नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) में मई माह में एक मामला दर्ज किया गया था, जिसमें कहा गया कि भारत सरकार का हरित क्षेत्र बढ़ने का दावा गलत है। याचिका में कहा गया है कि इस सदी में, यानी पिछले 24 साल में भारत ने अब तक करीब 23 हजार वर्ग किलोमीटर पेड़ों का आवरण खो दिया है। '
साभार : द प्रिंट
"नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में एक मुकदमा दायर किया गया है जिसमें दावा किया गया है कि भारत में पिछले 20 साल में वन घटे हैं और परिभाषा बदलकर उनमें वृद्धि दिखाई जा रही है। बहरहाल सच क्या है, सुनवाई में ही इस पर से परदा उठ सकेगा।"
भारत की पर्यावरण अदालत यानी एनजीटी इस बात की जांच कर रही है कि क्या देश के प्राकृतिक जंगल तेजी से घट रहे हैं, जबकि सरकार का दावा है कि पिछले दो दशकों में भारत के हरित क्षेत्र में खासी वृद्धि दर्ज हुई है। मामले में देश की वह प्रतिबद्धता दांव पर है जिसमें उसने 2070 तक शून्य उत्सर्जन हासिल करने के लिए अपने वनों के आकार को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ाने का वादा किया है। विशाल वन क्षेत्र की बदौलत भारत भविष्य में कार्बन ट्रेडिंग बाजार में अपने पेड़ों का लाभ उठाना चाहता है।
नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) में मई माह में एक मामला दर्ज किया गया था, जिसमें कहा गया कि भारत सरकार का हरित क्षेत्र बढ़ने का दावा गलत है। याचिका में कहा गया है कि इस सदी में, यानी पिछले 24 साल में भारत ने अब तक करीब 23 हजार वर्ग किलोमीटर पेड़ों का आवरण खो दिया है। 'डीडब्ल्यू' वेब पोर्टल द्वारा मामले को विस्तार से छापा गया है।
क्या है दावे का आधार?
यह आंकड़ा ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच (जीएफडब्ल्यू) से लिया गया है, जो एक स्वतंत्र संगठन है और उपग्रह से ली गई तस्वीरों से दुनिया भर के जंगलों के वास्तविक समय में आंकड़े प्रकाशित करता है। हाल की तस्वीरों से पता चला है कि 2013 से 2023 के बीच भारत में 95 फीसद पेड़ों का नुकसान प्राकृतिक जंगलों में हुआ है, यानी कुल मिलाकर कहा जाए तो देश में जंगलों की सेहत ठीक नहीं है। खास है कि जीएफडब्ल्यू का ये शोध सरकारी आंकड़ों से काफी अलग है। सरकारी आंकड़े दिखाते हैं कि 1999 से भारत का वन क्षेत्र बढ़ा है। सरकार की पिछली रिपोर्ट के अनुसार 2019 से 2021 के बीच वन और वृक्ष आवरण में 2,261 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है।
रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के जंगल दुनिया के सबसे अधिक जैव-विविधता वाले आवासों में से एक हैं। लेकिन बाजार की मांग के चलते उन पर भी दबाव लगातार बढ़ा है। देश में बुनियादी ढांचे और खनिज संसाधनों के लिए बड़ी मात्रा में जंगलों की कानूनी रूप से कटाई की जा रही है, जबकि सरकार ने शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने और जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अपने भूमि क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से को वनों से ढकने का वादा किया है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक फिलहाल भारत का एक चौथाई हिस्सा वन क्षेत्र है।
वन क्षेत्र की परिभाषा में किया गया फेरबदल!
