''पानी की बहुत परेशानी है हमें। पीने के लिए साफ़ पानी तो मिलता ही नहीं। जब से होश संभाला है तब से लेकर आज तक हम पानी ही ढो रहे हैं। अगर हिसाब जोड़ा जाए तो आधा दिन पानी ढोने में गुज़र जाता है। यह सिलसिला तब से चल रहा है जब से हमने अपने घर के बाहर निकलना सीखा है। लाचारी में पहाड़ से निकलने वाले चुआड़ के पानी से प्यास बुझानी पड़ती है। शायद यही पानी हमारे नसीब में है।"
जंगलों से घिरे दुर्गम गांव पंडी की रजवंती (46) यह कहते-कहते भावुक हो जाती हैं। वह कहती हैं, "हमारे गांव में सिर्फ एक हैंडपंप है। गर्मी के दिनों में वह हांफने लगता है। काफी मशक्कत के बाद चार-पांच लीटर पानी मिल पाता है। अभी थोड़ी बारिश हुई है तो मुश्किलें भी कम हुई हैं, लेकिन गर्मियों में हमारी जिंदगी पहाड़ बन जाती है। हमारे गांव की औरतों और बच्चों को पानी के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।" गर्मी के दिनों में पंडी गांव की औरतें और बच्चे झुंड में पानी के लिए जंगली और पथरीले रास्तों पर दौड़ लगाते हैं। तकलीफ यह है कि इनकी ज़िंदगी का ज़्यादा वक्त पानी के इंतज़ाम में ही खप जाता है।
नौगढ़ के पंडी गांव का इकलौता हैंडपंप
चंदौली ज़िले के नौगढ़ ब्लॉक मुख्यालय से क़रीब 21 किमी दूर घनघोर जंगलों के बीच बसा है एक छोटा सा गांव पंडी। यहां सिर्फ खरवार जनजाति के लोग रहते हैं। इस गांव में सिर्फ एक हैंडपंप है, जिसे एक सोलर टंकी से जोड़ा गया है। टंकी की मोटर जल जाने की वजह से वो सफेद हाथी साबित हो रही है। नतीजा, पंडी गांव के करीब 207 लोग मुश्किल भरी जिंदगी गुजार रहे हैं। इनकी जिंदगी का सहारा है इकलौता हैंडपंप और जब वो बिगड़ जाता है तो आदिवासियों को चंदा जुटाकर मरम्मत करानी पड़ती है। कई बार यह हैंडपंप पानी भी छोड़ देता है तब गांव के लोग एक फर्लांग दूर सीवान में चुआड़ की ओर भागते हैं। पंडी के लोगों का कहना है कि पीने के पानी का संकट उनके लिए रोज का संघर्ष है।
पंडी गांव में खराब पड़ी सोलर टंकी
चौतरफा पहाड़ियों से घिरे पंडी गांव में सिर्फ खरवार आदिवासियों के डेरे हैं और इनकी ज़िंदगी बेहद दर्दनाक है। यहां के लोग हर सुबह उठते ही पानी की फ़िक्र में जुट जाते हैं। पेयजल संकट के सवाल पर 70 वर्षीया जयमूर्ति भावुक हो जाती हैं और कहती हैं, "हमारे गांव की औरतों की मंजिल बहुत छोटी है और ज़िंदगी बेरंग। सिर्फ पानी ढोने, खाना बनाने और बच्चों को पालने में ही पंडी गांव की औरतों की सारी उम्र बीत जाती है। हर घर की औरतें पानी ढोती हैं और पुरुष मजूरी करते हैं। मुश्किल सिर्फ औरतों को नहीं, स्कूल जाने वाले ज़्यादातर बच्चे और बच्चियां अपनी माताओं के साथ पानी के लिए कभी इकलौते हैंडपंप पर लाइन में खड़े नज़र आते हैं तो कभी सिर पर पानी के डिब्बों के साथ।
पेयजल संकट से जूझता पंडी गांव
पहाड़ बनी औरतों की जिंदगी
नौगढ़ का पंडी गांव देवरी ग्राम पंचायत से जुड़ा है और इस गांव के प्रधान हैं लाल साहब। प्रभावती बताती हैं, "पानी के संकट ने हमारी ज़िंदगी नर्क बना दी है। जब हैंडपंप बिगड़ जाता है तो कई-कई दिन बिना नहाए रहना पड़ता है। तब चुआड़ के मटमैले पानी से ही हमारी प्यास बुझ पाती है। समूचा पंडी गांव मटमैले पानी के ऊपर निर्भर है। यहां ज़मीन से ऐसा पानी निकलता है जो न पीने लायक होता है, न नहाने लायक।" सिर पर पानी का डिब्बा और हाथ में बाल्टी लिए रजवंती कहती हैं, "हमारे आसपास कोई बांध-बंधी और पोखरा भी नहीं है। गर्मियों में नहाने के लिए भी पानी नसीब में नहीं होता। जब पीने के लिए पानी उपलब्ध नहीं है तो नहाएं कैसे? दूषित पानी से बीमारी होती है तो इलाज के लिए नौगढ़ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जाना पड़ता है।"
इस कुए में इकट्ठा होता है चुआड़ का पानी
आदिवासी समुदाय के रामकृत खरवार बताते हैं, "हमारे घरों की ज़्यादातर औरतों की ज़िंदगी और उम्र पानी जुटाने में ही खप जाती है। पुरुष मजूरी करने चले जाते हैं तो औरतें-बच्चे पानी ढोने में जुट जाते हैं। काफी जद्दोजहद के बाद औरतें इकलौते हैंडपंप से बाल्टी-दो-बाल्टी पानी ही निकाल पाती हैं। पंप जब ज़्यादा चलता है तब गंदा पानी आने लगता है। भीषण पेयजल संकट का असर हमारे सामाजिक ताने-बाने पर पड़ रहा है। हालात ये हैं कि कोई भी पिता अपनी बेटी की शादी पंडी और आसपास के गांवों में नहीं करना चाहता है। रिश्तेदार आते हैं तो कहते हैं पानी नहीं है इसलिए अपनी बेटियों का ब्याह नहीं करेंगे। हमारे गांव के विजय बहादुर और सुरेश सरकारी नौकरी में हैं। पानी के संकट के चलते वो अपने बच्चों को पंडी लेकर तभी आते हैं जब कोई मांगलिक कार्यक्रम होता है।"
महिलाओं का अधिकांश समय पानी इकट्ठा करने में ही बीतता है
नेताओं से सिर्फ आश्वासन ही मिले
नौगढ़ में आदिवासियों के बच्चों को साक्षर बनाने में जुटी संस्था ग्राम्या के शिक्षक अरविंद कुमार पंडी गांव में रहते हैं। वह कहते हैं, "शादी के बाद जो औरतें पंडी गांव की बहू बनती हैं उन्हें रोजाना सुबह-शाम घंटों पानी ढोना पड़ता है। यहां औरतों को सिर पर बाल्टी अथवा प्लास्टिक का डिब्बा रखकर आते-जाते कोई भी देख सकता है। चुनाव के वक्त सभी दलों के नेता आते हैं और पानी की मुश्किलों से छुटकारा दिलाने के बड़े-बड़े दावे करते हैं, लेकिन बाद में उनके दर्शन नहीं होते। हमारी कई पीढ़ियां गुज़र गईं, लेकिन पेयजल समस्या का स्थायी समाधान आज तक नहीं हुआ। अप्रैल से जुलाई महीने तक का समय किसी बड़े संकट से कम नहीं होता।"
पंडी के चंद्रिका, राम सकल, मुनिया, लालब्रत, जगदीश कहते हैं, "कैलाश खरवार हमारी बिरादरी के विधायक हैं, लेकिन वो आज तक पंडी नहीं आए। किसी ने उनका चेहरा तक नहीं देखा। प्रधान लाल साहब दो-तीन महीने में आते हैं और भरपूर पानी दिलाने का सपना दिखाकर लौट जाते हैं। पानी मिलने लगे तो हमारे गांव में हर चीज़ सही हो जाएगी। सारा कष्ट दूर हो जाएगा।"
इस गंदे पानी को पीने के लिए मजबूर हैं आदिवासी
