भारतीय जलाशय जिस तरह सूखते गए हैं, जल जीवन मिशन के लिए पानी ही नहीं है। सरकार को इससे आगे, कुछ बड़ा सोचना होगा
भारत इस वक्त इतिहास की सबसे ज्यादा गर्म गर्मियों में से एक से जूझ रहा है। शीतकालीन वर्षा की विफलता और संपूर्ण हिमालय क्षेत्र में जंगल की आग की भयावहता ने पहले से ही हालात अनिश्चित कर रखे हैं। मार्च में ही भारत के प्रमुख जलाशय एक दशक में अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुके थे जब इनकी कुल क्षमता का सिर्फ 25 प्रतिशत ही पानी भर पाया। यह केन्द्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) के आंकड़ों का सच है जो पीने, सिंचाई और पनबिजली के महत्वपूर्ण स्रोत इन 150 जलाशयों की निगरानी करता है।
मानसून की बारिश अगर अब भी जल्द न हुई तो सरकार को इसी महीने या जुलाई तक पेयजल और बिजली की राशनिंग का सहारा लेना पड़ सकता है। केन्द्रीय जल आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि हालात बिगड़े तो बिजली उत्पादन पर पेयजल आपूर्ति को प्राथमिकता दी जाएगी।
सबसे ज्यादा बुरा हाल दक्षिणी राज्यों का है। बेंगलुरु के मुख्य जलाशय की क्षमता मात्र 16 प्रतिशत रह गई है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में तो संकट और बड़ा है क्योंकि वहां के 42 जलाशयों की क्षमता घटकर 14 प्रतिशत से भी कम हो गई है। यह पिछले वर्ष की समान अवधि के दौरान 55.037 बीसीएम (अरब घन मीटर) से 21 प्रतिशत की कमी दर्शाता है और जो पिछले दस वर्षों के औसत के आधार पर 45.480 बीसीएम के सामान्य भंडारण से काफी कम है।
उत्तर में भी हालात उतने ज्यादा ही खराब हैं। कृषि प्रधान राज्यों उत्तर प्रदेश और पंजाब में जलस्तर दस साल के औसत से काफी नीचे है। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की स्थिति भी बेहतर नहीं है।
कम जल स्तर के लिए खराब मानसून को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है- जैसे, पिछले साल 2018 के बाद से सबसे हल्की बारिश हुई। अल नीनो असर के कारण अगस्त, 2023 बीती एक सदी से भी अधिक समय में सबसे शुष्क रहा जिसके परिणामस्वरूप कुछ क्षेत्रों में अन्य की तुलना में अधिक बारिश हुई।
मानसून का मौसम जो कभी चार महीने तक चलता था, अब 30 दिन से भी कम भारी बारिश वाला रह गया है। लेकिन अधर में लटकी वर्षा जल संचयन योजनाओं के कारण हम यह बहुमूल्य वर्षा भी संरक्षित नहीं कर पाते।
हमारे जंगलों की कीमत पर बुनियादी ढांचे के निर्माण पर ध्यान केन्द्रित करने वाली राज्य सरकारों का ढुलमुल रवैया पहले से खराब हालात को और बदतर बना रहा है। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हुई है। शोध बताते हैं कि बड़े पैमाने पर वनों की कटाई ने हमारे मानसून पर प्रतिकूल असर डाला है, नतीजतन वर्षा का स्तर कम हो गया है। कारण बहुत आम है: पेड़ कम होंगे तो पत्तियां भी कम होंगी जो पानी को वापस वायुमंडल में भेजने का काम करती हैं और यही सब शुष्क मौसम का कारण बनता है।
उत्तराखंड की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए प्रख्यात पर्यावरणविद् डॉ शेखर पाठक कहते हैं, “जंगलों का भयावह नुकसान हुआ है; और इन जंगलों के भीतर उत्पन्न होने वाले झरनों में बीते साठ वर्षों के दौरान 80 प्रतिशत की गिरावट आई है।”
