नफरत बयान मामलों पर सुप्रीम कोर्ट: सक्रिय हस्तक्षेप से चुप्पी की ओर 

Written by sabrang india | Published on: December 1, 2025
अदालत द्वारा बढ़ते नफरती बयान के मामलों की निगरानी से इनकार करना इसके पहले के सक्रिय रुख से एक निर्णायक बदलाव को दर्शाता है और यह न्यायिक घोषणाओं, संस्थागत क्षमता और लक्षित समुदायों की वास्तविकताओं के बीच विरोधाभास उजागर करता है। 



25 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि वह पूरे देश में होने वाले हर नफरती बयान (हेट स्पीच) की घटना पर नजर रखने वाली “राष्ट्रीय मॉनिटरिंग अथॉरिटी” नहीं बन सकता। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ एक ऐसी याचिका सुन रही थी जिसमें एक खास समुदाय के सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार की अपील करने का आरोप लगाया गया था। पीठ ने जोर देकर कहा कि सिर्फ इसलिए कि कोई याचिकाकर्ता व्यापक निगरानी की मांग कर रहा है, कोर्ट अपनी भूमिका को कानून बनाने या पुलिसिंग करने जैसे क्षेत्रों तक नहीं बढ़ा सकता।

द हिंदू के अनुसार, पीठ ने टिप्पणी की, “हम इस याचिका के बहाने कानून नहीं बना सकते। निश्चिंत रहें, हम देश के किसी भी X, Y, Z इलाके में होने वाली हर छोटी घटना की न तो निगरानी करने वाले हैं और न ही कानून बनाने वाले हैं।” संविधान की मौजूदा व्यवस्था पर जोर देते हुए जजों ने कहा, “हाई कोर्ट हैं, पुलिस थाने हैं, कानून मौजूद हैं। ये सारी व्यवस्थाएं पहले से ही मौजूद हैं।”

सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणियां- नफरती बयान की घटनाओं की निगरानी की जिम्मेदारी ठुकराना और याचिकाकर्ताओं को हाई कोर्ट और पुलिस के पास भेजना-ऐसे समय में बढ़ती हुई न्यायिक व्यवस्था के पीछे हटने (जुडिशियल रिट्रीट) को दिखाती हैं जब नफरती बयान देश में व्यापक, संगठित और कई बार तो राजनीतिक रूप से संरक्षण प्राप्त कर चुकी है। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ की यह बात कि कोर्ट “हर छोटी घटना पर कानून नहीं बना सकता और न ही निगरानी कर सकता” प्रशासनिक दृष्टि से भले व्यावहारिक लगे, लेकिन संवैधानिक स्तर पर यह गंभीर चिंताएं पैदा करती है।

‘हाई कोर्ट जाइए; हम पूरे देश की निगरानी नहीं कर सकते’

पीठ ने शुरुआत में ही आवेदक से कहा कि वह अपनी शिकायत संबंधित हाई कोर्ट में उठाए। द प्रिंट के अनुसार, अदालत ने पूछा, “यह अदालत पूरे देश में होने वाली ऐसी हर घटना की निगरानी कैसे कर सकती है?” अदालत ने आगे कहा, “आप संबंधित प्राधिकारियों के पास जाएं। वे कार्रवाई करें। अगर वे नहीं करते, तो हाई कोर्ट जाइए।”

आवेदक के वकील निज़ाम पाशा ने बताया कि उन्होंने नफरती बयान से जुड़ी पहले से लंबित एक रिट याचिका में एक अतिरिक्त आवेदन दाखिल किया है, जिसमें बहिष्कार की नई घटनाएं सामने रखी गई हैं। जब पीठ ने कहा कि ये अपीलें तो “निजी लोगों” द्वारा की गई लगती हैं, तो वकील ने जवाब दिया कि “कुछ सार्वजनिक प्रतिनिधि भी ऐसे ही बयान दे रहे हैं।”

