हाल ही में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज की रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि 8 साल पूर्व बीजापुर में सुरक्षा बलों ने 4 नाबालिगों सहित 8 निहत्थे आदिवासियों की गोली मारकर हत्या कर दी थी। बीजापुर छत्तीसगढ़ में 8 साल पहले हुए गोलीकांड की जांच रिपोर्ट आज कई सवाल खड़े कर रही है। दूसरी ओर खरगोन व नीमच में हाल की घटी घटनाओं को देखें तो साफ है कि आदिवासियों के उत्पीड़न का यह सिलसिला आज भी बादस्तूर जारी है और थमता नहीं दिख रहा है। खरगोन में पुलिस हिरासत में 35 वर्षीय युवक की मौत से पूरे इलाके में तनाव की स्थिति बनी है तो नीमच ज़िले में एक आदिवासी युवक को ट्रक से बांध कर घसीटने का मामला भी देश और दुनिया में सुर्खियों में बना हुआ है। दूसरे चौंकाने वाले यह तथ्य सामने आए हैं कि आदिवासी उत्पीड़न के मामलों में 100 में 10 दोषियों को भी सजा नहीं हो पा रही है।
2013 में बीजापुर के एडेसमेट्टा में सुरक्षाबलों द्वारा 8 लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। मरने वालों में 4 नाबालिग थे। बीते बुधवार को कैबिनेट को सौंपी गई न्यायिक जांच की रिपोर्ट में कहा गया है कि मारे गए लोगों में से कोई भी माओवादी नहीं था। वे सभी निहत्थे आदिवासी थे। रिटायर्ड जज जस्टिस वीके अग्रवाल की ने यह रिपोर्ट दी है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उन्होंने कहा है, ‘हो सकता है डर के मारे सुरक्षाबलों ने फायरिंग शुरू कर दी हो।’ रिपोर्ट में इस घटना को 3 बार ‘गलती’ बताया गया है। जस्टिस अग्रवाल ने रिपोर्ट में बताया कि आदिवासियों पर 44 गोलियां चलाई गई थीं जिनमें से 18 गोलियां सीआरपीएफ की कोबरा यूनिट के एक कांस्टेबल ने चलाई थीं। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मई 2019 से सीबीआई भी अलग जांच कर रही है। एडसमेट्टा की घटना को 8 साल हो चुके हैं। 17-18 मई 2013 की रात को ये लोग मारे गए थे। एडेसमेट्टा जिला मुख्यालय से 40 किमी. की दूरी पर है। निकटतम सड़क से भी इसकी दूरी लगभग 17 किमी है। यह वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित इलाका है।
मीडिया रिपोर्ट में बताया गया कि 25 से 30 लोग बीज पांडम त्योहार मनाने को इकट्ठा हुए थे। तभी सुरक्षाबलों की टुकड़ी वहां आ गई। सुरक्षाबलों की तरफ से कहा गया कि वे आग की चपेट में आ गए थे जिसके बाद उन्होंने जवाबी कार्रवाई की। लेकिन रिपोर्ट में कहा गया कि उनको कोई खतरा नहीं था। न्यायिक जांच रिपोर्ट में बताया गया है कि यह फायरिंग ‘गलत धारणा और डर की प्रतिक्रिया’ की वजह से हुई होगी। अगर सुरक्षाबलों के पास पर्याप्त उपकरण होते या फिर खुफिया जानकारी होती तो घटना को टाला जा सकता था। उधर से कोई गोली नहीं चली थी। कोबरा कांस्टेबल की मौत माओवादियों की गोली से नहीं हुई थी।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, घटना की बाबत ग्रामीणों का कहना था कि जब गोलीबारी होने लगी तो वे लोग चिल्लाने लगे थे। वे कह रहे थे, गोलीबारी रोक दो, हमारे लोगों को गोली लगी है। रिपोर्ट में बताया गया है कि सुरक्षाबलों में कई कमियां पाई गईं। ऑपरेशन के पीछे कोई मजबूत खुफिया जानकारी नहीं थी।
