अंबेडकर जयंती: गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबडे को जेल गए एक साल हो गए... हम उनके लिए कितना लड़े?

Written by राजीव यादव | Published on: April 14, 2021
अम्बेडकर जयंती को दोनों ने अपनी गिरफ्तारी दी थी. इस ऐतिहासिक दिन पर इन दोनों गिरफ़्तारियों ने अन्दर से तोड़ दिया और आज फिर. बाबा साहेब की जयंती को हम मना रहे हैं पर उसी परिवार के आनंद और साथियों की रिहाई के लिए कितनी आवाज बुलंद की?



सुधा भारद्वाज और गौतम नवलखा से काफी हाउस दिल्ली की अंतिम मुलाकात भूलती नहीं. उस दिन गौतम से तो चलते-चलते मुलाकात हुई पर सुधा जी के साथ कुछ ज्यादा या कहें सबसे ज्यादा वक्त गुजरा. एक बार रायपुर पीयूसीएल के सम्मेलन में जाना हुआ था तो वहां एक बार मिले थे. और उस दिन काफी हाउस से लेकर मेट्रो में कुछ स्टेशनों तक सफर किया. पीयूसीएल के सम्मलेन के अंतिम दिन जब जाने को हुआ तो सुधा जी ने बस्तर जाने को कहा था वही एक मौका जब उस बस्तर जिसे सुना-पढ़ा उसे देखा. ज्यादा नहीं पर थोड़ा बहुत समझा.

गौतम जी से एक बार और अंतिम बार मुलाकात हुई उनके घर जहां किसी होने वाले चुनाव को लेकर खूब चर्चा हुई. उस अंतिम मुलाकात और जब सुना कि जेल में उनको चश्मा नहीं मिल रहा तो उनका चश्मे वाला चेहरा बार-बार याद आता. आनंद तेलतुंबडे से कभी मुलाकात न हो सकी शायद एक बार किसी प्रोग्राम में बुलाने को लेकर बात हुई थी.

ऐसे ही कितनी यादें प्रशांत राही के साथ की रहीं. सबसे पहली बार आज़मगढ़ के एक प्रोग्राम में उनकी रिहाई के बाद बुलाया था. और हां रोना विल्सन ने एक बार एक प्रोग्राम में दिल्ली में बुलाया था जहां दिवंगत हुए वीरा साथीदार से भी मुलाकात हुई थी.

इन सभी और ऐसे बहुत से लोग जो हम जैसे नौजवानों के जीवन के बहुत छोटे बड़े बदलावों में अहम होते हैं आखिर उनको लेकर आज एक संशय की स्थिति बनी रहती है. ऐसे बहुत से लोग मेरे जीवन को भी प्रभावित किए. मुझे नहीं मालूम क्या लिखना चाहता हूं पर हां बहुत कुछ लिखते लिखते रुक जरूर जाता हूं कि अभी न लिखूं. फिर भी कुछ तो लिखूंगा.

सच कहें तो आनंद जी से मुलाकात भी कभी नहीं हुई बस थोड़ा बहुत पढ़ा. इतना भी नहीं कि उनको जान जाऊं, क्योंकि बहुत पढ़ने लिखने वाला आदमी नहीं हूं पर गौतम जी के जेल जाने की घटना ने दिल को झकझोर दिया. पिछले दिनों नागरिकता आंदोलन के दौरान चली गोलियां से शहीद हुए नौजवानों और साथियों की जेल ने शायद उतना झकझोर दिया था. गौतम जी को अंतिम बार पिछले साल जब शायद एनआईए को गिरफ्तारी देने जा रहे थे वो सीन है कि आँख से हटता ही नहीं. एक बार हल्का सा उनका लड़खड़ा जाना शायद बैग उठाते हुए रुला दिया और आज भी.

हम अपने समय के सबसे मुश्किल दौर में जी रहे हैं जब हमारे बुद्धिजीवियों को कैद किया जा रहा है और हम शायद ही उनके लिए लड़ पा रहे हैं. हम तो लड़ नहीं पा रहे हैं. शुक्र है किसान आंदोलन का जो उनके पक्ष में खुलकर खड़ा हुआ. आज बैशाखी का दिन है आज के ही दिन जलियांवाला बाग़ हुआ था.

मुझे बार-बार एक बात याद आती है 16 दिसंबर का दिन था. एक दिन पहले जामिया-एएमयू में हुए पुलिसिया हमले के विरोध में हम अम्बेडकर प्रतिमा हजरतगंज पर अभी खड़े थे कि कुछ दो तीन लोग आए, पूछने पे खुद को इंटेलिजेंस का बताया और पूछे रिहाई मंच और कहे मोबाइल दिखाते हुए पूछे कि ये भी आएंगे. यूट्यूब पर मेरे द्वारा ही अपलोड किए हुए रिहाई मंच के एक प्रोग्राम का वह गौतम नवलखा का वीडियो था. मैंने कहा ये क्यों आएंगे ये तो दिल्ली के हैं, वो एक प्रोग्राम किया था उसमें बुलाया था तो आए थे.

एक ऐसा ही अनुभव एक बार का और है हम गांधी भवन लखनऊ में एक प्रोग्राम कर रहे थे. शायद राजनीतिक सामाजिक लोगों की एक चिंतन बैठक थी. एक फ़ोन मुझे आया और पूछा कि सीमा आज़ाद आईं हैं और कौन-कौन हैं. मैंने तुरंत कहा कि वो क्यों आएंगी और कहां आईं हैं तो उसने कहा आती तो हैं न. मैंने कहा वो इलाहाबाद में रहती हैं एक प्रोग्राम किया था उसमें आईं थीं.