रिपोर्ट के मुताबिक, सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण करने वाले पर्यावरणविदों का कहना है कि आंकड़ों में यह विरोधाभास इसलिए है क्योंकि 2001 में भारत ने वनों के वर्गीकरण के नियमों में बदलाव कर दिया गया था। वहीं, नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के सह-संस्थापक एमडी मधुसूदन ने 'डीडब्ल्यू' को बताया, "इन आंकड़ों में दिखाई देने वाली वृद्धि मुख्य रूप से भारत सरकार द्वारा 'वन' की परिभाषा को बदलने के कारण है, जिसमें वनों के बाहर के हरे क्षेत्रों को भी वन क्षेत्र में शामिल किया गया है।"
जीएफडब्ल्यू की परिभाषा दो कारकों पर आधारित है। जैवभौतिक, जिसमें ऊंचाई, छत्र आवरण और पेड़ों की संख्या शामिल है और दूसरा, भूमि उपयोग जिसमें भूमि को आधिकारिक या कानूनी रूप से वन उपयोग के लिए नामित किया जाना जरूरी है। नेचर कंजरवेशन फाउंडेशन के एमडी मधुसूदन कहते हैं कि भारत अपने वन आंकड़ों में उन सभी हरे क्षेत्रों को शामिल करता है जो कोई भी जैवभौतिक मानदंड को पूरा करते हैं, चाहे उस भूमि की कानूनी स्थिति, स्वामित्व या इस्तेमाल कुछ भी हो। इनमें चाय के बागान, नारियल के खेत, शहरी क्षेत्र, घास के मैदान और यहां तक कि बिना पेड़ों वाले रेगिस्तानी क्षेत्रों तक को भी शामिल किया गया है। वो कहते हैं, "अगर एक हेक्टेयर भूमि में केवल 10 फीसद पेड़ थे, तो उसे भी वन माना गया।"
आंकड़ों में क्या है झोल
मधुसूदन ने 1987 से अब तक हर दो साल पर जारी होने वाली वन सर्वेक्षण की 17 रिपोर्टों की जांच की है। इन रिपोर्टों के मुताबिक 1997 तक भारत के वन क्षेत्र में कमी आई थी। उसके बाद से, इन रिपोर्टों के अनुसार, 2021 तक भारत ने 45,000 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र जोड़ा है, जो डेनमार्क के आकार से भी ज्यादा है। रिपोर्ट तैयार करने वाली संस्था एफएसआई (वन सर्वेक्षण) ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की ईमेल और फोन पर कई अनुरोधों का जवाब नहीं दिया। हालांकि रिपोर्ट के अनुसार, स्वतंत्र और सरकारी वैज्ञानिकों द्वारा पहले किए गए अध्ययनों में भी भारत के वन क्षेत्र के आधिकारिक अनुमान में कई झोल पाए गए हैं। मसलन...
अमेरिकी वैज्ञानिक मैथ्यू हैन्सन के नेतृत्व में 2013 में वैश्विक अध्ययन हुआ था जिसमें बताया गया कि 2000 से 2012 के बीच भारत के वन क्षेत्र में लगभग 4,300 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है। इसी तरह 2016 में सरकारी संस्था नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर (एनआरएससी) के वैज्ञानिकों द्वारा नया दिखाया गया है कि 1995 से 2013 के बीच भारत ने लगभग 31,858 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र खो दिया। इसके उलट, भारत के सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2008 से 2022 के बीच केवल लगभग 3,000 वर्ग किलोमीटर वन काटे गए हैं।
क्या कहते हैं नए नियम