पंडी गांव के पश्चिमी छोर पर हमारी मुलाक़ात छात्र प्रमोद कुमार से हुई तो उसने अपनी मुश्किलें गिनानी शुरू कर दीं, "सरकारी योजनाएं हमारे गांव में पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं। पंडी में कई हैंडपंप लगे हैं, लेकिन एक को छोड़ कोई सफल नहीं हो सका। एक चुआड़ पर आखिर कब तक लोग निर्भर रहेंगे? हमने जब से होश संभाला है तब से पानी ढोना हमारी दिनचर्या में शामिल है। सुना है कि सरकार "हर घर नल योजना' शुरू करने वाली है, लेकिन उस योजना का कहीं अता-पता नहीं है। दावा किया गया था कि साल 2022 तक सभी के घरों में पानी पहुंचने लगेगा, लेकिन सरकार के दावे झूठे निकले। गर्मी के दिनों में जब आसमान से आग बरसती है तब पंडी का इकलौता हैंडपंप थोड़ा सा पानी गिराता है फिर बंद हो जाता है। यहां पानी का संकट बहुत पुराना है। बोरिंगें कई बार हुईं, लेकिन सफल नहीं हुईं। गर्मी और बरसात के दिनों में पंडी के तमाम बच्चे खुजली और उल्टी-दस्त से बीमार होते हैं।"
बच्चों को स्कूल छोड़कर पानी लाना पड़ता है
केल्हड़िया में भी संकट
पंडी गांव के कुछ किलोमीटर के फासले पर एक नौगढ़ प्रखंड का आखिरी गांव है केल्हड़िया। यहां भी पीने के पानी का जबर्दस्त संकट है। 40 वर्षीया लीलावती कहती हैं, "हमारे नसीब में सिर्फ पहाड़ के दर्रे का पानी ही नसीब हो पाता है। चुआड़ के आगे लोगों को बाल्टी और प्लास्टिक के डब्बे के साथ लाइन लगानी पड़ती है और घंटों इंतजार के बाद एक-दो बाल्टी पानी मिल पाता है। सरकार की ओर से पानी का जो टैंकर आता है, उसमें भी कभी मछलियां निकलती हैं तो कभी मेंढक। हम ऐसा पानी पी रहे हैं, जिसे मवेशी भी नहीं पीते हैं। मन घिनघिना उठता है, लेकिन लाचारी में उसी पानी को छानकर सूखे कंठ को गीला करना पड़ता है। जिन जंगलों में पहाड़ से पानी का सोता निकलता है वहां भालू और तेंदुए जैसे खतरनाक जंगली जानवर भी पहुंचते हैं। हमें हर वक्त डर लगा रहता है कि वो हमला न बोल दें। इसलिए लाठी-डंडा लेकर जाना पड़ता है।''
जंगल से पीने का पानी लाती आदिवासी महिला
केल्हड़िया में पीपल का एक विशाल पेड़ है, जिसके नीचे बैठे मिले संतोष कोल ने बताया कि, ''कुछ बरस पहले हैंडपंप लगाने के लिए पत्थर काटने वाली मशीन से बोरिंग कराई गई, लेकिन वो फेल हो गई। हर घर, हर नल योजना हमारे लिए सपना है। गर्मी के दिनों में हमें अपने मवेशियों का जीवन बचाने के लिए भी पानी इकट्ठा करना पड़ता है।''
इसी गांव की कुंती कहती हैं, ''गर्मियों में हम नहाना ही भूल जाते हैं। जब पीने के लिए पानी नसीब नहीं हो रहा है तो नहाने के लिए कहां से लाएं? एक-एक बूंद पानी के लिए परेशान हैं। हमारी कई पुश्तें यहां गल चुकी हैं। अपनी जमीन छोड़कर हम कहां जाएं? पानी के संकट के चलते गांव में कई लड़कों की शादियां रुक गई हैं। रिश्तेदार आते हैं तो वो कहते हैं कि वहां पानी नहीं है। केल्हड़िया गांव में बेटियों की शादी नहीं करेंगे। जिन बच्चों की शादियां हो जानी चाहिए थी, वो पानी के संकट के चलते कुंवारे हैं।''
पेयजल की मुश्किल से जूझने वाली कुंती नौगढ़ की इकलौती महिला नहीं हैं। केल्हड़िया की विधवा फुलवंती की कहानी इनसे मिलती-जुलती है। इनके दो बेटे हैं-संतोष और छोटेलाल। दोनों मज़दूरी करने चले जाते हैं तो पानी भरने का काम वही करती हैं। इनका ज़्यादा समय पानी जुटाने में ही निकल जाता है। वह चुआड़ से पीने का पानी निकालने और फिर घर तक लाने में थक जाती हैं। केल्हड़िया की 57 वर्षीया चंद्रावती देवी और उनका परिवार खेती व पशुपालन पर निर्भर है। इनकी दिनचर्या भी फुलवंती देवी जैसी ही है। वह कहती हैं, '' पानी का संकट ज़्यादा रहता है तो दो-दो, चार-चार दिन के लिए इकट्ठा कर लेते हैं।
57 वर्षीया नौरंगी देवी का कहती हैं, ''केल्हड़िया में हैंडपंप लगाने के लिए मशीन से चार-पांच बार साढ़े पांच सौ फीट तक बोरिंग कराई गई, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। लगता है कि पानी हमारे नसीब में है ही नहीं। एक हज़ार फीट बोरिंग हो तो शायद पानी निकल आए। अगर सरकार गहरी बोरिंग करा दे तो हमारी मुश्किलें दूर हो सकती हैं। यहां एक कुआं है, मगर वो भी सूख चुका है। हमारे पास तो पेट भरने के लिए पैसा नहीं है। होता तो पत्थर काटने वाली मशीन लाकर बोरिंग करा देते। कम से कम रोज़-रोज़ पानी ढ़ोने से मुक्ति तो मिल जाती।''
नौगढ़ के एक गांव में हैंडपंप का नजारा
"गर्मी के दिनों में सरकारी टैंकर से आने वाले पानी के लिए पूरे दिन टकटकी लगाए रखना पड़ता है। हमारे गांव में सबसे बड़ी समस्या पानी की है। जब मैदानी इलाकों में चारे का संकट पैदा हो जाता है तो केल्हड़िया के लोग अपने मवेशी लेकर जंगलों में चले जाते हैं। अबकी सारा इलाका सूखे की मार झेल रहा है। केल्हड़िया गांव में अक्सर टैंकर का पानी नहीं आता। तब इस गांव के लोग सुबह तीन बजे उठते हैं और जान जोखिम में डालकर बाल्टी और डिब्बा लेकर जंगलों में कूच कर जाते हैं। चुआड़ से लोटे से पानी भरते हैं। दूषित पानी पीने से उल्टी-दस्त, टाइफाइड, पेट दर्द की समस्याएं आम हैं। हमारे यहां पानी होगा तो हर चीज़ सही होगी।"
कब खत्म होगी जद्दोजहद
नौगढ़, चंदौली ज़िले का वह इलाक़ा है जहां सर्वाधिक आबादी खरवार, कोल, मुसहर और बैगा जनजातियों की है। इस इलाक़े में पानी की समस्या को लेकर योजनाएं तो कई बार बनी, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त नहीं बदली। औरवाटांड जलायश के पूर्व की तरफ़ सेमर साधो ग्राम सभा के सेमर, होरिला, धोबही, पथरौर, जमसोत से लगायत शाहपुर तक सूखे की मार के साथ पेयजल की समस्या है। देवरी के दक्षिण में मंगरई ग्राम सभा के गहिला, सुखदेवपुर, हथिनी, मगरही में पीने के पानी का जबर्दस्तत संकट है। उत्तर में पहाड़ और जंगल है। 40 से 45 किमी तक कहीं हैंडपंप अथवा कुआं नहीं है। पश्चिम में लौआरी ग्राम सभा का गांव है जमसोती, गोड़टुटवा, लेड़हा, लौआरी, लौआरी कला। इन गांवों में औरतों और बच्चों को पीने के पानी के लिए जद्दोजहद करते कभी भी देखा जा सकता है।
लौआरी खुर्द में एक आदिवासी का घर
पंडी, केल्हड़िया, सपहर, नोनवट, करमठचुआं और औरवाटांड गांव देवरी ग्राम सभा के हिस्से हैं। ग्राम प्रधान लाल साहब खरवार बेबाकी के साथ पेयजल संकट को स्वीकार करते हैं और वो कहते हैं, ''पीने के पानी के लिए हम अफसरों के चौखट पर दौड़ते-दौड़ते थक गए हैं। कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। गांव वालों को हम क्या जवाब दें और मुसीबतों से घिरे लोगों को कैसे अपना मुंह दिखाएं?''
