बिहार में मतदाता सूची संशोधन को लेकर चुनाव आयोग के विवेक पर सवाल: सुप्रीम कोर्ट में चुनौती, क्या बिहार पर मताधिकार संकट और मतदाताओं के संदिग्ध होने का खतरा मंडरा रहा है?

Written by AMAN KHAN | Published on: July 10, 2025
लोकसभा चुनाव 2024 के बाद से ही आम लोगों के जांच के दायरे में आई चुनाव आयोग (ECI) की विश्वसनीयता को 24 जून को जारी बिहार के लिए विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) आदेश ने और ज्यादा नुकसान पहुंचाई है। यह विवादित निर्देश उस वक्त जारी किया गया जब जनवरी 2025 में मतदाता सूची फाइल हो चुकी थी। इस कदम को सुप्रीम कोर्ट में कई न्यायिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इस मामले की सुनवाई अवकाश पीठ के समक्ष कल, 10 जुलाई को निर्धारित है।



निर्वाचन आयोग द्वारा बिहार में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) ने बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है। इसके चलते सीधे तौर पर कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR), पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (PUCL), राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के सांसद मनोज झा, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सांसद महुआ मोइत्रा और सामाजिक कार्यकर्ता योगेन्द्र यादव सहित कई अन्य लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दाखिल की हैं। इन याचिकाओं में 25 जून 2025 से शुरू हुई इस SIR प्रक्रिया पर रोक लगाने और 24 जून 2025 की अधिसूचना [ECI/PN/233/2025] को रद्द किए जाने की मांग की गई है। इन याचिकाओं पर सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की अवकाश पीठ के समक्ष 10 जुलाई को निर्धारित है। SIR को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं की संयुक्त रूप से सुनवाई की जाएगी और यह मामला न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची की दो न्यायाधीश वाली पीठ के समक्ष सूचीबद्ध है।

याचिकाकर्ताओं का कहना है कि निर्वाचन आयोग द्वारा विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया शुरू करने का निर्णय मनमाना, औचित्यहीन है और यह संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। सुप्रीम कोर्ट इस प्रक्रिया की वैधता की जांच करते हुए इस महत्वपूर्ण पहलू पर विचार करेगा कि क्या SIR की कार्यवाही विधिसम्मत प्रक्रिया और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है विशेष रूप से उन मामलों में जहां मतदाताओं के नाम हटाए जाने की संभावना है। इसके अलावा, याचिकाकर्ताओं ने SIR के लिए निर्धारित समयसीमा की व्यावहारिकता और तर्कसंगतता पर भी सवाल उठाए हैं।

यह मामला केवल कानूनी नहीं है बल्कि यह अब विपक्षी राजनीतिक दलों और नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के बीच गहरी चिंता का विषय बन चुका है। बिहार विधानसभा चुनाव से कुछ ही महीने पहले SIR की समय-सीमा ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। जनवरी 2025 में राज्य विधानसभा चुनावों के लिए अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित हो चुकी है। इसके बावजूद, चुनाव आयोग द्वारा शुरू की गई SIR प्रक्रिया को कई विश्लेषकों-जिनमें Sabrangindia भी शामिल है- ने एक दुर्भावनापूर्ण कदम बताया है। उनके अनुसार, यह एक संवैधानिक संस्था द्वारा उस अधिकार का अतिक्रमण है जो उसे प्राप्त नहीं है-यानी ‘भारतीय नागरिकता’ की जांच करने का अधिकार। Sabrangindia के अनुसार, मुख्य निर्वाचन आयुक्त (CEC) ज्ञानेश कुमार द्वारा उठाया गया यह हालिया कदम न केवल गैरकानूनी और जल्दबाज़ी में लिया गया है, बल्कि यह भारतीय संविधान, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 तथा निर्वाचक रजिस्ट्रेशन नियम, 1960 का भी स्पष्ट उल्लंघन करता है।

राजनीतिक टिप्पणीकारों और नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने इसे एक संभावित रणनीति के रूप में भी देखा है, जिसका उद्देश्य एक बड़ी संख्या में मतदाताओं, विशेष रूप से वंचित समुदायों के लोगों को मताधिकार से वंचित करना हो सकता है। डर यह है कि यदि ये मतदाता नामांकन फॉर्म के साथ विशेष दस्तावेज पेश नहीं कर पाए तो उन्हें अनुचित रूप से मतदाता सूची से हटा दिया जाएगा। इससे शामिल होने यानी इनक्लूजन की जिम्मेदारी सबसे कमजोर वर्गों पर डाल दी जाएगी और एक मौलिक अधिकार को दस्तावेज-केंद्रित प्रक्रिया में बदल दिया जाएगा। सूचीबद्ध ग्यारह दस्तावेज छोटे किसानों, भूमिहीन मजदूरों, प्रवासी मजदूर समुदायों और महिलाओं के लिए आसान नहीं हैं। इस पुनरीक्षण के लिए जो दस्तावेज मांगे जा रहे हैं, वे अधिकांशतः भारतीय नागरिकता का प्रमाण नहीं हैं और जन्म प्रमाणपत्र को छोड़कर, कोई भी दस्तावेज भारत में जन्म की तिथि या स्थान की पुष्टि नहीं करता।

