यह विधेयक न केवल आदिवासियों/वनवासियों और पर्यावरण के विरुद्ध है बल्कि भारत के जलवायु एजेंडे के भी विरुद्ध है।
प्रतीकात्मक तस्वीर। विकिपीडिया
2 अगस्त 2023 को, राज्यसभा ने वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 को कमजोर करने के लिए वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 पारित किया, जो एकमात्र ऐसा कानून था जो वन भूमि की रक्षा करता है और गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि के डायवर्जन को नियंत्रित करता है।
मणिपुर मुद्दे पर विपक्षी सदस्यों के वॉकआउट करने के बाद सरकार ने इस विधेयक को अलोकतांत्रिक तरीके से चुपचाप पारित करा लिया। विपक्षी सदस्यों को बहस में शामिल किए बिना, केवल सत्ता पक्ष के सदस्यों के साथ एक फर्ज़ी "बहस" आयोजित की गई और विधेयक को ध्वनि मत से जल्दबाजी में पारित कर दिया गया।
आइए विधेयक के मुख्य प्रावधानों की समीक्षा करें।
विकृत प्रस्तुति
यह विधेयक वन भूमि को गैर-वन उद्देश्यों के लिए अधिक से अधिक व्यपवर्तन (डायवर्जन) के लिए है। चूंकि वन कार्बन नियंत्रण के समृद्ध स्रोत हैं, इसलिए यह कदम भारत के 2070 तक शुद्ध शून्य के जलवायु लक्ष्य के विरुद्ध है। लेकिन विधेयक में जहां तक उद्देश्यों का बयान है, वह जलवायु परिवर्तन से निपटने की बात जोर शोर से करता है और घोषणा करता कि इस विधेयक का उद्देश्य भारत की जलवायु लक्ष्यों की सेवा करना है! केवल एक दिवालिया ही किसी कानून की ऐसी निंदनीय प्रस्तुति वाला मस्विदा तैयार कर सकता है।
आप जो कह रहे हैं उसके बिल्कुल विपरीत करने की विडंबना तब और अधिक हास्यास्पद हो जाती है जब विधेयक में मूल वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 का नाम बदलकर वन (संरक्षण एवं संवर्धन ) अधिनियम, 1980 करने का प्रस्ताव किया जाता है। गैर-हिंदी भाषी लोगों पर केंद्रीय कानून के लिए इस हिंदी नाम को थोपने की असंवेदनशीलता को किनारे भी कर दिया जाए तो भी, इस नाम का शाब्दिक अर्थ वन संरक्षण और उन्नयन (Conservation and Upgradation) है। क्या गैर-वन उपयोगों के लिए व्यावसायिक दोहन हेतु वन भूमि का विचलन वनों के " उन्नयन " के समतुल्य है ? ऐसा है विधेयक का निर्लज्ज दोगलापन।
केवल अक्टूबर 1980 के बाद वन के रूप में दर्ज क्षेत्रों को संरक्षण
इससे पहले, वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 इस अधिनियम के लागू होने से पहले वनों के रूप में दर्ज क्षेत्रों को कवर करता था। अब नया विधेयक उन क्षेत्रों को छोड़ देता है। इस प्रकार विशाल क्षेत्र, यहां तक कि पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील पश्चिमी घाट में भी, छूट मिल जाएगी। इसके चलते रियल एस्टेट माफिया मुन्नार या ऊटी में सारी वन भूमि हड़प सकते हैं।
अन्य अंधाधुंध छूट
रेलमार्गों या राजमार्गों के दोनों ओर, बस्तियों और प्रतिष्ठानों को कनेक्टिविटी प्रदान करने के नाम पर, 0.10 हेक्टेयर (या लगभग 25 सेंट) वन भूमि का डायवर्जन किया जा सकता है। रेलवे लाइनें और राजमार्ग पहले से ही बड़ी मात्रा में वन क्षेत्र हड़प चुके हैं। किसी भी रेल लाइन या राजमार्ग के किनारे कितनी भी संख्या में बस्तियाँ और प्रतिष्ठान हो सकते हैं। प्रत्येक मामले में 25 सेंट की अनुमति देने का मतलब है कि भारी मात्रा में वन भूमि का उपयोग किया जा सकता है।
