एक विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति इसे समुदाय की व्यक्तिगत विफलता के रूप में देखेगा लेकिन यदि आप पैटर्न को देखें और आज की घटना को इससे जोड़ें तो आप पाएंगे कि यह सरकारी उदासीनता और उत्पीड़न का परिणाम है।

फोटो साभार : पीटीआई (फाइल फोटो)
मैं यह बात खुशी खुशी लिखने जा रहा था, लेकिन इस समय मैं भारी मन से लिख रहा हूं… पिछले तीन सालों से हम कन्नगी नगर के छात्रों की कॉलेज शिक्षा में मदद कर रहे हैं। इस साल मैं इसे व्यवस्थित करना चाहता था, इसलिए मैंने कन्नगी नगर की अपनी सामुदायिक नेता वेणी से कहा कि वे केवल उन बच्चों के नाम भेजें जिनके एक ही माता-पिता हैं या जिनके माता-पिता नहीं हैं। मुझे लगा था कि ज्यादा से ज्यादा ऐसे दो या तीन बच्चे होंगे। द मूकनायक ने इस रिपोर्ट को प्रकाशित किया।
लेकिन वेणी ने कन्नगी नगर के सिर्फ एक हिस्से से लगभग 12 नाम भेजे, ऐसे बच्चे जिनके एक ही पैरेंट हैं और वे पैरेंट भी सफाई कर्मचारी के रूप में काम कर रहे हैं या फिर ऐसे बच्चे जिनके माता-पिता ही नहीं हैं और जिनकी देखभाल अब उनकी दादी या नानी कर रही हैं। इतनी लंबी सूची देखकर मैं हैरान रह गया। हमने इस विषय में और गहराई से जानकारी ली, तो यह बात सामने आई कि ज्यादातर सिंगल मदर्स के पति कम उम्र में ही चल बसे, खासकर शराब की लत और खतरनाक कामकाजी परिस्थितियों के कारण।
इसके अलावा, जिन बच्चों के माता-पिता नहीं थे उनकी भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी, जहां उनके माता-पिता दोनों की युवावस्था में ही मृत्यु हो गई। उनका काम ज्यादातर अनुबंध आधारित था।
आखिरकार मैंने आठ बच्चों के साथ समझौता कर लिया, जिनका खर्च मैं उठा सकता था। चार सरकारी कॉलेज से और चार निजी कॉलेज में पढ़ रहे हैं, जो पहली पीढ़ी के डिग्रीधारी भी हैं। इन दलित पुनर्वास केंद्रों में इन बच्चों की जिंदगी बहुत मुश्किल है और पैरेंट्स के बिना वे बाल मजदूरी करते हैं और बहुत कम उम्र में ही उनके साथ दुर्व्यवहार भी किया जाता है। ज्यादातर छोटे बच्चे शराब और नशीले पदार्थों के आदी हो जाते हैं जो इलाके में आसानी से मिल जाते हैं, जिन पर सरकार कोई कार्रवाई नहीं करती।
इसलिए यह जरूरी है कि वे सुरक्षित रहें, संरक्षित रहें, उन्हें मार्गदर्शन देने के लिए गुरु हों और पढ़ाई के लिए पैसे हों। सबसे जरूरी है कि उन्हें भावनात्मक रूप से सहारा देने वाला एक परिवार हो।
लेकिन दुर्भाग्य से राज्य की घोर लापरवाही के कारण सफाई कर्मचारी वरलक्ष्मी की मृत्यु ने मुझे याद दिलाया कि असहाय बच्चों की एक और जोड़ी है जो सबसे कमजोर सूची में शामिल हो गई है, जिसका मैंने ऊपर उल्लेख किया है।
देखिए, यह कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं है जैसा कि बाहर से देखने पर लग सकता है। एक विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति इसे समुदाय की व्यक्तिगत विफलता मानेगा, लेकिन अगर आप पैटर्न को देखें और आज की घटना से इसे जोड़ें, तो आप पाएंगे कि यह सरकारी उदासीनता और उत्पीड़न का नतीजा है।
इसलिए किसी समुदाय की ओर इशारा करके यह कहने से पहले कि "ओह उन्हें अच्छी तरह से पढ़ाई करनी चाहिए और आरक्षण व्यवस्था से बाहर निकलना चाहिए", "ओह वे नियम तोड़ने वाले हैं" वगैरह, बस यह समझ लीजिए कि यह हाशिए पर पड़े लोगों पर थोपी गई एक सोशल इंजीनियरिंग है।