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने हस्तक्षेप करते हुए तीखे स्वर में कहा, “पब्लिक इंटरेस्ट किसी एक धर्म तक सीमित नहीं हो सकता… सभी धर्मों के बीच गंभीर स्तर का हेट स्पीच हो रहा है। मैं वे विवरण अपने मित्र (आवेदक) को दूंगा। वे उन्हें भी शामिल करें और फिर इस सार्वजनिक मुद्दे को सभी धर्मों के आधार पर उठाएं।” 

आवेदक के वकील ने जोर देकर कहा कि वे सुप्रीम कोर्ट इसलिए आए हैं क्योंकि अधिकारियों द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है। उन्होंने अदालत के पहले दिए गए उन निर्देशों का भी हवाला दिया, जिनमें कहा गया था कि अगर राज्य सरकारें हेट स्पीच पर कार्रवाई नहीं करतीं, तो पुलिस को स्वतः (suo motu) एफआईआर दर्ज करनी चाहिए और ऐसा न करने पर अवमानना की कार्यवाही भी हो सकती है। 

मेहता ने अपनी बात दोहराते हुए कहा कि “कोई भी व्यक्ति हेट स्पीच में शामिल नहीं हो सकता,” लेकिन किसी सार्वजनिक हित में मुकदमा करने वाले व्यक्ति को “चयनात्मक (selective) नहीं होना चाहिए।” पीठ ने फिर से स्पष्ट करते हुए कहा कि कानूनी प्रक्रियाएं पहले से मौजूद हैं, “जिस भी राज्य में आपको समस्या है, वहां के संबंधित हाई कोर्ट में जाइए और उचित राहत मांगिए।”

पत्रकार क़ुर्बान अली और अन्य की ओर से पेश हुए अधिवक्ता निज़ाम पाशा ने अदालत को उसके अक्टूबर 2022 के आदेश की याद दिलाई। अक्टूबर 2022 में, जब देश में बढ़ते नफरती अपराधों की “निरंतर और तेज वृद्धि” को लेकर अदालत चिंतित थी और उसने चेतावनी दी थी कि “देश में नफरत का माहौल व्याप्त है” तब सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस को निर्देश दिया था कि वह हेट स्पीच करने वालों के खिलाफ स्वतः (suo motu) मामले दर्ज करे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की वर्तमान टिप्पणियां एक बड़े बदलाव की ओर इशारा करती हैं, अब अदालत कह रही है कि कानून का पालन करवाना संबंधित संस्थाओं-जैसे पुलिस और हाई कोर्ट-की जिम्मेदारी है और हर घटना को लगातार सुप्रीम कोर्ट तक लेकर आना समाधान नहीं हो सकता।

इसके अलावा, पाशा ने एक हलफनामा भी पेश किया जिसमें असम के एक मंत्री द्वारा बिहार में बीजेपी की जीत के बाद साझा किए गए एक पोस्ट पर आपत्ति जताई गई थी। पोस्ट में कथित तौर पर 1989 के भागलपुर नरसंहार का जिक्र किया गया था, जिसमें “बिहार ने गोभी की खेती को मंजूरी दे दी” जैसी टिप्पणी की गई थी-जो उन पीड़ितों की ओर इशारा माना गया, जिनके शव कथित तौर पर गोभी के खेतों में दफन किए गए थे। 

बेंच ने इस मामले की अगली सुनवाई के लिए 9 दिसंबर, 2025 की तारीख तय की।

चुनावों के दौरान नफरत फैलाने वाले भाषणों में आई वृद्धि के बारे में पढ़ने के लिए यहां, यहां और यहां पढ़ें।

एक अदालत जिसने कभी नफरत से जुड़े अपराधों को रोकना “पवित्र कर्तव्य” (sacrosanct duty) कहा था, अब कहती है, कहीं और जाइए।

ये मौखिक टिप्पणियां उस ऐतिहासिक क्षण का प्रतीक हैं, जो अदालत के महत्वपूर्ण तहसीन पूनावाला (2018) फैसले के लगभग सात साल बाद सामने आया है। उस निर्णय में अदालत ने माना था कि नफरत से जुड़े अपराधों को रोकना राज्य का “पवित्र कर्तव्य” है। तब अदालत ने भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा और लिंचिंग को रोकने के लिए विस्तृत दिशानिर्देश जारी किए थे। 