निर्वाचन आयोग की यह पहल जो स्पष्ट रूप से राजनीतिक रूप से संचालित और प्रेरित लगती है, ऐसा प्रतीत होती है मानो इसका उद्देश्य उन निरक्षर मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करना है जिनके पास “कोई संपत्ति नहीं है।” इससे भी ज्यादा चिंताजनक यह है कि यह “घोषणा” कि “सभी मतदाताओं को नामांकन फॉर्म जमा करना होगा और जो मतदाता 2003 के बाद पंजीकृत हुए हैं उन्हें अपनी नागरिकता सिद्ध करने वाले दस्तावेज भी देने होंगे,” जो न सिर्फ संविधान का उल्लंघन है, बल्कि यह जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 15 और 19 का भी स्पष्ट उल्लंघन है!

बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण 

24 जून 2025 को, भारत निर्वाचन आयोग ने बिहार के सभी विधानसभा क्षेत्रों में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण शुरू करने की औपचारिक घोषणा की। आयोग ने इस व्यापक प्रक्रिया को लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुचिता बनाए रखने और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए बेहद जरूरी बताया है। निर्वाचन आयोग ने यह भी स्पष्ट किया है कि भविष्य में इस SIR प्रक्रिया को संवैधानिक दायित्व के रूप में पूरे देश में लागू किया जाएगा। हालांकि, बिहार को प्राथमिकता दी गई है क्योंकि राज्य में वर्ष 2025 के आखिर में विधानसभा चुनाव होने हैं। अन्य राज्यों के लिए SIR की घोषणा बाद में की जाएगी।

निर्वाचन आयोग ने इस व्यापक पुनरीक्षण को उचित ठहराने के लिए जनसांख्यिकीय और प्रशासनिक कारकों के संयोजन का हवाला दिया है। इनमें तेजी से होता शहरीकरण, बार-बार होने वाला प्रवास, लगातार नए योग्य युवा मतदाताओं का जुड़ना, मृत्यु की घटनाओं की कम रिपोर्टिंग और विशेष रूप से, मतदाता सूची में विदेशी अवैध प्रवासियों की संभावित तरीके से शामिल होने को निपटाने की आवश्यकता शामिल है। SIR के स्पष्ट रूप से घोषित तीन प्रमुख उद्देश्य हैं; यह सुनिश्चित करना कि हर योग्य नागरिक का नाम सूची में शामिल हो और कोई वंचित न रहे, मतदाता सूची से अयोग्य मतदाताओं को हटाना, उन व्यक्तियों के नाम हटाना जो मृत हैं, स्थायी रूप से अपने निवास स्थान से स्थानांतरित हो चुके हैं, या किसी अन्य कारणवश अनुपस्थित हैं।

कार्यान्वयन और प्रारंभिक कठोर दस्तावेजी आवश्यकताएं

इस पुनरीक्षण को लागू करने के लिए, भारत निर्वाचन आयोग ने एक स्पष्ट प्रक्रिया संबंधी ढांचा स्थापित किया। 1 जनवरी, 2003 की योग्यता तिथि वाले 2003 के निर्वाचन नामावली को पात्रता के मौलिक या “प्रमाणिक” साक्ष्य के रूप में निर्धारित किया गया। निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी (EROs) को निर्देश दिया गया कि वे इस नामावली में शामिल व्यक्तियों की नागरिकता को तब तक मान लें जब तक कि इनके खिलाफ सूचना न मिले। हालांकि, SIR ने उन लोगों के लिए नए और विशेष रूप से कड़े दस्तावेजी नियम लागू किए जो 2003 की नामावली में शामिल नहीं थे या जो युवा मतदाता थे। विपक्षी दलों ने मांग की है कि 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली निर्वाचन नामावलियां पुनरीक्षण के लिए आधार नामावली होनी चाहिए।

