सम्मेलन: वनाधिकार कानून के प्रभावी क्रियान्वयन को संसद में आवाज उठाएंगे इमरान मसूद और इकरा हसन

Written by Navnish Kumar | Published on: October 28, 2024
बेहट के नागल माफी (मां शाकंभरी देवी सिद्ध पीठ) स्थित भारती सदन में आयोजित सम्मेलन में घाड़ क्षेत्र मजदूर मोर्चा व अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन ने क्षेत्र की शिक्षा आदि मूलभूत समस्याओं के साथ, वनाधिकार अधिनियम- 2006 के प्रभावी क्रियान्वयन को लेकर चर्चा की और सहारनपुर एवं कैराना सांसद को मांग पत्र सौंपा।



"अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन तथा घाड़ क्षेत्र मजदूर मोर्चा के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित वनाधिकार कार्यकर्ता सम्मेलन में जल, जंगल जमीन के मुद्दों पर वन गुर्जरों की सहभागिता को लेकर विस्तृत चर्चा की गई। इस दौरान मुख्य वक्ता के तौर पर सहारनपुर सांसद इमरान मसूद तथा कैराना से सांसद इकरा हसन ने वनाधिकार कानून के प्रभावी क्रियान्वयन को  संसद में क्षेत्र की आवाज बनने का ऐलान किया। कहा घाड क्षेत्र की समस्याओं को जिले में 'दिशा' की बैठक से लेकर संसद तक में मजबूती से उठाने का काम करेंगे।"

बेहट के नागल माफी (मां शाकंभरी देवी सिद्ध पीठ) स्थित भारती सदन में आयोजित सम्मेलन में घाड़ क्षेत्र मजदूर मोर्चा व अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन ने क्षेत्र की शिक्षा आदि मूलभूत समस्याओं के साथ, वनाधिकार अधिनियम- 2006 के प्रभावी क्रियान्वयन को लेकर चर्चा की और सहारनपुर एवं कैराना सांसद को मांग पत्र सौंपा। यूनियन पदाधिकारियों अशोक चौधरी, रोमा, सुकालो गोंड, मुन्नीलाल आदि ने वन अधिकार अधिनियम और उसके क्रियान्वयन में आ रही समस्याओं पर विस्तार से प्रकाश डाला। कहा कि दिसंबर 2006 को देश की लोकसभा ने ये स्वीकार किया था कि जंगल पर निर्भरशील समुदाय ऐतिहासिक अन्नाय का शिकार रहे हैं जो आजादी के बाद पिछले 60 वर्षों से बादस्तूर जारी चला आ रहा है। जिसकी वजह से इस समुदाय को पूर्ण आजादी नहीं मिल सकी है। 2006 में वनाधिकार कानून बना लेकिन आज 18 साल  बीत जाने के बाद भी देखें तो वन अधिकार अधिनियम का प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हुआ है। वन अधिकार कानून और नियमावली  2007 के अनुसार, ग्राम सभा को संवैधानिक मान्यता नहीं दी गई है।

यही नहीं, सामुदायिक दावा करने का अधिकार, वन अधिकार कानून के मूल अधिकारों में निहित है जिसमें 13 अधिकार शामिल है जिनमें 10 सामुदायिक एवं तीन अधिकार व्यक्तिगत है। लेकिन शासन प्रशासन इसको नहीं मान रहा हैं। वह सिर्फ इसको पट्टे के रूप में देख रहे हैं जबकि यह कानून, भूमि अधिकार को सुनिश्चित करता है ना कि पट्टे को। पट्टा तो अस्थाई होता है जबकि वन अधिकार कानून मालिकाना हक की बात करता है। कानून में कहीं भी पट्टे का उल्लेख नहीं है। वहां पर अधिकारों को मान्यता दी गई है लेकिन हो उल्टा रहा है। कहा कि ग्राम सभा से चर्चा किये बिना, वन विभाग के हस्तक्षेप से गैर कानूनी ढंग से शासन प्रशासन दावा पत्र को खारिज कर दे रहा है जो कि वन अधिकार कानून के प्रावधानों का उल्लंघन है और अस्वीकार्य है। क्योंकि वन अधिकार कानून में ग्राम सभा को सर्वोच्च माना गया है। लेकिन यहां तहसील स्तरीय समिति दावे ग्राम सभा को वापस करने की बजाय, खारिज कर दे रही है जो कानून का उल्लंघन है। यही नहीं, कुछ लोगों को जो आधे अधूरे अधिकार मिले भी हैं तो उनका 5 साल बाद भी अभी राजस्व रिकॉर्ड में इंद्राज तक नहीं किया गया है। और अधिकार पत्र महज कागजी बनकर रह गए हैं।

