बिहार वोटर लिस्ट की जांच: जनवरी में अपडेट के बाद भी चुनाव आयोग ने मतदाता सूची को बताया दोषपूर्ण

Written by sabrang india | Published on: July 7, 2025
रिकॉर्ड से पता चलता है कि जनवरी 2025 तक बिहार की वोटर लिस्ट की अच्छे से जांच और अपडेट कर ली गई थी। ये लिस्ट सही पाई गई थी। अफसर जून तक भी इसे अपडेट कर रहे थे। लेकिन अचानक चुनाव आयोग ने इसे त्रुटिपूर्ण बताते हुए खारिज कर दिया और मतदाताओं की पूरी तरह से नए सिरे से जांच कराने का अभूतपूर्व आदेश दिया। इससे अफरा-तफरी मच गई।


फोटो साभार : इंडिया टीवी (फायल फोटो)

11 जून 2024 को बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के मेघुआ गांव के तबरेज आलम ने अपने इलाके के बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ) को एक फॉर्म जमा किया, जिसमें उन्होंने वोटर लिस्ट से हुसैन शेख का नाम हटाने की गुजारिश की। हुसैन की मौत हो चुकी थी। नवंबर तक चुनाव अधिकारियों ने तबरेज की पहचान और उसकी बात की जांच कर ली। जनवरी 2025 तक तबरेज की दरख्वास्त पर हुसैन शेख का नाम बिहार की वोटर लिस्ट से हटा दिया गया।

पांच महीने बाद उसी 37 वर्षीय के तबरेज को चुनाव आयोग ने मजबूर किया कि वो कागजी सबूतों के साथ ये साबित करे कि वो जिंदा है, भारतीय नागरिक है और अपने गांव में इतना समय बिताता है कि उसे आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में वोट डालने का अधिकार मिल सके।

बिहार में तबरेज जैसे लाखों लोग हैं, जिन्होंने पिछले पांच लोकसभा और पांच विधानसभा चुनावों में एक या सभी में वोट डाला होगा। लेकिन अब उन्हें अपना वोट देने का हक साबित करने के लिए जल्द से जल्द दस्तावेज़ी सबूत पेश करने पड़ रहे हैं। अगर वो ऐसा नहीं कर पाए तो कानून की नजर में उनकी नागरिकता पर सवाल खड़ा हो सकता है और उन्हें संदिग्ध नागरिक माना जा सकता है।

ये सब उस अचानक लिए गए फैसले का नतीजा है, जो भारत के चुनाव आयोग ने 24 जून को लिया जिसमें बिहार की वोटर लिस्ट को पूरी तरह से दोबारा बनाने का आदेश दिया गया। आयोग ने इसे “स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न” यानी विशेष गहन पुनरीक्षण कहा है।

इस फैसले का मतलब है कि 2003 से अब तक वोटर लिस्ट में शामिल हुए करोड़ों लोगों की वैधता अब मान्य नहीं रह जाती जब तक वे अपनी नागरिकता, पहचान और सामान्य निवास का सबूत दोबारा और जल्दी से जल्दी नहीं दे देते। अब सभी को अपने वोट देने के अधिकार का सबूत नए सिरे से देना होगा। जो लोग 2003 से पहले वोटर लिस्ट में शामिल हुए थे उन्हें भी अपने नाम जुड़ने का सबूत दिखाना पड़ सकता है।

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने रिकॉर्ड की समीक्षा की और पाया कि चुनाव आयोग का ये फैसला एक अचानक यू-टर्न था, जिसने राज्य की चुनावी मशीनरी को हैरानी में डाल दिया। हमें ऐसे सबूत मिले हैं कि 24 जून को ईसीआई के इस आदेश से ठीक कुछ दिन पहले तक राज्य के अधिकारी कानूनी तौर पर तय और अपनाए गए तरीकों से वोटर लिस्ट को नियमित रूप से अपडेट कर रहे थे।

दरअसल, बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी के इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड से पता चलता है कि जून 2024 से जनवरी 2025 के बीच राज्य की चुनावी टीम ने वोटर लिस्ट का संशोधन पूरा कर लिया था, जिसे “स्पेशल समरी रिविजन 2025” कहा गया।

