दावों को खारिज कर दिया। अंतिम आदेश तक बेदखली पर रोक के आदेश के साथ सुप्रीम कोर्ट में मामला चल रहा है।
मध्य प्रदेश में मित्र पोर्टल बना आदिवासियों का दुश्मन
सबसे अधिक आदिवासी आबादी वाले राज्य, मध्य प्रदेश की ही बात करें तो सितंबर 2019 में लॉन्च मध्य प्रदेश वन मित्र वेब पोर्टल का मकसद था कि खारिज कर दिए गए दावों के लिए दावेदारों को फिर से आवेदन करने की अनुमति मिल सके और साथ ही नए दावेदारों के लिए आईएफआर जमा करने की प्रक्रिया को आसान बनाया जा सके। लेकिन स्थिति एकदम उलट है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, 2008 में एफआरए के लागू होने से लेकर जनवरी 2019 तक, मध्य प्रदेश को 5,79,411 आईएफआर के दावे प्राप्त हुए थे। सुप्रीम कोर्ट के 2019 के आदेश के अनुसार, इनमें से 2,24,624 दावों को मंजूरी मिली और 3,54,787 को खारिज किया गया। यानी 61.2 प्रतिशत दावों को नामंजूर कर दिया गया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 2019 के आदेश के बाद राज्य को एमपी वनमित्र पोर्टल के माध्यम से जिला स्तर पर IFR के 1,74,525 दावे मिले। MP के एक शोधकर्ता को सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 के माध्यम से मिले आंकड़ों से पता चलता है कि इनमें अक्टूबर 2022 तक 1,51,929 दावों को प्रोसेस किया गया, जिनमें से 1,16,758 को खारिज कर दिया गया।
बुरहानपुर में आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाले, जागृत आदिवासी दलित संगठन, के एक कार्यकर्ता नितिन वर्गीज कहते हैं, “यह पोर्टल आईएफआर की समीक्षा के दावों को खारिज करने के लिए धोखाधड़ी का आधार बन गया है। दरअसल, वन निवासी जो लिख-पढ़ भी नहीं सकते, उनका ऑनलाइन आवेदन प्रारूप से वाकिफ होना तो दूर की बात है। आईएफआर का दावा दायर करने के लिए वे पंजीकृत इंटरनेट कियोस्क ऑपरेटरों के पास जाते हैं, जो अक्सर अलग-अलग व्यक्तियों के दस्तावेजों को आपस में मिला देते हैं और फिर गलत दस्तावेज अपलोड कर देते हैं।”
बुरहानपुर के सिवले गांव की वन अधिकार समिति (आईएफआर के दावों की भौतिक जांच करने वाली समिति का पहला स्तर) के सचिव अंतराम अवासे एक अन्य मुद्दे पर प्रकाश डालते हैं, “पंचायत सचिव, जो ग्राम सभा द्वारा निर्वाचित वन अधिकार समिति के सदस्य होते हैं, उन्हें तालुकदार और वन विभाग के बीट गार्ड के साथ क्लेम किए गए क्षेत्र का दौरा और उसका सत्यापन करना होता है। वे अक्सर खुद उस क्षेत्र में गए बगैर ही दावे को खारिज कर देते हैं।” यही नहीं, कथित तौर पर, "वे इसके लिए अपनी आधिकारिक यूजर आईडी के माध्यम से पोर्टल पर लॉगिन कर ग्रामसभा को जानकारी दिए बिना नकली प्रस्तावों और ग्रामसभा की पुरानी तस्वीरों को अपलोड करते हैं और दावों को खारिज कर देते हैं।”
बुरहानपुर में सरकार ने जिले के लिए पोर्टल बंद करने से पहले केवल 10,173 मामले दर्ज किए थे, क्योंकि ऑनलाइन आवेदनों की संख्या ऑफलाइन अस्वीकृत दावों की संख्या से लगभग दोगुनी थी। लखन अग्रवाल, सहायक आयुक्त, आदिवासी कल्याण विभाग, बुरहानपुर द्वारा डीटीई को उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, कुल 5,944 आवेदन खारिज किए गए थे। अग्रवाल कहते हैं, “जून 2020 से बुरहानपुर के लिए पोर्टल बंद कर दिया गया है क्योंकि नए दावेदारों ने भी पोर्टल पर अपने दावे दर्ज करने शुरू कर दिए, जिसकी वजह से असमंजस की स्थिति बन गई। हम अब एमपी वनमित्र पर दायर इन दावों की समीक्षा कर रहे हैं, लेकिन दावों की संख्या बढ़ गई है, इसलिए इसमें अब समय लगेगा।” पोर्टल पर आवेदन करने के लिए दावेदारों के लिए आधार कार्ड होना भी आवश्यक है, जबकि एफआरए के अनुसार इसकी अनिवार्यता नहीं है।
अनुसूचित जनजाति आयोग ने ओढ़ी चुप्पी?