नौगढ़ बांध के किनारे बसे औरवाटांड गांव में बांध के पानी में आर्सेनिक की मात्रा ज़्यादा है, जिसे पीने का मतलब मौत को गले लगाना। इस गांव में शानदार झरना है, जहां लुत्फ़ उठाने बड़ी तादाद में सैलानी आते हैं, लेकिन यहां पीने के पानी का संकट ऐसा है कि लोग अपनी बेटियों की शादी नहीं करना चाहते। पेशे से मज़दूर रामदीन कहते हैं, ''हमारे सामने पानी का संकट सबसे बड़ा है। हमारे डैम का पानी चंदौली के धानापुर और बिहार जा रहा है और 65 घरों की आबादी प्यास से बेहाल है।''
ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के जिलाध्यक्ष आनंद सिंह कहते हैं, "चंदौली के नौगढ़ इलाके में विकास के नाम पर सालों-साल करोड़ों रुपये ख़र्च किए गए, जिनमें से सबसे अधिक पैसा पानी के संकट को दूर करने में खपाया गया। यहां पैसा तो पानी की तरह बहा, लेकिन लोगों की प्यास नहीं बुझ पाई। बूंद-बूंद पानी के लिए अब भी लोग जूझ रहे हैं। आदिवासी बहुल इस इलाक़े में पीने का पानी जुटाना युद्ध जीतने जैसा होता है। नौगढ़ के किसी भी गांव में चले जाइए। हर कोई यूपी सरकार के जीवन मिशन से उम्मीद लगाए बैठा है। शहर से कोई भी पहुंचता है तो आदिवासी एक ही सवाल पूछते हैं, "आखिर कब पहुंचेगा सरकारी नल का पानी? कब दूर होगा पेयजल संकट और कब ख़त्म होगी उनकी जद्दोजहद?"
सूख गया लतीफशाह बांध
संकट में आदिवासी
चंदौली का नौगढ़ इलाक़ा पहले पूर्वांचल का दूसरा कालाहांडी माना जाता था। इसी प्रखंड के कुबराडीह और शाहपुर जमसोत में दो दशक पहले भूख से कई आदिवासियों की मौत हुई थी। नौगढ़ इलाक़े में दशकों तक डकैतों का साम्राज्य रहा। डकैत ख़त्म हुए तो नक्सलियों की आमद-रफ़्त बढ़ती चली गई। इस इलाक़े में कभी नामी डकैतों का सिक्का चला करता था तो कभी यह इलाक़ा कुख्यात नक्सलियों का सबसे बड़ा गढ़ हुआ करता था। फ़िलहाल दोनों समस्याएं काफ़ी हद तक ख़त्म हो गई हैं, लेकिन आदिवासियों की पेयजल की मुश्किलें जस की तस हैं।
गांव में सरकारी योजना से पानी आने के लिए सिर्फ इंतजार ही किया जा सकता है
साल 2011 की जनगणना के अनुसार चंदौली ज़िले की आबादी 19,52,756 थी, जिसमें 10,17,905 पुरुष और 9,34,851 महिलाएं शामिल थीं। 2001 में चंदौली ज़िले की जनसंख्या 16 लाख से अधिक थी। चंदौली में शहरी आबादी सिर्फ़ 12.42 फ़ीसदी है। 2541 वर्ग किलोमीटर में फैले चंदौली ज़िले में अनुसूचित वर्ग की आबादी 22.88 फ़ीसदी और जनजाति आबादी 2.14 फ़ीसदी है। यहां खेती के अलावा कोई दूसरा रोज़गार नहीं है। गर्मी के दिनों में नौगढ़ में सिर्फ इंसान ही नहीं, मवेशियों के लिए भी पानी जुटाना आसान नहीं होता है।
नौगढ़ और मूसाखाड़ बांधों में पानी बहुत कम है। चंदौली के सभी चेकडैम और बंधियों में धूल उड़ रही है। कुएं तक सूख गए हैं। इस वजह से काशी वन्य जीव अभ्यारण्य में विचरण करने वाले भालू, तेंदुआ, लंगूर, नीलगाय, हिरन, बारहसिंघा, शाही, चीतल, खरगोश और बंदर आदि वन्य जीवों का जीवन भी संकट में है। कुछ दिन पहले पानी न मिलने की वजह से एक बारहसिंघे की मौत हो गई थी।
नौगढ़ प्रखंड में पेयजल संकट से प्रभावित 51 ग्राम सभाओं में से एक है देवरी कला। इसी से जुड़ा है पंडी और केल्हड़िया गांव। क्षेत्रफल के हिसाब से देवरी कला यूपी की दूसरी सबसे बड़ी ग्राम पंचायत है, जहां सर्वाधिक आबादी खरवार, कोल, मुसहर और बैगा जन-जातियों की है। केल्हड़िया के अलावा पंडी, सपहर, नोनवट, करमठचुआं और औरवाटांड गांव देवरी ग्राम सभा के हिस्से हैं। इस इलाक़े में पानी की समस्या को लेकर योजनाएं तो कई बार बनीं, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त नहीं बदली। नौगढ़ इलाक़े की सभी ग्राम सभाओं में ज़्यादातर हैंडपंप शो-पीस बन गए हैं।
पानी भरने के लिए इंतजार करती महिलाएं
योगी सरकार ने जून 2020 में 'हर घर जल' योजना की शुरुआत की और वादा किया कि जून 2022 तक नौगढ़ के हर घर तक पाइपलाइन से पानी पहुंचा दिया जाएगा। बाद में इसकी डेड लाइन बढ़ाकर 2024 कर दी गई। 'हर घर जल' योजना के तहत पेयजल का इंतजाम करने के लिए नौगढ़ के लिए 250 करोड़ की योजना को मंजूरी दी गई है। इस योजना के तहत भैसोढ़ा बांध के पानी को शोधित करने के बाद करीब छह सौ किलोमीटर पाइप लाइन से सभी घरों में पहुंचाया जाना है। मियाद बीतती जा रही है, लेकिन 'हर घर जल' योजना का कहीं अता-पता नहीं है।
नौगढ़ के उप ज़िलाधिकारी कुंदन राज कहते हैं, "अभी हाल में हम ट्रांसफर होकर यहां आए हैं। नौगढ़ को हम समझने की कोशिश कर रहे हैं। हमारी कोशिश होगी कि जल जीवन मिशन के तहत नौगढ़ में हर घर तक जल पहुंच जाए। नौगढ़ का क्षेत्रफल बड़ा है और आबादी कम है, जिसके चलते विकास के लिए धन कम मिल पा रहा है। दशकों से चली आ रही समस्या को एक दिन में ख़त्म नहीं किया जा सकता। थोड़ा वक़्त लगेगा, लेकिन सरकार के प्रयास सफल होंगे। गांवों में तालाब और बंधियां बनवाई जा रही हैं। धीरे-धीरे समस्या ख़त्म होगी।"
झूठे निकले सरकार के दावे
बनारस से सटे मिर्जापुर ज़िले में सरकार ने जल संकट को दूर करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया लेकिन स्थिति जस की तस है। पर्वतीय अंचल में कई शानदार झरने, बड़े जलाशय और नदियां हैं। यहां सिरसी बांध की जल संचयन क्षमता 2,06,550 घन मीटर, मेजा बांध की 3,02,810 घन मीटर, अहरौरा बांध की 58,300 घन मीटर, जारगो बांध की 1,42,920 घन मीटर और ढेकवा बांध 6,020 घन मीटर है। सिरसी जलाशय के पानी का एक बड़ा हिस्सा सिंचाई और घरेलू उपयोग के लिए प्रयागराज भेजा जाता है। मिर्जापुर की मिट्टी कम नम है, जो बड़ी मात्रा में पानी सोखती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश के यूपी के बनारस का प्रतिनिधित्व करते हैं और उससे सटे चंदौली, मिर्जापुर और सोनभद्र के लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं। जंगलों में रहने वाले हज़ारों चेहरे आज भी प्यास की गवाही दे रहे हैं। ऐसी गवाही जो डबल इंजन सरकार की ‘हर घर नल योजना’ के दावों पर सवालिया निशान लगाती है। इन इलाकों में पीने का पानी जुटाना, औरतों और बच्चों के लिए रोज़ का संघर्ष है। यह स्थिति तब है जब दुर्गम इलाकों में पेयजल संकट दूर करने के लिए सबसे अधिक पैसा खपाया गया।