दरअसल, जब केंद्रीय मंजूरी के बिना राज्य के राजमार्गों के लिए वन भूमि का अधिग्रहण करने की मांग की गई, तो आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इसे रद्द कर दिया। कानून में यही स्थिति है। अब विधेयक रेल लाइनों और राजमार्गों के किनारे अधिक वन भूमि को किसी भी प्रतिबंध से मुक्त करना चाहता है। यह उच्च न्यायपालिका के आदेशों के उल्लंघन के अर्थ में कानून का भी उल्लंघन है।
विधेयक में "सार्वजनिक उपयोगिता" को परिभाषित किए बिना किसी भी "सार्वजनिक उपयोगिता" परियोजना के लिए वामपंथी उग्रवाद क्षेत्रों में 5 हेक्टेयर वन भूमि को छूट देने का प्रावधान है। और ऐसी "सार्वजनिक उपयोगिताओं" की संख्या असीमित हो सकती है।
इकोटूरिज्म गतिविधियाँ, वन सफ़ारी, प्राणी उद्यान, और वन कर्मचारियों के लिए सहायक बुनियादी ढाँचा आदि वन भूमि में शुरू किए जा सकते हैं और उनके लिए उपयोग की जाने वाली भूमि को गैर-वन गतिविधियों के लिए डायवर्जन के रूप में नहीं माना जाएगा क्योंकि इन्हें भी विधेयक के अनुसार वन गतिविधियाँ इसका हिस्सा माना जाता है।
अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के 100 किलोमीटर के भीतर के क्षेत्रों को पूर्ण छूट
राज्यसभा द्वारा पारित विधेयक सरकार द्वारा शुरू की जाने वाली राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी परियोजनाओं के लिए नियंत्रण रेखा और वास्तविक नियंत्रण रेखा जैसी अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के साथ की 100 किलोमीटर भूमि को छूट देता है। यह मानते हुए कि भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की कुल लंबाई लगभग 15,200 किलोमीटर है, यह 15.2 लाख वर्ग किलोमीटर होगी जहां वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 लागू नहीं होगा। यह मानते हुए कि 100 हेक्टेयर में 1 वर्ग किमी शामिल है, कुल 1500 लाख हेक्टेयर को किसी भी वन संरक्षण से छूट दी गई है। इन क्षेत्रों में 10 हेक्टेयर वन भूमि को किसी भी सुरक्षा संबंधी परियोजना के लिए डायवर्ट किया जा सकता है। यह संवेदनहीन है। इससे जैव विविधता से समृद्ध हिमालय की तलहटी के पूरे हिस्से और पूर्वोत्तर भारत के विशाल क्षेत्रों को किसी भी वन संरक्षण से छूट मिल जाएगी। नागरिक नौकरशाही लालची सैन्य नौकरशाही की मदद कर रही है। इतने बड़े क्षेत्र को व्यापक छूट देने के बजाय केवल विशिष्ट परियोजनाओं को छूट देना ही उचित होगा। सैन्य नौकरशाही प्रस्तावित परियोजनाओं के नाम पर विशाल क्षेत्रों को हड़प सकती है, लेकिन उन्हें कभी शुरू नहीं करती। फिर भी वे हड़पे गए क्षेत्र में पेड़ों को काट सकते हैं।
गोदावर्मन तिरुमुलपाद मामले में 1996 के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को पलटना