रिपोर्ट के मुताबिक, स्वतंत्र कानून एवं नीति शोधकर्ता कांची कोहली कहते हैं कि वनों को नियंत्रित करने वाले कानूनों और नियमों में हुए बदलावों ने पर्यावरण की सुरक्षा को कमजोर कर दिया है। कोहली कहते हैं, "वन भारत सरकार के लिए एक संवेदनशील मुद्दा है। भारत के जलवायु लक्ष्य और पर्यावरणीय जिम्मेदारियां वैश्विक स्तर पर इसके वनों की सफलता की कहानी से गहरे जुड़े हुए हैं। यह स्पष्ट है कि वर्तमान में भारत में वनों को उनकी कार्बन सोखने की क्षमता और व्यापार मूल्य के लिए देखा जाता है, न कि जैव विविधता, आजीविका अधिकार या सांस्कृतिक संबंधों आदि के लिए या फिर दोनों के लिए।" उधर, मधुसूदन कहते हैं कि ऊर्जा और उद्योग के लिए वनों का इस्तेमाल भारत में ही नहीं हो रहा है लेकिन सरकार, वैश्विक कार्बन व्यापार में वनों की संभावनाएं देख सकती हैं, जिसमें वन क्षेत्र किसी देश को, अन्य देशों के उत्सर्जन की भरपाई के लिए पैसा कमाने का अवसर दे सकते हैं। नवंबर माह में होने वाले अगले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में देशों से अंतरराष्ट्रीय कार्बन क्रेडिट व्यापार के विवरणों पर बातचीत की संभावना है। भारत और अन्य देशों का तर्क है कि वनों को इस रूप में क्रेडिट मिलना चाहिए जिसका इस्तेमाल अन्य देशों या निजी क्षेत्र के साथ व्यापार में किया जा सके।
एनजीटी ने एफएसआई और अन्य केंद्रीय विभागों से इस बारे में जवाब मांगा है कि वे अपने वन आंकड़े कैसे प्राप्त करते हैं और वन बढ़े हैं या नहीं?। इस मामले की अगली सुनवाई 18 नवंबर को है। कोहली के अनुसार, इस मामले में जीएफडब्ल्यू की कार्यप्रणाली की भी जांच हो सकेगी। मामले का असर इस बात पर भी पड़ेगा कि भारत पर्यावरण की सुरक्षा के अपने दावों को कितनी ईमानदारी और सच्चाई से पेश कर रहा है।
क्या कहती है ‘इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2021 और जानकार'
देश में वन क्षेत्र की स्थिति को लेकर केंद्र सरकार ने जनवरी 2022 में ‘इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2021’ जारी की है। इसमें दावा है कि देश में जंगल का इलाका बढ़ा है। हालांकि, रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पूर्वोत्तर राज्यों में जैवविविधता से भरे जंगल का ह्रास हुआ है और 2009 के बाद से वन क्षेत्र लगातार कम होता जा रहा है।
वन क्षेत्र में वृद्धि के सरकारी दावे की बाबत जानकार, गणना के तरीकों पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि इस रिपोर्ट के लिए सड़क के किनारे लगे पेड़, रबर, कॉफी और चाय बगानों की हरियाली को भी वन क्षेत्र के तौर पर शामिल कर लिया गया है। रिपोर्ट में बताया गया है कि अगले दस साल से कम समय में 45 से 64 फीसदी जंगल क्षेत्र क्लाइमेट चेंज हॉटस्पॉट यानी जलवायु परिवर्तन की जद में आ जाएगा। और 2050 तक देश का समूचा जंगल ही इसकी चपेट में होगा।
भारत सरकार द्वारा जारी वन सर्वेक्षण रिपोर्ट 2021 (आईएसएफआर) में दावा किया गया है कि दो साल पहले की तुलना में देश के वन क्षेत्र में 2,261 वर्ग किलोमीटर (किमी) की बढ़ोतरी हुई है। हालांकि, यह दावा कठघरे में हैं और इस विषय के जानकार रिपोर्ट बनाने के तरीके पर सवाल उठा रहे हैं। इन जानकारों का आरोप है कि वन क्षेत्र में वृद्धि दिखाने के लिए शहरों के लगे पेड़ और पौधारोपण को भी जंगल में शामिल कर लिया गया है। जानकारों का मानना है कि देश के वनों को लेकर बनी यह रिपोर्ट वानिकी जैसे विषय से अनभिज्ञ दिखती है। जैसे इसमें जिन इलाकों को जंगल माना गया है, अगर वहां वन संरक्षण कानून 1980 को लागू करने की कोशिश की जाए तो ऐसे इलाके ‘जंगल’ होने के मापदंड पर खरे नहीं उतरेंगे।