यह चुनाव आयोग की उस बात के बिल्कुल उलट है, जिसमें उन्होंने कहा था कि बिहार का मौजूदा मतदाता डेटाबेस इतनी खराब हालत में है कि उसे पूरी तरह से नया बनाना जरूरी है।
हमारे द्वारा देखे गए सबूतों से पता चलता है कि चुनाव आयोग के दावों के विपरीत, जून 2025 के महीने में भी यानी आदेश से कुछ दिन पहले बिहार में चुनाव आयोग और उसके अधिकारी 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए अंतिम रूप से तैयार की गई मौजूदा मतदाता सूची को वैध मान रहे थे। हमने पाया कि वे इसी मतदाता सूची का इस्तेमाल करके नियमित रूप से वोटरों के नाम जोड़ने, हटाने और अपडेट करने का काम कर रहे थे।

हमने बिहार चुनाव आयोग के कार्यालय के अधिकारियों से बात की, साथ ही हाल के वर्षों में भारत के चुनाव आयोग में उच्च पदों पर काम कर चुके दो लोगों से भी बातचीत की। इसके अलावा, हमने बिहार के दर्जन भर से ज्यादा बूथ लेवल अधिकारियों से भी बात की जो चुनाव और मतदाता सूची के अंतिम स्तर पर काम करते हैं। वे सभी अपनी पहचान गुप्त रखना चाहते थे। हम उनकी उन बातों का हवाला दे रहे हैं जिन्हें हम स्वतंत्र रूप से जांच-पड़ताल कर सही साबित कर सके।

हम जिन दो पूर्व चुनाव आयोग के अधिकारियों से मिले उनमें से एक ने कहा कि यह पहली बार है जब चुनाव आयोग ने ऐसा “विघटनकारी” (disruptive) काम किया है, जो बिना किसी वजह के 2003 से पहले नामांकन करने वाले वोटरों और बाद में नामांकन करने वालों के बीच भेदभाव करता है।

उन्होंने कहा, “अगर चुनाव आयोग 2003 के बाद पंजीकृत सभी वोटरों से सिर्फ कुछ सीमित दस्तावेजों के साथ अपने मतदान अधिकार को साबित करने को कह रहा है, तो इसका मतलब है कि चुनाव आयोग यह मान रहा है कि पिछले पांच लोकसभा चुनावों और पिछले पांच विधानसभा चुनावों (2003 के बाद) में वोट डालने वाले चिंताजनक संख्या में लोग या तो धोखाधड़ी कर रहे थे या उनका वोटिंग अधिकार गलत था। क्या ऐसा है?”

उन्होंने आगे कहा, “अगर ऐसा है, तो वर्षों से मतदाता सूची तैयार करने में लगे सरकारी तंत्र और अधिकारियों, चाहे वे सबसे ऊंचे पद पर हों या सबसे निचले, सभी पर बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी या गंभीर गलतियों को नजरअंदाज करने या उसमें मदद करने का आरोप लगेगा। मुझे यह यकीन नहीं होता।”

दूसरे पूर्व चुनाव आयोग अधिकारी ने कहा, “व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो पूरे बिहार की मतदाता सूची को बहुत ही कम समय में नए सिरे से तैयार किया जा रहा है। चुनाव आयोग के पास यह अधिकार है कि वह मतदाता सूची को साफ और दुरुस्त बनाए रखने के लिए जरूरी कदम उठाए। लेकिन इस मामले में, मेरी राय में आयोग ने अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल गलत उद्देश्य के लिए किया है। यह प्रक्रिया न सिर्फ लोगों का वोट देने का हक छीन सकती है, बल्कि उनकी नागरिकता पर भी अनुचित शक पैदा कर सकती है।”

लेखक ने चुनाव आयोग को इस बारे में सवाल भेजे हैं। अभी तक उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं मिला है। अगर वे जवाब देते हैं, तो इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा।