शुरूआत में, जिन व्यक्तियों के नाम 2003 की निर्वाचन नामावली में नहीं थे, उन्हें पात्रता साबित करने के लिए सरकारी जारी किए गए निर्धारित दस्तावेजों की सूची में से कोई प्रमाण प्रस्तुत करना आवश्यक था। 1987 के बाद जन्मे नागरिकों के लिए यह प्रक्रिया और भी कड़ी थी। उदाहरण के तौर पर, जो व्यक्ति 1 जुलाई 1987 और 2 दिसंबर 2004 के बीच जन्मा था, उसे अपने लिए एक स्वीकृत दस्तावेज और साथ ही अपने पिता या माता में से किसी एक के लिए अलग से दस्तावेज प्रस्तुत करना होता था ताकि उनके जन्म की तारीख और/या स्थान साबित हो सके। 2 दिसंबर 2004 के बाद जन्मे किसी भी व्यक्ति के लिए आवश्यकताएं और भी कड़ी थीं, उन्हें अपने साथ-साथ अपने पिता और माता दोनों के दस्तावेज भी प्रस्तुत करने होते थे। अगर कोई एक माता या पिता भारतीय नागरिक नहीं थे, तो मतदाता के जन्म के समय उनके पासपोर्ट और वीजा की प्रति जमा करनी होती थी।

अहम बात यह है कि आधार कार्ड, राशन कार्ड और मतदाता फोटो पहचान पत्र (EPIC) उन ग्यारह स्वीकृत प्रमाणपत्रों की सूची में स्पष्ट रूप से अनुपस्थित थे। सत्यापित दस्तावेजों में पासपोर्ट, जन्म प्रमाण पत्र, मैट्रिकुलेशन प्रमाण पत्र, स्थायी आवास प्रमाण पत्र, एससी/एसटी/ओबीसी प्रमाण पत्र, तथा 1 जुलाई 1987 से पूर्व सरकारी अधिकारियों, बैंकों या पीएसयू द्वारा जारी अन्य आधिकारिक दस्तावेज शामिल थे, जैसे पहचान पत्र, पेंशन ऑर्डर, भूमि आवंटन प्रमाण पत्र, या राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) में प्रविष्टियां (हालांकि यह बिहार के लिए लागू नहीं था)।

इस प्रारंभिक सख्त जरूरत ने संभावित भेदभाव को लेकर चिंता पैदा कर दी। जहां कुछ सामाजिक वर्गों के लोग (जैसे सरकारी कर्मचारी, ज़मीन मालिक) के लिए दस्तावेज प्रस्तुत करना अपेक्षाकृत आसान हो सकता है, वहीं 1970 और 1980 के दशक में जन्मे वे लोग, जिनके पास जन्म प्रमाण पत्र अक्सर उपलब्ध नहीं होता, वे इस एक, अक्सर अनुपलब्ध दस्तावेज पर ज्यादा निर्भर हो गए।
इसके अलावा, 2003 की मतदाता सूची में शामिल लोगों को दस्तावेज प्रस्तुत करने से छूट देने के प्रावधान की आलोचना भेदभावपूर्ण के रूप में की गई, क्योंकि यह वही सत्यापन प्रक्रिया लागू नहीं करता था जो बाकी लोगों के लिए अनिवार्य थी।

शुरूआती कड़ी शर्तों से वापसी: ECI ने माता-पिता के जन्म दस्तावेज की आवश्यकता खत्म की

भारी विरोध के मद्देनजर, निर्वाचन आयोग ने 30 जून 2025 को बिहार में अपने विवादित SIR आवश्यकताओं में व्यापक ढील देने की घोषणा की। इस फैसले ने माता-पिता के जन्म प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने की शुरूआती सख्त मांग को प्रभावी रूप से वापस ले लिया। यह वापसी विपक्षी दलों और नागरिक समाज की तीव्र आलोचना के बाद आई, जिन्होंने 24 जून के मूल निर्देश का कड़ा विरोध किया था और उसे अव्यावहारिक मताधिकार हनन तथा राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) लागू करने का छिपा हुआ प्रयास बताया था।

संशोधित दिशानिर्देशों के तहत, भारत निर्वाचन आयोग अब 2003 की बिहार निर्वाचन नामावली का इस्तेमाल प्राथमिक सत्यापन उपकरण के रूप में करता है, जिसमें 4.96 करोड़ मतदाता शामिल हैं। 1987 के बाद जन्मे व्यक्तियों को अब माता-पिता के जन्म दस्तावेज प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है यदि उनका अपना नाम या उनके माता-पिता के नाम इस 2003 की सूची में शामिल हैं। यह बदलाव राज्य के लगभग 60% मतदाताओं के लिए प्रक्रिया को सरल बनाएगा, जो अब केवल 2003 के डेटा के साथ अपनी जानकारी की पुष्टि करके नामांकन फॉर्म जमा कर सकते हैं। भले ही किसी मतदाता का नाम 2003 की नामावली में न हो, बिना अन्य सहायक दस्तावेजों के वे माता-पिता की जानकारी साबित करने के लिए उस नामावली का एक अंश इस्तेमाल कर सकते हैं, हालांकि उन्हें अपनी पात्रता का प्रमाण अभी भी प्रस्तुत करना होगा।

