उत्तर प्रदेश सरकार की बांके बिहारी मंदिर का प्रबंधन अपने कब्जे में लेने पर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया

Written by sabrang india | Published on: August 6, 2025
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार की उस ‘जल्दबाजी’ की कड़ी आलोचना की, जिसमें उसने वृंदावन स्थित बांके बिहारी मंदिर का प्रबंधन अपने कब्जे में लेने के लिए अध्यादेश जारी किया था।


साभार : सोशल मीडिया एक्स

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार, 4 अगस्त को उत्तर प्रदेश सरकार की उस तत्परता की आलोचना की, जिसमें उसने मथुरा के वृंदावन स्थित बांके बिहारी मंदिर का मैनेजमेंट अपने अधीन लेने के उद्देश्य से 'श्री बांके बिहारीजी मंदिर न्यास ट्रस्ट अध्यादेश, 2025' जारी किया।

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने उस ‘गुप्त प्रक्रिया’ पर भी आपत्ति जताई, जिसके तहत योगी आदित्यनाथ सरकार ने 15 मई को एक सिविल विवाद में याचिका दायर कर मथुरा में कॉरिडोर विकास परियोजना के लिए मंदिर की धनराशि के इस्तेमाल की अनुमति अदालत से प्राप्त की थी।

जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ उस अध्यादेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जो बांके बिहारी मंदिर से संबंधित है। यह विवाद मंदिर के सेवायतों के दो संप्रदायों के बीच लंबे समय से चले आ रहे आंतरिक मतभेदों से जुड़ा हुआ है।

2023 के नवंबर में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को कॉरिडोर विकास परियोजना को आगे बढ़ाने की अनुमति तो दी थी, लेकिन देवता के बैंक खाते से धन के इस्तेमाल की मंज़ूरी देने से इनकार कर दिया था। इसके बाद, मार्च 2025 में हाईकोर्ट ने प्रबंधन से जुड़ी जटिलताओं को सुलझाने में सहयोग के लिए अधिवक्ता संजय गोस्वामी को न्यायमित्र नियुक्त किया।

इन मामलों के बीच, राज्य ने एक अध्यादेश जारी किया, जिसमें एक वैधानिक ट्रस्ट बनाने का प्रस्ताव है।

15 मई को सुप्रीम कोर्ट ने 2023 के आदेश में संशोधन करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को यह अनुमति दी कि वह मंदिर परिसर के चारों ओर स्थित पांच एकड़ भूमि के अधिग्रहण हेतु धन का इस्तेमाल कर सकती है, बशर्ते कि अधिग्रहित भूमि देवता के नाम पर पंजीकृत की जाए।

बांके बिहारी मंदिर के पूर्व प्रबंधन की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने तर्क दिया कि जारी किए गए अध्यादेश के माध्यम से मंदिर का प्रबंधन गोस्वामियों से लेकर राज्य सरकार के नियंत्रण में सौंप दिया गया है।

उन्होंने यह तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा 15 मई को दिए गए निर्देश मंदिर प्रबंधन की अनुपस्थिति में जारी किए गए थे।

जस्टिस सूर्यकांत ने टिप्पणी करते हुए कहा, “क्या अदालत द्वारा किसी रिसीवर की नियुक्ति की गई थी? यह ऐसा मामला नहीं था जिसे 'नो मैन्स लैंड' कहा जा सके। मंदिर की ओर से किसी की सुनवाई अवश्य होनी चाहिए थी। यदि सिविल जज इस मामले की निगरानी कर रहे होते, तो उन्हें नोटिस जारी किया जा सकता था...। इस अदालत को एक सार्वजनिक नोटिस जारी करना चाहिए था.. जिसमें यह स्पष्ट किया जाता कि संघर्षरत पक्षों के बीच लंबित विवाद को देखते हुए... हम यह प्रस्ताव दे रहे हैं कि मंदिर का धन तीर्थयात्रियों के हित में इस्तेमाल किया जाए न कि इसे किसी निजी व्यक्ति द्वारा हड़पने दिया जाए।”

पीठ ने पूर्व में दिए गए फैसले के निर्देशों को वापस लेने का प्रस्ताव रखा, जिनमें राज्य सरकार को मंदिर के धन का इस्तेमाल करने की अनुमति दी गई थी। साथ ही, अध्यादेश की वैधता पर अंतिम निर्णय होने तक मंदिर के प्रबंधन की निगरानी के लिए एक समिति गठित करने की भी अनुमति दी गई थी, जिसकी अध्यक्षता एक सेवानिवृत्त हाईकोर्ट न्यायाधीश करेंगे।

लाइव लॉ के अनुसार, जस्टिस सूर्यकांत ने उत्तर प्रदेश सरकार के ‘गुप्त’ तरीके की कड़ी आलोचना करते हुए कहा, ‘यदि राज्य कोई विकास कार्य करना चाहता था, तो उसे कानून के तहत ऐसा करने से किसने रोका? जमीन निजी है या नहीं, इस मुद्दे पर अदालत अपना फैसला सुना सकती है। लेकिन राज्य बिना उचित सुनवाई के गुप्त तरीके से आगे बढ़ रहा है। हमें ऐसा उम्मीद नहीं थी। राज्य को पूरी निष्पक्षता के साथ पक्षकारों को सूचित करना चाहिए था।’

अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज को प्रस्तावों पर उत्तर प्रदेश सरकार का पक्ष रखने का मौका देने के लिए याचिकाओं की सुनवाई मंगलवार तक के लिए स्थगित कर दी गई। मौखिक निर्देश दिए गए कि वह अध्यादेश को चुनौती देने वाले पक्षों को संबंधित हाईकोर्ट भेजेंगे। इस दौरान, मंदिर का प्रबंधन एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली समिति के अधीन रहेगा।

न्यायालय ने आगे कहा कि क्षेत्र के विकास की योजना बनाने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को भी शामिल किया जा सकता है। शीर्ष अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि इस दौरान परिवार द्वारा मंदिर के अनुष्ठान पूर्ववत जारी रहेंगे।

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