जून के कुछ ही दिनों के भीतर चुनाव आयोग ने ऐसा कौन-सा सबूत जुटाया, जिसके आधार पर बिहार की जारी वोटर लिस्ट अपडेट प्रक्रिया, हाल ही में वैध रूप से पूरी हुई स्पेशल समरी रिविज़न और अन्य संशोधनों को पूरी तरह से खारिज कर दिया गया? इस रिपोर्ट के लिए जुटाए गए साक्ष्य यह इशारा करते हैं कि राज्यभर में किसी भी बड़े पैमाने की गड़बड़ी या विसंगति दर्ज नहीं हुई थी, जो कि मतदाता सूची को पूरी तरह से फिर से शुरू करने जैसे कदम को जायज ठहराए।

जैसा कि हमारी रिपोर्ट में बताया गया है, बिहार में मतदाता सूची को संशोधित करने का 30 दिन का यह अभियान फिलहाल जारी है। चुनाव आयोग अब भी यह दावा कर रहा है कि यह प्रक्रिया सुचारू रूप से चल रही है और उसने पूरे देश में इसे लागू करने के अपने आदेश से पीछे हटने का कोई संकेत नहीं दिया है।

चुनाव आयोग बनाम नियम

मृत्यु, पलायन या शहरीकरण के कारण मतदाता सूचियों को समय-समय पर अपडेट करना जरूरी होता है। इस प्रक्रिया को लेकर विधिक नियम भी तय हैं। 1960 के निर्वाचक नामावली पंजीकरण नियम (Registration of Electors Rules, 1960) में मतदाता सूची के संशोधन के तीन वैध तरीके बताए गए हैं:

गहन पुनरीक्षण – एक नया मतदाता सूची बनाना, जिसमें पहले से मौजूद किसी भी मतदाता सूची का कोई संदर्भ न हो और 100 प्रतिशत घर-घर जाकर सत्यापन किया जाए।

संक्षिप्त पुनरीक्षण – एक वार्षिक प्रक्रिया जिसमें बूथ लेवल ऑफिसर आम जनता से मतदाता सूची में त्रुटियों के संबंध में दावे और आपत्तियां मांगते हैं, उनका सत्यापन करते हैं और अंतिम सूची प्रकाशित करते हैं।
‘आंशिक रूप से संक्षिप्त और आंशिक रूप से गहन पुनरीक्षण’ – ऊपर बताई गई दोनों तकनीकों का मिश्रण।

ये नियम इसे परिभाषित नहीं करते हैं, लेकिन चुनाव आयोग के मैनुअल में चौथे प्रकार के पुनरीक्षण का विवरण है, जिसे विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (Special Summary Revision) कहा जाता है। यह तब शुरू होता है जब आयोग नियमित पुनरीक्षण के रास्तों में असफलता के क्षेत्र (pockets of failure) पाता है। आयोग इन कमियों को दर्ज करता है और फिर विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण की सूचना देता है।

चुनाव आयोग ने अब बिहार के लिए और बाद में पूरे भारत के लिए जो आदेश दिया है उसे ‘विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR)’ नाम दिया गया है। यह शब्द नियमों में मौजूद नहीं है और मतदाता सूची के पुनरीक्षण से संबंधित नियमों में इसे परिभाषित नहीं किया गया है।

एसआईआर के अंतर्गत, चुनाव आयोग ने निम्नलिखित आदेश दिए हैं:

2003 तक पंजीकृत मतदाताओं को यह प्रमाण देना होगा कि वे उस वर्ष की मतदाता सूची में शामिल थे।

40 वर्ष से ज्यादा उम्र के मतदाता जो 2003 की मतदाता सूची में नहीं हैं, उन्हें अपनी नागरिकता, पहचान और निवास का दस्तावेजी प्रमाण देना होगा।

21 से 40 वर्ष के बीच के मतदाताओं को या तो अपने माता-पिता का 2003 की मतदाता सूची में पंजीकृत होने का प्रमाण दिखाना होगा या अपनी पहचान, नागरिकता के साथ-साथ अपने किसी माता-पिता में से किसी एक की पहचान और नागरिकता का प्रमाण देना होगा। वे 2003 की मतदाता सूची में शामिल होने के लिए बहुत कम उम्र के थे, जिसे पुनरीक्षण के आधार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।