तहसीन पूनावाला (2018) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि नफरत से जुड़े अपराधों को रोकना राज्य का “पवित्र कर्तव्य” है और इस दिशा में अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका पर भी महत्वपूर्ण संवैधानिक जिम्मेदारी डाली थी। 

जब बेंच कहती है: “हम न तो हर छोटी घटना पर कानून बनाने के इच्छुक हैं और न ही उसकी निरंतर निगरानी करने के,” तो स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है कि नफरत भरे बयान में “छोटा” क्या माना जाएगा? नफरत फैलाने वाला बयान कोई अलग-थलग “X, Y, Z क्षेत्र” की समस्या नहीं है; यह एक संरचनात्मक, राष्ट्रीय और तेजी से वैधता प्राप्त करती हुई प्रवृत्ति है, जो हिंसा को बढ़ावा देती है, समुदायों को कट्टर बनाती है और संवैधानिक भाईचारे को कमजोर करती है। हर घटना को केवल स्थानीय- सबसे नजदीकी पुलिस स्टेशन द्वारा हल किए जाने योग्य- मानना समस्या की प्रणालीगत, न कि केवल समय समय पर होने वाली प्रकृति की अनदेखी करता है। 

इसके अलावा, याचिकाकर्ता के वकील ने अदालत को स्पष्ट रूप से उसके अपने पहले के निर्देशों की याद दिलाई कि यदि राज्य नफरत भरे भाषण पर कार्रवाई करने में विफल रहते हैं, तो पुलिस को स्वयं (suo motu) एफआईआर दर्ज करनी चाहिए और यदि पुलिस विफल रहती है, तो अवमानना की कार्रवाई की जानी चाहिए। अपने ही आदेश के अनुपालन की निगरानी करने से इनकार करके, अदालत एक विरोधाभास पैदा कर देती है:

कदम उठाने का दायित्व तो बना रहता है, लेकिन उसका क्रियान्वयन हवा हो जाता है।

इससे संवैधानिक रूप से अनिवार्य रोकथाम संबंधी निगरानी केवल एक न्यायिक सुझाव बनकर रह जाती है, न कि न्यायिक आदेश।

सॉलिसिटर जनरल के उस दावे के संदर्भ में कि सार्वजनिक हित चयनात्मक नहीं हो सकता और सभी धर्म नफरत भरे बयानों का सामना करते हैं, यह बात सुनने में तो ठीक लगती है, लेकिन यह एक पहचानी हुई तर्क की चाल है, जिसे अक्सर चर्चा में इस्तेमाल किया जाता है।: 

1.यह बहुसंख्यक द्वारा अल्पसंख्यक के खिलाफ नफरत भरे बयान को अल्पसंख्यक द्वारा बहुसंख्यक के खिलाफ कहे जाने वाले बयान के बराबर मानता है, जिससे असमान शक्ति संतुलन की वास्तविकता दब जाती है;

2. यह मुसलमानों को लक्षित किए गए दर्ज, प्रणालीगत नफरती बयान, जिसमें राजनीतिक अभियान भी शामिल हैं, से ध्यान हटाता है;

3. यह संरचनात्मक भेदभाव को सामान्य सामाजिक असंतोष के रूप में प्रस्तुत करता है।

अदालत की यह प्रवृत्ति कि वह “सभी धर्मों के संदर्भ में” वाली बात दोहराए, बहुसंख्यकवादी नफरत भरे बयान से निपटने की तात्कालिकता को कम करती है, जो संवैधानिक और वास्तविक तथ्य है और जिसे पिछले पीठों ने व्यापक रूप से स्वीकार किया है।

नफरत भरे बयान से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण आदेशों की विस्तृत रिपोर्ट के लिए, यहां पढ़ें।