उधर खरगोन व नीमच की हाल की घटनाओं की बात करें तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कह रहे हैं कि मामले में पहले ही 2 पुलिस अधिकारियों को निलंबित किया जा चुका है लेकिन निगरानी में चूक के चलते ज़िला एसपी को भी हटाने का फ़ैसला किया गया है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, पुलिस हिरासत में आदिवासी युवक की मौत मामले में मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने खरगोन ज़िले के पुलिस अधीक्षक को भी हटाने का ऐलान किया है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि पूरे मामले की न्यायिक जांच की जा रही है। जांच में जो भी तथ्य सामने आएंगे, उसके आधार पर आगे भी कार्रवाई की जाएगी। उन्होंने नीमच ज़िले में एक आदिवासी युवक को ट्रक से बांध कर घसीटने के मामले को भी दुर्भाग्यपूर्ण बताया और ऐलान किया कि घटना में मारे गए कन्हैया के बच्चे के लालन पालन व शिक्षा के ख़र्च को सरकार उठाएगी। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि कन्हैया के दोनों भाइयों के मकान सरकार बना कर देगी। वहीं, दो लाख रूपये परिवार को आर्थिक सहायता के तौर पर दिए जाएंगे।
खास है कि आदिवासियों के विरोध के चलते शिवराज सरकार दबाव में आई है। मध्य प्रदेश के खरगोन में 35 साल के एक आदिवासी की पुलिस थाने में मौत के बाद तनाव की स्थिति बनी है। चोरी के आरोप में गिरफ़्तार किए गए 35 साल के बिशन की मौत की ख़बर से इलाक़े के आदिवासियों का गुस्सा उमड़ पड़ा था और उन्होंने थाने में तोड़फोड़ की थी। बिस्टान थाना क्षेत्र के झगड़ी घाट में हुई लूट के आरोप में पुलिस ने कछ दिन पहले खैरकुंडी गांव के 12 लोगों को गिरफ्तार किया था। इन सभी को कोर्ट में पेश किया गया, जिसके बाद 8 को जेल भेज दिया गया, जबकि बिशन समेत 4 लोगों को 4 दिन की पुलिस रिमांड पर भेजा गया था। पुलिस ने पूरे मामले में पहले लीपापोती का प्रयास किया। पुलिस ने कहा था कि बिशन पहले से ही बीमार था लेकिन जब उसके परिवार और उनके समुदाय के लोगों ने बिशप की मौत पर विरोध प्रदर्शन किया तो प्रशासन में हलचल हुई। उसके बाद राज्य में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस व स्थानीय आदिवासी संगठनों ने मामले को उठाया।
इससे पहले मध्यप्रदेश के नीमच में एक आदिवासी की ट्रक से घसीटकर हुई हत्या के बाद से आदिवासियों में काफ़ी आक्रोश है। फ़िलहाल सरकार पर इन दोनों मामलों में दबाव बन रहा है जिसके चलते कुछ फ़ौरी कार्रवाई भी हुई हैं लेकिन आदिवासी परिवारों को इंसाफ़ मिल पाएगा, यह देखने वाली बात होगी।
उधर नीमच के आदिवासी युवक कन्हैया भील की भी इलाज के दौरान मौत हो गई। इस आदिवासी युवक को मामूली विवाद में पहले बुरी तरह पीटा गया। उसके बाद पिकअप से बांध कर दूर तक घसीटा गया था। इस शर्मनाक घटना का वीडियो वायरल होने के बाद मीडिया में यह ख़बर दिखाई गई। यह अपराध 26 अगस्त को हुआ। जबकि इस घटना का वीडियो 28 अगस्त को सामने आया। इस मामले में पुलिस ने 8 लोगों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया है। दो मुख्य अभियुक्त समेत दो अन्य को गिरफ़्तार करने का दावा पुलिस की तरफ़ से किया गया है। पुलिस के मुताबिक़, ”आदिवासी युवक