अनुसूचित जनजाति आयोग ने पिछले दो-तीन माह में कई ऐसे काम किए जिन्होंने लोगों को हैरानी में डाल दिया। इनमें पहला काम आयोग ने किया नए वन संरक्षण नियम 2022 पर सरकार को चेतावनी देना था।
वन अधिकार अधिनियम, 2006 को संभावित रूप से कमजोर करने वाले नए वन संरक्षण नियम 2022 के बारे में आयोग के अध्यक्ष हर्ष चौहान ने बाकायदा, पर्यावरण मंत्रालय को पत्र लिखकर, सरकार से स्पष्ट कहा था कि ये नियम आदिवासियों के अधिकारों के लिए घातक हैं। इसके बाद राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) ने सुप्रीम कोर्ट से सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से FRA यानि फॉरेस्ट राइट एक्ट को लागू करने से संबंधित रिपोर्ट प्राप्त कर ली है। लेकिन उसके बाद से आयोग भी एक रहस्यमय मौन ताने हुए है।
खास है कि इन दस्तावेजों को राज्य सरकारों ने सीलबंद लिफ़ाफ़े में सुप्रीम कोर्ट को सौंपा था। जिसमें अघोषित कागजात के 30 से अधिक सेट शामिल हैं। अनुसूचित जनजाति आयोग ने अपनी विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट से वनाधिकार अधिनियम 2006 को लागू किये जाने से जुड़े ये ज़रूरी दस्तावेज़ हासिल किए हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 338ए, खंड 8 (डी) के माध्यम से दी गई विशेष शक्ति आयोग को “किसी भी अदालत या कार्यालय से किसी भी सार्वजनिक रिकॉर्ड या उसकी कॉपी की मांग करने का अधिकार देती हैं। अब राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग देश भर में वन अधिकार कानून 2006 को लागू करने के बारे में एक ठोस समीक्षा कर सकता है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, इन दोनों ही मामलों में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, सरकार को फैसले लेने से रोक पाएगा या फिर उन्हें बदल पाएगा, ऐसी उम्मीद करना तो बेमानी होगी। लेकिन आयोग के इस बयान से उन लोगों या संगठनों को बल मिलता है जो ज़मीन पर इन मुद्दों पर लड़ रहे हैं। ये दोनों ही घटनाएं इस संविधानिक संस्थान के बारे में आम धारणा या छवि को भी तोड़ती हैं। आमतौर पर यह माना जाता है कि राष्ट्रीय जनजाति आयोग तो कागजी शेर है…लेकिन NCST के ये दो कदम बताते हैं कि ये दो घटनाएं तमाम बंधनों, मजबूरियों और सीमाओं के बावजूद अगर संस्थान का नेतृत्व थोड़ी बहुत भी दूरदृष्टि से काम ले, अपने कर्तव्य को पूरा करने की उसकी कुछ नीयत हो तो दंतविहीन माने जाने वाली संस्थाएं भी असरदार हो सकती हैं। लेकिन NCST के बारे में तथ्यों और सरकार के रवैये की जांच करते हैं तो यह उम्मीद टूट जाती है कि ये संस्थान वह काम कर सकते हैं जो काम करने के लिए उनकी स्थापना हुई है।
2004 में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की स्थापना हुई थी तो संविधान के आर्टिकल 338 (A) के तहत आयोग को यह ज़िम्मेदारी दी गई थी कि वह देश में आदिवासी हितों की रक्षा करेगा, उनको अत्याचार बचाएगा और सरकार को आदिवासियों से जुड़ी नीतियों के बाले में सलाह देगा। इसके अलावा राष्ट्रीय जनजाति आयोग को यह ज़िम्मेदारी भी दी गई थी कि वह आदिवासियों से जुड़े महत्वपूर्ण शोध कार्य भी कराए। मतलब यह कि आयोग की ज़िम्मेदारियों का दायरा काफी व्यापक है। लेकिन इतिहास बताता है कि आयोग का ज़िम्मेदारियों को निभाना तो दूर की बात है कभी इस तरफ कदम भी नहीं उठाया है। आख़िर समस्या क्या है.. क्यों आयोग अपना काम नहीं कर पाता है… इसके कई कारण हो सकते हैं लेकिन इसे समझने के क्रम में तीन बड़ी बातों को ज़िम्मेदार माना जा सकता है।