नौगढ़ बाजार
पीएम नरेंद्र मोदी ने 22 नवंबर, 2020 को 'हर घर नल योजना' की शुरुआत की थी। क़रीब 5,544 करोड़ रुपये की इस परियोजना का लक्ष्य पूंजीगत व्यय के साथ मिर्जापुर और सोनभद्र जिलों में हर घर में स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति करना है। बांध के पानी को उपचारित कर मिर्जापुर के 1,606 गांवों और सोनभद्र के 1,389 गांवों में जल संकट को दूर करने की योजना है। स्वच्छ पेयजल के भंडारण के लिए साफ़ पानी के 48 जलाशयों के निर्माण के साथ-साथ मिर्जापुर में 784 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछाई जा रही है। साथ ही 58 कच्चे जल उपचार संयंत्र स्थापित किए जाएंगे।
पटेहरा के कलवारी खुर्द मझारी में अमृत पेयजल योजना के तहत 600 लाख लीटर के ओवरहेड टैंक का निर्माण कराया जा रहा है, लेकिन मियाद बीत जाने के बावजूद कार्य अब तक अधूरा है। दीपनगर की सरोजा कहती हैं, "मिर्जापुर के पहाड़ी इलाकों में की गई ज़्यादातर डीप बोरिंगें फेल हो गई हैं। ज़्यादातर हैंडपंप ऐसे हैं, जिन्हें काफ़ी ज़्यादा चलाने के बाद बस बूंद-बूंद पानी ही आता है।
मिर्जापुर में क़रीब 90 फ़ीसदी लोग खेती पर निर्भर हैं, जिनमें 70 फ़ीसदी खेतिहर मज़दूर हैं, जो कर्ज के दलदल में फंसे हैं। कई किसानों को बैंक लोन से उधार चुकाने के लिए अपनी ज़मीनें बेचनी पड़ीं। सिंचाई के लिए बनाए गए बांधों के पानी का इस्तेमाल जब से पेयजल संकट दूर करने के लिए किया जा रहा है तब से किसानों की स्थिति और भी ज़्यादा दयनीय हो गई है। किसानों को यह तक नहीं सूझ रहा है कि वो अपनी फसलों की सिंचाई कैसे करें। पिछले दो-तीन सालों से इस इलाके में सूखे जैसे हालात हैं, जिसके चलते आदिवासी बहुल इलाकों में रहने वाले लोगों की मुश्किलें बढ़ गई हैं और सबकी ज़िंदगी पहाड़ सरीखी हो गई है।
सोनभद्र में भी संकट
मिर्जापुर की तरह सोनभद्र में भी हालात बदतर हैं। ज़िले की क़रीब 22 लाख की आबादी के सामने पीने के साफ़ पानी की समस्या एक गंभीर चुनौती बनकर उभरी है। प्रदूषित पानी की वजह से ज़िले के दस प्रखंडों के क़रीब 26 गांवों के लोग पिछले बीस बरस से फ्लोरोसिस जनित बीमारियों की ज़द में हैं। दुद्धी, नगवां, रॉबर्ट्सगंज, घोरवल, म्योरपुर प्रखंड क्रिटिकल जोन और कोन, बभनी, चतरा, करमा, चोपन आदि गांव सेमी क्रिटिकल ज़ोन में चले गए हैं।
नगवां इलाके के गोगा, केवटम, ढोसरा समेत दर्जनों गांवों में औरतों और बच्चों को क़रीब दो-तीन किलोमीटर दूर से पानी ढोना पड़ रहा है। इन गांवों में लगे ज़्यादातर हैंडपंप खराब हैं या फिर सूखे हैं। दूषित पानी पीने की वजह से यहां कमर में दर्द, जोड़ो में दर्द की शिकायत आम है। सबसे ज़्यादा असर बच्चों पर है। खास बात यह है कि एशिया के बड़े जलाशयों में शुमार रिहंद बांध अब खुद अपने लिए पानी के लिए लड़ रहा है।
बारिश न होने की वजह से सूखे पड़े खेत
सोनभद्र जनपद की करीब 22 लाख आबादी के लिए शुद्ध पेयजल की उपलब्धता बड़ी चुनौती बनी हुई है। नगवां विकास खण्ड गोगा, केवटम, ढोसरा, सहित दर्जनों गांवों में पूरे साल पीने के पानी का संकट बना रहता है। ग्रामीण दो-तीन किलोमीटर दूर से पानी ला रहे हैं। सोनभद्र में करीब 270 गांवों में पेयजल का गंभीर संकट है। पंचायती राज विभाग 408 टैंकरों से जलापूर्ति कर रहा है। इसके बावजूद स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। नदी, नाला, बांध और तालाबों का जलस्तर तेज़ी से खिसकने लगा है। राबर्ट्सगंज से सटे उरमौरा, लोढ़ी, रौंप, बिचपई, लोढ़ी, पोखरा, चकरिया, बसुहारी, दरमा, चेरूई, पल्हारी, सिलथम, पटना, कजियारी, बाकी, दरेव आदि गांवों में पानी के लिए बदतर स्थिति है। नगर पंचायत ओबरा, घोरावल, ओबरा, पिपरी, रेणुकूट, अनपरा और दुद्धी के कई इलाकों में पानी पाताल में चला गया है।
पूर्वांचल में सोनभद्र, मिर्जापुर और नौगढ़ (चंदौली) पहाड़ी इलाके हैं, जहां पानी के बगैर सब सूना है। हमने पूर्वांचल के कई गांवों में जाकर ज़मीनी हालात देखने की कोशिश की। पड़ताल में एक बात साबित हुई कि विकास के नाम पर यहां कई सालों से हज़ारों करोड़ रुपये खर्च किए गए, जिनमें से सबसे ज़्यादा पैसा पानी के संकट को दूर करने में खर्च किया गया। आदिवासी बहुल किसी भी गांव में अगर कोई जलसा या फिर शादी-विवाह होता है तो सबसे ज़्यादा मशक्कत पानी के लिए करनी पड़ती है।
नौगढ़ में पानी की समस्या को लेकर जुटे आदिवासी
पूर्व विधायक राजेंद्र सिंह कहते हैं, "गर्मी के दिनों में पूर्वांचल के पर्वतीय इलाकों में धरती जलविहीन हो जाती है। पेयजल की ज़्यादातर योजनाएं कागजी हैं और पानी के लिए लोग भटकने के लिए मजबूर हैं। पानी की सही कीमत जानना हो तो पूर्वांचल के चंदौली, मिर्जापुर और सोनभद्र के किसी भी गांव में चले जाइए। ऐसे गांवों की तादाद बहुत ज़्यादा है जहां रात का अंधेरा दूर भी नहीं होता कि लोग पानी की खोज में निकल पड़ते हैं। सबसे ज़्यादा दिक्कतें बुजुर्गों और बीमार लोगों को झेलनी पड़ती हैं। बढ़ते जल-संकट के बीच कई बार चूक हो जाती है तो बुजुर्ग प्यासे रह जाते हैं। जिन संकटग्रस्त गांवों में टैंकर से पानी नहीं पहुंचता, वहां चूल्हे तक ठंडे पड़ जाते हैं। बहुत से गांवों में पानी के स्रोत ऊंची जातियों के कब्ज़े में हैं। गरीबों और आदिवासियों को पानी उनके रहमोकरम पर ही मिल पाता है।"