आज ये सब चर्चा करने का मन इसलिए कर रहा है कि तंत्र हममें आपमें एक अविश्वास पैदा कर देता है कि एक दोस्त बीमार हो तो भी आप उससे उसका हाल नहीं पूछ सकते. जैसे पूछेंगे ऐसा होगा जैसे आप उसे किसी संकट में न डाल दें क्योंकि आप ऐसे ही व्यक्ति हैं.

लोग इतना डरने लगे हैं कि वकील, पत्रकार, रिसर्चर भी सिग्नल-टेलीग्राम पर बात करने लगे हैं. ऐसा करके वो कितना सुरक्षित रहते हैं ये नहीं कह सकता पर आप को जरूर वो अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानते हैं. जैसा राज्य आपके बारे में कहता है वैसे ही धारणा आपके बारे में बनती जाती है और आप को समाज की मुख्य धारा से काटकर एक संदिग्ध व्यक्ति बना दिया जाता है.

हम ऐसा कुछ करते ही नहीं कि संदिग्ध हों पर राज्य ऐसा चाहता है तो आपके लोग भी कहने लगते हैं. और हां ढेरो आइडिया की कैसे बच सकते हो और वो सब भृष्ट तंत्र में विलीन होने के. कुछ पुराने कुछ नए बेईमानों के रास्ते को अपनाने की सलाहें.

मुझे आज लगा कि मुझे बताना चाहिए कि इस देश के उन बुद्धिजीवियों, जिन्हें सलाखों के पीछे डाल दिया है उनके आपके संबंधों को सार्वजनिक रूप से कहना ही इस लड़ाई की जीत की पहली सीढ़ी होगी. हमें आत्म विश्वास के साथ उन साझा संघर्षों को साझा करना चाहिए जो इस देश की शोषित जनता के लिए आवाज उठाई हो.

अक्सर, हां ऐसे लोग मिल जाते हैं जो कहते हैं कि हम फेसबुक पर आपकी गतिविधियों को देखते हैं पर लाइक करने से डर लगता है. ऐसा इसलिए कि आपकी गतिविधियों को राज्य ने संदिग्ध बना दिया और आपके अपने लोगों ने भी मान लिया. ऐसा करके राज्य अपनी जीत की मुहर लगा लेता है.

नागरिकता की मांग हो या किसी बेगुनाह की रिहाई की मांग ये कैसे कोई गलत मांग हो सकती है. आज कोरोना-कोरोना खूब हो रहा. याद कीजिए पिछली बार मुझे याद आता है कि मार्च के बाद लंबे अन्तराल के बाद किसानों ने शायद अगस्त का महीना था खुलकर प्रदर्शन किया उसके बाद धीरे-धीरे पूरे देश मे धरने-प्रदर्शन शुरू हुए. कई जगहों पर आज भी नहीं. जबकि और सब काम हो रहे थे बस जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को छोड़कर.

खैर बातें बहुत हैं पर मुझे लगता है कि आज हमको अपने संघर्षों के साथियों जो चाहे दिल्ली, भीमा कोरेगांव, गढ़चिरौली कहीं की भी जेलों में बंद हों उनके साथ बीते पलों को साझा कर देश की जनता को बताना चाहिए कि उनकी रिहाई क्यों जरूरी है.

झारखंड में यूपीए की सरकार में हो रहे आपरेशन ग्रीनहंट के दौरान पीयूसीएल के वरिष्ठ साथी जो अब नहीं रहे शशि भूषण पाठक ने बुलाया था तो पहली बार लातेहार, पलामू, गढ़वा, सारंडा के आदिवासी बहुल क्षेत्रों से परिचित हुए. गौतम और प्रशांत राही उस दौरे में शामिल थे. शायद ये लोग न होते तो इन इलाकों की पेचीदी राजनीति को समझना आसान न होता. उसी दौरान बगीचा में स्टेन स्वामी से मुलाकात हुई. जेल में उनके साथ हो रहे असहनीय व्यवहार से सभी परिचित हैं.

जो समाज अपने बुद्धिजीवियों के साथ नहीं खड़ा होता वो पंगु होकर खत्म हो जाता है. आप समझ सकते हैं कि पहले किसी भी घटना पर दौरे रिपोर्ट आने वाली पीढ़ियों के ज्ञान के वे स्रोत होते हैं जिससे हम उस दौर के समाज और राजनीति पर अपनी समझ विस्तृत करते हैं. अपने देश में पीयूसीएल और पीयूडीआर की महत्वपूर्ण भूमिका है.

पिछले महीने हमारे जिले आज़मगढ़ के एक लड़के को बाटला हाउस मामले में फांसी की सजा हुई. अब तक हमारे जिले के तस्करीबन पांच लड़कों को फांसी की सजा हुई है. इन फासियों पर अजीब सा सन्नटा देखने को मिलता है. जबकि जिस बाटला हाउस पर सवाल थे तो उसके नाम पर फांसी पर तो सवाल उठना लाजिमी है. ये सन्नटा इसलिए कि हम अपने सवालों को उठाने वालों के मुश्किल दौर में उनके साथ नहीं खड़े हुए.

आज जरूरत है की इस अम्बेडकर जयंती पर हम शपथ लें कि हम हक हुक़ूक़ इंसाफ के लिए लड़ने वालों की रिहाई के लिए आवाज बुलंद करें.

बाकी ख़बरें