चिंताजनक: वनों से समुदायों का रिश्ता टूटने व बढ़ती गर्मी के बीच सुलगते वन

Written by Navnish Kumar | Published on: April 11, 2022
राजस्थान के सरिस्का टाइगर रिजर्व के जंगल में 27 मार्च को आग लग गई थी जिस पर हफ़्तों में काबू पाया गया। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और तमिलनाडु के जंगलों में भी आग लगने की ऐसी ही खबरें हैं। जंगल की आग की घटनाओं में वृद्धि भारत में गर्मी की लहर की स्थिति के साथ मेल खाती है। अलवर जिला प्रशासन के अनुरोध पर भारतीय वायु सेना ने 29 मार्च को सरिस्का टाइगर रिजर्व के जंगलों में धधकती आग को बुझाने के लिए दो रूसी निर्मित Mi-17 हैलीकॉप्टर तैनात किए। 'ऑपरेशन बांबी बकेट' के हिस्से के रूप में आग पर काबू पाया गया। टाइगर रिजर्व के अधिकारियों ने बताया कि आग 10 वर्ग किमी में फैल गई थी। 1,200 वर्ग किलोमीटर के कुल क्षेत्रफल में से, 10 वर्ग किलोमीटर प्रभावित हुआ है।



टाइगर रिजर्व या वनों में आग की यह अकेली घटना नहीं थी। भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा उपलब्ध कराए गए आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, दो दिनों में 30 मार्च और 31 मार्च को 'बड़ी आग की घटनाओं' के 1,000 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए थे। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश ने दी गई अवधि में सबसे अधिक आग लगने की घटनाओं की सूचना दी, जिसमें क्रमशः 200 और 289 मामले दर्ज किए गए इसके बाद ओडिशा में 154 मामले दर्ज किए गए। 

ऐसा क्यों हुआ?
मध्यप्रदेश में महुआ के फूल आदि बीनने के लिए ग्रामीण अक्सर सूखे पत्तों से छुटकारा पाने को आग लगा देते हैं ताकि महुआ के फूल चुनना उनके लिए आसान हो जाए। यह उस क्षेत्र में जंगल की आग फैलने के पीछे का एक बड़ा कारण है। कई बार जंगलों में आग प्राकृतिक तरीके से नहीं लगती, बल्कि वन्यजीव तस्कर भी ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। लेकिन असल वजह जंगलों में आग की घटनाओं को लेकर सरकारों और प्रशासन के भीतर आज भी संजीदगी का अभाव दिखता है। 2019 में उत्तराखंड में लगी भयावह आग के बाद राष्ट्रीय हरित पंचाट ने कहा भी था कि पर्यावरण मंत्रालय और अन्य प्राधिकरण वनों में आग की घटनाओं को हल्के में लेते हैं।

गर्मी के सीजन में भारत के विभिन्न राज्यों में जंगलों में आग की घटनाएं भी लगातार बढ़ रही हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक 26 मार्च से एक अप्रैल, 2022 यानी एक हफ्ते के भीतर 29 राज्यों के जंगलों में आग के 60 हजार से भी ज्यादा छोटे-बड़े मामले सामने आ गए। यह बेहद चिंताजनक है। इंडियन एक्सप्रेस और गांव कनेक्शन की रिपोर्ट्स के अनुसार, इन 7 दिनों में जंगलों में आग लगने के मध्य प्रदेश में 17709, छत्तीसगढ़ में 12805, महाराष्ट्र में 8920, ओड़िशा में 7130 और झारखंड में 4684 मामले दर्ज हुए। आगजनी से हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, मिजोरम और बिहार के बड़े जंगल ज्यादा प्रभावित हुए हैं। बड़े जंगलों में मात्र 8 दिनों में आग की 1230 घटनाएं सामने आईं। फारेस्ट सर्वे आफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार बढ़ते पारे के साथ जंगलों में आग के हर घंटे औसतन 234 मामले दर्ज हो रहे हैं।