2004 के बाद जन्मे यानी 21 वर्ष से कम आयु के मतदाताओं को या तो अपने माता-पिता का 2003 की मतदाता सूची में पंजीकृत होने का प्रमाण दिखाना होगा या अपनी पहचान और नागरिकता का प्रमाण देना होगा, साथ ही अपने दोनों माता-पिता की नागरिकता और पहचान का दस्तावेजी प्रमाण भी पेश करना होगा।

मतदाताओं के पास प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए 30 दिन का समय होगा और यदि उनका नाम हटाया जाता है या गलत तरीके से दर्ज किया जाता है तो उसे चुनौती देने के लिए अतिरिक्त 30 दिन का समय मिलेगा।
भारतीय चुनावी इतिहास में इस तरह के पुनरीक्षण का कोई उदाहरण नहीं है। आखिरी बार जब चुनाव आयोग ने 2002-2003 में ‘विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR)’ नामक प्रक्रिया शुरू की थी, तो वह एक वर्ष से ज्यादा समय तक चलने वाली विस्तृत प्रक्रिया थी, न कि चुनावों से ठीक पहले की तीन महीने की त्वरित और जल्दी की गई प्रक्रिया। उतना ही अहम यह है कि 2003 के एसआईआर में उन मतदाताओं के बीच कोई भेदभाव नहीं किया गया था जो किसी एक अवधि में पंजीकृत हुए थे और जो दूसरे समय में दर्ज किए गए थे, जैसा कि द क्लेक्टिव द्वारा समीक्षा किए गए चुनाव आयोग के मैनुअल दिखाते हैं।

केवल इसे ‘विशेष’ कहकर, चुनाव आयोग ने एक नए नाममात्र के नामांकन प्रक्रिया को अपनाया है जो विभिन्न नागरिकों के साथ भेदभाव करती है और नई मतदाता सूची में शामिल होने के लिए लोगों से अलग-अलग स्तर के प्रमाण मांगती है।

अपने नोटिफिकेशन में चुनाव आयोग ने दावा किया है कि यह विशेष अभियान आवश्यक था क्योंकि, “आयोग ने पाया है कि पिछले 20 वर्षों में मतदाता सूची में बड़ी संख्या में जोड़ने-हटाने के कारण महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। तेज शहरीकरण और आबादी का बार-बार पलायन... यह एक नियमित प्रवृत्ति बन गया है।”

बिहार निर्वाचन अधिकारी के रिकॉर्ड से मिले प्रमाण इसके विपरीत संकेत देते हैं।

हाल ही में संपन्न विशेष पुनरीक्षण अब समाप्त हो चुका है

रिकॉर्ड बताते हैं कि चुनाव आयोग के निर्देशों के तहत बिहार का चुनावी तंत्र हाल ही में मतदाता सूची का एक विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण पूरा कर चुका है। यह कार्य जून 2024 में शुरू हुआ था और नवंबर 2024 तक जारी रहा। पूरे विस्तृत कार्य के बाद, अंतिम सूची जनवरी 2025 में अपलोड की गई, यह भी चुनाव आयोग के रिकॉर्ड दिखाते हैं।

जैसा कि रिकॉर्ड में दर्ज है आपत्तियों और प्रस्तुतियों के आधार पर इस सूची में नाम जोड़ने, हटाने और बदलाव का कार्य नियमों के अनुसार जून तक जारी था। यह प्रक्रिया अंतिम चरणों में थी, जब चुनाव आयोग ने अचानक 24 जून को प्रक्रिया बदलते हुए अभूतपूर्व रूप से मतदाता सूची को पूरी तरह से नए सिरे से तैयार करने का आदेश दे दिया।

बिहार में चुनाव प्रक्रिया से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “पुनरीक्षण के बाद हमें इसकी गुणवत्ता का मूल्यांकन कुछ विशेष मानकों पर करना होता है - जैसे अनुमानित जनसंख्या और मतदाता अनुपात, लिंगानुपात, आयु वर्ग के अनुसार विश्लेषण, तथा पिछले तीन वर्षों में प्रत्येक मतदान केंद्र पर असामान्य रूप से हुए नाम जोड़ने या हटाने की प्रवृत्ति। यदि इस जांच में कोई गड़बड़ी पाई जाती है, तो उसे चुनाव आयोग को रिपोर्ट किया जाता है। जहां तक जनवरी 2025 में संपन्न प्रक्रिया का सवाल है मैं यह नहीं कह सकता कि हमें पूरे राज्य स्तर पर कोई ऐसी गड़बड़ी मिली।”