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फोटो साभार : पीटीआई (फाइल फोटो)
मैं यह बात खुशी खुशी लिखने जा रहा था, लेकिन इस समय मैं भारी मन से लिख रहा हूं… पिछले तीन सालों से हम कन्नगी नगर के छात्रों की कॉलेज शिक्षा में मदद कर रहे हैं। इस साल मैं इसे व्यवस्थित करना चाहता था, इसलिए मैंने कन्नगी नगर की अपनी सामुदायिक नेता वेणी से कहा कि वे केवल उन बच्चों के नाम भेजें जिनके एक ही माता-पिता हैं या जिनके माता-पिता नहीं हैं। मुझे लगा था कि ज्यादा से ज्यादा ऐसे दो या तीन बच्चे होंगे। द मूकनायक ने इस रिपोर्ट को प्रकाशित किया।
लेकिन वेणी ने कन्नगी नगर के सिर्फ एक हिस्से से लगभग 12 नाम भेजे, ऐसे बच्चे जिनके एक ही पैरेंट हैं और वे पैरेंट भी सफाई कर्मचारी के रूप में काम कर रहे हैं या फिर ऐसे बच्चे जिनके माता-पिता ही नहीं हैं और जिनकी देखभाल अब उनकी दादी या नानी कर रही हैं। इतनी लंबी सूची देखकर मैं हैरान रह गया। हमने इस विषय में और गहराई से जानकारी ली, तो यह बात सामने आई कि ज्यादातर सिंगल मदर्स के पति कम उम्र में ही चल बसे, खासकर शराब की लत और खतरनाक कामकाजी परिस्थितियों के कारण।
इसके अलावा, जिन बच्चों के माता-पिता नहीं थे उनकी भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी, जहां उनके माता-पिता दोनों की युवावस्था में ही मृत्यु हो गई। उनका काम ज्यादातर अनुबंध आधारित था।
आखिरकार मैंने आठ बच्चों के साथ समझौता कर लिया, जिनका खर्च मैं उठा सकता था। चार सरकारी कॉलेज से और चार निजी कॉलेज में पढ़ रहे हैं, जो पहली पीढ़ी के डिग्रीधारी भी हैं। इन दलित पुनर्वास केंद्रों में इन बच्चों की जिंदगी बहुत मुश्किल है और पैरेंट्स के बिना वे बाल मजदूरी करते हैं और बहुत कम उम्र में ही उनके साथ दुर्व्यवहार भी किया जाता है। ज्यादातर छोटे बच्चे शराब और नशीले पदार्थों के आदी हो जाते हैं जो इलाके में आसानी से मिल जाते हैं, जिन पर सरकार कोई कार्रवाई नहीं करती।
इसलिए यह जरूरी है कि वे सुरक्षित रहें, संरक्षित रहें, उन्हें मार्गदर्शन देने के लिए गुरु हों और पढ़ाई के लिए पैसे हों। सबसे जरूरी है कि उन्हें भावनात्मक रूप से सहारा देने वाला एक परिवार हो।
लेकिन दुर्भाग्य से राज्य की घोर लापरवाही के कारण सफाई कर्मचारी वरलक्ष्मी की मृत्यु ने मुझे याद दिलाया कि असहाय बच्चों की एक और जोड़ी है जो सबसे कमजोर सूची में शामिल हो गई है, जिसका मैंने ऊपर उल्लेख किया है।
देखिए, यह कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं है जैसा कि बाहर से देखने पर लग सकता है। एक विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति इसे समुदाय की व्यक्तिगत विफलता मानेगा, लेकिन अगर आप पैटर्न को देखें और आज की घटना से इसे जोड़ें, तो आप पाएंगे कि यह सरकारी उदासीनता और उत्पीड़न का नतीजा है।
इसलिए किसी समुदाय की ओर इशारा करके यह कहने से पहले कि "ओह उन्हें अच्छी तरह से पढ़ाई करनी चाहिए और आरक्षण व्यवस्था से बाहर निकलना चाहिए", "ओह वे नियम तोड़ने वाले हैं" वगैरह, बस यह समझ लीजिए कि यह हाशिए पर पड़े लोगों पर थोपी गई एक सोशल इंजीनियरिंग है।
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