2019 में, नीति आयोग ने भारत की जल स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी की जिसमें चेतावनी दी गई कि भारत अपने इतिहास के सबसे खराब जल संकट से गुजर रहा है और लाखों लोगों की जान और आजीविका खतरे में है। 600 मिलियन भारतीयों को उच्च से अत्यधिक पानी के तनाव का सामना करना पड़ा और सुरक्षित पानी तक अपर्याप्त पहुंच के कारण हर साल 2,00,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई।
रिपोर्ट में चेतावनी है कि दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद सहित 21 शहरों में भूजल खत्म हो जाएगा और जिसका प्रतिकूल असर सीधे-सीधे लाखों लाख लोगों पर पड़ेगा। इसके अलावा यह भी कि भारत की 40 प्रतिशत जल आपूर्ति अस्थिर दर से समाप्त हो रही है जबकि अन्य 70 प्रतिशत प्रदूषित थी।
अब तो लगता है कि यह भयावह कहानी पूरे देश की ही है। कभी धरती पर सबसे अधिक नमी वाला स्थान चेरापूंजी अब हर शीत ऋतु में सूखे का सामना करता है। कभी बड़ी संख्या में जलाशयों और झीलों से समृद्ध रहने वाले चेन्नई और बेंगलुरु पूरी तरह से पानी के टैंकरों पर निर्भर हो चुके हैं।
जंगलों के संरक्षण और हमारे प्राकृतिक झरनों को पुनर्जीवित करने की असल कार्रवाई के बजाय, इस राष्ट्रव्यापी संकट के प्रति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रतिक्रिया जल जीवन मिशन शुरू करने तक सीमित है जिसका उद्देश्य घरों में नल का पानी उपलब्ध कराना है। इसके लिए 3.6 लाख करोड़ रुपये अलग रखे गए हैं और जल शक्ति मंत्रालय का दावा है कि वह पहले ही 30 मिलियन नए घरों में नल का पानी उपलब्ध करा चुका है।
लेकिन जैसा कि एक जल कार्यकर्ता का कहना है, जल जीवन मिशन नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाई) की राह पर जा सकता है जिसने गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली महिलाओं को लकड़ी और कोयला का इस्तेमाल कम करने के लिए मुफ्त गैस सिलेंडर और सब्सिडी वाले स्टोव उपलब्ध कराए। लाखों महिलाएं उज्ज्वला योजना से जुड़ीं लेकिन जल्द ही उन्हें पता चल गया कि वे नया सिलेंडर खरीदने में तो सक्षम ही नहीं हैं। तो क्या जल जीवन मिशन एक और ‘गैसबैग’ योजना है? मतलब, बुनियादी ढांचा देने के नाम पर लाखों रुपये खर्च किए जाएंगे लेकिन एक सबसे महत्वपूर्ण और लुप्त होती वस्तु ‘पानी’ का ध्यान नहीं रखा जाएगा।
हमारे महत्वपूर्ण भूजल और सतही जल संसाधनों का 80 प्रतिशत हिस्सा पहले से ही मानव गतिविधियों के कारण दूषित है। हमारे शेष बचे जल स्रोतों का 85 प्रतिशत कृषि गतिविधियों के लिए चला जाता है, जबकि बाकी 15 प्रतिशत औद्योगिक और घरेलू उपयोग के काम आता है। ऐसे में, किसान समुदाय के साथ सरकार के टकराव के कारण मोदी सरकार के लिए खासा मुश्किल होगा कि उन्हें पानी की अधिक खपत वाली फसलें उगाने से बचने के लिए प्रेरित किया जाए और इसके लिए जरूरी आत्मविश्वास उनके अंदर पैदा किया जाए।
उपग्रह चित्रों द्वारा समर्थित भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के एक अध्ययन से पता चलता है कि भारत की 40 प्रतिशत से अधिक भूमि क्षरण से प्रभावित है जिसमें मरुस्थलीकरण एक प्रमुख घटक है। यह एक खासी भयावह स्थित है क्योंकि संक्षेप में कहें तो हमारी उपजाऊ भूमि तेजी से रेगिस्तान में परिवर्तित हो रही है।