इस रिपोर्ट की चले तो कई अन्य चीजों की भी परिभाषा बदलनी पड़ेंगी। पर्यावरण मामलों पर काम करने वाले वकील ऋत्विक दत्ता इसको उदाहरण देकर समझाते हैं। अगर वन सर्वेक्षण के हिसाब से वनों की पहचान की जाए तो शहरी लोग और कॉफी बगानों में रहने वाले लोग भी वनवासी कहे जाएंगे। मोंगाबे- हिन्दी वेब पोर्टल से बात करते हुए दत्ता ने जोर देकर कहा हैं कि यह वन विभाग का दोहरा मानदंड है। वन संरक्षण कानून की बात हो या सड़कों के लिए वन भूमि को गैर वन संबंधी काम के लिए इस्तेमाल करना हो, तब सरकार सड़क किनारे लगे पेड़ों को फॉरेस्ट कवर नहीं मानती। वहीं जब फॉरेस्ट कवर की कोई रिपोर्ट बनानी हो तो इन पेड़ों को भी फॉरेस्ट कवर में शामिल कर लिया जाता है। दत्ता लीगल इनिशियटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट दिल्ली, संस्था से जुड़े हैं। इस संस्था को 2021 का राइट लाइवीहुड अवॉर्ड मिला है जिसे नोबेल पुरस्कार का विकल्प भी माना जाता है।
उनके अनुसार, “वन सर्वेक्षण में ऐसे क्षेत्र को जंगल मान लिया गया जो कि न वन विभाग के द्वारा जंगल माना गया है न ही वन संरक्षण कानून के शब्दकोश के तहत वन की श्रेणी में आता है। दरअसल, 20 साल होने को आए लेकिन सरकार वन को पारिभाषित नहीं कर पाई है। इस रिपोर्ट का बारीकी से विश्लेषण करने पर भारत में वनों की जटिल स्थिति का पता चलता है।” वह आगे कहते हैं कि अगर सरकार इसी तरह से रिपोर्ट बनाती रही तो किसी बगीचे में अच्छी संख्या में पेड़ हों तो आने वाले दिनों में उसे भी जंगल मान लिया जाएगा।
साभार : द प्रिंट
"नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में एक मुकदमा दायर किया गया है जिसमें दावा किया गया है कि भारत में पिछले 20 साल में वन घटे हैं और परिभाषा बदलकर उनमें वृद्धि दिखाई जा रही है। बहरहाल सच क्या है, सुनवाई में ही इस पर से परदा उठ सकेगा।"
भारत की पर्यावरण अदालत यानी एनजीटी इस बात की जांच कर रही है कि क्या देश के प्राकृतिक जंगल तेजी से घट रहे हैं, जबकि सरकार का दावा है कि पिछले दो दशकों में भारत के हरित क्षेत्र में खासी वृद्धि दर्ज हुई है। मामले में देश की वह प्रतिबद्धता दांव पर है जिसमें उसने 2070 तक शून्य उत्सर्जन हासिल करने के लिए अपने वनों के आकार को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ाने का वादा किया है। विशाल वन क्षेत्र की बदौलत भारत भविष्य में कार्बन ट्रेडिंग बाजार में अपने पेड़ों का लाभ उठाना चाहता है।
नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) में मई माह में एक मामला दर्ज किया गया था, जिसमें कहा गया कि भारत सरकार का हरित क्षेत्र बढ़ने का दावा गलत है। याचिका में कहा गया है कि इस सदी में, यानी पिछले 24 साल में भारत ने अब तक करीब 23 हजार वर्ग किलोमीटर पेड़ों का आवरण खो दिया है। 'डीडब्ल्यू' वेब पोर्टल द्वारा मामले को विस्तार से छापा गया है।
क्या है दावे का आधार?