कन्हैया भील कुछ लोगों के साथ अपने गाँव जा रहे थे। तभी उनकी बाइक गुर्जर समाज के एक व्यक्ति से टकरा गई। इस पर क्षेत्र के दबंग गुर्जर समाज के लोग इकठ्ठा हो गए और उन्होंने कन्हैया लाल को मारना शुरू कर दिया। इसके बाद उन्हें पिकअप वाहन से बांधकर घसीटा गया। इस अपराध में शामिल लोगों में से एक इस बर्बरता का वीडियो बनाता है। इस अपराध से जुड़े वीडियो में देखा जा सकता है कि आदिवासी युवक लगातार माफ़ी मांग रहा है लेकिन इसके बावजूद लोग लगातार उसे पीटते रहे। नीमच के पुलिस अधीक्षक सूरज कुमार वर्मा ने बताया, “घटना सिंगोली थाने की है। 8 लोगों पर मामला दर्ज किया गया है। 4 लोग गिरफ़्तार किये जा चुके हैं, बाकी को भी जल्द गिरफ़्तार कर लिया जाएगा। पुलिस ने पिकअप को कब्ज़े में ले लिया है।
कन्हैया को मारने और घसीटने के इस अपराध को अंजाम देने वाले लोगों ने ही पुलिस को फ़ोन करके बताया कि उन्होंने एक चोर पकड़ा है। इसके बाद पुलिस मौक़े पर पहुँची और कन्हैया लाल को अपने साथ ले गई। उन्हें इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहाँ उनकी मौत हो गई। अब इस बर्बरता को आप क्या कहेंगे, भीड़ की मानसिकता? अपराध में शामिल लोग अपने ही अपराध का एक वीडियो बनाते हैं और उसे वायरल करते हैं, इस मानसिकता को क्या कहेंगे? इसके अलावा इस अपराध की सूचना जब पुलिस को मिलती है तो उसकी कार्रवाइ क्या होती है? पुलिस विक्टिम को अपने साथ ले जाती है, मौके पर मौजूद अपराधियों में से किसी को भी पुलिस पकड़ती नहीं है। पुलिस के इस व्यवहार को आप कैसे परिभाषित करेंगे? आदि कई ऐसे सवाल हैं जो जवाब चाहते हैं। फिर इस पूरी घटना को मीडिया किस नज़रिए से कवर करता है? हम पाते हैं कि नेशनल मीडिया से यह ख़बर ग़ायब होती है या फिर इस ख़बर को एक सनसनीख़ेज़ अपराध के तौर पर पेश किया जाता है। क्या मीडिया इस अपराध के पीछे के सामाजिक और राजनीतिक कारणों को तलाश करने का प्रयास करता है? इनमें से एक भी सवाल का जवाब अगर ढंग से तलाश करेंगे तो आप नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि यह अपराध भीड़ की मानसिकता को दिखाता है जो बाक़ायदा तैयार की गई है। खैर सब सभी की नजरें इंसाफ पर हैं।
आंकड़े देखें तो पिछले 3 वर्षों यानि 2018-19, 19-20, 20-21 के दौरान आदिवासी लोगों के उत्पीड़न के 4834 मामले अनुसूचित जनजाति आयोग के पास पहुंचे हैं। इनमें 944 मामले निपट चुके हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के ताजा आंकड़े देखें तो देश भर में 2017 में आदिवासियों पर उत्पीड़न के कुल 7125 मामले दर्ज हुए जिनमें 5818 मामलों में चार्जशीट हुई। लेकिन, जिन लोगों को सज़ा हुई उनकी संख्या 744 थी। 2018 में जनजातीय उत्पीड़न के कुल 6528 मामलों में 5619 मामलों में चार्जशीट दाखिल हुई और 503 को ही सज़ा हो सकी है। 2019 के अभी तक के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े कहते हैं कि इस साल आदिवासी उत्पीड़न के 8257 मामले दर्ज हुए जिनमें 6502 मामलों में चार्जशीट दाखिल हुई लेकिन सिर्फ़ 742 लोगों को सज़ा मिल सकी। ये आंकड़े सरकार ने लोकसभा में 9 अगस्त 2021 को विनोद सोनकर व राजवीर सिंह उर्फ़ राजू भैय्या के सवाल के जवाब में संसद में पेश किए हैं। कुल मिलाकर देश में आदिवासियों पर अत्याचार के कुल 21910 मामले रिपोर्ट हुए। 17939 में चार्जशीट हुई लेकिन मात्र 1989 लोगों को ही सज़ा हो सकी है। यानि आदिवासी उत्पीड़न के अपराधों में शामिल होने के आरोप में जिन लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज हुआ, उनमें से 10% लोगों को भी सज़ा नहीं हुई है। जबकि मामूली व कई बार झूठे मामलों में आदिवासी बरसों जेल में सड़ते रहते हैं।