यह कदम, जो स्पष्ट रूप से बाद में लिया गया निर्णय है, बिहार के युवाओं के एक बड़े वर्ग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने की संभावना है, जो अभावपूर्ण पहुंच और दस्तावेजो की कमी से जूझ रहे हैं।

विवादित बिंदुओं को वापस लेते हुए निर्वाचन आयोग ने SIR के मूल सिद्धांत का बचाव किया और इसे प्रतिनिधित्व कानून, 1950 द्वारा अनिवार्य एक मौलिक कानूनी प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया, जो 75 वर्षों से अधिक समय से सटीक निर्वाचन नामावलियां बनाए रखने का एक नियमित हिस्सा है। इस संशोधित प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए आयोग ने निर्देश दिया है कि 2003 की नामावलियां बूथ स्तर के अधिकारियों को हार्ड कॉपी में उपलब्ध कराई जाएं और जनता के लिए अपनी वेबसाइट पर डाउनलोड के लिए भी उपलब्ध कराई जाएं।

बिहार: देश का सबसे ज्यादा दस्तावेज की कमी वाला राज्य

विश्वसनीय अध्ययनों से लगातार यह साबित हुआ है कि बिहार भारत के सबसे “दस्तावेज की कमी वाले” राज्यों में से एक राज्य है, जो भारत निर्वाचन आयोग के मतदाता सत्यापन अभियान और उसके “नागरिकता प्रमाण” की मांगों की चुनौतियों को और बढ़ा देता है। प्रमाण के रूप में शुरू में सुझाए गए 11 दस्तावेजों के विश्लेषण से उनकी व्यापक उपलब्धता में भारी कमियां उजागर होती हैं।


उदाहरण के लिए, सरकारी उपक्रमों या PSU से जारी पहचान या पेंशन कार्ड एक विकल्प हो सकते हैं, फिर भी 2022 की जाति जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि बिहार के मतदाता आयु वर्ग के केवल 2% से भी कम लोगों के पास सरकारी नौकरी है, जिससे यह प्रमाण अधिकांश के लिए लगभग मुश्किल हो जाता है। जन्म प्रमाण पत्र भी एक समस्या पूर्ण आवश्यकता है; राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 (NFHS-3) के अनुसार, बिहार की 2001 से 2005 के बीच जन्मी केवल 2.8% आबादी के पास जन्म प्रमाण पत्र है और संभवतः यह प्रतिशत पुरानी पीढ़ियों के लिए और भी कम होगा। इसी प्रकार, केवल लगभग 2.4% बिहारवासी पासपोर्ट रखते हैं।

नागरिक पंजीकरण प्रणाली (CRS) 2022 की ताजे आंकड़े दिखाते हैं कि बिहार उन 14 राज्यों में शामिल है, जिनमें त्रिपुरा, असम, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, केरल, झारखंड, लद्दाख, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, मेघालय, दिल्ली, और जम्मू एवं कश्मीर शामिल हैं, जो “50 प्रतिशत से कम जन्म पंजीकरण वाले” श्रेणी में आते हैं (दस्तावेज के पृष्ठ 38, बयान 12)। इस सरकारी दस्तावेज में दिखाया गया है कि बिहार में ग्रामीण क्षेत्रों में 61.2% और शहरी क्षेत्रों में 38.8% जन्म पंजीकृत हुए हैं (दस्तावेज के पृष्ठ 47, बयान 18)।