आयोग के अध्यक्ष और सदस्य अक्सर सत्ताधारी दल के होते हैं। इसलिए वो कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते जिससे तत्कालीन सरकार नाराज़ हो या फिर उसे किसी तरह की परेशानी हो। दूसरा, आयोग अपने ख़र्च के लिए आदिवासी मंत्रालय पर निर्भर है, इसलिए मंत्रालय उसे अपने मातहत विभाग की तरह से देखता है। आयोग के क्षेत्रीय कार्यालयों में पर्याप्त स्टाफ या संसाधन मौजूद नहीं है। MBB न्यूज पोर्टल के अनुसार, उदहारण के साथ इन तीनों बातों को समझने की कोशिश करते हैं। NCST में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और तीन अन्य सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान है। लेकिन फिलहाल अनुसूचित जनजाति आयोग में बीजेपी के सांसद हर्ष चौहान अध्यक्ष हैं और अनंत नायक आयोग के सदस्य हैं। बाकी के सभी पद खाली हैं। कर्मचारियों की नियुक्ति के मामले में भी सरकार ने संसद में जानकारी दी है कि आयोग में जितने कर्मचारी होने चाहिए, उससे आधे ही नियुक्त हुए हैं।
NCST की स्थापना के समय यह परिकल्पना की गयी थी कि यह एक स्वतंत्र संस्था होगी जो सरकार को आदिवासियों से जुड़े नीतिगत मसलों पर सलाह देगी। लेकिन पिछले दो साल में आदिवासी मामलों के मंत्रालय के कामकाज की समीक्षा करने वाली संसदीय समिति की रिपोर्ट, कुछ कड़वी सच्चाई पेश करती हैं। ये रिपोर्ट बताती हैं कि NCST- नियुक्तियों से लेकर वेतन और शोध के लिए पैसे को पूरी तरह से मंत्रालय के रहमो करम पर है। देश के अनुसूचित जनजाति के लोगों आसानी से आयोग तक पहुंच सकें इसके लिए देश के अलग अलग राज्यों में अनुसूचित जनजाति आयोग के 6 क्षेत्रीय कार्यालय स्थापित किये गए हैं। लेकिन इन कार्यालयों के हालात भी बेहद ख़राब हैं, यहां पर स्टाफ और संसाधनों की भारी कमी है।
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फॉरेस्ट राइट एक्ट (FRA) की संवैधानिकता पर एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी, 2019 को सभी राज्यों को निर्देश दिया कि जिन दावेदारों के आईएफआर खारिज कर दिए गए हैं, उन्हें बेदखल किया जाए। इसका मतलब 16 राज्यों में 11,91,324 लोगों को जमीन से बेदखल किया जाना था। इस फैसले के खिलाफ बड़े पैमाने पर आक्रोश को देखते हुए केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय (एमओटीए) ने आदेश में संशोधन के लिए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक आवेदन दायर किया। इस आवेदन में ऐसे उदाहरणों का जिक्र था जहां संबंधित राज्यों ने नामंजूरी की प्रक्रिया का सख्ती से पालन नहीं किया था। 28 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने बेदखली के आदेश पर रोक लगा दी। एमओटीए ने तब संबंधित राज्यों के साथ आदेश पर चर्चा की, जिसमें खारिज किए गए दावों की समीक्षा करने का निर्णय लिया।
अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो... 24 फरवरी, 2020 को जनजातीय मामलों के मंत्रालय (एमओटीए) की बैठक के अनुसार, कुल 14 राज्यों ने 5,43,432 आईएफआर की समीक्षा के दावों को खारिज किया था। इसका मतलब है कि लगभग 50 प्रतिशत दावे दोबारा नामंजूर हो गए। और यह इन दावों पर अंतिम निर्णय है। इन निवासियों को अब कभी भी बेदखल किया जा सकता है। समीक्षा दावों को खारिज करने में राज्यों की सूची में छत्तीसगढ़ शीर्ष पर है। 2019 में इस राज्य ने सभी 4.5 लाख खारिज किए गए आईएफआर के दावों की समीक्षा करने का फैसला किया। एमओटीए वेबसाइट के अनुसार, 3,94,851 आईएफआर की समीक्षा के दावे फरवरी 2020 तक खारिज कर दिए गए।
डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार, अक्टूबर 2022 की मीटिंग (जिसमें जनजातीय मामलों के केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा शामिल थे) के अनुसार, राज्य ने लगभग 34,000 दावों को खारिज करने के फैसले को वापस लिया है। इसका मतलब है कि 10 प्रतिशत से भी कम समीक्षाओं को ही मंजूरी दी गई। उल्लेखनीय है कि जनजातीय आबादी वाले एक अन्य राज्य ओडिशा ने जिला स्तरीय समिति (डीएलसी) के स्तर पर 1,48,870 खारिज किए गए आईएफआर के दावों की समीक्षा की है और उनमें से 1,40,504 को फिर से खारिज कर दिया है। यानी 94 प्रतिशत दावों दोबारा नामंजूर कर दिया गया।
ओडिशा स्थित गैर-लाभकारी संस्था वसुंधरा के कार्यकारी निदेशक वाई गिरी राव के अनुसार, 2019 से पहले डीएलसी ने दावों को खारिज नहीं किया, क्योंकि इसका निर्णय बाध्यकारी है और आवेदकों के पास अदालत जाने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। लेकिन 2019 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ओडिशा में डीएलसी ने बड़ी संख्या में दावों को खारिज करना शुरू कर दिया। राव कहते हैं, “जिनके दावों को खारिज कर दिया गया है, वे वहां रह सकते हैं। विभाग कोर्ट केस दायर कर सकता है। दावेदारों के पास तब यह साबित करने का एक और मौका होगा कि वो जमीन पीढ़ियों से उनके कब्जे में रही है।”
बेदखली का खतरा
16 राज्यों में 5 लाख से अधिक आदिवासियों पर उनके व्यक्तिगत वन अधिकारों (आईएफआर) की नामंजूरी की वजह से उनकी वनभूमि से बेदखल होने का खतरा मंडरा रहा है। 13 फरवरी, 2019 को दिए अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने 16 राज्यों को उन आदिवासियों को बेदखल करने का निर्देश दिया, जिनके व्यक्तिगत वन अधिकार खारिज कर दिए गए थे। इन आदिवासियों की संख्या 11.5 लाख से अधिक है।
केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय (एमओटीए) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर किए गए आवेदन में दावा किया गया है कि राज्यों के द्वारा वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत प्रक्रियाओं का सख्ती से पालन किए बिना ही कई दावों को नामंजूर कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने 28 फरवरी, 2019 को बेदखली के आदेश पर रोक लगा दी। एमओटीए ने 6 मार्च, 2019 को खारिज किए गए दावे की समीक्षा के मुद्दे पर राज्यों के साथ बैठक की।