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय: कार्रवाई से खुद को दूर रखना 

21 नवंबर को छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के एक अलग नफरत भरे बयान मामले में निर्णय ने यह और स्पष्ट किया कि न्यायपालिका ऐसे मामलों में जांच में हुई चूक की समीक्षा करने से हटती जा रही है। चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस बिभु दत्ता गुरु की एक डिवीजन बेंच ने अग्रवाल, सिंधी और जैन समुदायों के खिलाफ लगातार नफरत भरे बयान देने का आरोप लगे जौहर छत्तीसगढ़ पार्टी के नेता अमित बघेल के खिलाफ कार्रवाई की याचिका खारिज कर दी।

डिवीजन बेंच ने स्पष्ट रूप से कहा कि याचिकाकर्ता राज्य की निष्क्रियता के आरोपों को प्रमाणित करने में विफल रहा और यह जोर दिया कि केवल “राज्य की उदासीनता” के आरोपों के आधार पर असाधारण न्यायिक हस्तक्षेप उचित नहीं ठहराया जा सकता।

अदालत ने यह भी पाया:

● “याचिकाकर्ता ने कोई ठोस प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया है जिससे यह साबित हो सके कि जांच एजेंसी ने या तो जांच रोक दी है या एफआईआर पर कार्रवाई करने से इनकार कर दिया है।”

● “केवल जांच की गति या प्रकार से असंतोष होना, कानून के तहत, इस अदालत के असाधारण अधिकार क्षेत्र (धारा 528, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 या संविधान के अनुच्छेद 226) का इस्तेमाल करने का आधार नहीं बन सकता।” 

बेंच ने चेतावनी दी कि याचिकाकर्ता द्वारा मांगे गए राहत उपाय-गिरफ्तारी का आदेश, किसी विशेष पद के अधिकारी द्वारा निगरानी, समय-समय पर स्थिति रिपोर्ट, एकीकृत चार्जशीट- जांच में “न्यायिक सूक्ष्म प्रबंधन” के समान होंगे और पुलिस के वैधानिक क्षेत्र में हस्तक्षेप के रूप में देखे जाएंगे। 

अदालत ने स्थापित कानून दोहराया कि मैंडामस रिट (Writ of Mandamus) गिरफ्तारी के लिए मबूर नहीं कर सकती, जांच की दिशा निर्धारित नहीं कर सकती और उस स्थिति में एकीकृत चार्जशीट जारी करने का आदेश नहीं दे सकती जब विधि द्वारा बनाए गए नियम ऐसा अनिवार्य न करे। अदालत ने अपने आदेश में आगे कहा, “याचिकाकर्ता ने कोई असाधारण परिस्थितियां नहीं दिखाईं जो इन दिशानिर्देशों के पालन में कमी का संकेत देती हों, न ही कोई तत्काल जन-सुरक्षा खतरा है जो असाधारण कदमों को न्यायसंगत ठहराए।”

कोई असाधारण तात्कालिकता या सार्वजनिक व्यवस्था को तत्काल खतरा न पाए जाने के कारण, याचिका खारिज कर दी गई।

अमित बघेल के खिलाफ याचिका खारिज करने का छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का यह फैसला संस्‍थागत दूरी बनाए रखने के व्यापक रुझान में पूरी तरह फिट बैठता है। अदालत ने यह जोर देकर कहा कि:

● जांच की गति से असंतोष पर्याप्त नहीं है,
● अदालतें जांच में “सूक्ष्म प्रबंधन” (micromanage) नहीं कर सकतीं,
● कोई “असाधारण परिस्थितियां” मौजूद नहीं हैं। 

हाई कोर्ट ने उस रुझान को और मजबूत किया है जिसमें नफरत भरे बयान पर राज्य की निष्क्रियता की न्यायिक समीक्षा लगातार सीमित होती जा रही है, जबकि नफरती बयान लगातार बढ़ रहा है।
अदालत का आदेश यहां पढ़ा जा सकता है।