जहां मैट्रिकुलेशन प्रमाणपत्र ज्यादा सामान्य हैं, ऐसे में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-2 (NFHS-2) और NFHS-5 के अनुसार लगभग 45-50% 18-40 वर्ष के लोग मैट्रिक पास हैं, फिर भी लैंगिक असमानता काफी बनी हुई है। वन अधिकार प्रमाणपत्र एक विकल्प हो सकते हैं, लेकिन बिहार की कुल जनसंख्या में अनुसूचित जनजातियों का केवल 1.3% हिस्सा है, और उनमें से भी केवल कुछ ही वास्तव में वन क्षेत्र में रहते हैं, इसलिए यह प्रमाण बहुत कम आबादी के लिए प्रासंगिक है। जाति प्रमाणपत्र (OBC, SC, या ST) के मामले में, भारत मानव विकास सर्वेक्षण-2 (2011-12) के अनुसार लगभग 16% बिहारवासी इसके धारक थे, जो इन वर्गों के लगभग एक-चौथाई परिवारों के बराबर है; उच्च जातियों के पास ऐसे प्रमाणपत्र नहीं होते। इसके अलावा, NRC या पारिवारिक रजिस्टर में नाम होना, जो प्रमाण के रूप में सूचीबद्ध हैं, बिहार के लिए लागू नहीं होता। आखिर में, सरकारी भूमि/घर आवंटन प्रमाणपत्र सुझाए गए हैं, लेकिन प्रधानमंत्री आवास योजना जैसे कार्यक्रमों के लाभार्थियों को ये प्रमाणपत्र नहीं मिलते, जिससे यह अस्पष्ट रहता है कि ये दस्तावेज किसे मिलते हैं और इनकी कवरेज कितनी है। ये आंकड़े 1 जुलाई 2025 को द हिंदू में प्रकाशित हुए।

उभरती चिंता: मतदाता से संदिग्ध/विवादित मतदाता तक – मंडराता डर

चुनावी और प्रशासनिक प्रक्रियाएं उन लोगों के लिए एक खतरनाक रास्ता बनाती हैं जिनकी नागरिकता पर संदेह होता है-यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे उचित प्रक्रिया के तहत राज्य द्वारा किया जाना चाहिए, न कि भारत निर्वाचन आयोग द्वारा। यह एक नियमित मतदाता सत्यापन को मताधिकार से वंचित किए जाने और “संभावित विदेशी” के भयावह दर्जे की ओर ले जाने वाला रास्ता बन सकती है। यह प्रक्रिया, जो चुनावी नामावलियों की सत्यता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से की जाती है, उन लोगों के लिए गंभीर और जीवन परिवर्तक परिणामों से भरी होती है जो दस्तावेजी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते। यह स्थिति घटनाओं की एक श्रृंखला के रूप में सामने आती है, जिसमें हर कदम पर एक व्यक्ति के मताधिकार और अंततः नागरिकता के अधिकार खोने की संभावना बढ़ती जाती है।

चिंता की शुरुआत विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) से होती है। हालांकि निर्वाचन नामावली में होना नागरिकता की निश्चित गारंटी नहीं है, SIR प्रक्रिया मौजूदा मतदाताओं को कड़ी जांच के दायरे में लाती है। लोगों के लिए असली डर 24 जून 2025 के निर्वाचन आयोग के आदेश में शामिल एक विशेष दिशा-निर्देश से शुरू होता है। इन दिशानिर्देशों के पैराग्राफ 5(ख) के तहत, निर्वाचन पंजीकरण अधिकारियों (EROs) को एक महत्वपूर्ण और दोहरा अधिकार दिया गया है कि यदि कोई मतदाता ऐसे दस्तावेज प्रस्तुत करने में विफल रहता है जो ERO को संतुष्ट करें, तो अधिकारी न केवल उस व्यक्ति का नाम मतदाता सूची से हटा सकता है, बल्कि उन्हें “संदिग्ध विदेशी” के रूप में “संंबंधित अधिकारी” को भी सूचित करना अनिवार्य है। यह एकमात्र प्रावधान बड़े-दांव की स्थिति पैदा करता है, जहां आवश्यक और अक्सर अस्पष्ट रूप से परिभाषित दस्तावेज प्रस्तुत न करने पर व्यक्ति का दर्जा मतदाता से तुरंत संदिग्ध विदेशी में बदल सकता है, जिसे कड़ा और मनमाना बताया गया है।

जब किसी व्यक्ति को “संदिग्ध/विवादित” नागरिकता वाला बताया जाता है, तो इसका एक महत्वपूर्ण और तुरंत प्रभावी परिणाम होता है उनके मतदान अधिकारों को खत्म करना। प्रक्रिया के अनुसार, जिन लोगों के नाम अस्थायी रूप से निर्वाचन नामावली में दर्ज होते हैं और उनके सामने ‘D’ अंकित होता है, जो उनके संदिग्ध स्थिति को दर्शाता है, उन्हें मतदान करने से रोक दिया जाता है। यह प्रतिबंध अस्थायी नहीं है; यह आगे होने वाले सभी लोकसभा और राज्य विधायी सभा चुनावों तक भी जारी रह सकता है। व्यक्ति इस नागरिकता के संदिग्ध स्थिति में रहता है, जिसमें उसे एक मौलिक अधिकार से वंचित कर दिया जाता है, जबकि उसका मामला जटिल कानूनी प्रणाली में निपट रहा होता है।

इस सवाल को उठाया जा रहा है कि क्या हजारों भारतीयों की नागरिकता इस छुपे हुए तरीके से परखी जा रही है?