पूर्वांचल के जंगलों में आदिवासियों के सरोकारों के लिए संघर्ष करने वाले अजय राय कहते हैं, "योगी सरकार ने जून 2020 में 'हर घर जल योजना' के तहत पूर्वांचल के पहाड़ी इलाकों में हर घर तक पाइपलाइन के ज़रिए पानी पहुंचाने का वादा किया था, लेकिन यह योजना कोई करिश्मा नहीं दिखा सकी है।" दूसरी ओर, जलशक्ति मंत्री स्वतंत्रदेव सिंह दावा करते हैं, "मिर्जापुर, सोनभद्र और चंदौली में हालात पहले और ज़्यादा खराब थे। हमारी सरकार हर घर तक पानी पहुंचाने में जुटी है। दशकों से चली आ रही समस्या को एक दिन में ख़त्म नहीं किया जा सकता। थोड़ा वक़्त लगेगा, लेकिन यूपी सरकार के प्रयास ज़रूर सफल होंगे।"
(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
Related:
जंगलों से घिरे दुर्गम गांव पंडी की रजवंती (46) यह कहते-कहते भावुक हो जाती हैं। वह कहती हैं, "हमारे गांव में सिर्फ एक हैंडपंप है। गर्मी के दिनों में वह हांफने लगता है। काफी मशक्कत के बाद चार-पांच लीटर पानी मिल पाता है। अभी थोड़ी बारिश हुई है तो मुश्किलें भी कम हुई हैं, लेकिन गर्मियों में हमारी जिंदगी पहाड़ बन जाती है। हमारे गांव की औरतों और बच्चों को पानी के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।" गर्मी के दिनों में पंडी गांव की औरतें और बच्चे झुंड में पानी के लिए जंगली और पथरीले रास्तों पर दौड़ लगाते हैं। तकलीफ यह है कि इनकी ज़िंदगी का ज़्यादा वक्त पानी के इंतज़ाम में ही खप जाता है।
नौगढ़ के पंडी गांव का इकलौता हैंडपंप
चंदौली ज़िले के नौगढ़ ब्लॉक मुख्यालय से क़रीब 21 किमी दूर घनघोर जंगलों के बीच बसा है एक छोटा सा गांव पंडी। यहां सिर्फ खरवार जनजाति के लोग रहते हैं। इस गांव में सिर्फ एक हैंडपंप है, जिसे एक सोलर टंकी से जोड़ा गया है। टंकी की मोटर जल जाने की वजह से वो सफेद हाथी साबित हो रही है। नतीजा, पंडी गांव के करीब 207 लोग मुश्किल भरी जिंदगी गुजार रहे हैं। इनकी जिंदगी का सहारा है इकलौता हैंडपंप और जब वो बिगड़ जाता है तो आदिवासियों को चंदा जुटाकर मरम्मत करानी पड़ती है। कई बार यह हैंडपंप पानी भी छोड़ देता है तब गांव के लोग एक फर्लांग दूर सीवान में चुआड़ की ओर भागते हैं। पंडी के लोगों का कहना है कि पीने के पानी का संकट उनके लिए रोज का संघर्ष है।
पंडी गांव में खराब पड़ी सोलर टंकी
चौतरफा पहाड़ियों से घिरे पंडी गांव में सिर्फ खरवार आदिवासियों के डेरे हैं और इनकी ज़िंदगी बेहद दर्दनाक है। यहां के लोग हर सुबह उठते ही पानी की फ़िक्र में जुट जाते हैं। पेयजल संकट के सवाल पर 70 वर्षीया जयमूर्ति भावुक हो जाती हैं और कहती हैं, "हमारे गांव की औरतों की मंजिल बहुत छोटी है और ज़िंदगी बेरंग। सिर्फ पानी ढोने, खाना बनाने और बच्चों को पालने में ही पंडी गांव की औरतों की सारी उम्र बीत जाती है। हर घर की औरतें पानी ढोती हैं और पुरुष मजूरी करते हैं। मुश्किल सिर्फ औरतों को नहीं, स्कूल जाने वाले ज़्यादातर बच्चे और बच्चियां अपनी माताओं के साथ पानी के लिए कभी इकलौते हैंडपंप पर लाइन में खड़े नज़र आते हैं तो कभी सिर पर पानी के डिब्बों के साथ।
पेयजल संकट से जूझता पंडी गांव
पहाड़ बनी औरतों की जिंदगी
नौगढ़ का पंडी गांव देवरी ग्राम पंचायत से जुड़ा है और इस गांव के प्रधान हैं लाल साहब। प्रभावती बताती हैं, "पानी के संकट ने हमारी ज़िंदगी नर्क बना दी है। जब हैंडपंप बिगड़ जाता है तो कई-कई दिन बिना नहाए रहना पड़ता है। तब चुआड़ के मटमैले पानी से ही हमारी प्यास बुझ पाती है। समूचा पंडी गांव मटमैले पानी के ऊपर निर्भर है। यहां ज़मीन से ऐसा पानी निकलता है जो न पीने लायक होता है, न नहाने लायक।" सिर पर पानी का डिब्बा और हाथ में बाल्टी लिए रजवंती कहती हैं, "हमारे आसपास कोई बांध-बंधी और पोखरा भी नहीं है। गर्मियों में नहाने के लिए भी पानी नसीब में नहीं होता। जब पीने के लिए पानी उपलब्ध नहीं है तो नहाएं कैसे? दूषित पानी से बीमारी होती है तो इलाज के लिए नौगढ़ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जाना पड़ता है।"
इस कुए में इकट्ठा होता है चुआड़ का पानी
आदिवासी समुदाय के रामकृत खरवार बताते हैं, "हमारे घरों की ज़्यादातर औरतों की ज़िंदगी और उम्र पानी जुटाने में ही खप जाती है। पुरुष मजूरी करने चले जाते हैं तो औरतें-बच्चे पानी ढोने में जुट जाते हैं। काफी जद्दोजहद के बाद औरतें इकलौते हैंडपंप से बाल्टी-दो-बाल्टी पानी ही निकाल पाती हैं। पंप जब ज़्यादा चलता है तब गंदा पानी आने लगता है। भीषण पेयजल संकट का असर हमारे सामाजिक ताने-बाने पर पड़ रहा है। हालात ये हैं कि कोई भी पिता अपनी बेटी की शादी पंडी और आसपास के गांवों में नहीं करना चाहता है। रिश्तेदार आते हैं तो कहते हैं पानी नहीं है इसलिए अपनी बेटियों का ब्याह नहीं करेंगे। हमारे गांव के विजय बहादुर और सुरेश सरकारी नौकरी में हैं। पानी के संकट के चलते वो अपने बच्चों को पंडी लेकर तभी आते हैं जब कोई मांगलिक कार्यक्रम होता है।"
महिलाओं का अधिकांश समय पानी इकट्ठा करने में ही बीतता है
नेताओं से सिर्फ आश्वासन ही मिले
