सम्मेलन में सांप्रदायिकता और बढ़ते पूंजीवाद आदि के खतरों पर भी मंथन हुआ और जन सवाल पर एकजुट होने की जरूरत और प्रतिबद्धता जताई गई। कहा कि इंडिया गठबंधन हो या कोई पार्टी, भाजपा जैसी सांप्रदायिक पार्टी को तब तक शिकस्त नहीं दे सकती, जब तक उसके साथ देश का जन आंदोलन खड़ा नहीं होता।
"अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के भभुआ कैमूर (बिहार) में आयोजित तीसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में वक्ताओं ने दो टूक कहा कि, वनाधिकार कानून को लागू किए बिना जंगल में रहने वाले लोगों का भला नहीं होगा। सरकार जल जंगल जमीन को लोगों के अधीन करें। सम्मेलन में सांप्रदायिकता और बढ़ते पूंजीवाद आदि के खतरों पर भी मंथन हुआ और जन सवाल पर एकजुट होने की जरूरत और प्रतिबद्धता जताई गई। कहा कि इंडिया गठबंधन हो या कोई पार्टी, भाजपा जैसी सांप्रदायिक पार्टी को तब तक शिकस्त नहीं दे सकती, जब तक उसके साथ देश का जन आंदोलन खड़ा नहीं होता। मामला अब पार्टियों के दायरे से बाहर जा चुका है और बिना जन पहल के सत्ता में आमूलचूल परिवर्तन असंभव है। दलित, पिछड़े, मुसलमान, आदिवासी, नौजवान, किसान, मजदूर, गरीब तबके और महिलाओं को एकजुट कर लड़ना होगा। राष्ट्रीय सम्मेलन में 'छीनी गई जमीन पर दखल लेने और ग्राम सभा को सशक्त बनाने आदि प्रस्ताव भी पारित किए गए।"
29 नवंबर से 1 दिसंबर के तीन दिनी राष्ट्रीय सम्मेलन की शुरुआत यूनियन द्वारा भभुआ शहर में रैली निकालकर की गई, जिसमें यूनियन के अलावा बिरादराना संगठनों के प्रतिनिधियों ने शिरकत की। रैली में लोग जल जंगल जमीन हमारा है, वन अधिकार कानून लागू करो आदि नारे लगा रहे थे। तीसरे राष्ट्रीय सम्मेलन को शुरू करने से पहले रिक्रिएशन क्लब में बनी शहीद वेदी पर पुष्पांजलि अर्पित कर लोगों ने शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि दी और उनके सपनों को मंजिल तक पहुंचाने का संकल्प लिया। इसके बाद यूनियन की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोकालो गोंड की अध्यक्षता में खुले सत्र का शुभारंभ हुआ।
खुला सत्र को संबोधित करते हुए यूनियन की महासचिव रोमा, कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी, संगठन सचिव अविजित ने कहा कि जंगल में बाघ नहीं, समुदाय का ख्याल रखो। कहा बिना वनाधिकार कानून को लागू किए जंगल में रहने वाले लोगों का भला नहीं हो सकता। इस दौरान सांप्रदायिकता और बढ़ते पूंजीवाद के खतरों और राजनीतिक समाधान पर बोलते हुए वक्ताओं ने कहा कि अपने बलबूते इंडिया गठबंधन भाजपा जैसी सांप्रदायिक पार्टी को शिकस्त तब तक नहीं दे सकता है, जब तक उनके साथ देश का जन आंदोलन खड़ा नहीं होता है। मामला अब पार्टियों के दायरे से बाहर जा चुका है और बिना जन पहल के सत्ता में आमूलचूल परिवर्तन असम्भव है।