SIR के बाद: उन मतदाताओं के लिए आगे क्या, जिन्हें संदिग्ध/विवादित मतदाता घोषित किया गया है?

ECI की राजनीतिक रूप से प्रेरित पहल से जो रुझान सामने आ रहा है, वह यह संकेत देता है कि केंद्र सरकार बिना किसी विधायी आधार के बिहार में असम जैसी स्थिति को चुनावों के जरिए लागू करना चाहती है। स्वतंत्रता के बाद असम की विशिष्ट स्थिति और असम समझौते से पहले और बाद में जो हालात बने, उनके चलते दो कानूनों को तैयार किया गया था -विदेशी अधिनियम, 1946 (अब 2025 के नए विदेशी अधिनियम द्वारा निरस्त) और अवैध प्रवासन निर्धारण न्यायाधिकरण अधिनियम, 1983 (जो अब निरस्त किया जा चुका है)। असम में, 1998 के निर्वाचन आयोग के आदेश और उससे पूर्व के निर्देशों के बाद, लाखों मतदाताओं को ‘D’ मतदाता यानी संदिग्ध मतदाता घोषित किया गया, जिनकी नागरिकता की स्थिति का निर्णय राज्य के विदेशी न्यायाधिकरणों (FTs) द्वारा किया जाना था। सत्ताईस साल बाद भी, लगभग 1.2 लाख ऐसे नागरिक हैं जो आज तक अपने मताधिकार से वंचित हैं। असम में इन न्यायाधिकरणों का गठन कानून के तहत अनिवार्य था, हालांकि उन्हें भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुरूप और संवैधानिक ढांचे के भीतर कार्य न करने को लेकर भारी आलोचना झेलनी पड़ी है। लेकिन बिहार और भारत के अन्य हिस्सों में, जहां आय़ोग ने विस्तारित SIR लागू करने की चेतावनी दी है, वहां ऐसे किसी न्यायाधिकरण के गठन का कोई वैधानिक प्रावधान मौजूद नहीं है।

असम में प्रचलित व्यवस्था के तहत, मतदाता सूची में शामिल “संदिग्ध/विवादित” लोगों के संबंध में अंतिम निर्णय भारत निर्वाचन आयोग के अधिकार क्षेत्र में आता है। जब आयोग को किसी व्यक्ति की नागरिकता को लेकर उचित संदेह होता है और वह संतुष्ट नहीं होता, तो वह ऐसे सभी मामलों को “प्राधिकृत प्राधिकरण” को भेज सकता है, जिसे विदेशी अधिनियम, 1946 के तहत गठित न्यायाधिकरण (Tribunal) होना अनिवार्य किया गया है।

जिस व्यक्ति की नागरिकता की स्थिति संदिग्ध है और जिसका मामला विदेशी न्यायाधिकरण (Foreigners Tribunal) के समक्ष विचाराधीन है, वह तब तक मतदान के पात्र नहीं होता जब तक न्यायाधिकरण यह निर्णय न दे दे कि वह भारत का नागरिक है। जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है, यदि यह निर्णय प्रक्रिया नौकरशाही की देरी के चक्कर में फंस जाती है, तो उस व्यक्ति का संविधान द्वारा प्रदत्त मताधिकार छिन जाता है। ऐसे सभी व्यक्ति जिनके नाम के आगे निर्वाचन नामावली में ‘D’ अंकित है, अर्थात् जिनकी नागरिकता संदिग्ध मानी गई है, उन्हें किसी भी आगामी आम चुनाव में मतदान करने से वंचित कर दिया जाएगा। यह प्रतिबंध तब तक लागू रहेगा जब तक कोई उपयुक्त न्यायाधिकरण उनके पक्ष में निर्णय न दे दे। न्यायाधिकरण से प्रतिकूल निर्णय आने की आशंका-जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति को आधिकारिक रूप से "विदेशी" घोषित किया जा सकता है-के साथ ही एक बड़ा डर भी कायम है जिसमें संभावित हिरासत, सभी मौलिक अधिकारों की समाप्ति और अपने ही देश में अपनी पहचान व अधिकारों के पूरी तरह समाप्त हो जाने का खतरा शामिल है। उल्लेखनीय है कि इस प्रक्रिया के लिए कोई विधायी ढांचा (legislative framework) मौजूद नहीं है, और वर्तमान में इसे जिस प्रकार कार्यपालिका के आदेशों (executive diktat) के तहत लागू किया जा रहा है, वह गंभीर संवैधानिक चिंता का विषय है।