यह आंकड़ा ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच (जीएफडब्ल्यू) से लिया गया है, जो एक स्वतंत्र संगठन है और उपग्रह से ली गई तस्वीरों से दुनिया भर के जंगलों के वास्तविक समय में आंकड़े प्रकाशित करता है। हाल की तस्वीरों से पता चला है कि 2013 से 2023 के बीच भारत में 95 फीसद पेड़ों का नुकसान प्राकृतिक जंगलों में हुआ है, यानी कुल मिलाकर कहा जाए तो देश में जंगलों की सेहत ठीक नहीं है। खास है कि जीएफडब्ल्यू का ये शोध सरकारी आंकड़ों से काफी अलग है। सरकारी आंकड़े दिखाते हैं कि 1999 से भारत का वन क्षेत्र बढ़ा है। सरकार की पिछली रिपोर्ट के अनुसार 2019 से 2021 के बीच वन और वृक्ष आवरण में 2,261 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है।
रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के जंगल दुनिया के सबसे अधिक जैव-विविधता वाले आवासों में से एक हैं। लेकिन बाजार की मांग के चलते उन पर भी दबाव लगातार बढ़ा है। देश में बुनियादी ढांचे और खनिज संसाधनों के लिए बड़ी मात्रा में जंगलों की कानूनी रूप से कटाई की जा रही है, जबकि सरकार ने शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने और जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अपने भूमि क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से को वनों से ढकने का वादा किया है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक फिलहाल भारत का एक चौथाई हिस्सा वन क्षेत्र है।
वन क्षेत्र की परिभाषा में किया गया फेरबदल!
रिपोर्ट के मुताबिक, सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण करने वाले पर्यावरणविदों का कहना है कि आंकड़ों में यह विरोधाभास इसलिए है क्योंकि 2001 में भारत ने वनों के वर्गीकरण के नियमों में बदलाव कर दिया गया था। वहीं, नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के सह-संस्थापक एमडी मधुसूदन ने 'डीडब्ल्यू' को बताया, "इन आंकड़ों में दिखाई देने वाली वृद्धि मुख्य रूप से भारत सरकार द्वारा 'वन' की परिभाषा को बदलने के कारण है, जिसमें वनों के बाहर के हरे क्षेत्रों को भी वन क्षेत्र में शामिल किया गया है।"
जीएफडब्ल्यू की परिभाषा दो कारकों पर आधारित है। जैवभौतिक, जिसमें ऊंचाई, छत्र आवरण और पेड़ों की संख्या शामिल है और दूसरा, भूमि उपयोग जिसमें भूमि को आधिकारिक या कानूनी रूप से वन उपयोग के लिए नामित किया जाना जरूरी है। नेचर कंजरवेशन फाउंडेशन के एमडी मधुसूदन कहते हैं कि भारत अपने वन आंकड़ों में उन सभी हरे क्षेत्रों को शामिल करता है जो कोई भी जैवभौतिक मानदंड को पूरा करते हैं, चाहे उस भूमि की कानूनी स्थिति, स्वामित्व या इस्तेमाल कुछ भी हो। इनमें चाय के बागान, नारियल के खेत, शहरी क्षेत्र, घास के मैदान और यहां तक कि बिना पेड़ों वाले रेगिस्तानी क्षेत्रों तक को भी शामिल किया गया है। वो कहते हैं, "अगर एक हेक्टेयर भूमि में केवल 10 फीसद पेड़ थे, तो उसे भी वन माना गया।"
आंकड़ों में क्या है झोल
मधुसूदन ने 1987 से अब तक हर दो साल पर जारी होने वाली वन सर्वेक्षण की 17 रिपोर्टों की जांच की है। इन रिपोर्टों के मुताबिक 1997 तक भारत के वन क्षेत्र में कमी आई थी। उसके बाद से, इन रिपोर्टों के अनुसार, 2021 तक भारत ने 45,000 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र जोड़ा है, जो डेनमार्क के आकार से भी ज्यादा है। रिपोर्ट तैयार करने वाली संस्था एफएसआई (वन सर्वेक्षण) ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की ईमेल और फोन पर कई अनुरोधों का जवाब नहीं दिया। हालांकि रिपोर्ट के अनुसार, स्वतंत्र और सरकारी वैज्ञानिकों द्वारा पहले किए गए अध्ययनों में भी भारत के वन क्षेत्र के आधिकारिक अनुमान में कई झोल पाए गए हैं। मसलन...