उपजाऊ जमीन का इस तरह रेगिस्तान में बदलते जाना हमारे जल संकट में वृद्धि का कारण बनेगा और जो बदले में हमारी जल सुरक्षा पर विपरीत असर डालने वाला होगा। बेंगलुरु में नेशनल सेंटर फॉर अर्थ साइंस स्टडीज के वैज्ञानिक डॉ. सी.पी. राजेंद्रन बताते हैं, “हमारे बड़े और छोटे नदी बेसिनों में बहुत कम पानी का बचना सरकार के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। किसी भी नदी बेसिन को लीजिए और हम पाएंगे कि पानी का स्तर तेजी से कम हो रहा है। सरकार ने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में कई बांधों के निर्माण को जिस तरह मंजूरी दे दी है, यह हमारी नदियों को और नष्ट करने वाला साबित होगा। भूजल स्तर गिरने से, हमने जो खोया है उसे हम दोबारा हासिल नहीं कर पाएंगे।”
हमारी नदियों के घटते जल स्तर ने हमें भूजल पर निर्भर बना दिया है। भारत दुनिया में भूजल का सबसे ज्यादा दोहन करने वाले देश के रूप में उभरा है- जितना कि अमेरिका और चीन मिलकर भी नहीं निकालते, हम उसकी तुलना में कहीं ज्यादा भूजल दोहन करते हैं। ‘साइंस’ में प्रकाशित एक अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि 2025 तक उत्तर-पश्चिमी और दक्षिणी भारत के बड़े हिस्से में ‘भूजल उपलब्धता गंभीर रूप से कम’ हो जाएगी। अब यह ‘जल महायुद्ध’ जैसी स्थिति है। सरकार को उन मिशनों की घोषणा करने से बेहतर करने की जरूरत है, जो छेद वाली बाल्टी में टपकती हुई एक बूंद से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
Courtesy: navjivanindia.com
भारत इस वक्त इतिहास की सबसे ज्यादा गर्म गर्मियों में से एक से जूझ रहा है। शीतकालीन वर्षा की विफलता और संपूर्ण हिमालय क्षेत्र में जंगल की आग की भयावहता ने पहले से ही हालात अनिश्चित कर रखे हैं। मार्च में ही भारत के प्रमुख जलाशय एक दशक में अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुके थे जब इनकी कुल क्षमता का सिर्फ 25 प्रतिशत ही पानी भर पाया। यह केन्द्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) के आंकड़ों का सच है जो पीने, सिंचाई और पनबिजली के महत्वपूर्ण स्रोत इन 150 जलाशयों की निगरानी करता है।
मानसून की बारिश अगर अब भी जल्द न हुई तो सरकार को इसी महीने या जुलाई तक पेयजल और बिजली की राशनिंग का सहारा लेना पड़ सकता है। केन्द्रीय जल आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि हालात बिगड़े तो बिजली उत्पादन पर पेयजल आपूर्ति को प्राथमिकता दी जाएगी।
सबसे ज्यादा बुरा हाल दक्षिणी राज्यों का है। बेंगलुरु के मुख्य जलाशय की क्षमता मात्र 16 प्रतिशत रह गई है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में तो संकट और बड़ा है क्योंकि वहां के 42 जलाशयों की क्षमता घटकर 14 प्रतिशत से भी कम हो गई है। यह पिछले वर्ष की समान अवधि के दौरान 55.037 बीसीएम (अरब घन मीटर) से 21 प्रतिशत की कमी दर्शाता है और जो पिछले दस वर्षों के औसत के आधार पर 45.480 बीसीएम के सामान्य भंडारण से काफी कम है।