उन्होंने जनवरी 2025 के बाद मतदाता सूची की स्थिति पर तैयार की गई मानक रिपोर्टें साझा कीं। हमने इन रिपोर्टों की तुलना पिछले वर्षों की मतदाता सूचियों पर तैयार रिपोर्टों से की। राज्य स्तर पर इकट्ठा किए गए आंकड़ों में, जनवरी 2025 की मतदाता सूची रिपोर्ट में सभी अनुपात 2024, 2023, 2022 और 2021 की अंतिम मतदाता सूचियों की सीमा के भीतर ही पाए गए। यह संकेत देता है कि इस वर्ष के अपडेट में कोई असामान्य प्रवृत्ति सामने नहीं आई।

अधिकारी ने कहा, “हाल ही में संपन्न विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण में राज्य भर में ऐसी कोई बड़ी अनियमितता नहीं पाई गई जिसे चुनाव आयोग को रिपोर्ट किया जाए।”

इन रिपोर्टों के एक भाग में निर्वाचन क्षेत्रवार प्रवास किए हुए मतदाताओं की जानकारी भी दी गई है। हमने इस रिपोर्ट की समीक्षा की। जनवरी 2025 की पुनरीक्षण रिपोर्ट के अनुसार, 1,91,222 मतदाताओं को प्रक्रिया के दौरान स्थानांतरित (माइग्रेटेड) पाया गया। रिकॉर्ड के अनुसार, चुनाव आयोग के दावे के उलट बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण की प्रक्रिया हर वर्ष प्रवास के आंकड़ों को भी व्यवस्थित रूप से दर्ज कर रही है।

चुनाव आयोग ने अपने उस दावे के समर्थन में कोई आंकड़ा या प्रमाण पेश नहीं किया है, जिसमें उसने मतदाता सूची में बड़ी खामियों की बात कही, जबकि यही सूची उसके आदेश से ठीक कुछ दिन पहले तक इस्तेमाल में थी। वहीं, राज्य के अधिकारियों ने भी जनवरी 2025 की विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण प्रक्रिया के दौरान ऐसी किसी बड़ी खामी की पहचान किए जाने का दावा नहीं किया है।

सेवानिवृत्त चुनाव आयोग अधिकारी ने कहा, “2003 में कई राज्यों में विशेष गहन पुनरीक्षण इसलिए किया गया था क्योंकि रिकॉर्डों का कम्प्यूटरीकरण किया जाना था। उस प्रक्रिया में सभी नागरिकों को समान रूप से देखा गया और सभी को अपने दस्तावेज पेश कर अपने मताधिकार के लिए पर्याप्त समय दिया गया था। लेकिन इस बार चुनाव आयोग ने न तो राजनीतिक दलों और न ही आम नागरिकों को कोई ठोस सबूत दिया है, और बेहद कम समय में अलग-अलग नागरिकों के लिए पहचान साबित करने के अलग-अलग तरीके लागू कर दिए हैं।”

चुनाव आयोग के इस जल्दबाजी में दिए गए आदेशों से कई चिंताएं भी पैदा हुई हैं। इनमें से एक चिंता यह है कि इस तेज प्रक्रिया में जिन लोगों के नाम मतदाता सूची से छूट जाते हैं, उनकी नागरिकता को लेकर संदेह पैदा हो सकता है।

संदिग्ध नागरिक

कानून कहता है कि केवल नागरिक ही वोट डाल सकते हैं। लेकिन किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित करने वाले आधिकारिक रिकॉर्ड एक ऐसी पेचीदा पहेली बने हुए हैं जिसका समाधान मुश्किल है। इसलिए, व्यवहार में चुनाव आयोग इस बात का अंतिम निर्णायक बनने से बचता रहा है कि कौन नागरिक है और कौन नहीं। मतदाता पहचान पत्र जारी करने के लिए उसने पहचान के लिए विभिन्न प्रकार के दस्तावेज स्वीकार किए हैं।