राजस्थान के सरिस्का टाइगर रिजर्व में लगी भयानक आग पर कई दिनों की कड़ी मशक्कत के बाद काबू पाया जा सका। जम्मू-कश्मीर के रियासी जिले के अलावा हिमाचल में भी आग से कई एकड़ जंगल तबाह हो गए। मध्यप्रदेश के उमरिया टाइगर रिजर्व में महज दस दिनों में ही वनों में 121 स्थानों पर आग लगी। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में तो वनों के सुलगने का सिलसिला जारी है, जहां 15 फरवरी से अब तक आग की सैकड़ों घटनाओं में 250 हेक्टेयर वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचा है। भारतीय मौसम विभाग के अनुसार गर्मियों में जंगलों में आग तेजी से फैलती है। इस वक्त जिस तरह का मौसम है, उसमें यह खतरा और बढ़ जाता है। इस वर्ष मार्च में वर्षा में 71 फीसदी की कमी दर्ज की गई। यही कारण है कि तेजी से बढ़ते पारे और बारिश की कमी से वनों में छोटे जलाशयों का अभाव हो गया और आग की घटनाएं बढ़ रही हैं।

दरअसल, जंगलों का पूरी तरह सूखा होना आग लगने के खतरे को बढ़ा देता है। कई बार जंगलों की आग जब आसपास के गांवों तक पहुंच जाती है, तो स्थिति काफी भयवाह हो जाती है। पिछले साल उत्तराखंड के जंगलों में लगी ऐसी ही भयानक आग में अल्मोड़ा के चौखुटिया में 6 गौशालाएं, लकड़ियों के टाल सहित कई घर जल कर राख हो गए थे और वहां हेलीकाप्टरों की मदद से आग बुझाई जा सकी थी। जंगलों में आग के कारण वनों के पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को भारी नुकसान होता है। 

मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, प्राणी सर्वेक्षण विभाग का मानना है कि उत्तराखंड के जंगलों में तो आग के कारण जीव-जंतुओं की साढ़े 4 हजार से ज्यादा प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। वनों में आग से पर्यावरण के साथ-साथ वन संपदा का जो भारी नुकसान होता है, उसका खमियाजा लंबे समय तक भुगतना पड़ता है और ऐसा नुकसान साल-दर-साल बढ़ता ही जाता है।

पिछले चार दशकों में भारत में पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियों के खत्म हो जाने के अलावा पशु-पक्षियों की संख्या भी घट कर एक तिहाई रह गई है और इसके विभिन्न कारणों में से एक कारण जंगलों की आग रही है। जंगलों में आग के कारण वातावरण में जितनी भारी मात्रा में कार्बन पहुंचता है, वह कहीं ज्यादा बड़ा और गंभीर खतरा है। देशभर में वन क्षेत्रों में आग से वन संपदा को होने वाले नुकसान को रोकने के लिए उपग्रहों से सतत निगरानी के अलावा अन्य तकनीकों के इस्तेमाल के बावजूद आग की घटनाएं बढ़ रहीं तो चिंता स्वाभाविक है।

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2017 से 2019 के 3 वर्षों के दौरान जंगलों में आग लगने की घटनाएं 3 गुना तक बढ़ गईं। 2016 में देशभर के जंगलों में आग लगने की सैंतीस हजार से ज्यादा घटनाएं दर्ज की गई थीं, जो 2018 में बढ़ कर एक लाख से ऊपर निकल गईं। भारतीय वन सर्वेक्षण ने वर्ष 2004 में अमेरिकी अंतरिक्ष एजंसी नासा के उपग्रह की मदद से राज्य सरकारों को जंगल में आग की घटनाओं की चेतावनी देना शुरू किया गया था। वर्ष 2017 में सेंसर तकनीक की मदद से रात में भी ऐसी घटनाओं की निगरानी शुरू की गई। आग की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए जनवरी 2019 में व्यापक वन अग्नि निगरानी कार्यक्रम शुरू कर राज्यों के निगरानी तंत्र को मजबूत करने की पहल भी की गई।