संवैधानिक और वैधानिक आधार

पूरा चुनावी पुनरीक्षण प्रक्रिया भारत के चुनावों से संबंधित संवैधानिक और कानूनी ढांचे में मजबूती से निहित है। इन नियमों के लिए मूलभूत प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 326 और 327 हैं। अनुच्छेद 326 वयस्क मताधिकार के सिद्धांत को स्थापित करता है, जिसमें कहा गया है कि चुनाव इस आधार पर होंगे कि भारत के प्रत्येक नागरिक, जिसकी आयु कम से कम अठारह वर्ष हो, उसे मतदाता के रूप में पंजीकृत किए जाने का अधिकार होगा, बशर्ते कि वह कानून द्वारा किसी भी तरह अयोग्य न हो। यह अनुच्छेद भारतीय नागरिकता को मतदान अधिकार के लिए एक आवश्यक शर्त बनाता है। अनुच्छेद 327 संसद को सभी चुनाव संबंधी मामलों, जिसमें निर्वाचन नामावली की तैयारी भी शामिल है, पर कानून बनाने का अधिकार देता है। हालांकि, यह अधिकार स्पष्ट रूप से “संविधान के प्रावधानों के अधीन” है, अर्थात् संसद द्वारा पारित किया गया कोई भी कानून अनुच्छेद 326 में वर्णित सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए।

इस संवैधानिक अधिकार के तहत, संसद ने रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपल एक्ट, 1950 (पंजीकरण के लिए) और रिप्रेजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट, 1951 (चुनाव कराने के लिए) बनाए। 1950 के अधिनियम की धारा 16 में “पंजीकरण के लिए अयोग्यताएं” बताई गई हैं, जिसमें खासतौर पर कहा गया है कि जो व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है, वह अयोग्य है। साथ ही, 1951 के अधिनियम की धारा 62 में “मतदान का अधिकार” बताया गया है। धारा 62 की उप-धारा (1) के अनुसार, जो व्यक्ति मतदाता सूची में शामिल है, उसे वोट देने का अधिकार है, लेकिन उप-धारा (2) में एक अहम शर्त है कि जो कोई भी धारा 16 (1950) में बताई गई अयोग्यताओं में आता है, वह वोट नहीं दे सकता। इसका मतलब साफ है कि अगर गलती से किसी गैर-नागरिक का नाम मतदाता सूची में आ भी गया हो, तो उसे वोट देने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है। ये योग्यताओं की जांच मतदाता सूची तैयार करने और संशोधित करने के दौरान की जाती है, और अगर कोई व्यक्ति अयोग्य पाया जाता है तो उसका नाम हटा दिया जाता है और उसे वोट देने से रोका जाता है।

निर्वाचन आयोग ने घर-घर जाकर मतदाता सत्यापन के लिए बूथ स्तर अधिकारी (BLO) तैनात किए

बिहार में, आयोग ने हजारों बूथ स्तर अधिकारियों को तैनात किया है जो घर-घर जाकर व्यापक मतदाता सत्यापन अभियान चलाएंगे। निर्देशों के अनुसार, BLO घर-घर सर्वेक्षण करेंगे, पूर्व-भरे हुए मतदाता सूची फॉर्म बांटेंगे और इकट्ठा करेंगे, साथ ही मौजूदा मतदाताओं से जरूरी दस्तावेज भी लेंगे। ये फॉर्म आयोग की वेबसाइट से डाउनलोड भी किए जा सकते हैं या ऑनलाइन भरकर अपलोड भी किए जा सकते हैं। पारदर्शिता और गोपनीयता बनाए रखने के लिए, सत्यापन दस्तावेज ECINET नामक एक सुरक्षित प्लेटफॉर्म पर अपलोड किए जाएंगे, जिसे केवल अधिकृत चुनाव अधिकारी ही देख सकेंगे।