उत्तर में भी हालात उतने ज्यादा ही खराब हैं। कृषि प्रधान राज्यों उत्तर प्रदेश और पंजाब में जलस्तर दस साल के औसत से काफी नीचे है। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की स्थिति भी बेहतर नहीं है।
कम जल स्तर के लिए खराब मानसून को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है- जैसे, पिछले साल 2018 के बाद से सबसे हल्की बारिश हुई। अल नीनो असर के कारण अगस्त, 2023 बीती एक सदी से भी अधिक समय में सबसे शुष्क रहा जिसके परिणामस्वरूप कुछ क्षेत्रों में अन्य की तुलना में अधिक बारिश हुई।
मानसून का मौसम जो कभी चार महीने तक चलता था, अब 30 दिन से भी कम भारी बारिश वाला रह गया है। लेकिन अधर में लटकी वर्षा जल संचयन योजनाओं के कारण हम यह बहुमूल्य वर्षा भी संरक्षित नहीं कर पाते।
हमारे जंगलों की कीमत पर बुनियादी ढांचे के निर्माण पर ध्यान केन्द्रित करने वाली राज्य सरकारों का ढुलमुल रवैया पहले से खराब हालात को और बदतर बना रहा है। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हुई है। शोध बताते हैं कि बड़े पैमाने पर वनों की कटाई ने हमारे मानसून पर प्रतिकूल असर डाला है, नतीजतन वर्षा का स्तर कम हो गया है। कारण बहुत आम है: पेड़ कम होंगे तो पत्तियां भी कम होंगी जो पानी को वापस वायुमंडल में भेजने का काम करती हैं और यही सब शुष्क मौसम का कारण बनता है।
उत्तराखंड की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए प्रख्यात पर्यावरणविद् डॉ शेखर पाठक कहते हैं, “जंगलों का भयावह नुकसान हुआ है; और इन जंगलों के भीतर उत्पन्न होने वाले झरनों में बीते साठ वर्षों के दौरान 80 प्रतिशत की गिरावट आई है।”
2019 में, नीति आयोग ने भारत की जल स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी की जिसमें चेतावनी दी गई कि भारत अपने इतिहास के सबसे खराब जल संकट से गुजर रहा है और लाखों लोगों की जान और आजीविका खतरे में है। 600 मिलियन भारतीयों को उच्च से अत्यधिक पानी के तनाव का सामना करना पड़ा और सुरक्षित पानी तक अपर्याप्त पहुंच के कारण हर साल 2,00,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई।
रिपोर्ट में चेतावनी है कि दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद सहित 21 शहरों में भूजल खत्म हो जाएगा और जिसका प्रतिकूल असर सीधे-सीधे लाखों लाख लोगों पर पड़ेगा। इसके अलावा यह भी कि भारत की 40 प्रतिशत जल आपूर्ति अस्थिर दर से समाप्त हो रही है जबकि अन्य 70 प्रतिशत प्रदूषित थी।
अब तो लगता है कि यह भयावह कहानी पूरे देश की ही है। कभी धरती पर सबसे अधिक नमी वाला स्थान चेरापूंजी अब हर शीत ऋतु में सूखे का सामना करता है। कभी बड़ी संख्या में जलाशयों और झीलों से समृद्ध रहने वाले चेन्नई और बेंगलुरु पूरी तरह से पानी के टैंकरों पर निर्भर हो चुके हैं।
जंगलों के संरक्षण और हमारे प्राकृतिक झरनों को पुनर्जीवित करने की असल कार्रवाई के बजाय, इस राष्ट्रव्यापी संकट के प्रति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रतिक्रिया जल जीवन मिशन शुरू करने तक सीमित है जिसका उद्देश्य घरों में नल का पानी उपलब्ध कराना है। इसके लिए 3.6 लाख करोड़ रुपये अलग रखे गए हैं और जल शक्ति मंत्रालय का दावा है कि वह पहले ही 30 मिलियन नए घरों में नल का पानी उपलब्ध करा चुका है।
