अंबेडकर की जयंती के मौके पर पुणे से लेकर मध्य प्रदेश और उदयपुर तक तीन घटनाओं ने जातिगत भेदभाव और संस्थागत पूर्वाग्रह की गहरी खामियों को उजागर किया।

14 अप्रैल को पूरे भारत में डॉ. बी.आर. अंबेडकर की जयंती - संविधान के निर्माता और जाति-विरोधी एक महान प्रतीक - के रूप में मनाया जाता है। यह चिंतन, दावे और स्मरण का दिन है। फिर भी 2025 में, यह प्रतीकात्मक दिन भी भारतीय समाज और संस्थानों में स्थायी जातिगत पूर्वाग्रहों को उजागर करता है। एक प्रमुख विज्ञान संस्थान में अकादमिक लेक्चर को रद्द करने से लेकर अंबेडकर की जन्मस्थली में एक मंदिर में सामाजिक बहिष्कार और सार्वजनिक स्मरणोत्सव में पुलिस के हस्तक्षेप तक, अंबेडकर जयंती को लेकर होने वाली घटनाओं ने दिखाया कि सैद्धांतिक रूप में मनाए जाने के बावजूद दलितों का दावा व्यवहार में कैसे अस्वीकार्य है।
1. आईआईएसईआर पुणे: शैक्षणिक स्वतंत्रता पर अंकुश; अंबेडकर लेक्चर रद्द
पुणे स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (IISER) में अंबेडकर को सम्मानित करने तथा जाति, प्रतिरोध और समानता के बारे में बातचीत करने के लिए मुक्तिपर्व नामक सावधानी के साथ क्यूरेट किया गया छात्र-नेतृत्व वाला कार्यक्रम प्रशासन द्वारा अचानक रद्द कर दिया गया। इस लेक्चर में दीपाली साल्वे, नाज़िमा परवीन और स्मिता एम. पाटिल सहित जाति-विरोधी प्रमुख आवाज़ें शामिल होनी थीं। ये सभी सम्मानित विद्वान और महान बुद्धिजीवी हैं। छात्रों ने इस कार्यक्रम की तैयारियों में महीनों बिताए थे, जिसे डॉ. आंबेडकर की क्रांतिकारी विरासत पर चिंतन और विचार-विमर्श के एक मंच के रूप में आयोजित किया जाना था।
हालांकि, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) -एक दक्षिणपंथी छात्र समूह जिसने वक्ताओं को "धूर वामपंथी" करार दिया- द्वारा शिकायत किए जाने के कुछ ही घंटों के भीतर प्रशासन ने कार्यक्रम को रद्द कर दिया। ABVP द्वारा दर्ज की गई पुलिस शिकायत ने संस्थान पर दबाव डाला। IISER प्रशासन ने रद्द करने के कारण के रूप में अस्पष्ट "चिंताओं" का हवाला दिया, लेकिन यह बताने में विफल रहा कि चिंताएं क्या थीं, या उन्हें किसने उठाया। जवाब में छात्र परिषद और कई कैंपस समूहों ने इस फैसले की निंदा करते हुए इसे "अचानक और अनुचित" बताया और संस्थान पर राजनीतिक दबाव के आगे झुकने का आरोप लगाया।
एससी/एसटी संकाय के निरंतर कम प्रतिनिधित्व और अभिजात वर्ग के शैक्षणिक स्थानों में हाशिए पर पड़े छात्रों द्वारा सामना की जाने वाली प्रणालीगत बाधाओं की ओर इशारा करते हुए छात्रों ने इस चुप्पी को एक व्यापक संस्थागत पैटर्न से जोड़ा। ऑब्जर्वर पोस्ट से बात करते हुए एक छात्र ने कहा, "यह एक घटना के बारे में नहीं है। यह विचारों की निगरानी को लेकर है। कौन बोलने को मिलता है और कौन चुप हो जाता है?" मुक्तिपर्व को रद्द करना इस बात का प्रतीक है कि कैसे अंबेडकरवादी विचारों और दलितों के दावे के लिए शैक्षणिक स्थान भी उदासीन रहे हैं।