2013 में बीजापुर के एडेसमेट्टा में सुरक्षाबलों द्वारा 8 लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। मरने वालों में 4 नाबालिग थे। बीते बुधवार को कैबिनेट को सौंपी गई न्यायिक जांच की रिपोर्ट में कहा गया है कि मारे गए लोगों में से कोई भी माओवादी नहीं था। वे सभी निहत्थे आदिवासी थे। रिटायर्ड जज जस्टिस वीके अग्रवाल की ने यह रिपोर्ट दी है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उन्होंने कहा है, ‘हो सकता है डर के मारे सुरक्षाबलों ने फायरिंग शुरू कर दी हो।’ रिपोर्ट में इस घटना को 3 बार ‘गलती’ बताया गया है। जस्टिस अग्रवाल ने रिपोर्ट में बताया कि आदिवासियों पर 44 गोलियां चलाई गई थीं जिनमें से 18 गोलियां सीआरपीएफ की कोबरा यूनिट के एक कांस्टेबल ने चलाई थीं। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मई 2019 से सीबीआई भी अलग जांच कर रही है। एडसमेट्टा की घटना को 8 साल हो चुके हैं। 17-18 मई 2013 की रात को ये लोग मारे गए थे। एडेसमेट्टा जिला मुख्यालय से 40 किमी. की दूरी पर है। निकटतम सड़क से भी इसकी दूरी लगभग 17 किमी है। यह वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित इलाका है।
मीडिया रिपोर्ट में बताया गया कि 25 से 30 लोग बीज पांडम त्योहार मनाने को इकट्ठा हुए थे। तभी सुरक्षाबलों की टुकड़ी वहां आ गई। सुरक्षाबलों की तरफ से कहा गया कि वे आग की चपेट में आ गए थे जिसके बाद उन्होंने जवाबी कार्रवाई की। लेकिन रिपोर्ट में कहा गया कि उनको कोई खतरा नहीं था। न्यायिक जांच रिपोर्ट में बताया गया है कि यह फायरिंग ‘गलत धारणा और डर की प्रतिक्रिया’ की वजह से हुई होगी। अगर सुरक्षाबलों के पास पर्याप्त उपकरण होते या फिर खुफिया जानकारी होती तो घटना को टाला जा सकता था। उधर से कोई गोली नहीं चली थी। कोबरा कांस्टेबल की मौत माओवादियों की गोली से नहीं हुई थी।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, घटना की बाबत ग्रामीणों का कहना था कि जब गोलीबारी होने लगी तो वे लोग चिल्लाने लगे थे। वे कह रहे थे, गोलीबारी रोक दो, हमारे लोगों को गोली लगी है। रिपोर्ट में बताया गया है कि सुरक्षाबलों में कई कमियां पाई गईं। ऑपरेशन के पीछे कोई मजबूत खुफिया जानकारी नहीं थी।
उधर खरगोन व नीमच की हाल की घटनाओं की बात करें तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कह रहे हैं कि मामले में पहले ही 2 पुलिस अधिकारियों को निलंबित किया जा चुका है लेकिन निगरानी में चूक के चलते ज़िला एसपी को भी हटाने का फ़ैसला किया गया है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, पुलिस हिरासत में आदिवासी युवक की मौत मामले में मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने खरगोन ज़िले के पुलिस अधीक्षक को भी हटाने का ऐलान किया है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि पूरे मामले की न्यायिक जांच की जा रही है। जांच में जो भी तथ्य सामने आएंगे, उसके आधार पर आगे भी कार्रवाई की जाएगी। उन्होंने नीमच ज़िले में एक आदिवासी युवक को ट्रक से बांध कर घसीटने के मामले को भी दुर्भाग्यपूर्ण बताया और ऐलान किया कि घटना में मारे गए कन्हैया के बच्चे के लालन पालन व शिक्षा के ख़र्च को सरकार उठाएगी। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि कन्हैया के दोनों भाइयों के मकान सरकार बना कर देगी। वहीं, दो लाख रूपये परिवार को आर्थिक सहायता के तौर पर दिए जाएंगे।
खास है कि आदिवासियों के विरोध के चलते शिवराज सरकार दबाव में आई है। मध्य प्रदेश के खरगोन में 35 साल के एक आदिवासी की पुलिस थाने में मौत के बाद तनाव की स्थिति बनी है। चोरी के आरोप में गिरफ़्तार किए गए 35 साल के बिशन की मौत की ख़बर से इलाक़े के आदिवासियों का गुस्सा उमड़ पड़ा था और उन्होंने थाने में तोड़फोड़ की थी। बिस्टान थाना क्षेत्र के झगड़ी घाट में हुई लूट के आरोप में पुलिस ने कछ दिन पहले खैरकुंडी गांव के 12 लोगों को गिरफ्तार किया था। इन सभी को कोर्ट में पेश किया गया, जिसके बाद 8 को जेल भेज दिया गया, जबकि बिशन समेत 4 लोगों को 4 दिन की पुलिस रिमांड पर भेजा गया था। पुलिस ने पूरे मामले में पहले लीपापोती का प्रयास किया। पुलिस ने कहा था कि बिशन पहले से ही बीमार था लेकिन जब उसके परिवार और उनके समुदाय के लोगों ने बिशप की मौत पर विरोध प्रदर्शन किया तो प्रशासन में हलचल हुई। उसके बाद राज्य में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस व स्थानीय आदिवासी संगठनों ने मामले को उठाया।
इससे पहले मध्यप्रदेश के नीमच में एक आदिवासी की ट्रक से घसीटकर हुई हत्या के बाद से आदिवासियों में काफ़ी आक्रोश है। फ़िलहाल सरकार पर इन दोनों मामलों में दबाव बन रहा है जिसके चलते कुछ फ़ौरी कार्रवाई भी हुई हैं लेकिन आदिवासी परिवारों को इंसाफ़ मिल पाएगा, यह देखने वाली बात होगी।
उधर नीमच के आदिवासी युवक कन्हैया भील की भी इलाज के दौरान मौत हो गई। इस आदिवासी युवक को मामूली विवाद में पहले बुरी तरह पीटा गया। उसके बाद पिकअप से बांध कर दूर तक घसीटा गया था। इस शर्मनाक घटना का वीडियो वायरल होने के बाद मीडिया में यह ख़बर दिखाई गई। यह अपराध 26 अगस्त को हुआ। जबकि इस घटना का वीडियो 28 अगस्त को सामने आया। इस मामले में पुलिस ने 8 लोगों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया है। दो मुख्य अभियुक्त समेत दो अन्य को गिरफ़्तार करने का दावा पुलिस की तरफ़ से किया गया है। पुलिस के मुताबिक़, ”आदिवासी युवक कन्हैया भील कुछ लोगों के साथ अपने गाँव जा रहे थे। तभी उनकी बाइक गुर्जर समाज के एक व्यक्ति से टकरा गई। इस पर क्षेत्र के दबंग गुर्जर समाज के लोग इकठ्ठा हो गए और उन्होंने कन्हैया लाल को मारना शुरू कर दिया। इसके बाद उन्हें पिकअप वाहन से बांधकर घसीटा गया। इस अपराध में शामिल लोगों में से एक इस बर्बरता का वीडियो बनाता है। इस अपराध से जुड़े वीडियो में देखा जा सकता है कि आदिवासी युवक लगातार माफ़ी मांग रहा है लेकिन इसके बावजूद लोग लगातार उसे पीटते रहे। नीमच के पुलिस अधीक्षक सूरज कुमार वर्मा ने बताया, “घटना सिंगोली थाने की है। 8 लोगों पर मामला दर्ज किया गया है। 4 लोग गिरफ़्तार किये जा चुके हैं, बाकी को भी जल्द गिरफ़्तार कर लिया जाएगा। पुलिस ने पिकअप को कब्ज़े में ले लिया है।