नौगढ़ में आदिवासियों के बच्चों को साक्षर बनाने में जुटी संस्था ग्राम्या के शिक्षक अरविंद कुमार पंडी गांव में रहते हैं। वह कहते हैं, "शादी के बाद जो औरतें पंडी गांव की बहू बनती हैं उन्हें रोजाना सुबह-शाम घंटों पानी ढोना पड़ता है। यहां औरतों को सिर पर बाल्टी अथवा प्लास्टिक का डिब्बा रखकर आते-जाते कोई भी देख सकता है। चुनाव के वक्त सभी दलों के नेता आते हैं और पानी की मुश्किलों से छुटकारा दिलाने के बड़े-बड़े दावे करते हैं, लेकिन बाद में उनके दर्शन नहीं होते। हमारी कई पीढ़ियां गुज़र गईं, लेकिन पेयजल समस्या का स्थायी समाधान आज तक नहीं हुआ। अप्रैल से जुलाई महीने तक का समय किसी बड़े संकट से कम नहीं होता।"
पंडी के चंद्रिका, राम सकल, मुनिया, लालब्रत, जगदीश कहते हैं, "कैलाश खरवार हमारी बिरादरी के विधायक हैं, लेकिन वो आज तक पंडी नहीं आए। किसी ने उनका चेहरा तक नहीं देखा। प्रधान लाल साहब दो-तीन महीने में आते हैं और भरपूर पानी दिलाने का सपना दिखाकर लौट जाते हैं। पानी मिलने लगे तो हमारे गांव में हर चीज़ सही हो जाएगी। सारा कष्ट दूर हो जाएगा।"
इस गंदे पानी को पीने के लिए मजबूर हैं आदिवासी
पंडी गांव के पश्चिमी छोर पर हमारी मुलाक़ात छात्र प्रमोद कुमार से हुई तो उसने अपनी मुश्किलें गिनानी शुरू कर दीं, "सरकारी योजनाएं हमारे गांव में पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं। पंडी में कई हैंडपंप लगे हैं, लेकिन एक को छोड़ कोई सफल नहीं हो सका। एक चुआड़ पर आखिर कब तक लोग निर्भर रहेंगे? हमने जब से होश संभाला है तब से पानी ढोना हमारी दिनचर्या में शामिल है। सुना है कि सरकार "हर घर नल योजना' शुरू करने वाली है, लेकिन उस योजना का कहीं अता-पता नहीं है। दावा किया गया था कि साल 2022 तक सभी के घरों में पानी पहुंचने लगेगा, लेकिन सरकार के दावे झूठे निकले। गर्मी के दिनों में जब आसमान से आग बरसती है तब पंडी का इकलौता हैंडपंप थोड़ा सा पानी गिराता है फिर बंद हो जाता है। यहां पानी का संकट बहुत पुराना है। बोरिंगें कई बार हुईं, लेकिन सफल नहीं हुईं। गर्मी और बरसात के दिनों में पंडी के तमाम बच्चे खुजली और उल्टी-दस्त से बीमार होते हैं।"
बच्चों को स्कूल छोड़कर पानी लाना पड़ता है
केल्हड़िया में भी संकट
पंडी गांव के कुछ किलोमीटर के फासले पर एक नौगढ़ प्रखंड का आखिरी गांव है केल्हड़िया। यहां भी पीने के पानी का जबर्दस्त संकट है। 40 वर्षीया लीलावती कहती हैं, "हमारे नसीब में सिर्फ पहाड़ के दर्रे का पानी ही नसीब हो पाता है। चुआड़ के आगे लोगों को बाल्टी और प्लास्टिक के डब्बे के साथ लाइन लगानी पड़ती है और घंटों इंतजार के बाद एक-दो बाल्टी पानी मिल पाता है। सरकार की ओर से पानी का जो टैंकर आता है, उसमें भी कभी मछलियां निकलती हैं तो कभी मेंढक। हम ऐसा पानी पी रहे हैं, जिसे मवेशी भी नहीं पीते हैं। मन घिनघिना उठता है, लेकिन लाचारी में उसी पानी को छानकर सूखे कंठ को गीला करना पड़ता है। जिन जंगलों में पहाड़ से पानी का सोता निकलता है वहां भालू और तेंदुए जैसे खतरनाक जंगली जानवर भी पहुंचते हैं। हमें हर वक्त डर लगा रहता है कि वो हमला न बोल दें। इसलिए लाठी-डंडा लेकर जाना पड़ता है।''
जंगल से पीने का पानी लाती आदिवासी महिला
केल्हड़िया में पीपल का एक विशाल पेड़ है, जिसके नीचे बैठे मिले संतोष कोल ने बताया कि, ''कुछ बरस पहले हैंडपंप लगाने के लिए पत्थर काटने वाली मशीन से बोरिंग कराई गई, लेकिन वो फेल हो गई। हर घर, हर नल योजना हमारे लिए सपना है। गर्मी के दिनों में हमें अपने मवेशियों का जीवन बचाने के लिए भी पानी इकट्ठा करना पड़ता है।''
इसी गांव की कुंती कहती हैं, ''गर्मियों में हम नहाना ही भूल जाते हैं। जब पीने के लिए पानी नसीब नहीं हो रहा है तो नहाने के लिए कहां से लाएं? एक-एक बूंद पानी के लिए परेशान हैं। हमारी कई पुश्तें यहां गल चुकी हैं। अपनी जमीन छोड़कर हम कहां जाएं? पानी के संकट के चलते गांव में कई लड़कों की शादियां रुक गई हैं। रिश्तेदार आते हैं तो वो कहते हैं कि वहां पानी नहीं है। केल्हड़िया गांव में बेटियों की शादी नहीं करेंगे। जिन बच्चों की शादियां हो जानी चाहिए थी, वो पानी के संकट के चलते कुंवारे हैं।''
पेयजल की मुश्किल से जूझने वाली कुंती नौगढ़ की इकलौती महिला नहीं हैं। केल्हड़िया की विधवा फुलवंती की कहानी इनसे मिलती-जुलती है। इनके दो बेटे हैं-संतोष और छोटेलाल। दोनों मज़दूरी करने चले जाते हैं तो पानी भरने का काम वही करती हैं। इनका ज़्यादा समय पानी जुटाने में ही निकल जाता है। वह चुआड़ से पीने का पानी निकालने और फिर घर तक लाने में थक जाती हैं। केल्हड़िया की 57 वर्षीया चंद्रावती देवी और उनका परिवार खेती व पशुपालन पर निर्भर है। इनकी दिनचर्या भी फुलवंती देवी जैसी ही है। वह कहती हैं, '' पानी का संकट ज़्यादा रहता है तो दो-दो, चार-चार दिन के लिए इकट्ठा कर लेते हैं।
57 वर्षीया नौरंगी देवी का कहती हैं, ''केल्हड़िया में हैंडपंप लगाने के लिए मशीन से चार-पांच बार साढ़े पांच सौ फीट तक बोरिंग कराई गई, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। लगता है कि पानी हमारे नसीब में है ही नहीं। एक हज़ार फीट बोरिंग हो तो शायद पानी निकल आए। अगर सरकार गहरी बोरिंग करा दे तो हमारी मुश्किलें दूर हो सकती हैं। यहां एक कुआं है, मगर वो भी सूख चुका है। हमारे पास तो पेट भरने के लिए पैसा नहीं है। होता तो पत्थर काटने वाली मशीन लाकर बोरिंग करा देते। कम से कम रोज़-रोज़ पानी ढ़ोने से मुक्ति तो मिल जाती।''
नौगढ़ के एक गांव में हैंडपंप का नजारा
