‘यदि इस (बुलडोजर न्याय) की अनुमति दी गई तो अनुच्छेद 300 ए के तहत संपत्ति के अधिकार की संवैधानिक मान्यता समाप्त हो जाएगी।’
फोटो साभार : द हिंदू
"सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि किसी भी विध्वंस से पहले उचित सर्वेक्षण, लिखित नोटिस और आपत्तियों पर विचार किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बुलडोजर न्याय की अनुमति दी जाती है तो संपत्ति के अधिकार की संवैधानिक मान्यता समाप्त हो जाएगी। यह अत्याचारी और एकतरफा है। अगर राज्य के किसी विंग (विभाग) या अधिकारी को मनमानी और गैरकानूनी व्यवहार की अनुमति दी जाती है तो इस बात का गंभीर खतरा है कि प्रतिशोध में लोगों की संपत्तियों को ध्वस्त कर दिया जाएगा।"
भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि ‘यदि इस (बुलडोजर न्याय) की अनुमति दी गई तो अनुच्छेद 300 ए के तहत संपत्ति के अधिकार की संवैधानिक मान्यता समाप्त हो जाएगी।’ अदालत ने छह नवंबर के अपने आदेश, जो शनिवार को न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की सेवानिवृत्ति की पूर्व संध्या पर अपलोड किया गया, में ये बातें कही थीं। कोर्ट ने निर्देश दिया है कि किसी घर को गिराने से पहले छह प्रक्रियाओं को पूरा करना है, जिसमें सही से सर्वेक्षण करना, लिखित नोटिस देना और आपत्तियों पर विचार किया जाना आदि शामिल है। अदालत ने विकास परियोजनाओं के लिए भी किसी भी संपत्ति को ध्वस्त करने से पहले छह आवश्यक कदम उठाने का निर्देश दिया। पहला, अधिकारियों को पहले मौजूदा भूमि अभिलेखों और मानचित्रों का सत्यापन करना चाहिए। दूसरा, वास्तविक अतिक्रमणों की पहचान करने के लिए उचित सर्वेक्षण किया जाना चाहिए। तीसरा, कथित अतिक्रमणकारियों को लिखित नोटिस जारी किया जाना चाहिए। चौथा, आपत्तियों पर विचार किया जाना चाहिए और बोलने का आदेश पारित किया जाना चाहिए। पांचवीं, स्वैच्छिक हटाने के लिए उचित समय दिया जाना चाहिए और छठी, यदि आवश्यक हो तो अतिरिक्त भूमि कानूनी रूप से अधिग्रहित की जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर के जरिये न्याय की प्रवृत्ति को अत्याचारी और एकतरफा मानते हुए, कड़ी निंदा की है। शीर्ष अदालत ने कहा कि नागरिकों की संपत्तियों को नष्ट करने की धमकी देकर उनकी आवाज को दबाया नहीं जा सकता और 'बुलडोजर न्याय' कानून के शासन के तहत अस्वीकार्य है। अदालत ने कहा कि बुलडोजर न्याय न केवल कानून के शासन के विरुद्ध है, बल्कि यह मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन करता है। सरकार को किसी भी व्यक्ति की संपत्ति ध्वस्त करने से पहले कानूनी प्रक्रिया का पालन करना चाहिए और उन्हें सुनवाई का अवसर देना चाहिए। अगर बुलडोजर न्याय की अनुमति दी जाती है तो संविधान के अनुच्छेद 300ए के तहत मिले संपत्ति के अधिकार की संवैधानिक मान्यता समाप्त हो जाएगी। अगर किसी विभाग या अधिकारी को मनमानी और गैरकानूनी व्यवहार की अनुमति दी जाती है तो इस बात का खतरा है कि प्रतिशोध में लोगों की संपत्तियों को ध्वस्त कर दिया जाएगा। यह निर्णय 2019 में उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले में एक पत्रकार के घर को अवैध रूप से ध्वस्त करने से संबंधित मामले में पारित किया गया।