वन क्षेत्रों में अनाधिकृत रूप से बसने वालों से संबंधित गोदावर्मन तिरुमुलपाद मामले में, सर्वोच्च न्यायालय को पता चला कि भारत के कई राज्यों में वनों के विशाल क्षेत्रों को किसी भी राज्य कानून के तहत वनों के रूप में दर्ज नहीं किया गया है। इसलिए स्वाभाविक रूप से वे 1980 के वन (संरक्षण) अधिनियम के सुरक्षात्मक आवरण से बाहर रहे। इस विसंगति को दूर करने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने रिकॉर्ड बुक में उनकी कानूनी स्थिति की परवाह किए बिना घने वनस्पति के तहत सभी क्षेत्रों को वन क्षेत्रों के रूप में फिर से परिभाषित किया। इन क्षेत्रों को बाद में "मानित वन" (Deemed Forests) के रूप में जाना जाने लगा। इन ज़मीनों को छूट देकर और इस बात पर ज़ोर देकर कि केवल दर्ज वन ही 1980 के वन (संरक्षण) अधिनियम के दायरे में आएंगे, यह विधेयक सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को ही कमज़ोर कर देता है।
एक ही दिन में परस्पर विरोधी कानून पारित करना
विडंबना यह है कि यह वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 उसी दिन राज्यसभा द्वारा पारित किया गया था जब उसने जैव विविधता विधेयक 2023 पारित किया था। वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 के समान, जैव विविधता विधेयक 2023 भी केवल कारपोरेट हितों का समर्थन करता है; कारपोरेट घरानों को जैव विविधता संसाधनों के साथ वाणिज्य में संलग्न होने की एकमात्र शर्त यह है कि लाभ का एक हिस्सा स्थानीय समुदायों के साथ साझा किया जाना चाहिए और इसने जैव विविधता संसाधनों से संबंधित सभी अपराधों को अपराध से मुक्त कर दिया। फिर भी, यह जैव विविधता की रक्षा का दिखावा करता है। लेकिन वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 जैव विविधता से समृद्ध वनों के विशाल क्षेत्रों को व्यावसायिक दोहन के लिए खोलकर इसके विपरीत काम करता है।
संविधान की संघीय भावना के विपरीत कानून में असंवैधानिक प्रावधान
वन संविधान की समवर्ती सूची में आते हैं। इसका मतलब यह है कि वनों के प्रबंधन में राज्यों की भी बराबर की भागीदारी होगी। लेकिन इस विधेयक में एक प्रावधान है जो 1980 के वन (संरक्षण) अधिनियम में निम्नलिखित खंड को सम्मिलित करने का प्रस्ताव करता है:
"3सी. केंद्र सरकार, समय-समय पर, केंद्र सरकार, राज्य सरकार या केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन के तहत किसी भी प्राधिकारी, या केंद्र सरकार, राज्य सरकार या केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन द्वारा मान्यता प्राप्त किसी संगठन, इकाई या निकाय को ऐसे निर्देश जारी कर सकती है, जैसा कि इस अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए आवश्यक हों।" यह संविधान की संघीय भावना का खुला उल्लंघन है।
संविधान के अनुच्छेद 254(1) के अनुसार, यदि किसी विषय में राज्य का कानून केंद्रीय कानून के साथ टकराव में आता है, तो केंद्रीय कानून लागू हो जाएगा। इसका मतलब यह है कि केवल एक केंद्रीय कानून के पास राज्य के कानून पर भारी पड़ने की शक्ति है, न कि किसी केंद्रीय नौकरशाह द्वारा किसी राज्य सरकार और केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन को जारी किए गए किसी भी "निर्देश" को।
संविधान केंद्र द्वारा इस तरह के नौकरशाही अधिनायकवाद को कोई मंजूरी नहीं देता है। फिर भी, संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित इस विधेयक में इस असंवैधानिक प्रावधान को जगह मिली है!