"गर्मी के दिनों में सरकारी टैंकर से आने वाले पानी के लिए पूरे दिन टकटकी लगाए रखना पड़ता है। हमारे गांव में सबसे बड़ी समस्या पानी की है। जब मैदानी इलाकों में चारे का संकट पैदा हो जाता है तो केल्हड़िया के लोग अपने मवेशी लेकर जंगलों में चले जाते हैं। अबकी सारा इलाका सूखे की मार झेल रहा है। केल्हड़िया गांव में अक्सर टैंकर का पानी नहीं आता। तब इस गांव के लोग सुबह तीन बजे उठते हैं और जान जोखिम में डालकर बाल्टी और डिब्बा लेकर जंगलों में कूच कर जाते हैं। चुआड़ से लोटे से पानी भरते हैं। दूषित पानी पीने से उल्टी-दस्त, टाइफाइड, पेट दर्द की समस्याएं आम हैं। हमारे यहां पानी होगा तो हर चीज़ सही होगी।"
कब खत्म होगी जद्दोजहद
नौगढ़, चंदौली ज़िले का वह इलाक़ा है जहां सर्वाधिक आबादी खरवार, कोल, मुसहर और बैगा जनजातियों की है। इस इलाक़े में पानी की समस्या को लेकर योजनाएं तो कई बार बनी, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त नहीं बदली। औरवाटांड जलायश के पूर्व की तरफ़ सेमर साधो ग्राम सभा के सेमर, होरिला, धोबही, पथरौर, जमसोत से लगायत शाहपुर तक सूखे की मार के साथ पेयजल की समस्या है। देवरी के दक्षिण में मंगरई ग्राम सभा के गहिला, सुखदेवपुर, हथिनी, मगरही में पीने के पानी का जबर्दस्तत संकट है। उत्तर में पहाड़ और जंगल है। 40 से 45 किमी तक कहीं हैंडपंप अथवा कुआं नहीं है। पश्चिम में लौआरी ग्राम सभा का गांव है जमसोती, गोड़टुटवा, लेड़हा, लौआरी, लौआरी कला। इन गांवों में औरतों और बच्चों को पीने के पानी के लिए जद्दोजहद करते कभी भी देखा जा सकता है।
लौआरी खुर्द में एक आदिवासी का घर
पंडी, केल्हड़िया, सपहर, नोनवट, करमठचुआं और औरवाटांड गांव देवरी ग्राम सभा के हिस्से हैं। ग्राम प्रधान लाल साहब खरवार बेबाकी के साथ पेयजल संकट को स्वीकार करते हैं और वो कहते हैं, ''पीने के पानी के लिए हम अफसरों के चौखट पर दौड़ते-दौड़ते थक गए हैं। कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। गांव वालों को हम क्या जवाब दें और मुसीबतों से घिरे लोगों को कैसे अपना मुंह दिखाएं?''
नौगढ़ बांध के किनारे बसे औरवाटांड गांव में बांध के पानी में आर्सेनिक की मात्रा ज़्यादा है, जिसे पीने का मतलब मौत को गले लगाना। इस गांव में शानदार झरना है, जहां लुत्फ़ उठाने बड़ी तादाद में सैलानी आते हैं, लेकिन यहां पीने के पानी का संकट ऐसा है कि लोग अपनी बेटियों की शादी नहीं करना चाहते। पेशे से मज़दूर रामदीन कहते हैं, ''हमारे सामने पानी का संकट सबसे बड़ा है। हमारे डैम का पानी चंदौली के धानापुर और बिहार जा रहा है और 65 घरों की आबादी प्यास से बेहाल है।''
ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के जिलाध्यक्ष आनंद सिंह कहते हैं, "चंदौली के नौगढ़ इलाके में विकास के नाम पर सालों-साल करोड़ों रुपये ख़र्च किए गए, जिनमें से सबसे अधिक पैसा पानी के संकट को दूर करने में खपाया गया। यहां पैसा तो पानी की तरह बहा, लेकिन लोगों की प्यास नहीं बुझ पाई। बूंद-बूंद पानी के लिए अब भी लोग जूझ रहे हैं। आदिवासी बहुल इस इलाक़े में पीने का पानी जुटाना युद्ध जीतने जैसा होता है। नौगढ़ के किसी भी गांव में चले जाइए। हर कोई यूपी सरकार के जीवन मिशन से उम्मीद लगाए बैठा है। शहर से कोई भी पहुंचता है तो आदिवासी एक ही सवाल पूछते हैं, "आखिर कब पहुंचेगा सरकारी नल का पानी? कब दूर होगा पेयजल संकट और कब ख़त्म होगी उनकी जद्दोजहद?"
सूख गया लतीफशाह बांध
संकट में आदिवासी
चंदौली का नौगढ़ इलाक़ा पहले पूर्वांचल का दूसरा कालाहांडी माना जाता था। इसी प्रखंड के कुबराडीह और शाहपुर जमसोत में दो दशक पहले भूख से कई आदिवासियों की मौत हुई थी। नौगढ़ इलाक़े में दशकों तक डकैतों का साम्राज्य रहा। डकैत ख़त्म हुए तो नक्सलियों की आमद-रफ़्त बढ़ती चली गई। इस इलाक़े में कभी नामी डकैतों का सिक्का चला करता था तो कभी यह इलाक़ा कुख्यात नक्सलियों का सबसे बड़ा गढ़ हुआ करता था। फ़िलहाल दोनों समस्याएं काफ़ी हद तक ख़त्म हो गई हैं, लेकिन आदिवासियों की पेयजल की मुश्किलें जस की तस हैं।
गांव में सरकारी योजना से पानी आने के लिए सिर्फ इंतजार ही किया जा सकता है
साल 2011 की जनगणना के अनुसार चंदौली ज़िले की आबादी 19,52,756 थी, जिसमें 10,17,905 पुरुष और 9,34,851 महिलाएं शामिल थीं। 2001 में चंदौली ज़िले की जनसंख्या 16 लाख से अधिक थी। चंदौली में शहरी आबादी सिर्फ़ 12.42 फ़ीसदी है। 2541 वर्ग किलोमीटर में फैले चंदौली ज़िले में अनुसूचित वर्ग की आबादी 22.88 फ़ीसदी और जनजाति आबादी 2.14 फ़ीसदी है। यहां खेती के अलावा कोई दूसरा रोज़गार नहीं है। गर्मी के दिनों में नौगढ़ में सिर्फ इंसान ही नहीं, मवेशियों के लिए भी पानी जुटाना आसान नहीं होता है।
नौगढ़ और मूसाखाड़ बांधों में पानी बहुत कम है। चंदौली के सभी चेकडैम और बंधियों में धूल उड़ रही है। कुएं तक सूख गए हैं। इस वजह से काशी वन्य जीव अभ्यारण्य में विचरण करने वाले भालू, तेंदुआ, लंगूर, नीलगाय, हिरन, बारहसिंघा, शाही, चीतल, खरगोश और बंदर आदि वन्य जीवों का जीवन भी संकट में है। कुछ दिन पहले पानी न मिलने की वजह से एक बारहसिंघे की मौत हो गई थी।
नौगढ़ प्रखंड में पेयजल संकट से प्रभावित 51 ग्राम सभाओं में से एक है देवरी कला। इसी से जुड़ा है पंडी और केल्हड़िया गांव। क्षेत्रफल के हिसाब से देवरी कला यूपी की दूसरी सबसे बड़ी ग्राम पंचायत है, जहां सर्वाधिक आबादी खरवार, कोल, मुसहर और बैगा जन-जातियों की है। केल्हड़िया के अलावा पंडी, सपहर, नोनवट, करमठचुआं और औरवाटांड गांव देवरी ग्राम सभा के हिस्से हैं। इस इलाक़े में पानी की समस्या को लेकर योजनाएं तो कई बार बनीं, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त नहीं बदली। नौगढ़ इलाक़े की सभी ग्राम सभाओं में ज़्यादातर हैंडपंप शो-पीस बन गए हैं।