शीर्ष अदालत ने पाया कि घर को उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना ध्वस्त किया गया था, जिसके बाद राज्य को याचिकाकर्ता को 25 लाख रुपये का अंतरिम मुआवजा देने का निर्देश दिया। राज्य को इसके अलावा जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक जांच शुरू करने का निर्देश दिया गया था। पीठ ने कहा है, नागरिकों की आवाज को उनकी संपत्तियों और घरों को नष्ट करने की धमकी देकर नहीं दबाया जा सकता है। पीठ ने कहा, अतिक्रमण या अवैध निर्माण को हटाने के लिए भी राज्य को कानून की उचित प्रक्रिया का पालन करना होगा। उपरोक्त मामले में राज्य सरकार राजमार्ग की मूल चौड़ाई स्थापित करने के लिए कोई दस्तावेज दिखाने में विफल रही, जिसे राष्ट्रीय राजमार्ग 730 के रूप में अधिसूचित किया गया हो। संबंधित विभाग ऐसा कोई साक्ष्य भी प्रस्तुत करने में विफल रहा जिससे यह साबित होता हो कि याचिकाकर्ता के घर के मामले में अतिक्रमण को चिंहित करने के लिए कोई जांच या सीमांकन किया गया था। मामले में उल्लंघन का एक पैटर्न सामने आया, जिसे अदालत ने राज्य की शक्ति के दुरुपयोग का उदाहरण बताया।
किसी भी व्यक्ति के पास जो अंतिम सुरक्षा होती है, वह उसका घर है
शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी भी व्यक्ति के पास जो अंतिम सुरक्षा होती है, वह उसका घर है। कानून निस्संदेह सार्वजनिक संपत्ति पर अवैध कब्जे और अतिक्रमण को उचित नहीं ठहराता। नगरपालिका कानून और नगर नियोजन कानून में अवैध अतिक्रमण से निपटने के लिए पर्याप्त प्रावधान हैं। अदालत ने भी कुछ न्यूनतम सीमाएं भी निर्धारित की हैं, जिन्हें कार्रवाई से पहले पूरा किया जाना चाहिए। पीठ ने कहा कि राज्य के अधिकारी जो इस तरह की गैरकानूनी कार्रवाई करते हैं या उसे मंजूरी देते हैं, उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। कानून का उल्लंघन करने पर उन्हें आपराधिक दंड मिलना चाहिए। सार्वजनिक अधिकारियों के लिए सार्वजनिक जवाबदेही आदर्श होनी चाहिए। सार्वजनिक या निजी संपत्ति के संबंध में कोई भी कार्रवाई कानून की उचित प्रक्रिया द्वारा समर्थित होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा कि कानून द्वारा शासित समाज में ‘बुलडोजर न्याय’ का कोई स्थान नहीं है।
राज्य सरकार की कार्रवाई मनमानी और एकतरफा
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की इस कार्रवाई को ‘अत्याचारी और एकतरफा’ मानते हुए चिंता व्यक्त की है। कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए अनिवार्य सुरक्षा उपाय निर्धारित करते हुए, अदालत ने फैसला सुनाया कि किसी भी विध्वंस से पहले उचित सर्वेक्षण, लिखित नोटिस और आपत्तियों पर विचार किया जाना चाहिए। पीठ ने आदेश दिया कि इन दिशानिर्देशों का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई और आपराधिक आरोप दोनों का सामना करना पड़ेगा। "राज्य सरकार द्वारा इस तरह की मनमानी और एकतरफा कार्रवाई को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता... अगर इसकी अनुमति दी गई, तो अनुच्छेद 300ए के तहत संपत्ति के अधिकार की संवैधानिक मान्यता समाप्त हो जाएगी।" कहा “सार्वजनिक अधिकारियों के लिए सार्वजनिक जवाबदेही आदर्श होनी चाहिए। अदालत ने जोर देकर कहा कि राज्य के अधिकारी जो इस तरह की गैरकानूनी कार्रवाई करते हैं या उसे मंजूरी देते हैं, उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए और कानून का उल्लंघन करने पर आपराधिक दंड लगाया जाना चाहिए। मुख्य सचिव को बिना पर्याप्त सूचना के क्षेत्र में किए गए इसी तरह के विध्वंस की भी जांच करनी चाहिए और एनएचआरसी के निर्देशानुसार, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एफआईआर दर्ज की जाए और सीबी-सीआईडी द्वारा जांच की जाए। मुख्य सचिव को एक महीने के भीतर आदेश का