अधिकार पत्र चाहिए, पट्टा नहीं

यूनियन अध्यक्ष सुकालो गोंड व महासचिव रोमा कहती हैं कि वनाधिकार कानून में जमीन और जंगल के लघु वन उपज आदि पर मालिकाना हक सुनिश्चित है। अधिकार पत्र का प्रारूप भी तय है। लेकिन सरकार द्वारा वनाधिकार कानून के नाम पर पिछले दिनों कुछ जगहों पर चंद लोगों को जो पट्टा वितरण किया गया है वह वनाधिकार कानून की मंशा के परस्पर विरोधी है। वनाधिकार कानून में पट्टा कोई चीज नहीं है। कहा, पट्टा अस्थाई होता है, खारिज किया जा सकता है लेकिन अधिकार पत्र मालिकाना हक देता है जो स्थाई और वंशानुगत होता है। दूसरा, जिस प्रारूप पर यह पट्टा दिया गया है उसमें लिखा है कि लाभार्थी के आवेदन पर एसडीएम द्वारा स्वीकृति दी गई है जबकि वनाधिकार कानून में आवेदन और स्वीकृति नहीं होती है, वनाधिकार के तहत दावा किया जाता है और जिलाधिकारी द्वारा उसे मान्यता प्रदान करते हुए, अधिकार पत्र दिया जाता है।

शिवालिक के टोंगिया और वन गुर्जर समुदायों का क्या है दर्द?

उत्तराखंड के हिमालयी इलाके के शिवालिक रेंज में रहने वाले पारंपरिक वनवासी समुदाय ने 10,000 हेक्टेयर में दशकों से जंगल लगाने के साथ-साथ उनकी रक्षा भी की है। पर वन अधिकार अधिनियम, 2006 के प्रभावी क्रियान्वयन के अभाव में यें समुदाय अपने अधिकारों से वंचित हैं। कहा “हमने ही शिवालिक जंगल को गुलजार किया था और आज हमें हमारे ही घर में अतिक्रमणकारी की तरह देखा जा रहा है।” टोंगिया के अलावा क्षेत्र में रहने वाले वन गुर्जर समुदाय भी इन्हीं मुश्किलों से दो-चार हो रहे हैं। अपने मवेशियों के साथ इस समुदाय के लोग हिमालय के ऊपरी हिस्से से शिवालिक के बीच आते-जाते रहते हैं। समुदाय के पास कोई स्थायी ठिकाना नहीं है और ये अस्थायी मिट्टी या फूंस के घरों में रहते हैं। 

इन दोनों समुदाय की समस्या की जड़ में है अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 यानी  वनाधिकार कानून हैं। इस कानून ने जंगल के प्रबंधन में समाज और ग्राम सभा के योगदान और जंगल से मिलने वाली उपज पर स्थानीय लोगों के अधिकार को मान्यता देती है। हालांकि, लागू होने के 16 साल बाद भी इस कानून का प्रभाव जमीन पर नहीं दिखता है। वनवासियों के वन अधिकार के दावों को बिना उचित कारण के निरस्त कर दिया जाता है। जबकि वन अधिकार अधिनियम ने ग्राम सभा को दावों के सत्यापन के अधिकार दिए हैं। 

समुदाय से जुड़े लोगों का कहना है कि एक तरफ सरकार जंगल लगाने को बढ़ावा दे रही है तो दूसरी तरफ जंगल लगाने और संवर्धन करने के अनुभवी टोंगिया समुदाय की अनदेखी कर रही है। पारंपरिक तरीकों से जंगल की रक्षा करने में इस समुदाय को महारत हासिल है। “हमारे समुदाय में वन्यजीव को ध्यान में रखकर जंगल लगाया जाता है। हम बांस के पेड़ लगाते हैं ताकि जंगली हाथियों को खाना मिल सके, लेकिन सरकार के कैंपा जैसे जंगल लगाने वाले कार्यक्रम के तहत आर्थिक रूप से अधिक लाभ देने वाले पेड़ लगाने का चलन है। ऐसे पेड़ कुदरत के लिए फायदेमंद नहीं होते।” यही नहीं, वन गुर्जर का वनों के साथ सहजीवन है। 1994 में इंडियन पीपल ट्रिब्यूनल ने राजाजी नेशनल पार्क में वन गुर्जरों को वहां से हटाए जाने के जवाब में एक जांच की थी। ट्रिब्यूनल के जूरी सदस्य जस्टिस पीएस पोती ने अपने रिपोर्ट में दर्ज किया है कि वन में रहने वाले लोग जंगल की पारिस्थितिकी को उतना ही नुकसान पहुंचा सकते हैं जितना कि कोई जंगली जीव। कहा पेड़-पौधे और इंसान एक दूसरे के ऊपर निर्भर हैं।