मध्य प्रदेश ने सितंबर 2019 में समीक्षा के दावों को दर्ज करने और नए दावों को प्रस्तुत करने में आसानी के लिए एमपी वनमित्र वेब पोर्टल लॉन्च किया। जबकि मध्य प्रदेश के अलावा, देश के 14 अन्य राज्यों ने 24 फरवरी, 2020 तक समीक्षा के 5,43,432 से अधिक ऑफलाइन दावों को खारिज कर दिया। अंतिम आदेश तक बेदखली पर रोक के आदेश के साथ सुप्रीम कोर्ट में मामला चल रहा है।
मध्य प्रदेश में मित्र पोर्टल बना आदिवासियों का दुश्मन
सबसे अधिक आदिवासी आबादी वाले राज्य, मध्य प्रदेश की ही बात करें तो सितंबर 2019 में लॉन्च मध्य प्रदेश वन मित्र वेब पोर्टल का मकसद था कि खारिज कर दिए गए दावों के लिए दावेदारों को फिर से आवेदन करने की अनुमति मिल सके और साथ ही नए दावेदारों के लिए आईएफआर जमा करने की प्रक्रिया को आसान बनाया जा सके। लेकिन स्थिति एकदम उलट है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, 2008 में एफआरए के लागू होने से लेकर जनवरी 2019 तक, मध्य प्रदेश को 5,79,411 आईएफआर के दावे प्राप्त हुए थे। सुप्रीम कोर्ट के 2019 के आदेश के अनुसार, इनमें से 2,24,624 दावों को मंजूरी मिली और 3,54,787 को खारिज किया गया। यानी 61.2 प्रतिशत दावों को नामंजूर कर दिया गया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 2019 के आदेश के बाद राज्य को एमपी वनमित्र पोर्टल के माध्यम से जिला स्तर पर IFR के 1,74,525 दावे मिले। MP के एक शोधकर्ता को सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 के माध्यम से मिले आंकड़ों से पता चलता है कि इनमें अक्टूबर 2022 तक 1,51,929 दावों को प्रोसेस किया गया, जिनमें से 1,16,758 को खारिज कर दिया गया।
बुरहानपुर में आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाले, जागृत आदिवासी दलित संगठन, के एक कार्यकर्ता नितिन वर्गीज कहते हैं, “यह पोर्टल आईएफआर की समीक्षा के दावों को खारिज करने के लिए धोखाधड़ी का आधार बन गया है। दरअसल, वन निवासी जो लिख-पढ़ भी नहीं सकते, उनका ऑनलाइन आवेदन प्रारूप से वाकिफ होना तो दूर की बात है। आईएफआर का दावा दायर करने के लिए वे पंजीकृत इंटरनेट कियोस्क ऑपरेटरों के पास जाते हैं, जो अक्सर अलग-अलग व्यक्तियों के दस्तावेजों को आपस में मिला देते हैं और फिर गलत दस्तावेज अपलोड कर देते हैं।”
बुरहानपुर के सिवले गांव की वन अधिकार समिति (आईएफआर के दावों की भौतिक जांच करने वाली समिति का पहला स्तर) के सचिव अंतराम अवासे एक अन्य मुद्दे पर प्रकाश डालते हैं, “पंचायत सचिव, जो ग्राम सभा द्वारा निर्वाचित वन अधिकार समिति के सदस्य होते हैं, उन्हें तालुकदार और वन विभाग के बीट गार्ड के साथ क्लेम किए गए क्षेत्र का दौरा और उसका सत्यापन करना होता है। वे अक्सर खुद उस क्षेत्र में गए बगैर ही दावे को खारिज कर देते हैं।” यही नहीं, कथित तौर पर, "वे इसके लिए अपनी आधिकारिक यूजर आईडी के माध्यम से पोर्टल पर लॉगिन कर ग्रामसभा को जानकारी दिए बिना नकली प्रस्तावों और ग्रामसभा की पुरानी तस्वीरों को अपलोड करते हैं और दावों को खारिज कर देते हैं।”