वनवासियों, पर्यावरण और भारत के जलवायु एजेंडे के ख़िलाफ़ विधेयक
कुछ पर्यावरणविदों का दावा है कि पारित विधेयक के अधिसूचित कानून बनने पर भारत में 20-25% वन क्षेत्रों की सुरक्षा समाप्त हो जाएगी। यह विधेयक वन अधिनियम द्वारा प्रदान किए गए पारंपरिक वन समुदायों के वन अधिकारों के बारे में कुछ नहीं कहता है। अनुसूची V और VI में किसी भी भूमि को ग्राम सभा की सहमति के बिना खनन जैसी गैर-वन गतिविधि में नहीं लगाया जा सकता है, भले ही ये भूमि वन क्षेत्रों के रूप में दर्ज न की गई हो। यह विधेयक इस प्रावधान की भी अनदेखी करता है। इसका मतलब है कि कंपनियां नियामगिरी में भी बॉक्साइट खनन शुरू कर सकती हैं जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है।
इस प्रकार यह विधेयक न केवल आदिवासियों/वनवासियों और पर्यावरण के विरुद्ध है बल्कि भारत के जलवायु एजेंडे के भी विरुद्ध है ।
(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
प्रतीकात्मक तस्वीर। विकिपीडिया
2 अगस्त 2023 को, राज्यसभा ने वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 को कमजोर करने के लिए वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 पारित किया, जो एकमात्र ऐसा कानून था जो वन भूमि की रक्षा करता है और गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि के डायवर्जन को नियंत्रित करता है।
मणिपुर मुद्दे पर विपक्षी सदस्यों के वॉकआउट करने के बाद सरकार ने इस विधेयक को अलोकतांत्रिक तरीके से चुपचाप पारित करा लिया। विपक्षी सदस्यों को बहस में शामिल किए बिना, केवल सत्ता पक्ष के सदस्यों के साथ एक फर्ज़ी "बहस" आयोजित की गई और विधेयक को ध्वनि मत से जल्दबाजी में पारित कर दिया गया।
आइए विधेयक के मुख्य प्रावधानों की समीक्षा करें।
विकृत प्रस्तुति
यह विधेयक वन भूमि को गैर-वन उद्देश्यों के लिए अधिक से अधिक व्यपवर्तन (डायवर्जन) के लिए है। चूंकि वन कार्बन नियंत्रण के समृद्ध स्रोत हैं, इसलिए यह कदम भारत के 2070 तक शुद्ध शून्य के जलवायु लक्ष्य के विरुद्ध है। लेकिन विधेयक में जहां तक उद्देश्यों का बयान है, वह जलवायु परिवर्तन से निपटने की बात जोर शोर से करता है और घोषणा करता कि इस विधेयक का उद्देश्य भारत की जलवायु लक्ष्यों की सेवा करना है! केवल एक दिवालिया ही किसी कानून की ऐसी निंदनीय प्रस्तुति वाला मस्विदा तैयार कर सकता है।
आप जो कह रहे हैं उसके बिल्कुल विपरीत करने की विडंबना तब और अधिक हास्यास्पद हो जाती है जब विधेयक में मूल वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 का नाम बदलकर वन (संरक्षण एवं संवर्धन ) अधिनियम, 1980 करने का प्रस्ताव किया जाता है। गैर-हिंदी भाषी लोगों पर केंद्रीय कानून के लिए इस हिंदी नाम को थोपने की असंवेदनशीलता को किनारे भी कर दिया जाए तो भी, इस नाम का शाब्दिक अर्थ वन संरक्षण और उन्नयन (Conservation and Upgradation) है। क्या गैर-वन उपयोगों के लिए व्यावसायिक दोहन हेतु वन भूमि का विचलन वनों के " उन्नयन " के समतुल्य है ? ऐसा है विधेयक का निर्लज्ज दोगलापन।
केवल अक्टूबर 1980 के बाद वन के रूप में दर्ज क्षेत्रों को संरक्षण
इससे पहले, वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 इस अधिनियम के लागू होने से पहले वनों के रूप में दर्ज क्षेत्रों को कवर करता था। अब नया विधेयक उन क्षेत्रों को छोड़ देता है। इस प्रकार विशाल क्षेत्र, यहां तक कि पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील पश्चिमी घाट में भी, छूट मिल जाएगी। इसके चलते रियल एस्टेट माफिया मुन्नार या ऊटी में सारी वन भूमि हड़प सकते हैं।
अन्य अंधाधुंध छूट
