“यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि जब पुलिस बल के सदस्य वर्दी पहनते हैं, तो उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद और पक्षपात—चाहे वह धार्मिक हो, जातिगत हो, नस्लीय हो या अन्य कोई—को पूरी तरह त्याग दें। उन्हें अपने पद और वर्दी से जुड़ी जिम्मेदारियों का पालन पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ करना चाहिए। दुर्भाग्यवश, इस मामले में ऐसा नहीं हुआ।”

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को 2023 में अकोला में सांप्रदायिक झड़पों के दौरान हुई हत्या के संबंध में एफआईआर दर्ज करने में विफल रहने के लिए महाराष्ट्र पुलिस को कड़ी फटकार लगाई। अदालत ने कहा कि पुलिस अधिकारियों को वर्दी में रहते हुए अपने व्यक्तिगत और धार्मिक पक्षपातपूर्ण सोच को अलग रखना चाहिए और पूरी ईमानदारी से काम करना चाहिए।
न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने राज्य के गृह विभाग को मामले की जांच के लिए एक विशेष जांच दल (SIT) गठित करने का निर्देश दिया। इस SIT में हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को शामिल किया जाएगा और उसे तीन महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट पेश करने को कहा गया है।
पीठ ने टिप्पणी की, “यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि जब पुलिस बल के सदस्य वर्दी पहनते हैं, तो उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद और पक्षपात—चाहे वह धार्मिक हो, जातिगत हो, नस्लीय हो या अन्य कोई—को पूरी तरह त्याग दें। उन्हें अपने पद और वर्दी से जुड़ी जिम्मेदारियों का पालन पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ करना चाहिए। दुर्भाग्यवश, इस मामले में ऐसा नहीं हुआ।”
अकोला के पुराने शहर में मई 2023 में तब झड़पें भड़क उठीं जब पैगंबर मोहम्मद से जुड़ी एक सोशल मीडिया पोस्ट वायरल हो गई। इन झड़पों में विलास महादेवराव गायकवाड़ नाम के एक व्यक्ति की मौत हो गई थी और याचिकाकर्ता सहित आठ अन्य लोग घायल हो गए थे।
याचिकाकर्ता मोहम्मद अफज़ल मोहम्मद शरीफ, जो उस समय 17 वर्ष के थे, ने बताया कि गायकवाड़ पर चार लोगों ने तलवार, लोहे की पाइप और अन्य हथियारों से हमला किया था। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि उसी समूह ने उन पर भी हमला किया और उनकी गाड़ी को नुकसान पहुंचाया। हालांकि उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया और उनका बयान दर्ज किया गया, फिर भी कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई।
जब शरीफ ने कार्रवाई की मांग को लेकर बॉम्बे हाईकोर्ट का रुख किया तो अदालत ने उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए उनकी याचिका खारिज कर दी। महाराष्ट्र पुलिस ने भी दावा किया कि जब एक अधिकारी अस्पताल में उनसे मिलने गया, तो वह बोलने की स्थिति में नहीं थे। साथ ही, पुलिस ने यह भी कहा कि उनका चश्मदीद गवाह होने का दावा बिना किसी ठोस आधार के है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस दावे को खारिज कर दिया और कहा कि पुलिस की जिम्मेदारी है कि वह याचिकाकर्ता के आरोपों की जांच करे। पीठ ने कहा, “यह पुलिस की जिम्मेदारी थी कि वह 17 वर्षीय अपीलकर्ता द्वारा लगाए गए विशिष्ट आरोपों की सत्यता या असत्यता की जांच करे, जिसने दावा किया कि वह विलास महादेवराव गायकवाड़ की हत्या का चश्मदीद था और खुद भी उन्हीं हमलावरों का शिकार हुआ था।”
अदालत ने संबंधित पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई का निर्देश दिया और राज्य सरकार को अपनी पुलिस बल को उनके कानूनी कर्तव्यों के प्रति संवेदनशील बनाने का आदेश दिया। पीठ ने कहा, “पुलिस विभाग में आम जवानों को भी यह निर्देशित और संवेदनशील किया जाना चाहिए कि कानून उनके ड्यूटी को पूरा करने में उनसे क्या अपेक्षा करता है।”
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न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने राज्य के गृह विभाग को मामले की जांच के लिए एक विशेष जांच दल (SIT) गठित करने का निर्देश दिया। इस SIT में हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को शामिल किया जाएगा और उसे तीन महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट पेश करने को कहा गया है।
पीठ ने टिप्पणी की, “यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि जब पुलिस बल के सदस्य वर्दी पहनते हैं, तो उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद और पक्षपात—चाहे वह धार्मिक हो, जातिगत हो, नस्लीय हो या अन्य कोई—को पूरी तरह त्याग दें। उन्हें अपने पद और वर्दी से जुड़ी जिम्मेदारियों का पालन पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ करना चाहिए। दुर्भाग्यवश, इस मामले में ऐसा नहीं हुआ।”
अकोला के पुराने शहर में मई 2023 में तब झड़पें भड़क उठीं जब पैगंबर मोहम्मद से जुड़ी एक सोशल मीडिया पोस्ट वायरल हो गई। इन झड़पों में विलास महादेवराव गायकवाड़ नाम के एक व्यक्ति की मौत हो गई थी और याचिकाकर्ता सहित आठ अन्य लोग घायल हो गए थे।
याचिकाकर्ता मोहम्मद अफज़ल मोहम्मद शरीफ, जो उस समय 17 वर्ष के थे, ने बताया कि गायकवाड़ पर चार लोगों ने तलवार, लोहे की पाइप और अन्य हथियारों से हमला किया था। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि उसी समूह ने उन पर भी हमला किया और उनकी गाड़ी को नुकसान पहुंचाया। हालांकि उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया और उनका बयान दर्ज किया गया, फिर भी कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई।
जब शरीफ ने कार्रवाई की मांग को लेकर बॉम्बे हाईकोर्ट का रुख किया तो अदालत ने उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए उनकी याचिका खारिज कर दी। महाराष्ट्र पुलिस ने भी दावा किया कि जब एक अधिकारी अस्पताल में उनसे मिलने गया, तो वह बोलने की स्थिति में नहीं थे। साथ ही, पुलिस ने यह भी कहा कि उनका चश्मदीद गवाह होने का दावा बिना किसी ठोस आधार के है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस दावे को खारिज कर दिया और कहा कि पुलिस की जिम्मेदारी है कि वह याचिकाकर्ता के आरोपों की जांच करे। पीठ ने कहा, “यह पुलिस की जिम्मेदारी थी कि वह 17 वर्षीय अपीलकर्ता द्वारा लगाए गए विशिष्ट आरोपों की सत्यता या असत्यता की जांच करे, जिसने दावा किया कि वह विलास महादेवराव गायकवाड़ की हत्या का चश्मदीद था और खुद भी उन्हीं हमलावरों का शिकार हुआ था।”
अदालत ने संबंधित पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई का निर्देश दिया और राज्य सरकार को अपनी पुलिस बल को उनके कानूनी कर्तव्यों के प्रति संवेदनशील बनाने का आदेश दिया। पीठ ने कहा, “पुलिस विभाग में आम जवानों को भी यह निर्देशित और संवेदनशील किया जाना चाहिए कि कानून उनके ड्यूटी को पूरा करने में उनसे क्या अपेक्षा करता है।”
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