इस बार, चुनाव आयोग ने अपने आदेशों में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि मतदाताओं की नागरिकता का सत्यापन किया जाना चाहिए। इसका बिहार में जमीनी स्तर पर व्यापक प्रभाव पड़ा है।

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने बिहार के अररिया जिले के जिला अधिकारियों का एक वीडियो देखा, जिसमें वे स्पष्ट रूप से लोगों को बता रहे थे कि इस प्रक्रिया का उद्देश्य उन सभी मतदाताओं की नागरिकता की पुष्टि करना है जो दशकों पुरानी 2003 की मतदाता सूची में शामिल नहीं थे।

सेवानिवृत्त चुनाव आयोग अधिकारी ने कहा, “असम में ऐसी एक प्रक्रिया का हमारा पहले का अनुभव है, जहां  मतदाताओं को ‘संदिग्ध’ सूची में डाल दिया गया था और उन्हें मतदान की अनुमति नहीं दी गई थी। लगभग दो दशकों बाद भी हमें नहीं पता कि उनका और उनके अधिकारों का क्या हुआ। किसी ने भी उस पर ध्यान नहीं दिया। मैं ऐसी जल्दबाजी वाली प्रक्रिया को लेकर सतर्क हूं, जो पूरे देश में संदिग्ध नागरिकों की सूची बनाने का कारण बन सकती है।”

उन्होंने आगे कहा, “फिर चुनाव आयोग के उन उलझे हुए निर्देशों के कारण कि नागरिक अपने मताधिकार के प्रमाण के रूप में कौन-कौन से दस्तावेज़ प्रस्तुत कर सकते हैं, लोगों के लिए यह बहुत ही भ्रमित करने वाला और मुश्किल हो जाएगा। उन्हें एक स्पष्ट और विस्तृत सूची तैयार करनी चाहिए थी।”

आप अपनी पहचान कैसे साबित करें

सेवानिवृत्त अधिकारी चुनाव आयोग के आदेशों का संदर्भ दे रहे थे, जिनमें कहा गया है कि नागरिकों को अपना मतदान अधिकार साबित करने के लिए आदेश में सूचीबद्ध 11 दस्तावेजों में से कोई एक प्रस्तुत करना होगा। इसमें आधार कार्ड और राशन कार्ड को शामिल नहीं किया गया है। यह डर जताया गया है कि नकली आधार कार्डों की संख्या बढ़ रही है और सरकारी मशीनरी उनकी बायोमेट्रिक तरीके से पुष्टि करने में असमर्थ है।

दस्तावेजों का उल्लेख करने के बाद चुनाव आयोग के आदेश में कहा गया है कि यह पूरी सूची नहीं है। इससे भ्रम पैदा हो गया है।

बिहार के एक अधिकारी ने बताया, "क्षेत्र के अधिकारियों के लिए इसे खुला छोड़ना सही नहीं है। ये गलत तरीके से बनाए गए आदेश हैं। चुनाव आयोग को यह स्पष्ट और पूरी सूची देनी चाहिए थी कि कौन-कौन से दस्तावेज प्रस्तुत किए जा सकते हैं।"

आधार कार्ड को मतदाता सत्यापन के लिए 11 मंजूर दस्तावेजों की सूची से बाहर करना किसी की नजर से नहीं छुपा है। जबकि चुनाव आयोग ने इस मसले से बचने के लिए अपनी दस्तावेज सूची को 'संकेतात्मक (पूर्ण नहीं)' बताया है, बिहार के आधिकारिक सूचना माध्यम इसे ही एकमात्र स्वीकार्य दस्तावेज के रूप में बता रहे हैं, जो विरोधाभासी है।

बिहार सरकार की आधिकारिक क्षेत्रीय समाचार इकाई के ट्विटर अकाउंट ने विशेष गहन पुनरीक्षण को लेकर जागरूकता बढ़ाने के लिए एक ग्राफिक ट्वीट में उन 11 दस्तावेजों को सूचीबद्ध किया, जिन्हें अनिवार्य रूप से जमा करना बताया गया था। लेकिन उसमें "यह सूची पूर्ण नहीं है" (not exhaustive) जैसा महत्वपूर्ण संकेत गायब था।