राजनीतिक चर्चा के दौरान यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी ने कहा कि वन संपदा जंगल में रहने वालों की है। इसी से उनकी सामाजिक और राजनीतिक पहचान है। पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर, भाकपा माले की केंद्रीय कमेटी के सदस्य मनोज मनजीत, जिला सचिव विजय यादव आदि ने कहा कि देश में जन आंदोलन बढ़ा है। जन सवाल पर हमें एकजुट होने की जरूरत है। दलित, पिछड़े, मुसलमान, आदिवासी, नौजवान, किसान, मजदूर और गरीब तबके की महिलाओं को एकजुट कर उनकी समस्याओं के खिलाफ लड़ना है। वनवासियों के पक्ष में जल, जंगल, जमीन और श्रम अधिकारों के सवाल पर बड़े आंदोलन की जरूरत है। इसके लिए एक मंच पर आने की जरूरत है।
वरिष्ठ पत्रकार एवं सचिव सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस, तीस्ता सेतलवाड़ ने देश में पूंजीवाद के द्वारा खतरनाक तरीके से सामूहिक संसाधनों पर कब्जे की कोशिशों के प्रति आगाह करते हुए भरोसा दिलाया कि इनका भी अंत हो सकता है, जरूरत एकजुट होकर खड़े होने की है। तीस्ता ने लोकशाही में चुनाव आयोग की भूमिका पर बोलते हुए कहा कि पूंजीवादी ताकतों ने चुनाव आयोग को खोखला कर दिया है। जो थोड़ी बहुत बची हुई लोकशाही को भी खत्म करने का काम कर रहा है। उन्होंने चुनावी व्यवस्था की बाबत कहा कि जब लश्कर में जवान को पोस्टल बैलेट से वोट का अधिकार है तो हमारे प्रवासी मजदूरों को यह अधिकार क्यों नहीं है?। उन्होंने कहा कि हर इंसान को वोट देने और सरकारों को बदलने और रखने का अधिकार है। कहा इसके लिए हम मुहिम चलाएंगे और जल्द ही एक याचिका भी दायर करने जा रहे हैं।
जल, जंगल, जमीन लोगों के अधीन करे सरकार
अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन के भभुआ सम्मेलन में वनों में रहने वाले लोगों के लिए जल जंगल जमीन के अधिकारों की मांग की गई। और ग्राम सभा को सशक्त बनाने और संघर्ष के माध्यम से अधिकार हासिल करने का आह्वान किया गया। जी हां, यूनियन के राष्ट्रीय सम्मेलन में बाकायदा प्रस्ताव पास कर कहा गया कि, 'छीनी गई जमीन पर दखल करेंगे और ग्राम सभा को सशक्त बनाएंगे'। यूनियन अध्यक्ष सुकालो गोंड ने कहा कि वनों की जमीन वहां रह रहे लोगों की है। सरकार जल जंगल जमीन को लोगों के अधीन करें। जंगलों में जानवरों को पीने के लिए पानी और आग से निपटने का प्रबंध करें। कहा सरकार उनकी बातें नहीं सुनेगी तो दीर्घकालीक संघर्ष का रास्ता अख्तियार करेंगे। यूरोप में संघर्ष हुआ तो वहां के लोगों को उनका अधिकार मिला। यहां भी हम संघर्ष की बदौलत अपना हक लेंगे।
राष्ट्रीय सम्मेलन में शनिवार को पेश राजनीतिक व सांगठनिक प्रस्ताव पर बोलते हुए यूनियन की राष्ट्रीय महासचिव रोमा ने सांगठनिक व कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी ने राजनीतिक एजेंडा पेश किया, जिस पर प्रतिनिधियों ने चर्चा के बाद इसे सर्वसम्मति से पास कर दिया। अशोक चौधरी ने कहा कि वन संपदा जंगल में रहने वालों की है और इसी से उनकी सामाजिक और राजनीतिक पहचान है। इसके साथ प्रस्तावों पर चर्चा के दौरान वक्ताओं ने कहा कि जंगल व कृषि योग्य जमीन पर सरकार उद्योग लगवा रही है। जंगल, जानवर, पेड़ कम हो रहे हैं, जिससे प्रदूषण बढ़ रहा है और जलवायु परिवर्तन का सामना करना पड़ रहा है। सरकार अनाज का दाम बढ़ाकर खाद, बीज, कृषि यंत्र के मूल्यों में वृद्धि कर रही है। जैविक खेती करें। हमें ग्राम को और सशक्त बनाना है। उपर से नीचे तक सामूहिक नेतृत्व की जरूरत है। पूंजीवादी व्यवस्था को ध्वस्त कर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लड़ेंगे। अध्यक्ष मंडल के सदस्यों सोकालो गोंड, तीस्ता सेतलवाड़, अशोक चौधरी, रोमा, माता दयाल, मुन्नी लाल आदि ने विस्तार से विषयों को रखा।