2. मध्य प्रदेश का महू: दलित दूल्हे को मंदिर में जाने से रोका गया, पुलिस की निगरानी में ही प्रवेश की अनुमति दी गई
महू के पास संघवी गांव में (वह शहर जहां अंबेडकर का जन्म हुआ था) जातिगत भेदभाव फिर से सामने आया। शादी के दिन, बलाई समुदाय के एक दलित दूल्हे को प्रमुख जाति के ग्रामीणों ने भगवान राम के मंदिर में प्रवेश करने से मना कर दिया। उनकी बारात आम प्रथा के अनुसार पूजा-पाठ करने के इरादे से आई थी। हालांकि, उन्हें मंदिर के बाहर ही रोक दिया गया और दो घंटे की बहस और पुलिस के दखल के बाद ही पुलिस की कड़ी निगरानी में और कुछ परिवार के सदस्यों की मौजूदगी में दूल्हे को अंदर जाने की अनुमति दी गई।
प्रत्यक्षदर्शियों के बयान और सोशल मीडिया पर शेयर किए गए वीडियो फुटेज में दूल्हे और उसके मेहमानों को स्थानीय दबंग जाति के लोगों से बहस करते हुए दिखाया गया है, जिन्होंने मंदिर में उनकी मौजूदगी का विरोध किया। पुलिस ने इस घटना को कमतर आंकने की कोशिश की और दावा किया कि विवाद केवल गर्भगृह तक जाने को लेकर था, जो "परंपरा के अनुसार" पुजारियों तक ही सीमित है। लेकिन दलित समूह और समुदाय के नेता इससे सहमत नहीं थे।
अखिल भारतीय बलाई महासंघ के अध्यक्ष मनोज परमार ने इस घटना की निंदा करते हुए कहा कि यह जाति-आधारित बहिष्कार से चिपके रहने वालों की निरंतर “कुंठाग्रस्त मानसिकता” को दर्शाता है। उन्होंने द न्यू इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए कहा, “आज भी, हमारे समुदाय के साथ हमारे ही देश में बाहरी लोगों जैसा व्यवहार किया जाता है।” अंबेडकर जयंती पर हुई इस घटना ने यह उजागर कर दिया कि कैसे जाति आज भी सार्वजनिक और धार्मिक स्थलों तक पहुंच को नियंत्रित करती है, यहां तक कि भारत के सबसे बड़े जाति-विरोधी विचारक के जन्मस्थान पर भी।
3. उदयपुर, राजस्थान: पुलिस ने दलित समूहों को प्रतिष्ठित सर्किल पर अंबेडकरवादी झंडा फहराने से रोका
उदयपुर में दलित गौरव की एक और प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति को रोका गया। और इस बार यह दमन सीधे पुलिस की कार्रवाई के जरिए हुआ। शहर के बीचों-बीच अंबेडकर सर्किल पर भीम आर्मी और अन्य दलित संगठनों के कार्यकर्ता अंबेडकर की तस्वीर और अशोक चक्र वाला नीला झंडा फहराने के लिए इकट्ठा हुए। प्रतिरोध और अंबेडकरवादी पहचान का एक शक्तिशाली प्रतीक यह झंडा डॉ. अंबेडकर की आदमकद प्रतिमा के पास लगाया जाना था जो उनकी जयंती पर एक परंपरा का हिस्सा है।
हालांकि, भूपालपुरा एसएचओ आदर्श परिहार के नेतृत्व में पुलिस ने दखल दिया। झंडा फहराने के लिए रखी गई क्रेन को रोका और कथित तौर पर क्रेन चालक के साथ दुर्व्यवहार किया। द ऑब्जर्वर पोस्ट के अनुसार, कार्यकर्ताओं के इस आश्वासन के बावजूद कि दिन के समारोह के बाद झंडा सम्मानपूर्वक हटा दिया जाएगा, एसएचओ ने अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक से लिखित अनुमति पर जोर दिया। कथित तौर पर इसकी अनुमति नहीं दी गई।