भारत के नफरती बयान संकट की जड़ में संवैधानिक त्रुटि

मूल परेशानी यह है कि अदालत नफरत भरे भाषण को किस नजरिए से देखती है: जब सुप्रीम कोर्ट इसे बार-बार एक सामान्य “कानून और व्यवस्था” का मामला बताकर स्थानीय पुलिस या संबंधित हाई कोर्ट के स्तर पर निपटाने योग्य मानती है तो वह एक गंभीर संवैधानिक संकट को केवल प्रशासनिक समस्या तक सीमित कर देती है। इस दृष्टिकोण से अदालत अपने ही न्यायशास्त्र की अवहेलना करती है, जिसमें नफरती बयान को समानता के लिए खतरा, गरिमा पर हमला, भीड़ हिंसा को बढ़ावा देने वाला कारक, लोकतांत्रिक भागीदारी में बाधा और अल्पसंख्यकों व असंतुष्टों के खिलाफ असमान रूप से इस्तेमाल होने वाला हथियार माना गया है-ऐसे पहलू जिन्हें सामान्य पुलिसिंग के माध्यम से प्रभावी ढंग से नहीं संभाला जा सकता। आज का नफरती बयान केवल “छोटे, स्थानीय मामले” नहीं है; यह चुनावी सक्रियता, विजिलैंट नेटवर्क और संस्थागत भेदभाव के गहरे पैटर्न से जुड़ा है जो इसे स्थानीय कानून-व्यवस्था के साधनों या उनकी निष्पक्षता से परे बना देता है। 

अदालत का जांच से पीछे हटना संरचनात्मक परिणाम लाता है : यह सार्वजनिक हित वाली याचिकाओं को हतोत्साहित करता है, यह संकेत देकर कि संवैधानिक रूप से गंभीर नुकसान “छोटे” या “स्थानीय” हैं; और यह अदालत के अपने पुराने निर्णयों-जो स्वतः एफआईआर दर्ज करने और राज्यों को अवमानना की चेतावनी देने का निर्देश देते थे- से असंगत है, जिससे सैद्धांतिक सामंजस्य और संवैधानिक निर्णयों की विश्वसनीयता कमजोर होती है। अंततः, नफरती बयान को केवल एक सामान्य पुलिसिंग मामला मान लेना न केवल इसकी गंभीरता को कम करता है, बल्कि इसे सामान्य और स्वीकार्य स्थिति में बदलने का जोखिम भी पैदा करता है।

निष्कर्ष: संवैधानिक जिम्मेदारी- सतर्क रहना ही समाधान है, पीछे हटना नहीं  

भारत वर्तमान में नफरती बयान में तेजी और राजनीतिक रूप से संवेदनशील वृद्धि का सामना कर रहा है। ऐसे समय में सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि वह “हर छोटे मामले” पर निगरानी नहीं रख सकती, न्यायिक संयम के रूप में नहीं बल्कि यह संकेत माना जा सकता है कि राज्य के अधिकारी कम करेंगे, उचित नहीं। कोई भी संवैधानिक अदालत हर घटना की निगरानी नहीं कर सकती-लेकिन यह अपेक्षित है कि राज्य की मशीनरी काम करे, मौलिक अधिकारों की सुरक्षा हो और अदालत के अपने पहले दिए गए निर्देश अनुचित न हों। जब अदालत यह दिखाती है कि वह ठीक उसी समय पीछे हट रही है जब संवैधानिक सतर्कता सबसे जरूरी है, तो यह संविधानिक वादों और संस्थागत व्यवहार के बीच एक गंभीर अंतर पैदा करता है। ऐसे समय में, जब नफरती बयान के संरचनात्मक, चुनावी और सांप्रदायिक प्रभाव हैं, यह न्यायिक जवाबदेही से हटना का समय नहीं बल्कि सिद्धांतपूर्ण संवैधानिक जुड़ाव का समय है। अब पीछे हटना उन सुरक्षा तंत्रों को कमजोर करने का जोखिम है, जिन पर संविधान अदालतों से भरोसा करता है।

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