क्रियान्वयन करना होगा और अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू होने की तारीख से चार महीने में पूरी करनी होगी। यह फैसला ऐसे महत्वपूर्ण समय पर आया है जब न्यायमूर्ति भूषण आर गवई की अध्यक्षता वाली एक अन्य पीठ ने हाल ही में राज्यों में मनमाने ढंग से किए गए विध्वंस को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर आदेश सुरक्षित रखा है। हाल के वर्षों में कई उदाहरण देखने को मिले हैं, खासकर भाजपा शासित राज्यों में, जहां अधिकारियों पर उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना प्रदर्शनकारियों, अल्पसंख्यकों और सरकार के आलोचकों की संपत्तियों पर बुलडोजर चलाने का आरोप लगाया गया है। अदालत ने निर्देश दिया कि इन दिशा-निर्देशों की प्रतियां तत्काल क्रियान्वयन के लिए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को भेजी जाएं। यह स्पष्ट करते हुए कि कानून अवैध अतिक्रमणों का समर्थन नहीं करता है, अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि अतिक्रमण हटाने के लिए स्थापित कानूनी प्रक्रियाओं और सुरक्षा उपायों का पालन किया जाना चाहिए।
‘अतिक्रमण’ हटाने से पहले इन प्रक्रियाओं के पालन का प्रस्ताव
हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए अनिवार्य सुरक्षा उपाय निर्धारित करते हुए, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि किसी भी विध्वंस से पहले उचित सर्वेक्षण, लिखित नोटिस और आपत्तियों पर विचार किया जाना चाहिए। इन दिशानिर्देशों का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई और क़ानून के तहत दंड मिलना चाहिए। अदालत ने किसी भी संपत्ति को गिराने से पहले छह जरूरी कदम उठाने का निर्देश दिया है। कहा गया है कि विकास परियोजनाओं के लिए भी इन निर्देशों की अनदेखी नहीं करनी है। पहला- अधिकारियों को पहले मौजूदा भूमि रिकॉर्ड और मानचित्रों की जांच करनी चाहिए। दूसरा- वास्तविक अतिक्रमणों की पहचान करने के लिए उचित सर्वेक्षण किया जाना चाहिए। तीसरा- कथित अतिक्रमणकारियों को लिखित नोटिस जारी किया जाना चाहिए। चौथा- आपत्तियों पर विचार किया जाना चाहिए और आदेश पारित किया जाना चाहिए। पांचवां- लोग ख़ुद से अतिक्रमण हटा लें इसके लिए उचित समय दिया जाना चाहिए और छठा- यदि आवश्यक हो तो अतिरिक्त भूमि कानूनी रूप से अधिग्रहित की जानी चाहिए।
किस मामले में आया यह फैसला?
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सितंबर 2019 में यूपी के महाराजगंज जिले में पत्रकार मनोज टिबरेवाल आकाश के पैतृक घर को गिराए जाने से जुड़े एक मामले से सामने आए हैं। अधिकारियों ने दावा किया था कि राष्ट्रीय राजमार्ग के विस्तार के लिए यह ध्वस्तीकरण आवश्यक था, हालांकि जांच में उल्लंघनों का एक पैटर्न सामने आया, जिसे अदालत ने राज्य की शक्ति के दुरुपयोग का उदाहरण बताया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने पाया कि कथित तौर पर कुल संपत्ति का केवल 3.70 मीटर हिस्सा ही सरकारी भूमि पर था, लेकिन अधिकारियों ने बिना कोई लिखित नोटिस दिए 5-8 मीटर हिस्सा ध्वस्त कर दिया. ध्वस्तीकरण से पहले केवल ढोल बजाकर सार्वजनिक घोषणा की गई थी। टिबरेवाल ने आरोप लगाया था कि यह तोड़फोड़ उनके पिता द्वारा 185 करोड़ की सड़क निर्माण परियोजना में कथित अनियमितताओं की एसआईटी जांच की मांग के प्रतिशोध में की गई थी। हालांकि, अदालत ने सीधे तौर पर इस दावे पर कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन उसने सजा के तौर पर तोड़फोड़ के इस्तेमाल के खतरों पर जोर दिया।