इस पुनरीक्षण प्रक्रिया को अंजाम देने की जिम्मेदारी जिन बूथ लेवल ऑफिसर (BLOs) को सौंपी गई है, उन्हें दिए गए निर्देश इससे भी ज्यादा स्पष्ट थे। अररिया जिले के एक बीएलओ गणेश लाल रजक ने बताया, “प्रशिक्षण के दौरान हमें साफ-साफ कहा गया कि आधार या राशन कार्ड को जन्म या निवास प्रमाण के तौर पर स्वीकार नहीं करना है।”

चुनाव आयोग द्वारा प्रकाशित 2023 का मतदाता सूची मार्गदर्शिका (Manual of Electoral Rolls) आधार कार्ड को उम्र और निवास प्रमाण के रूप में स्वीकार्य दस्तावेज के रूप में सूचीबद्ध करता है। यदि दस्तावेज उपलब्ध न हों, तो माता-पिता में से किसी एक का शपथपत्र या सत्यापन, या सरपंच का प्रमाणपत्र, यहां तक कि बूथ लेवल अधिकारी द्वारा की गई प्रत्यक्ष जांच भी उम्र के प्रमाण के रूप में मान्य मानी जाती है। दस्तावेजी साक्ष्य के अभाव में निवास प्रमाण स्थापित करने के लिए मतदाता पंजीकरण अधिकारी (Electoral Registration Officer) स्थानीय जांच भी कर सकता है।

आखिरी चरण की अफरातफरी

लेकिन फिलहाल, जैसा कि हम रिपोर्ट कर रहे हैं, यह प्रक्रिया बिहार में चल रही है। हमने कई बूथ लेवल अधिकारियों (BLOs) से बात की जिनकी जिम्मेदारी पूरे देश में मतदाता सूची के लिए फॉर्म वितरित करने और उन्हें साक्ष्यों सहित भरवाने की है।

नागरिकों की नाराजगी का सामना करने के बाद 30 दिन की इस प्रक्रिया के सिर्फ एक हफ्ते बीतने पर ही बूथ लेवल ऑफिसर को दिए गए निर्देशों में बदलाव कर दिया गया है। अब उन्हें कहा गया है कि वे नामांकन फॉर्म स्वीकार करते समय दस्तावेज़ी प्रमाण की मांग न करें।

द क्लेक्टिव से बात करने वाले कई बूथ लेवल ऑफिसर के अनुसार, 30 जून को चुनाव आयोग द्वारा विशेष गहन पुनरीक्षण की घोषणा किए जाने के पांच दिन बाद ही बीएलओ के प्रशिक्षण की प्रक्रिया शुरू हुई। जुलाई के पहले सप्ताह तक उन्हें घर-घर जाकर वितरित करने के लिए नामांकन फॉर्म (enumeration forms) उपलब्ध करा दिए गए थे।

सीतामढ़ी जिले के बूथ स्तर अधिकारी भरत भूषण ने द क्लेक्टिव को बताया, “हालांकि 25 जून से ही अखबारों में विशेष गहन पुनरीक्षण की खबरें आ रही थीं, लेकिन सरकार ने प्रशिक्षण शुरू करने में पांच दिन की देरी की। उसके बाद नामांकन फॉर्म देने में भी पांच दिन और लगा दिए।” भरत को 5 जुलाई को नामांकन फॉर्म मिले, जिन्हें उन्हें तीन हफ्तों के भीतर 900 से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना और वापस इकट्ठा करना है ताकि उन्हें नई मतदाता सूची में शामिल किया जा सके। भरत ने यह भी बताया कि वे नामांकन फॉर्म ऑनलाइन अपलोड करने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं, जिससे पूरी प्रक्रिया में काफी रुकावट आ रही है।