कांग्रेस एससी सेल के नेता शंकर चंदेल ने पुलिस की कार्रवाई की निंदा करते हुए इसे भेदभावपूर्ण और राजनीति से प्रेरित बताया। द ऑब्जर्वर पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने पूछा, "अन्य समुदायों को हनुमान जयंती, परशुराम जयंती या विवेकानंद जयंती के लिए स्वतंत्र रूप से झंडे लगाने की अनुमति क्यों है - लेकिन दलित समूहों को रोका जाता है?" झंडे पर कोई धार्मिक प्रतीक नहीं था और यह स्थायी नहीं था। कार्यकर्ताओं ने दावा किया कि यह प्रक्रिया के बारे में नहीं बल्कि पूर्वाग्रह को लेकर था। उन्होंने जातिवादी और पक्षपातपूर्ण व्यवहार के खिलाफ उदयपुर एसपी और कलेक्टर को ज्ञापन सौंपने की योजना की घोषणा की।
हाशिए पर पड़े लोगों के लिए अंबेडकर को याद करना अभी भी संघर्ष है
आंबेडकर जयंती पर हुई ये तीनों घटनाएं एक खतरनाक विरोधाभास को दर्शाती हैं। जबकि सरकारी संस्थाएं और राजनीतिक नेता सार्वजनिक रूप से अंबेडकर पर फूल बरसाते हैं लेकिन उनके संदेश - जाति को खत्म करना, सम्मान की रक्षा करना और सामाजिक पदानुक्रम को चुनौती देना- का जमीनी स्तर पर विरोध जारी है। शैक्षणिक संस्थान अंबेडकरवादी विमर्श को दबा देते हैं, सामाजिक स्थान अभी भी दलित निकायों पर पुलिस की तरह काम करते हैं और राज्य मशीनरी हाशिए पर पड़े समुदायों द्वारा सार्वजनिक रूप से अपनी बात कहने से रोकने के लिए कानून को चुनिंदा तरीके से लागू करती है।
आंबेडकर ने एक बार कहा था, "जाति एक धारणा है; यह मन की एक अवस्था है।" ये घटनाएं दिखाती हैं कि जाति की मानसिकता जीवित है और अच्छी तरह से काम कर रही है। यह न केवल दूरदराज के गांवों में, बल्कि हमारे सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों और आधुनिक शहरों में भी कायम है। अंबेडकर को सही मायने में सम्मान देने के लिए, भारत को प्रतीकात्मक संकेतों से आगे बढ़ना चाहिए और उन संरचनाओं और पूर्वाग्रहों का सामना करना चाहिए जो अभी भी उन्हीं लोगों को चुप कराना चाहते हैं जिनके लिए उन्होंने लड़ाई लड़ी थी।
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1. आईआईएसईआर पुणे: शैक्षणिक स्वतंत्रता पर अंकुश; अंबेडकर लेक्चर रद्द
पुणे स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (IISER) में अंबेडकर को सम्मानित करने तथा जाति, प्रतिरोध और समानता के बारे में बातचीत करने के लिए मुक्तिपर्व नामक सावधानी के साथ क्यूरेट किया गया छात्र-नेतृत्व वाला कार्यक्रम प्रशासन द्वारा अचानक रद्द कर दिया गया। इस लेक्चर में दीपाली साल्वे, नाज़िमा परवीन और स्मिता एम. पाटिल सहित जाति-विरोधी प्रमुख आवाज़ें शामिल होनी थीं। ये सभी सम्मानित विद्वान और महान बुद्धिजीवी हैं। छात्रों ने इस कार्यक्रम की तैयारियों में महीनों बिताए थे, जिसे डॉ. आंबेडकर की क्रांतिकारी विरासत पर चिंतन और विचार-विमर्श के एक मंच के रूप में आयोजित किया जाना था।