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"सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि किसी भी विध्वंस से पहले उचित सर्वेक्षण, लिखित नोटिस और आपत्तियों पर विचार किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बुलडोजर न्याय की अनुमति दी जाती है तो संपत्ति के अधिकार की संवैधानिक मान्यता समाप्त हो जाएगी। यह अत्याचारी और एकतरफा है। अगर राज्य के किसी विंग (विभाग) या अधिकारी को मनमानी और गैरकानूनी व्यवहार की अनुमति दी जाती है तो इस बात का गंभीर खतरा है कि प्रतिशोध में लोगों की संपत्तियों को ध्वस्त कर दिया जाएगा।"
भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि ‘यदि इस (बुलडोजर न्याय) की अनुमति दी गई तो अनुच्छेद 300 ए के तहत संपत्ति के अधिकार की संवैधानिक मान्यता समाप्त हो जाएगी।’ अदालत ने छह नवंबर के अपने आदेश, जो शनिवार को न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की सेवानिवृत्ति की पूर्व संध्या पर अपलोड किया गया, में ये बातें कही थीं। कोर्ट ने निर्देश दिया है कि किसी घर को गिराने से पहले छह प्रक्रियाओं को पूरा करना है, जिसमें सही से सर्वेक्षण करना, लिखित नोटिस देना और आपत्तियों पर विचार किया जाना आदि शामिल है। अदालत ने विकास परियोजनाओं के लिए भी किसी भी संपत्ति को ध्वस्त करने से पहले छह आवश्यक कदम उठाने का निर्देश दिया। पहला, अधिकारियों को पहले मौजूदा भूमि अभिलेखों और मानचित्रों का सत्यापन करना चाहिए। दूसरा, वास्तविक अतिक्रमणों की पहचान करने के लिए उचित सर्वेक्षण किया जाना चाहिए। तीसरा, कथित अतिक्रमणकारियों को लिखित नोटिस जारी किया जाना चाहिए। चौथा, आपत्तियों पर विचार किया जाना चाहिए और बोलने का आदेश पारित किया जाना चाहिए। पांचवीं, स्वैच्छिक हटाने के लिए उचित समय दिया जाना चाहिए और छठी, यदि आवश्यक हो तो अतिरिक्त भूमि कानूनी रूप से अधिग्रहित की जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर के जरिये न्याय की प्रवृत्ति को अत्याचारी और एकतरफा मानते हुए, कड़ी निंदा की है। शीर्ष अदालत ने कहा कि नागरिकों की संपत्तियों को नष्ट करने की धमकी देकर उनकी आवाज को दबाया नहीं जा सकता और 'बुलडोजर न्याय' कानून के शासन के तहत अस्वीकार्य है। अदालत ने कहा कि बुलडोजर न्याय न केवल कानून के शासन के विरुद्ध है, बल्कि यह मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन करता है। सरकार को किसी भी व्यक्ति की संपत्ति ध्वस्त करने से पहले कानूनी प्रक्रिया का पालन करना चाहिए और उन्हें सुनवाई का अवसर देना चाहिए। अगर बुलडोजर न्याय की अनुमति दी जाती है तो संविधान के अनुच्छेद 300ए के तहत मिले संपत्ति के अधिकार की संवैधानिक मान्यता समाप्त हो जाएगी। अगर किसी विभाग या अधिकारी को मनमानी और गैरकानूनी व्यवहार की अनुमति दी जाती है तो इस बात का खतरा है कि प्रतिशोध में लोगों की संपत्तियों को ध्वस्त कर दिया जाएगा। यह निर्णय 2019 में उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले में एक पत्रकार के घर को अवैध रूप से ध्वस्त करने से संबंधित मामले में पारित किया गया।