लेकिन जैसा कि एक जल कार्यकर्ता का कहना है, जल जीवन मिशन नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाई) की राह पर जा सकता है जिसने गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली महिलाओं को लकड़ी और कोयला का इस्तेमाल कम करने के लिए मुफ्त गैस सिलेंडर और सब्सिडी वाले स्टोव उपलब्ध कराए। लाखों महिलाएं उज्ज्वला योजना से जुड़ीं लेकिन जल्द ही उन्हें पता चल गया कि वे नया सिलेंडर खरीदने में तो सक्षम ही नहीं हैं। तो क्या जल जीवन मिशन एक और ‘गैसबैग’ योजना है? मतलब, बुनियादी ढांचा देने के नाम पर लाखों रुपये खर्च किए जाएंगे लेकिन एक सबसे महत्वपूर्ण और लुप्त होती वस्तु ‘पानी’ का ध्यान नहीं रखा जाएगा।
हमारे महत्वपूर्ण भूजल और सतही जल संसाधनों का 80 प्रतिशत हिस्सा पहले से ही मानव गतिविधियों के कारण दूषित है। हमारे शेष बचे जल स्रोतों का 85 प्रतिशत कृषि गतिविधियों के लिए चला जाता है, जबकि बाकी 15 प्रतिशत औद्योगिक और घरेलू उपयोग के काम आता है। ऐसे में, किसान समुदाय के साथ सरकार के टकराव के कारण मोदी सरकार के लिए खासा मुश्किल होगा कि उन्हें पानी की अधिक खपत वाली फसलें उगाने से बचने के लिए प्रेरित किया जाए और इसके लिए जरूरी आत्मविश्वास उनके अंदर पैदा किया जाए।
उपग्रह चित्रों द्वारा समर्थित भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के एक अध्ययन से पता चलता है कि भारत की 40 प्रतिशत से अधिक भूमि क्षरण से प्रभावित है जिसमें मरुस्थलीकरण एक प्रमुख घटक है। यह एक खासी भयावह स्थित है क्योंकि संक्षेप में कहें तो हमारी उपजाऊ भूमि तेजी से रेगिस्तान में परिवर्तित हो रही है।
उपजाऊ जमीन का इस तरह रेगिस्तान में बदलते जाना हमारे जल संकट में वृद्धि का कारण बनेगा और जो बदले में हमारी जल सुरक्षा पर विपरीत असर डालने वाला होगा। बेंगलुरु में नेशनल सेंटर फॉर अर्थ साइंस स्टडीज के वैज्ञानिक डॉ. सी.पी. राजेंद्रन बताते हैं, “हमारे बड़े और छोटे नदी बेसिनों में बहुत कम पानी का बचना सरकार के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। किसी भी नदी बेसिन को लीजिए और हम पाएंगे कि पानी का स्तर तेजी से कम हो रहा है। सरकार ने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में कई बांधों के निर्माण को जिस तरह मंजूरी दे दी है, यह हमारी नदियों को और नष्ट करने वाला साबित होगा। भूजल स्तर गिरने से, हमने जो खोया है उसे हम दोबारा हासिल नहीं कर पाएंगे।”
हमारी नदियों के घटते जल स्तर ने हमें भूजल पर निर्भर बना दिया है। भारत दुनिया में भूजल का सबसे ज्यादा दोहन करने वाले देश के रूप में उभरा है- जितना कि अमेरिका और चीन मिलकर भी नहीं निकालते, हम उसकी तुलना में कहीं ज्यादा भूजल दोहन करते हैं। ‘साइंस’ में प्रकाशित एक अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि 2025 तक उत्तर-पश्चिमी और दक्षिणी भारत के बड़े हिस्से में ‘भूजल उपलब्धता गंभीर रूप से कम’ हो जाएगी। अब यह ‘जल महायुद्ध’ जैसी स्थिति है। सरकार को उन मिशनों की घोषणा करने से बेहतर करने की जरूरत है, जो छेद वाली बाल्टी में टपकती हुई एक बूंद से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
Courtesy: navjivanindia.com