हालांकि, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) -एक दक्षिणपंथी छात्र समूह जिसने वक्ताओं को "धूर वामपंथी" करार दिया- द्वारा शिकायत किए जाने के कुछ ही घंटों के भीतर प्रशासन ने कार्यक्रम को रद्द कर दिया। ABVP द्वारा दर्ज की गई पुलिस शिकायत ने संस्थान पर दबाव डाला। IISER प्रशासन ने रद्द करने के कारण के रूप में अस्पष्ट "चिंताओं" का हवाला दिया, लेकिन यह बताने में विफल रहा कि चिंताएं क्या थीं, या उन्हें किसने उठाया। जवाब में छात्र परिषद और कई कैंपस समूहों ने इस फैसले की निंदा करते हुए इसे "अचानक और अनुचित" बताया और संस्थान पर राजनीतिक दबाव के आगे झुकने का आरोप लगाया।
एससी/एसटी संकाय के निरंतर कम प्रतिनिधित्व और अभिजात वर्ग के शैक्षणिक स्थानों में हाशिए पर पड़े छात्रों द्वारा सामना की जाने वाली प्रणालीगत बाधाओं की ओर इशारा करते हुए छात्रों ने इस चुप्पी को एक व्यापक संस्थागत पैटर्न से जोड़ा। ऑब्जर्वर पोस्ट से बात करते हुए एक छात्र ने कहा, "यह एक घटना के बारे में नहीं है। यह विचारों की निगरानी को लेकर है। कौन बोलने को मिलता है और कौन चुप हो जाता है?" मुक्तिपर्व को रद्द करना इस बात का प्रतीक है कि कैसे अंबेडकरवादी विचारों और दलितों के दावे के लिए शैक्षणिक स्थान भी उदासीन रहे हैं।
2. मध्य प्रदेश का महू: दलित दूल्हे को मंदिर में जाने से रोका गया, पुलिस की निगरानी में ही प्रवेश की अनुमति दी गई
महू के पास संघवी गांव में (वह शहर जहां अंबेडकर का जन्म हुआ था) जातिगत भेदभाव फिर से सामने आया। शादी के दिन, बलाई समुदाय के एक दलित दूल्हे को प्रमुख जाति के ग्रामीणों ने भगवान राम के मंदिर में प्रवेश करने से मना कर दिया। उनकी बारात आम प्रथा के अनुसार पूजा-पाठ करने के इरादे से आई थी। हालांकि, उन्हें मंदिर के बाहर ही रोक दिया गया और दो घंटे की बहस और पुलिस के दखल के बाद ही पुलिस की कड़ी निगरानी में और कुछ परिवार के सदस्यों की मौजूदगी में दूल्हे को अंदर जाने की अनुमति दी गई।
प्रत्यक्षदर्शियों के बयान और सोशल मीडिया पर शेयर किए गए वीडियो फुटेज में दूल्हे और उसके मेहमानों को स्थानीय दबंग जाति के लोगों से बहस करते हुए दिखाया गया है, जिन्होंने मंदिर में उनकी मौजूदगी का विरोध किया। पुलिस ने इस घटना को कमतर आंकने की कोशिश की और दावा किया कि विवाद केवल गर्भगृह तक जाने को लेकर था, जो "परंपरा के अनुसार" पुजारियों तक ही सीमित है। लेकिन दलित समूह और समुदाय के नेता इससे सहमत नहीं थे।
अखिल भारतीय बलाई महासंघ के अध्यक्ष मनोज परमार ने इस घटना की निंदा करते हुए कहा कि यह जाति-आधारित बहिष्कार से चिपके रहने वालों की निरंतर “कुंठाग्रस्त मानसिकता” को दर्शाता है। उन्होंने द न्यू इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए कहा, “आज भी, हमारे समुदाय के साथ हमारे ही देश में बाहरी लोगों जैसा व्यवहार किया जाता है।” अंबेडकर जयंती पर हुई इस घटना ने यह उजागर कर दिया कि कैसे जाति आज भी सार्वजनिक और धार्मिक स्थलों तक पहुंच को नियंत्रित करती है, यहां तक कि भारत के सबसे बड़े जाति-विरोधी विचारक के जन्मस्थान पर भी।