हालांकि इन कदमों से कुछ राज्यों में जंगलों में आग की घटनाएं कम करने में थोड़ी सफलता तो मिली, लेकिन उत्तराखंड सहित कुछ राज्यों में हालात अभी भी सुधरे नहीं हैं। तमाम तकनीकी मदद के बावजूद जंगलों में हर साल बड़े स्तर पर लगती भयानक आग जब सब कुछ निगलने पर आमादा दिखाई पड़ती है और वन विभाग बेबस नजर आता है, तो चिंता बढ़नी लाजिमी है। ज्यादा चिंता की बात यह है कि जंगलों में आग की घटनाओं को लेकर सरकारों और प्रशासन के भीतर आज भी संजीदगी का अभाव दिखता है। 

अगर प्राकृतिक तरीके से आग लगने वाली घटनाओं की बात करें तो मौसम में बदलाव, सूखा, जमीन का कटाव इसके प्रमुख कारण हैं। विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में तो चीड़ के वृक्ष बहुतायत में होते हैं। पर्यावरण विशेषज्ञ इसे वनों का कुप्रबंधन ही मानते हैं कि देश का करीब 17 फीसदी वन क्षेत्र चीड़ वृक्षों से ही भरा पड़ा है। दरअसल, कमजोर होते वन क्षेत्र में इस प्रकार के पेड़ आसानी से पनपते हैं। चीड़ के वृक्षों का सबसे बड़ा नुकसान यही है कि एक तो ये बहुत जल्दी आग पकड़ लेते हैं और दूसरा यह कि ये अपने क्षेत्र में चौड़ी पत्तियों वाले अन्य वृक्षों को पनपने नहीं देते। चूंकि चीड़ के वनों में नमी नहीं होती, इसलिए जरा-सी चिंगारी भी ऐसे वनों को राख कर देती है। अकेले उत्तराखंड के जंगलों की बात करें, तो प्रतिवर्ष वहां औसतन करीब 23.66 लाख मीट्रिक टन चीड़ की पत्तियां गिरती हैं, जो आग के फैलाव का बड़ा कारण बनती हैं। जंगलों में इन पत्तियों की परत के कारण जमीन में बारिश का पानी नहीं जा पाता।

सरिस्का टाइगर रिजर्व के अधिकारियों के अनुसार, आग को कम से कम फैलाने के लिए हर साल वन लाइनों को फैलाया जाता है। निवारक उपायों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए, जिन्हें स्थानीय ज्ञान और स्थानीय समुदायों के साथ जोड़ने की आवश्यकता है। यानि "जब तक आप समुदायों को एक साथ नहीं लाते, जो वास्तव में जंगल पर निर्भर हैं और वन प्रकार और उस क्षेत्र में जलवायु प्रकार का जोखिम मूल्यांकन के माध्यम से आप जंगल की आग को बेहतर ढंग से प्रबंधित नहीं कर सकते हैं। आप प्रबंधन के मामले में अरबों डॉलर खर्च कर सकते हैं लेकिन दिन के अंत में यह केवल इस स्पष्ट बेमेल के कारण बढ़ जाएगा।" ओडिशा में निवारक उपाय पूरी तरह से स्थानीय आधारित हैं। "इनमें से 99 प्रतिशत स्थानीय समुदाय पर आधारित हैं। हमने ओडिशा में देखा है, जहां भी स्थानीय लोग सक्रिय हैं, उन्होंने सुनिश्चित किया है कि आग नहीं लगेगी।

भारत में जंगलों में आग की बढ़ती घटनाओं पर आसानी से काबू पाने में विफलता का एक बड़ा कारण यह भी है कि वन क्षेत्रों में वनवासी अब वन संरक्षण के प्रति उदासीन हो चले हैं। इसकी वजह काफी हद तक नई वन नीतियां भी हैं। इसलिए जरूरी यही है कि वनों के आसपास रहने वालों और उनके गांवों तक जन-जागरूकता अभियान चला कर वनों से उनका रिश्ता कायम करने के प्रयास किए जाएं, ताकि वे वनों को अपने सुख-दुख का साथी समझें और इनके संरक्षण के लिए हर पल साथ खड़े नजर आएं।

Related:

बाकी ख़बरें