बुरहानपुर में सरकार ने जिले के लिए पोर्टल बंद करने से पहले केवल 10,173 मामले दर्ज किए थे, क्योंकि ऑनलाइन आवेदनों की संख्या ऑफलाइन अस्वीकृत दावों की संख्या से लगभग दोगुनी थी। लखन अग्रवाल, सहायक आयुक्त, आदिवासी कल्याण विभाग, बुरहानपुर द्वारा डीटीई को उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, कुल 5,944 आवेदन खारिज किए गए थे। अग्रवाल कहते हैं, “जून 2020 से बुरहानपुर के लिए पोर्टल बंद कर दिया गया है क्योंकि नए दावेदारों ने भी पोर्टल पर अपने दावे दर्ज करने शुरू कर दिए, जिसकी वजह से असमंजस की स्थिति बन गई। हम अब एमपी वनमित्र पर दायर इन दावों की समीक्षा कर रहे हैं, लेकिन दावों की संख्या बढ़ गई है, इसलिए इसमें अब समय लगेगा।” पोर्टल पर आवेदन करने के लिए दावेदारों के लिए आधार कार्ड होना भी आवश्यक है, जबकि एफआरए के अनुसार इसकी अनिवार्यता नहीं है।
अनुसूचित जनजाति आयोग ने ओढ़ी चुप्पी?
अनुसूचित जनजाति आयोग ने पिछले दो-तीन माह में कई ऐसे काम किए जिन्होंने लोगों को हैरानी में डाल दिया। इनमें पहला काम आयोग ने किया नए वन संरक्षण नियम 2022 पर सरकार को चेतावनी देना था।
वन अधिकार अधिनियम, 2006 को संभावित रूप से कमजोर करने वाले नए वन संरक्षण नियम 2022 के बारे में आयोग के अध्यक्ष हर्ष चौहान ने बाकायदा, पर्यावरण मंत्रालय को पत्र लिखकर, सरकार से स्पष्ट कहा था कि ये नियम आदिवासियों के अधिकारों के लिए घातक हैं। इसके बाद राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) ने सुप्रीम कोर्ट से सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से FRA यानि फॉरेस्ट राइट एक्ट को लागू करने से संबंधित रिपोर्ट प्राप्त कर ली है। लेकिन उसके बाद से आयोग भी एक रहस्यमय मौन ताने हुए है।
खास है कि इन दस्तावेजों को राज्य सरकारों ने सीलबंद लिफ़ाफ़े में सुप्रीम कोर्ट को सौंपा था। जिसमें अघोषित कागजात के 30 से अधिक सेट शामिल हैं। अनुसूचित जनजाति आयोग ने अपनी विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट से वनाधिकार अधिनियम 2006 को लागू किये जाने से जुड़े ये ज़रूरी दस्तावेज़ हासिल किए हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 338ए, खंड 8 (डी) के माध्यम से दी गई विशेष शक्ति आयोग को “किसी भी अदालत या कार्यालय से किसी भी सार्वजनिक रिकॉर्ड या उसकी कॉपी की मांग करने का अधिकार देती हैं। अब राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग देश भर में वन अधिकार कानून 2006 को लागू करने के बारे में एक ठोस समीक्षा कर सकता है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, इन दोनों ही मामलों में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, सरकार को फैसले लेने से रोक पाएगा या फिर उन्हें बदल पाएगा, ऐसी उम्मीद करना तो बेमानी होगी। लेकिन आयोग के इस बयान से उन लोगों या संगठनों को बल मिलता है जो ज़मीन पर इन मुद्दों पर लड़ रहे हैं। ये दोनों ही घटनाएं इस संविधानिक संस्थान के बारे में आम धारणा या छवि को भी तोड़ती हैं। आमतौर पर यह माना जाता है कि राष्ट्रीय जनजाति आयोग तो कागजी शेर है…लेकिन NCST के ये दो कदम बताते हैं कि ये दो घटनाएं तमाम बंधनों, मजबूरियों और सीमाओं के बावजूद अगर संस्थान का नेतृत्व थोड़ी बहुत भी दूरदृष्टि से काम ले, अपने कर्तव्य को पूरा करने की उसकी कुछ नीयत हो तो दंतविहीन माने जाने वाली संस्थाएं भी असरदार हो सकती हैं। लेकिन NCST के बारे में तथ्यों और सरकार के रवैये की जांच करते हैं तो यह उम्मीद टूट जाती है कि ये संस्थान वह काम कर सकते हैं जो काम करने के लिए उनकी स्थापना हुई है।