इस प्रक्रिया के शुरू होने के एक हफ्ते के भीतर ही बूथ लेवल ऑफिसर को दिए गए आदेशों में बदलाव कर दिया गया है। द क्लेक्टिव से बात करने वाले कई अधिकारियों ने बताया कि अब वे केवल भरे हुए नामांकन फॉर्म इकट्ठा कर रहे हैं, जिनमें नया फोटो लगा हो बिना किसी आवश्यक दस्तावेज को संलग्न किए। यह निर्देश उन्हें मौखिक रूप से ऊपर से मिला है, ताकि कम से कम फॉर्म भरवाने का काम तो पूरा हो सके।
अररिया जिले की रीना कुमारी ने द क्लेक्टिव को बताया, “मुझे पहचान संबंधी दस्तावेज नामांकन फॉर्म के साथ ऑनलाइन अपलोड करने में दिक्कत हो रही थी, तो मुझे निर्देश दिया गया कि बस फॉर्म भरवाकर अपलोड कर दूं, दस्तावेज संलग्न करना जरूरी नहीं है।”

6 जुलाई को बिहार के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी के कार्यालय ने एक विज्ञापन प्रकाशित किया, जिसमें इस पुनरीक्षण प्रक्रिया के लिए पहले से ज्यादा ढीले नियमों का उल्लेख किया गया। “जैसे ही आपको नामांकन फॉर्म प्राप्त हो… तुरंत भरें… यदि आवश्यक दस्तावेज और फोटो उपलब्ध नहीं हैं, तो केवल नामांकन फॉर्म भरकर बूथ लेवल ऑफिसर (BLO) को दे दें।”

द क्लेक्टिव यह पता लगाने में सक्षम नहीं हो पाया कि क्या बिना पहचान के आवश्यक दस्तावेजों के भरे गए नामांकन फॉर्म को मसौदा मतदाता सूची में शामिल किया जाएगा या नहीं। जमीनी स्तर पर काम करने वाले बूथ स्तर के अधिकारियों को भी इस बात के बारे में स्पष्ट निर्देश नहीं मिले हैं कि ऐसे मामलों को बिहार के चुनाव अधिकारियों द्वारा कैसे निपटाया जाएगा।

सुपौल जिले के बूथ लेवल ऑफिसर कृष्ण कुमार मंडल ने बताया कि उन्हें निर्देश दिया गया है कि जो नामांकन फॉर्म आधे-पूरे भरे हों और जिनके साथ पहचान के दस्तावेज न हों, उन्हें आगे की जांच के लिए अलग रख दिया जाए। “अगर हमें कोई ऐसा व्यक्ति मिलता है जो 11 दस्तावेजों में से कोई भी पेश नहीं कर पाता, तो हमें उसकी नामांकन फॉर्म फिर भी भरवानी होती है ताकि उसे ताकि उसे डराया न जाए और लोगों में नाराजगी पैदा न हो। लेकिन हम उन नामांकन फॉर्म को अलग रखेंगे और उन्हें ऑनलाइन अपलोड नहीं करेंगे। बाद में इन फॉर्मों का मूल्यांकन किया जाएगा कि इन्हें कैसे निपटाया जाए।”

निर्वाचन आयोग द्वारा बिहार के सभी 7 करोड़ से अधिक मतदाताओं के सत्यापन का आदेश दिया गया है। 6 जुलाई की शाम को केंद्र सरकार के एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि कुल नामांकन फॉर्म का 21.46 प्रतिशत जमा हो चुका है। विज्ञप्ति में यह भी कहा गया, “फॉर्म जमा करने की अंतिम तिथि तक अभी 19 दिन बाकी हैं।”

सरकार ने कहा, "बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) मतदाताओं के सक्रिय सहयोग से जमीनी स्तर पर सुचारू रूप से लागू किया जा रहा है।" हमने पाया कि जमीनी स्तर पर अधिकारियों को फॉर्म जमा करने वाले नागरिकों के कुछ वीडियो बनाने और उन्हें सोशल मीडिया पर डालने का काम भी सौंपा गया है, ताकि इस तरह के दावे को पुष्ट किया जा सके।

नोट : यह लेख मूलत: 'द रिपोर्टर्स क्लेक्टिव' वेबसाइट पर अंग्रेजी में प्रकाशित किया गया। इसके लेखक नितिन सेठी और आयुषी कर हैं।

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