अमेरिकी वैज्ञानिक मैथ्यू हैन्सन के नेतृत्व में 2013 में वैश्विक अध्ययन हुआ था जिसमें बताया गया कि 2000 से 2012 के बीच भारत के वन क्षेत्र में लगभग 4,300 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है। इसी तरह 2016 में सरकारी संस्था नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर (एनआरएससी) के वैज्ञानिकों द्वारा नया दिखाया गया है कि 1995 से 2013 के बीच भारत ने लगभग 31,858 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र खो दिया। इसके उलट, भारत के सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2008 से 2022 के बीच केवल लगभग 3,000 वर्ग किलोमीटर वन काटे गए हैं।
क्या कहते हैं नए नियम
रिपोर्ट के मुताबिक, स्वतंत्र कानून एवं नीति शोधकर्ता कांची कोहली कहते हैं कि वनों को नियंत्रित करने वाले कानूनों और नियमों में हुए बदलावों ने पर्यावरण की सुरक्षा को कमजोर कर दिया है। कोहली कहते हैं, "वन भारत सरकार के लिए एक संवेदनशील मुद्दा है। भारत के जलवायु लक्ष्य और पर्यावरणीय जिम्मेदारियां वैश्विक स्तर पर इसके वनों की सफलता की कहानी से गहरे जुड़े हुए हैं। यह स्पष्ट है कि वर्तमान में भारत में वनों को उनकी कार्बन सोखने की क्षमता और व्यापार मूल्य के लिए देखा जाता है, न कि जैव विविधता, आजीविका अधिकार या सांस्कृतिक संबंधों आदि के लिए या फिर दोनों के लिए।" उधर, मधुसूदन कहते हैं कि ऊर्जा और उद्योग के लिए वनों का इस्तेमाल भारत में ही नहीं हो रहा है लेकिन सरकार, वैश्विक कार्बन व्यापार में वनों की संभावनाएं देख सकती हैं, जिसमें वन क्षेत्र किसी देश को, अन्य देशों के उत्सर्जन की भरपाई के लिए पैसा कमाने का अवसर दे सकते हैं। नवंबर माह में होने वाले अगले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में देशों से अंतरराष्ट्रीय कार्बन क्रेडिट व्यापार के विवरणों पर बातचीत की संभावना है। भारत और अन्य देशों का तर्क है कि वनों को इस रूप में क्रेडिट मिलना चाहिए जिसका इस्तेमाल अन्य देशों या निजी क्षेत्र के साथ व्यापार में किया जा सके।
एनजीटी ने एफएसआई और अन्य केंद्रीय विभागों से इस बारे में जवाब मांगा है कि वे अपने वन आंकड़े कैसे प्राप्त करते हैं और वन बढ़े हैं या नहीं?। इस मामले की अगली सुनवाई 18 नवंबर को है। कोहली के अनुसार, इस मामले में जीएफडब्ल्यू की कार्यप्रणाली की भी जांच हो सकेगी। मामले का असर इस बात पर भी पड़ेगा कि भारत पर्यावरण की सुरक्षा के अपने दावों को कितनी ईमानदारी और सच्चाई से पेश कर रहा है।
क्या कहती है ‘इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2021 और जानकार'
देश में वन क्षेत्र की स्थिति को लेकर केंद्र सरकार ने जनवरी 2022 में ‘इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2021’ जारी की है। इसमें दावा है कि देश में जंगल का इलाका बढ़ा है। हालांकि, रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पूर्वोत्तर राज्यों में जैवविविधता से भरे जंगल का ह्रास हुआ है और 2009 के बाद से वन क्षेत्र लगातार कम होता जा रहा है।