रेलमार्गों या राजमार्गों के दोनों ओर, बस्तियों और प्रतिष्ठानों को कनेक्टिविटी प्रदान करने के नाम पर, 0.10 हेक्टेयर (या लगभग 25 सेंट) वन भूमि का डायवर्जन किया जा सकता है। रेलवे लाइनें और राजमार्ग पहले से ही बड़ी मात्रा में वन क्षेत्र हड़प चुके हैं। किसी भी रेल लाइन या राजमार्ग के किनारे कितनी भी संख्या में बस्तियाँ और प्रतिष्ठान हो सकते हैं। प्रत्येक मामले में 25 सेंट की अनुमति देने का मतलब है कि भारी मात्रा में वन भूमि का उपयोग किया जा सकता है।
दरअसल, जब केंद्रीय मंजूरी के बिना राज्य के राजमार्गों के लिए वन भूमि का अधिग्रहण करने की मांग की गई, तो आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इसे रद्द कर दिया। कानून में यही स्थिति है। अब विधेयक रेल लाइनों और राजमार्गों के किनारे अधिक वन भूमि को किसी भी प्रतिबंध से मुक्त करना चाहता है। यह उच्च न्यायपालिका के आदेशों के उल्लंघन के अर्थ में कानून का भी उल्लंघन है।
विधेयक में "सार्वजनिक उपयोगिता" को परिभाषित किए बिना किसी भी "सार्वजनिक उपयोगिता" परियोजना के लिए वामपंथी उग्रवाद क्षेत्रों में 5 हेक्टेयर वन भूमि को छूट देने का प्रावधान है। और ऐसी "सार्वजनिक उपयोगिताओं" की संख्या असीमित हो सकती है।
इकोटूरिज्म गतिविधियाँ, वन सफ़ारी, प्राणी उद्यान, और वन कर्मचारियों के लिए सहायक बुनियादी ढाँचा आदि वन भूमि में शुरू किए जा सकते हैं और उनके लिए उपयोग की जाने वाली भूमि को गैर-वन गतिविधियों के लिए डायवर्जन के रूप में नहीं माना जाएगा क्योंकि इन्हें भी विधेयक के अनुसार वन गतिविधियाँ इसका हिस्सा माना जाता है।
अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के 100 किलोमीटर के भीतर के क्षेत्रों को पूर्ण छूट
राज्यसभा द्वारा पारित विधेयक सरकार द्वारा शुरू की जाने वाली राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी परियोजनाओं के लिए नियंत्रण रेखा और वास्तविक नियंत्रण रेखा जैसी अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के साथ की 100 किलोमीटर भूमि को छूट देता है। यह मानते हुए कि भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की कुल लंबाई लगभग 15,200 किलोमीटर है, यह 15.2 लाख वर्ग किलोमीटर होगी जहां वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 लागू नहीं होगा। यह मानते हुए कि 100 हेक्टेयर में 1 वर्ग किमी शामिल है, कुल 1500 लाख हेक्टेयर को किसी भी वन संरक्षण से छूट दी गई है। इन क्षेत्रों में 10 हेक्टेयर वन भूमि को किसी भी सुरक्षा संबंधी परियोजना के लिए डायवर्ट किया जा सकता है। यह संवेदनहीन है। इससे जैव विविधता से समृद्ध हिमालय की तलहटी के पूरे हिस्से और पूर्वोत्तर भारत के विशाल क्षेत्रों को किसी भी वन संरक्षण से छूट मिल जाएगी। नागरिक नौकरशाही लालची सैन्य नौकरशाही की मदद कर रही है। इतने बड़े क्षेत्र को व्यापक छूट देने के बजाय केवल विशिष्ट परियोजनाओं को छूट देना ही उचित होगा। सैन्य नौकरशाही प्रस्तावित परियोजनाओं के नाम पर विशाल क्षेत्रों को हड़प सकती है, लेकिन उन्हें कभी शुरू नहीं करती। फिर भी वे हड़पे गए क्षेत्र में पेड़ों को काट सकते हैं।
गोदावर्मन तिरुमुलपाद मामले में 1996 के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को पलटना
वन क्षेत्रों में अनाधिकृत रूप से बसने वालों से संबंधित गोदावर्मन तिरुमुलपाद मामले में, सर्वोच्च न्यायालय को पता चला कि भारत के कई राज्यों में वनों के विशाल क्षेत्रों को किसी भी राज्य कानून के तहत वनों के रूप में दर्ज नहीं किया गया है। इसलिए स्वाभाविक रूप से वे 1980 के वन (संरक्षण) अधिनियम के सुरक्षात्मक आवरण से बाहर रहे। इस विसंगति को दूर करने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने रिकॉर्ड बुक में उनकी कानूनी स्थिति की परवाह किए बिना घने वनस्पति के तहत सभी क्षेत्रों को वन क्षेत्रों के रूप में फिर से परिभाषित किया। इन क्षेत्रों को बाद में "मानित वन" (Deemed Forests) के रूप में जाना जाने लगा। इन ज़मीनों को छूट देकर और इस बात पर ज़ोर देकर कि केवल दर्ज वन ही 1980 के वन (संरक्षण) अधिनियम के दायरे में आएंगे, यह विधेयक सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को ही कमज़ोर कर देता है।