2004 में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की स्थापना हुई थी तो संविधान के आर्टिकल 338 (A) के तहत आयोग को यह ज़िम्मेदारी दी गई थी कि वह देश में आदिवासी हितों की रक्षा करेगा, उनको अत्याचार बचाएगा और सरकार को आदिवासियों से जुड़ी नीतियों के बाले में सलाह देगा। इसके अलावा राष्ट्रीय जनजाति आयोग को यह ज़िम्मेदारी भी दी गई थी कि वह आदिवासियों से जुड़े महत्वपूर्ण शोध कार्य भी कराए। मतलब यह कि आयोग की ज़िम्मेदारियों का दायरा काफी व्यापक है। लेकिन इतिहास बताता है कि आयोग का ज़िम्मेदारियों को निभाना तो दूर की बात है कभी इस तरफ कदम भी नहीं उठाया है। आख़िर समस्या क्या है.. क्यों आयोग अपना काम नहीं कर पाता है… इसके कई कारण हो सकते हैं लेकिन इसे समझने के क्रम में तीन बड़ी बातों को ज़िम्मेदार माना जा सकता है।
आयोग के अध्यक्ष और सदस्य अक्सर सत्ताधारी दल के होते हैं। इसलिए वो कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते जिससे तत्कालीन सरकार नाराज़ हो या फिर उसे किसी तरह की परेशानी हो। दूसरा, आयोग अपने ख़र्च के लिए आदिवासी मंत्रालय पर निर्भर है, इसलिए मंत्रालय उसे अपने मातहत विभाग की तरह से देखता है। आयोग के क्षेत्रीय कार्यालयों में पर्याप्त स्टाफ या संसाधन मौजूद नहीं है। MBB न्यूज पोर्टल के अनुसार, उदहारण के साथ इन तीनों बातों को समझने की कोशिश करते हैं। NCST में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और तीन अन्य सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान है। लेकिन फिलहाल अनुसूचित जनजाति आयोग में बीजेपी के सांसद हर्ष चौहान अध्यक्ष हैं और अनंत नायक आयोग के सदस्य हैं। बाकी के सभी पद खाली हैं। कर्मचारियों की नियुक्ति के मामले में भी सरकार ने संसद में जानकारी दी है कि आयोग में जितने कर्मचारी होने चाहिए, उससे आधे ही नियुक्त हुए हैं।
NCST की स्थापना के समय यह परिकल्पना की गयी थी कि यह एक स्वतंत्र संस्था होगी जो सरकार को आदिवासियों से जुड़े नीतिगत मसलों पर सलाह देगी। लेकिन पिछले दो साल में आदिवासी मामलों के मंत्रालय के कामकाज की समीक्षा करने वाली संसदीय समिति की रिपोर्ट, कुछ कड़वी सच्चाई पेश करती हैं। ये रिपोर्ट बताती हैं कि NCST- नियुक्तियों से लेकर वेतन और शोध के लिए पैसे को पूरी तरह से मंत्रालय के रहमो करम पर है। देश के अनुसूचित जनजाति के लोगों आसानी से आयोग तक पहुंच सकें इसके लिए देश के अलग अलग राज्यों में अनुसूचित जनजाति आयोग के 6 क्षेत्रीय कार्यालय स्थापित किये गए हैं। लेकिन इन कार्यालयों के हालात भी बेहद ख़राब हैं, यहां पर स्टाफ और संसाधनों की भारी कमी है।
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