वन क्षेत्र में वृद्धि के सरकारी दावे की बाबत जानकार, गणना के तरीकों पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि इस रिपोर्ट के लिए सड़क के किनारे लगे पेड़, रबर, कॉफी और चाय बगानों की हरियाली को भी वन क्षेत्र के तौर पर शामिल कर लिया गया है। रिपोर्ट में बताया गया है कि अगले दस साल से कम समय में 45 से 64 फीसदी जंगल क्षेत्र क्लाइमेट चेंज हॉटस्पॉट यानी जलवायु परिवर्तन की जद में आ जाएगा। और 2050 तक देश का समूचा जंगल ही इसकी चपेट में होगा।
भारत सरकार द्वारा जारी वन सर्वेक्षण रिपोर्ट 2021 (आईएसएफआर) में दावा किया गया है कि दो साल पहले की तुलना में देश के वन क्षेत्र में 2,261 वर्ग किलोमीटर (किमी) की बढ़ोतरी हुई है। हालांकि, यह दावा कठघरे में हैं और इस विषय के जानकार रिपोर्ट बनाने के तरीके पर सवाल उठा रहे हैं। इन जानकारों का आरोप है कि वन क्षेत्र में वृद्धि दिखाने के लिए शहरों के लगे पेड़ और पौधारोपण को भी जंगल में शामिल कर लिया गया है। जानकारों का मानना है कि देश के वनों को लेकर बनी यह रिपोर्ट वानिकी जैसे विषय से अनभिज्ञ दिखती है। जैसे इसमें जिन इलाकों को जंगल माना गया है, अगर वहां वन संरक्षण कानून 1980 को लागू करने की कोशिश की जाए तो ऐसे इलाके ‘जंगल’ होने के मापदंड पर खरे नहीं उतरेंगे।
इस रिपोर्ट की चले तो कई अन्य चीजों की भी परिभाषा बदलनी पड़ेंगी। पर्यावरण मामलों पर काम करने वाले वकील ऋत्विक दत्ता इसको उदाहरण देकर समझाते हैं। अगर वन सर्वेक्षण के हिसाब से वनों की पहचान की जाए तो शहरी लोग और कॉफी बगानों में रहने वाले लोग भी वनवासी कहे जाएंगे। मोंगाबे- हिन्दी वेब पोर्टल से बात करते हुए दत्ता ने जोर देकर कहा हैं कि यह वन विभाग का दोहरा मानदंड है। वन संरक्षण कानून की बात हो या सड़कों के लिए वन भूमि को गैर वन संबंधी काम के लिए इस्तेमाल करना हो, तब सरकार सड़क किनारे लगे पेड़ों को फॉरेस्ट कवर नहीं मानती। वहीं जब फॉरेस्ट कवर की कोई रिपोर्ट बनानी हो तो इन पेड़ों को भी फॉरेस्ट कवर में शामिल कर लिया जाता है। दत्ता लीगल इनिशियटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट दिल्ली, संस्था से जुड़े हैं। इस संस्था को 2021 का राइट लाइवीहुड अवॉर्ड मिला है जिसे नोबेल पुरस्कार का विकल्प भी माना जाता है।
उनके अनुसार, “वन सर्वेक्षण में ऐसे क्षेत्र को जंगल मान लिया गया जो कि न वन विभाग के द्वारा जंगल माना गया है न ही वन संरक्षण कानून के शब्दकोश के तहत वन की श्रेणी में आता है। दरअसल, 20 साल होने को आए लेकिन सरकार वन को पारिभाषित नहीं कर पाई है। इस रिपोर्ट का बारीकी से विश्लेषण करने पर भारत में वनों की जटिल स्थिति का पता चलता है।” वह आगे कहते हैं कि अगर सरकार इसी तरह से रिपोर्ट बनाती रही तो किसी बगीचे में अच्छी संख्या में पेड़ हों तो आने वाले दिनों में उसे भी जंगल मान लिया जाएगा।