अंत में वन गुर्जर, टोंगिया व हकदारी गावों में सामुदायिक अधिकारों को सुनिश्चित कराने की मांग करते हुए, वक्ताओं ने कहा कि कानून अनुसार ग्राम सभाओं को राजस्व का दर्जा दिया जाए तथा जमीन आदि को तहसील रिकॉर्ड में दर्ज किया जाए। ताकि सही मायनों में हक हकूक मिलने का काम हो सके। दूसरा, राजस्व गांव बनने के साथ ही गावों के सर्वांगीण विकास सड़क बिजली पानी, शिक्षा-चिकित्सा, पक्के घर तथा सरकारी योजनाओं का लाभ देकर समुदायों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का काम किया जाए ताकि सैंकड़ों सालों से ऐतिहासिक अन्नाय का शिकार रहे जंगल लगाने वाले इन समुदायों को सही मायनों में न्याय मिलना सुनिश्चित हो सके। इस पर दोनों सांसद इमरान मसूद व इकरा हसन ने यूनियन को आश्वस्त करते हुए कहा कि वह क्षेत्र की आवाज बनने का काम करेंगे और उनकी समस्याओं को मजबूती से जिले से लेकर संसद तक में उठाने का काम करेंगे और मजबूती से संगठन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने का काम करेंगे। इस मौक़े पर नईम अहमद, तिलक राज भाटिया, शकील अहमद, माता दयाल, मीर हमजा, मियाँ पिरु, एमए काज़मी, राखी, रिहाना प्रवीन, अनीता, गुलबहार अब्बासी, ताहिर पहलवान, चौधरी इनाम, तालिब गुलाम नबी आदि मौजूद रहे।

जिले से संसद तक इस लड़ाई को लड़ने का काम करेंगे: इमरान

कार्यकर्ता सम्मेलन में मुख्य अतिथि और सहारनपुर से लोकसभा सांसद इमरान मसूद ने कहा कि उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून की हालत खराब है। जबकि हिमाचल आदि में काफी काम हुआ है। कहा यहां करौंदी बीट से लेकर ख़ुजनवार तक हर खोल में वन गुर्जर रह रहे हैं लेकिन सरकारी रिपोर्ट इसे झुठलाती है। कहा 1988-89 से वह इस आंदोलन से जुड़े हैं। यहां निधि से नल तक नहीं लगवा सकते हैं। लेकिन अब वह कुछ करने की स्थिति में है तो मामले को जिले से लेकर संसद तक में उठाएंगे। कहा 7 नवंबर को 'दिशा' (विकास कार्यों की जिला स्तरीय निगरानी समिति) की बैठक है। कहा आप लोग प्रारूप बनाकर उसमें आइए, इस बाबत रेजोल्यूशन पास किया जाएगा। दूसरा वन विभाग के बड़े अफसरों से बात करने के साथ संसद की कई समितियों में भी मामले को उठाने का काम किया जाएगा। कहा वनाधिकार कानून में वन उपज का अधिकार भी है, खनन तक को लेकर अधिकार है लेकिन दुर्भाग्य है कि कुछ नहीं मिल रहा है। कहा मोहंड से हरियाणा सीमा तक 26 किमी में कोई ढंग का कॉलेज तक नहीं है। कहा वह इस लड़ाई को लड़ने का काम करेंगे। दूसरा क्षेत्र में शिक्षा के लिए भी काम किया जाएगा।

हक हकूक की लड़ाई में यूनियन के साथ, संसद में उठाएंगी मुद्दा: इकरा

कैराना सांसद इकरा हसन ने कहा कि  यह आंदोलन उनकी उम्र से भी ज्यादा समय से चल रहा है लेकिन चीजें आज भी अधर में लटकी हैं। कहा किसी भी समुदाय के साथ इस तरह का व्यवहार कतई स्वीकार्य नहीं हो सकता है। कहा उनके पिता चौ मुन्नवर हसन 1980 के दशक में यहां के आंदोलनों से जुड़े थे। कहा उनकी कोशिश होगी कि वह इस लड़ाई को मजबूती से लड़ने का काम करेंगी। कहा मैं आपसे वादा करती हूं कि आपकी यह आवाज आपको संसद में सुनाई देगी। मगर इस सरकार की मंशा पूंजीपतियों को लाभ वाली है। दूसरा, इस सबके पीछे राजनीति है जो हमें समझना होगा। कहा मणिपुर में लोगों को आपस में लड़ाने और अधिकारों को छीनने का मामला हो या फिर यहां पर आपके ऊपर आर्मी को काबिज करने का मामला हो, इन  सभी मामलों और आपकी परेशानियों की जद में राजनीति ही है। कहा यहां वन गुर्जर को ओबीसी में रखा गया है जबकि सही मायनों में वन गुर्जर एसटी कैटेगिरी में होने चाहिए। यही नहीं, इकरा हसन ने कहा कि वह संसद में मामले को उठाएंगी लेकिन अगर इसके बाद भी हक हकूक नहीं मिलते हैं तो दो साल बाद राज्य के चुनाव है। उन्हें ताकत देना, अगर उनकी सरकार बनती है तो वह वादा करती है कि वनाधिकार कानून को अक्षरशः लागू कराने और हक हकूक दिलाने का काम करेंगी। इससे पहले, वनाधिकार को लेकर चाहे मंत्रियों आदि के साथ बैठकर बात करनी हो या संसद में आवाज उठानी हो, वह कतई पीछे नहीं हटेंगी।

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