कन्हैया को मारने और घसीटने के इस अपराध को अंजाम देने वाले लोगों ने ही पुलिस को फ़ोन करके बताया कि उन्होंने एक चोर पकड़ा है। इसके बाद पुलिस मौक़े पर पहुँची और कन्हैया लाल को अपने साथ ले गई। उन्हें इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहाँ उनकी मौत हो गई। अब इस बर्बरता को आप क्या कहेंगे, भीड़ की मानसिकता? अपराध में शामिल लोग अपने ही अपराध का एक वीडियो बनाते हैं और उसे वायरल करते हैं, इस मानसिकता को क्या कहेंगे? इसके अलावा इस अपराध की सूचना जब पुलिस को मिलती है तो उसकी कार्रवाइ क्या होती है? पुलिस विक्टिम को अपने साथ ले जाती है, मौके पर मौजूद अपराधियों में से किसी को भी पुलिस पकड़ती नहीं है। पुलिस के इस व्यवहार को आप कैसे परिभाषित करेंगे? आदि कई ऐसे सवाल हैं जो जवाब चाहते हैं। फिर इस पूरी घटना को मीडिया किस नज़रिए से कवर करता है? हम पाते हैं कि नेशनल मीडिया से यह ख़बर ग़ायब होती है या फिर इस ख़बर को एक सनसनीख़ेज़ अपराध के तौर पर पेश किया जाता है। क्या मीडिया इस अपराध के पीछे के सामाजिक और राजनीतिक कारणों को तलाश करने का प्रयास करता है? इनमें से एक भी सवाल का जवाब अगर ढंग से तलाश करेंगे तो आप नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि यह अपराध भीड़ की मानसिकता को दिखाता है जो बाक़ायदा तैयार की गई है। खैर सब सभी की नजरें इंसाफ पर हैं।
आंकड़े देखें तो पिछले 3 वर्षों यानि 2018-19, 19-20, 20-21 के दौरान आदिवासी लोगों के उत्पीड़न के 4834 मामले अनुसूचित जनजाति आयोग के पास पहुंचे हैं। इनमें 944 मामले निपट चुके हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के ताजा आंकड़े देखें तो देश भर में 2017 में आदिवासियों पर उत्पीड़न के कुल 7125 मामले दर्ज हुए जिनमें 5818 मामलों में चार्जशीट हुई। लेकिन, जिन लोगों को सज़ा हुई उनकी संख्या 744 थी। 2018 में जनजातीय उत्पीड़न के कुल 6528 मामलों में 5619 मामलों में चार्जशीट दाखिल हुई और 503 को ही सज़ा हो सकी है। 2019 के अभी तक के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े कहते हैं कि इस साल आदिवासी उत्पीड़न के 8257 मामले दर्ज हुए जिनमें 6502 मामलों में चार्जशीट दाखिल हुई लेकिन सिर्फ़ 742 लोगों को सज़ा मिल सकी। ये आंकड़े सरकार ने लोकसभा में 9 अगस्त 2021 को विनोद सोनकर व राजवीर सिंह उर्फ़ राजू भैय्या के सवाल के जवाब में संसद में पेश किए हैं। कुल मिलाकर देश में आदिवासियों पर अत्याचार के कुल 21910 मामले रिपोर्ट हुए। 17939 में चार्जशीट हुई लेकिन मात्र 1989 लोगों को ही सज़ा हो सकी है। यानि आदिवासी उत्पीड़न के अपराधों में शामिल होने के आरोप में जिन लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज हुआ, उनमें से 10% लोगों को भी सज़ा नहीं हुई है। जबकि मामूली व कई बार झूठे मामलों में आदिवासी बरसों जेल में सड़ते रहते हैं।