शीर्ष अदालत ने पाया कि घर को उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना ध्वस्त किया गया था, जिसके बाद राज्य को याचिकाकर्ता को 25 लाख रुपये का अंतरिम मुआवजा देने का निर्देश दिया। राज्य को इसके अलावा जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक जांच शुरू करने का निर्देश दिया गया था। पीठ ने कहा है, नागरिकों की आवाज को उनकी संपत्तियों और घरों को नष्ट करने की धमकी देकर नहीं दबाया जा सकता है। पीठ ने कहा, अतिक्रमण या अवैध निर्माण को हटाने के लिए भी राज्य को कानून की उचित प्रक्रिया का पालन करना होगा। उपरोक्त मामले में राज्य सरकार राजमार्ग की मूल चौड़ाई स्थापित करने के लिए कोई दस्तावेज दिखाने में विफल रही, जिसे राष्ट्रीय राजमार्ग 730 के रूप में अधिसूचित किया गया हो। संबंधित विभाग ऐसा कोई साक्ष्य भी प्रस्तुत करने में विफल रहा जिससे यह साबित होता हो कि याचिकाकर्ता के घर के मामले में अतिक्रमण को चिंहित करने के लिए कोई जांच या सीमांकन किया गया था। मामले में उल्लंघन का एक पैटर्न सामने आया, जिसे अदालत ने राज्य की शक्ति के दुरुपयोग का उदाहरण बताया।
किसी भी व्यक्ति के पास जो अंतिम सुरक्षा होती है, वह उसका घर है
शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी भी व्यक्ति के पास जो अंतिम सुरक्षा होती है, वह उसका घर है। कानून निस्संदेह सार्वजनिक संपत्ति पर अवैध कब्जे और अतिक्रमण को उचित नहीं ठहराता। नगरपालिका कानून और नगर नियोजन कानून में अवैध अतिक्रमण से निपटने के लिए पर्याप्त प्रावधान हैं। अदालत ने भी कुछ न्यूनतम सीमाएं भी निर्धारित की हैं, जिन्हें कार्रवाई से पहले पूरा किया जाना चाहिए। पीठ ने कहा कि राज्य के अधिकारी जो इस तरह की गैरकानूनी कार्रवाई करते हैं या उसे मंजूरी देते हैं, उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। कानून का उल्लंघन करने पर उन्हें आपराधिक दंड मिलना चाहिए। सार्वजनिक अधिकारियों के लिए सार्वजनिक जवाबदेही आदर्श होनी चाहिए। सार्वजनिक या निजी संपत्ति के संबंध में कोई भी कार्रवाई कानून की उचित प्रक्रिया द्वारा समर्थित होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा कि कानून द्वारा शासित समाज में ‘बुलडोजर न्याय’ का कोई स्थान नहीं है।
राज्य सरकार की कार्रवाई मनमानी और एकतरफा
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की इस कार्रवाई को ‘अत्याचारी और एकतरफा’ मानते हुए चिंता व्यक्त की है। कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए अनिवार्य सुरक्षा उपाय निर्धारित करते हुए, अदालत ने फैसला सुनाया कि किसी भी विध्वंस से पहले उचित सर्वेक्षण, लिखित नोटिस और आपत्तियों पर विचार किया जाना चाहिए। पीठ ने आदेश दिया कि इन दिशानिर्देशों का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई और आपराधिक आरोप दोनों का सामना करना पड़ेगा। "राज्य सरकार द्वारा इस तरह की मनमानी और एकतरफा कार्रवाई को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता... अगर इसकी अनुमति दी गई, तो अनुच्छेद 300ए के तहत संपत्ति के अधिकार की संवैधानिक मान्यता समाप्त हो जाएगी।" कहा “सार्वजनिक अधिकारियों के लिए सार्वजनिक जवाबदेही आदर्श होनी चाहिए। अदालत ने जोर देकर कहा कि राज्य के अधिकारी जो इस तरह की गैरकानूनी कार्रवाई करते हैं या उसे मंजूरी देते हैं, उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए और कानून का उल्लंघन करने पर आपराधिक दंड लगाया जाना चाहिए। मुख्य सचिव को बिना पर्याप्त सूचना के क्षेत्र में किए गए इसी तरह के विध्वंस की भी जांच करनी चाहिए और एनएचआरसी के निर्देशानुसार, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एफआईआर दर्ज की जाए और सीबी-सीआईडी द्वारा जांच की जाए। मुख्य सचिव को एक महीने के भीतर आदेश का क्रियान्वयन करना होगा और अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू होने की तारीख से चार महीने में पूरी करनी होगी। यह फैसला ऐसे महत्वपूर्ण समय पर आया है जब न्यायमूर्ति भूषण आर गवई की अध्यक्षता वाली एक अन्य पीठ ने हाल ही में राज्यों में मनमाने ढंग से किए गए विध्वंस को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर आदेश सुरक्षित रखा है। हाल के वर्षों में कई उदाहरण देखने को मिले हैं, खासकर भाजपा शासित राज्यों में, जहां अधिकारियों पर उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना प्रदर्शनकारियों, अल्पसंख्यकों और सरकार के आलोचकों की संपत्तियों पर बुलडोजर चलाने का आरोप लगाया गया है। अदालत ने निर्देश दिया कि इन दिशा-निर्देशों की प्रतियां तत्काल क्रियान्वयन के लिए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को भेजी जाएं। यह स्पष्ट करते हुए कि कानून अवैध अतिक्रमणों का समर्थन नहीं करता है, अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि अतिक्रमण हटाने के लिए स्थापित कानूनी प्रक्रियाओं और सुरक्षा उपायों का पालन किया जाना चाहिए।
‘अतिक्रमण’ हटाने से पहले इन प्रक्रियाओं के पालन का प्रस्ताव
हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए अनिवार्य सुरक्षा उपाय निर्धारित करते हुए, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि किसी भी विध्वंस से पहले उचित सर्वेक्षण, लिखित नोटिस और आपत्तियों पर विचार किया जाना चाहिए। इन दिशानिर्देशों का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई और क़ानून के तहत दंड मिलना चाहिए। अदालत ने किसी भी संपत्ति को गिराने से पहले छह जरूरी कदम उठाने का निर्देश दिया है। कहा गया है कि विकास परियोजनाओं के लिए भी इन निर्देशों की अनदेखी नहीं करनी है। पहला- अधिकारियों को पहले मौजूदा भूमि रिकॉर्ड और मानचित्रों की जांच करनी चाहिए। दूसरा- वास्तविक अतिक्रमणों की पहचान करने के लिए उचित सर्वेक्षण किया जाना चाहिए। तीसरा- कथित अतिक्रमणकारियों को लिखित नोटिस जारी किया जाना चाहिए। चौथा- आपत्तियों पर विचार किया जाना चाहिए और आदेश पारित किया जाना चाहिए। पांचवां- लोग ख़ुद से अतिक्रमण हटा लें इसके लिए उचित समय दिया जाना चाहिए और छठा- यदि आवश्यक हो तो अतिरिक्त भूमि कानूनी रूप से अधिग्रहित की जानी चाहिए।
किस मामले में आया यह फैसला?
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सितंबर 2019 में यूपी के महाराजगंज जिले में पत्रकार मनोज टिबरेवाल आकाश के पैतृक घर को गिराए जाने से जुड़े एक मामले से सामने आए हैं। अधिकारियों ने दावा किया था कि राष्ट्रीय राजमार्ग के विस्तार के लिए यह ध्वस्तीकरण आवश्यक था, हालांकि जांच में उल्लंघनों का एक पैटर्न सामने आया, जिसे अदालत ने राज्य की शक्ति के दुरुपयोग का उदाहरण बताया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने पाया कि कथित तौर पर कुल संपत्ति का केवल 3.70 मीटर हिस्सा ही सरकारी भूमि पर था, लेकिन अधिकारियों ने बिना कोई लिखित नोटिस दिए 5-8 मीटर हिस्सा ध्वस्त कर दिया. ध्वस्तीकरण से पहले केवल ढोल बजाकर सार्वजनिक घोषणा की गई थी। टिबरेवाल ने आरोप लगाया था कि यह तोड़फोड़ उनके पिता द्वारा 185 करोड़ की सड़क निर्माण परियोजना में कथित अनियमितताओं की एसआईटी जांच की मांग के प्रतिशोध में की गई थी। हालांकि, अदालत ने सीधे तौर पर इस दावे पर कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन उसने सजा के तौर पर तोड़फोड़ के इस्तेमाल के खतरों पर जोर दिया।
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