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हालांकि, भूपालपुरा एसएचओ आदर्श परिहार के नेतृत्व में पुलिस ने दखल दिया। झंडा फहराने के लिए रखी गई क्रेन को रोका और कथित तौर पर क्रेन चालक के साथ दुर्व्यवहार किया। द ऑब्जर्वर पोस्ट के अनुसार, कार्यकर्ताओं के इस आश्वासन के बावजूद कि दिन के समारोह के बाद झंडा सम्मानपूर्वक हटा दिया जाएगा, एसएचओ ने अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक से लिखित अनुमति पर जोर दिया। कथित तौर पर इसकी अनुमति नहीं दी गई।
कांग्रेस एससी सेल के नेता शंकर चंदेल ने पुलिस की कार्रवाई की निंदा करते हुए इसे भेदभावपूर्ण और राजनीति से प्रेरित बताया। द ऑब्जर्वर पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने पूछा, "अन्य समुदायों को हनुमान जयंती, परशुराम जयंती या विवेकानंद जयंती के लिए स्वतंत्र रूप से झंडे लगाने की अनुमति क्यों है - लेकिन दलित समूहों को रोका जाता है?" झंडे पर कोई धार्मिक प्रतीक नहीं था और यह स्थायी नहीं था। कार्यकर्ताओं ने दावा किया कि यह प्रक्रिया के बारे में नहीं बल्कि पूर्वाग्रह को लेकर था। उन्होंने जातिवादी और पक्षपातपूर्ण व्यवहार के खिलाफ उदयपुर एसपी और कलेक्टर को ज्ञापन सौंपने की योजना की घोषणा की।
हाशिए पर पड़े लोगों के लिए अंबेडकर को याद करना अभी भी संघर्ष है
आंबेडकर जयंती पर हुई ये तीनों घटनाएं एक खतरनाक विरोधाभास को दर्शाती हैं। जबकि सरकारी संस्थाएं और राजनीतिक नेता सार्वजनिक रूप से अंबेडकर पर फूल बरसाते हैं लेकिन उनके संदेश - जाति को खत्म करना, सम्मान की रक्षा करना और सामाजिक पदानुक्रम को चुनौती देना- का जमीनी स्तर पर विरोध जारी है। शैक्षणिक संस्थान अंबेडकरवादी विमर्श को दबा देते हैं, सामाजिक स्थान अभी भी दलित निकायों पर पुलिस की तरह काम करते हैं और राज्य मशीनरी हाशिए पर पड़े समुदायों द्वारा सार्वजनिक रूप से अपनी बात कहने से रोकने के लिए कानून को चुनिंदा तरीके से लागू करती है।
आंबेडकर ने एक बार कहा था, "जाति एक धारणा है; यह मन की एक अवस्था है।" ये घटनाएं दिखाती हैं कि जाति की मानसिकता जीवित है और अच्छी तरह से काम कर रही है। यह न केवल दूरदराज के गांवों में, बल्कि हमारे सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों और आधुनिक शहरों में भी कायम है। अंबेडकर को सही मायने में सम्मान देने के लिए, भारत को प्रतीकात्मक संकेतों से आगे बढ़ना चाहिए और उन संरचनाओं और पूर्वाग्रहों का सामना करना चाहिए जो अभी भी उन्हीं लोगों को चुप कराना चाहते हैं जिनके लिए उन्होंने लड़ाई लड़ी थी।
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