एक ही दिन में परस्पर विरोधी कानून पारित करना
विडंबना यह है कि यह वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 उसी दिन राज्यसभा द्वारा पारित किया गया था जब उसने जैव विविधता विधेयक 2023 पारित किया था। वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 के समान, जैव विविधता विधेयक 2023 भी केवल कारपोरेट हितों का समर्थन करता है; कारपोरेट घरानों को जैव विविधता संसाधनों के साथ वाणिज्य में संलग्न होने की एकमात्र शर्त यह है कि लाभ का एक हिस्सा स्थानीय समुदायों के साथ साझा किया जाना चाहिए और इसने जैव विविधता संसाधनों से संबंधित सभी अपराधों को अपराध से मुक्त कर दिया। फिर भी, यह जैव विविधता की रक्षा का दिखावा करता है। लेकिन वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 जैव विविधता से समृद्ध वनों के विशाल क्षेत्रों को व्यावसायिक दोहन के लिए खोलकर इसके विपरीत काम करता है।
संविधान की संघीय भावना के विपरीत कानून में असंवैधानिक प्रावधान
वन संविधान की समवर्ती सूची में आते हैं। इसका मतलब यह है कि वनों के प्रबंधन में राज्यों की भी बराबर की भागीदारी होगी। लेकिन इस विधेयक में एक प्रावधान है जो 1980 के वन (संरक्षण) अधिनियम में निम्नलिखित खंड को सम्मिलित करने का प्रस्ताव करता है:
"3सी. केंद्र सरकार, समय-समय पर, केंद्र सरकार, राज्य सरकार या केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन के तहत किसी भी प्राधिकारी, या केंद्र सरकार, राज्य सरकार या केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन द्वारा मान्यता प्राप्त किसी संगठन, इकाई या निकाय को ऐसे निर्देश जारी कर सकती है, जैसा कि इस अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए आवश्यक हों।" यह संविधान की संघीय भावना का खुला उल्लंघन है।
संविधान के अनुच्छेद 254(1) के अनुसार, यदि किसी विषय में राज्य का कानून केंद्रीय कानून के साथ टकराव में आता है, तो केंद्रीय कानून लागू हो जाएगा। इसका मतलब यह है कि केवल एक केंद्रीय कानून के पास राज्य के कानून पर भारी पड़ने की शक्ति है, न कि किसी केंद्रीय नौकरशाह द्वारा किसी राज्य सरकार और केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन को जारी किए गए किसी भी "निर्देश" को।
संविधान केंद्र द्वारा इस तरह के नौकरशाही अधिनायकवाद को कोई मंजूरी नहीं देता है। फिर भी, संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित इस विधेयक में इस असंवैधानिक प्रावधान को जगह मिली है!
वनवासियों, पर्यावरण और भारत के जलवायु एजेंडे के ख़िलाफ़ विधेयक
कुछ पर्यावरणविदों का दावा है कि पारित विधेयक के अधिसूचित कानून बनने पर भारत में 20-25% वन क्षेत्रों की सुरक्षा समाप्त हो जाएगी। यह विधेयक वन अधिनियम द्वारा प्रदान किए गए पारंपरिक वन समुदायों के वन अधिकारों के बारे में कुछ नहीं कहता है। अनुसूची V और VI में किसी भी भूमि को ग्राम सभा की सहमति के बिना खनन जैसी गैर-वन गतिविधि में नहीं लगाया जा सकता है, भले ही ये भूमि वन क्षेत्रों के रूप में दर्ज न की गई हो। यह विधेयक इस प्रावधान की भी अनदेखी करता है। इसका मतलब है कि कंपनियां नियामगिरी में भी बॉक्साइट खनन शुरू कर सकती हैं जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है।
इस प्रकार यह विधेयक न केवल आदिवासियों/वनवासियों और पर्यावरण के विरुद्ध है बल्कि भारत के जलवायु एजेंडे के भी विरुद्ध है ।
(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)