सम्मेलन में प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित समुदाय पर दिल्ली फोरम की प्रिय दर्शनी, सामाजिक- राजनीतिक आंदोलन का अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर अविजीत व विजयेन, संस्कृति, शिक्षा व स्वास्थ्य पर प्रो शुभेंदु घोष ने चर्चा की। कैमूर मुक्ति मोर्चा के बालकेश्वर व राजेंद्र ने भी संबोधित किया। सम्मेलन में नेपाल, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, तामिलनाडु, उत्तरखंड, झारखंड, बिहार, केरल, बंगाल के प्रतिनिधियों के अलावा बिरादराना संगठनों मछुआरा संगठन, सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस, दिल्ली समर्थक समूह, फोकस ऑन ग्लोबल साउथ, खोज आदि के प्रतिनिधि भी पहुंचे थे। तीन दिनों तक चलने वाले सम्मेलन के तीसरे दिन रविवार को राष्ट्रीय समिति के गठन व पदाधिकारियों के चयन के साथ भविष्य के कार्यक्रमों पर चर्चा की गई।
वनाधिकार कानून की पृष्ठभूमि पर भी वक्ताओं ने डाला प्रकाश
वक्ताओं ने अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वनाधिकार मान्यता) कानून-2006 की पृष्ठभूमि पर भी प्रकाश डालते हुए कहा कि कालांतर में आदिवासियों से बड़े पैमाने पर जमीनें छीनी गई। कहा यही सब वो जमीनें हैं जिसे बाद में वन-भूमि घोषित कर दिया गया और जिसके चलते वहां खेती कर रहे आदिवासियों और वन निवासियों को अचानक से अवैध घोषित कर दिया गया। यही नहीं, उन्हें खेती करने से रोकने को तरह-तरह से परेशान किया गया और किया जा रहा है। इसी उत्पीड़न को दूर करने को आए वनाधिकार कानून की प्रस्तावना में भी, अरसे से जारी इस उत्पीड़न को ‘ऐतिहासिक अन्याय’ की संज्ञा देते हुए, दूर करने का भरोसा दिया गया तथा आदिवासियों और वनाश्रित समुदाय के वनाधिकार को मान्यता प्रदान किए जाने की बात कही गई।
वनाधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार, वन विभाग उनके साथ, जंगलों का भी दुश्मन है। कहा, विभाग का गठन ही वनों के कटान के लिए हुआ था। जबकि उनके तो पुरखे भी जंगलों में जन्मे हैं और अरसे से यही रहते आ रहे हैं। कहा आदिवासियों और परंपरागत वनवासियों से उनकी भूमि और वन संसाधनों के मालिकाना हकों को छीनकर वन विभाग को जंगलों का थानेदार बना देना तब भले औपनिवेशिक हुकूमत का राजनैतिक व आर्थिक ध्येय रहा होगा, लेकिन आजादी के 77 बरस बाद, उसी चरित्र के साथ खड़े औपनिवेशिक वन प्रशासन के वजूद पर आज सवाल उठाए ही जाने चाहिए। वैसे भी वन विभाग का वैधानिक लक्ष्य हरित क्षेत्र का संरक्षण होता तो सघन वनों के क्षेत्रफल में लगातार गिरावट जारी नहीं रहती? वहीं, यदि वन विभाग का प्रशासनिक दायित्व वन भूमि की रक्षा थी/है तो लाखों हेक्टेयर वन भूमि के अधिग्रहण पर वो मौन क्यों हैं?।