चुनाव आयोग ने राजनीतिक पार्टियों से भी सक्रिय भागीदारी का अनुरोध किया है और उन्हें बूथ स्तर एजेंट (BLA) नियुक्त करने को कहा है ताकि मतदाता सूची में गलतियों को जल्दी ठीक किया जा सके। मतदाताओं या राजनीतिक पार्टियों द्वारा उठाए गए दावे और आपत्तियों का मूल्यांकन सहायक चुनाव पंजीयन अधिकारी (AEROs) करेंगे। सभी दावे और आपत्तियां निपटाने के बाद अंतिम मतदाता सूची चुनाव पंजीयन अधिकारी (EROs) द्वारा प्रकाशित की जाएगी। ये ड्राफ्ट फाइनल रॉल 1 अगस्त, 2025 को प्रकाशित होने वाली है और इसे आयोग और मुख्य निर्वाचन अधिकारी की वेबसाइटों पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जाएगा, साथ ही मान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टियों के साथ भी साझा किया जाएगा।

निर्वाचन आयोग के व्यापक अधिकार (Plenary Powers)

संविधान का अनुच्छेद 324 एक मूल प्रावधान है, जो भारत निर्वाचन आयोग को राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय चुनावों के संचालन की पूरी जिम्मेदारी सौंपता है। इसमें वह सभी आवश्यक शक्तियां शामिल हैं जो इस कर्तव्य को प्रभावी ढंग से निभाने के लिए जरूरी होती हैं। विशेष रूप से, अनुच्छेद 324 निर्वाचन आयोग को संसद और प्रत्येक राज्य विधानसभा के लिए निर्वाचन सूची तैयार करने और चुनाव कराने से संबंधित पर्यवेक्षण (superintendence), दिशा-निर्देशन (direction), और नियंत्रण (control) की पूर्ण शक्तियां प्रदान करता है। ये शक्तियां तब और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती हैं जब किसी विशेष मामले में स्पष्ट कानून मौजूद न हो। इसके साथ ही, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 (RP Act, 1950) की धाराएं 21 और 22 आयोग की इस अधिकारिता को मान्यता देती हैं, जो मतदाता सूची की तैयारी और उसमें सुधार से संबंधित सामान्य या विशेष निर्देश जारी करने की अनुमति देती हैं।

यह ध्यान देना अहम है कि सुप्रीम कोर्ट ने मोहनदर सिंह गिल बनाम मुख्य चुनाव आयुक्त (1978) 1 SCC 405 के मामले में इस व्यापक अधिकार की सीमाएं स्पष्ट की थीं। अदालत ने यह निर्णय दिया कि हालांकि चुनाव आयोग उन क्षेत्रों में निर्देश और आदेश जारी कर सकता है जो कानून द्वारा नियंत्रित नहीं हैं, लेकिन इस अधिकार का इस्तेमाल दुर्भावनापूर्ण, मनमाने या पक्षपातपूर्ण तरीके से नहीं किया जाना चाहिए, और न ही बिना उचित विचार-विमर्श के।

एसआईआर (SIR) स्थिति 8 जुलाई तक

24 जून 2025 तक, बिहार की मतदाता सूची में लगभग 7.90 करोड़ मतदाता (7,89,69,844) शामिल थे। चुनाव आयोग ने विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान में उल्लेखनीय प्रगति की रिपोर्ट दी है। 5 जुलाई 2025, शाम 6:00 बजे तक, लगभग 1.04 करोड़ गणना प्रपत्र (Enumeration Forms) प्राप्त हुए थे, जो कुल मतदाताओं का 13.19% है, जबकि 93.57% प्रपत्र बांटे जा चुके थे। यह स्थित जारी रही और 6 जुलाई 2025, शाम 6:00 बजे तक, प्राप्त प्रपत्रों की संख्या बढ़कर 1.69 करोड़ (21.46%) हो गई, जिनमें से 65.33 लाख प्रपत्र पिछले 24 घंटों में प्राप्त हुए। 7 जुलाई 2025, शाम 6:00 बजे तक, प्राप्त प्रपत्रों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई और यह आंकड़ा 2.88 करोड़ (36.47%) तक पहुंच गया, जिनमें 1.18 करोड़ प्रपत्र केवल पिछले 24 घंटों में जमा किए गए। चुनाव आयोग को उम्मीद है कि 25 जुलाई 2025 की समय-सीमा से पहले ही गणना प्रपत्रों का संग्रह पूरा कर लिया जाएगा, क्योंकि 8 जुलाई 2025, शाम 6:00 बजे तक, यानी SIR निर्देश जारी होने के सिर्फ 14 दिन बाद, आयोग को 3.71 करोड़ प्रपत्र (46.95%) प्राप्त हो चुके हैं।

अगर सुप्रीम कोर्ट इस पूरे प्रक्रिया के व्यापक और समस्याग्रस्त प्रभावों को समझता है, तो यह संभावना है कि याचिकाओं पर विस्तार से सुनवाई और बहस होगी। भारत की जनता चिंता के साथ उनके नतीजों का इंतजार करेगी।

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