पानी भरने के लिए इंतजार करती महिलाएं
योगी सरकार ने जून 2020 में 'हर घर जल' योजना की शुरुआत की और वादा किया कि जून 2022 तक नौगढ़ के हर घर तक पाइपलाइन से पानी पहुंचा दिया जाएगा। बाद में इसकी डेड लाइन बढ़ाकर 2024 कर दी गई। 'हर घर जल' योजना के तहत पेयजल का इंतजाम करने के लिए नौगढ़ के लिए 250 करोड़ की योजना को मंजूरी दी गई है। इस योजना के तहत भैसोढ़ा बांध के पानी को शोधित करने के बाद करीब छह सौ किलोमीटर पाइप लाइन से सभी घरों में पहुंचाया जाना है। मियाद बीतती जा रही है, लेकिन 'हर घर जल' योजना का कहीं अता-पता नहीं है।
नौगढ़ के उप ज़िलाधिकारी कुंदन राज कहते हैं, "अभी हाल में हम ट्रांसफर होकर यहां आए हैं। नौगढ़ को हम समझने की कोशिश कर रहे हैं। हमारी कोशिश होगी कि जल जीवन मिशन के तहत नौगढ़ में हर घर तक जल पहुंच जाए। नौगढ़ का क्षेत्रफल बड़ा है और आबादी कम है, जिसके चलते विकास के लिए धन कम मिल पा रहा है। दशकों से चली आ रही समस्या को एक दिन में ख़त्म नहीं किया जा सकता। थोड़ा वक़्त लगेगा, लेकिन सरकार के प्रयास सफल होंगे। गांवों में तालाब और बंधियां बनवाई जा रही हैं। धीरे-धीरे समस्या ख़त्म होगी।"
झूठे निकले सरकार के दावे
बनारस से सटे मिर्जापुर ज़िले में सरकार ने जल संकट को दूर करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया लेकिन स्थिति जस की तस है। पर्वतीय अंचल में कई शानदार झरने, बड़े जलाशय और नदियां हैं। यहां सिरसी बांध की जल संचयन क्षमता 2,06,550 घन मीटर, मेजा बांध की 3,02,810 घन मीटर, अहरौरा बांध की 58,300 घन मीटर, जारगो बांध की 1,42,920 घन मीटर और ढेकवा बांध 6,020 घन मीटर है। सिरसी जलाशय के पानी का एक बड़ा हिस्सा सिंचाई और घरेलू उपयोग के लिए प्रयागराज भेजा जाता है। मिर्जापुर की मिट्टी कम नम है, जो बड़ी मात्रा में पानी सोखती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश के यूपी के बनारस का प्रतिनिधित्व करते हैं और उससे सटे चंदौली, मिर्जापुर और सोनभद्र के लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं। जंगलों में रहने वाले हज़ारों चेहरे आज भी प्यास की गवाही दे रहे हैं। ऐसी गवाही जो डबल इंजन सरकार की ‘हर घर नल योजना’ के दावों पर सवालिया निशान लगाती है। इन इलाकों में पीने का पानी जुटाना, औरतों और बच्चों के लिए रोज़ का संघर्ष है। यह स्थिति तब है जब दुर्गम इलाकों में पेयजल संकट दूर करने के लिए सबसे अधिक पैसा खपाया गया।
नौगढ़ बाजार
पीएम नरेंद्र मोदी ने 22 नवंबर, 2020 को 'हर घर नल योजना' की शुरुआत की थी। क़रीब 5,544 करोड़ रुपये की इस परियोजना का लक्ष्य पूंजीगत व्यय के साथ मिर्जापुर और सोनभद्र जिलों में हर घर में स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति करना है। बांध के पानी को उपचारित कर मिर्जापुर के 1,606 गांवों और सोनभद्र के 1,389 गांवों में जल संकट को दूर करने की योजना है। स्वच्छ पेयजल के भंडारण के लिए साफ़ पानी के 48 जलाशयों के निर्माण के साथ-साथ मिर्जापुर में 784 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछाई जा रही है। साथ ही 58 कच्चे जल उपचार संयंत्र स्थापित किए जाएंगे।
पटेहरा के कलवारी खुर्द मझारी में अमृत पेयजल योजना के तहत 600 लाख लीटर के ओवरहेड टैंक का निर्माण कराया जा रहा है, लेकिन मियाद बीत जाने के बावजूद कार्य अब तक अधूरा है। दीपनगर की सरोजा कहती हैं, "मिर्जापुर के पहाड़ी इलाकों में की गई ज़्यादातर डीप बोरिंगें फेल हो गई हैं। ज़्यादातर हैंडपंप ऐसे हैं, जिन्हें काफ़ी ज़्यादा चलाने के बाद बस बूंद-बूंद पानी ही आता है।
मिर्जापुर में क़रीब 90 फ़ीसदी लोग खेती पर निर्भर हैं, जिनमें 70 फ़ीसदी खेतिहर मज़दूर हैं, जो कर्ज के दलदल में फंसे हैं। कई किसानों को बैंक लोन से उधार चुकाने के लिए अपनी ज़मीनें बेचनी पड़ीं। सिंचाई के लिए बनाए गए बांधों के पानी का इस्तेमाल जब से पेयजल संकट दूर करने के लिए किया जा रहा है तब से किसानों की स्थिति और भी ज़्यादा दयनीय हो गई है। किसानों को यह तक नहीं सूझ रहा है कि वो अपनी फसलों की सिंचाई कैसे करें। पिछले दो-तीन सालों से इस इलाके में सूखे जैसे हालात हैं, जिसके चलते आदिवासी बहुल इलाकों में रहने वाले लोगों की मुश्किलें बढ़ गई हैं और सबकी ज़िंदगी पहाड़ सरीखी हो गई है।
सोनभद्र में भी संकट
मिर्जापुर की तरह सोनभद्र में भी हालात बदतर हैं। ज़िले की क़रीब 22 लाख की आबादी के सामने पीने के साफ़ पानी की समस्या एक गंभीर चुनौती बनकर उभरी है। प्रदूषित पानी की वजह से ज़िले के दस प्रखंडों के क़रीब 26 गांवों के लोग पिछले बीस बरस से फ्लोरोसिस जनित बीमारियों की ज़द में हैं। दुद्धी, नगवां, रॉबर्ट्सगंज, घोरवल, म्योरपुर प्रखंड क्रिटिकल जोन और कोन, बभनी, चतरा, करमा, चोपन आदि गांव सेमी क्रिटिकल ज़ोन में चले गए हैं।
नगवां इलाके के गोगा, केवटम, ढोसरा समेत दर्जनों गांवों में औरतों और बच्चों को क़रीब दो-तीन किलोमीटर दूर से पानी ढोना पड़ रहा है। इन गांवों में लगे ज़्यादातर हैंडपंप खराब हैं या फिर सूखे हैं। दूषित पानी पीने की वजह से यहां कमर में दर्द, जोड़ो में दर्द की शिकायत आम है। सबसे ज़्यादा असर बच्चों पर है। खास बात यह है कि एशिया के बड़े जलाशयों में शुमार रिहंद बांध अब खुद अपने लिए पानी के लिए लड़ रहा है।
बारिश न होने की वजह से सूखे पड़े खेत
सोनभद्र जनपद की करीब 22 लाख आबादी के लिए शुद्ध पेयजल की उपलब्धता बड़ी चुनौती बनी हुई है। नगवां विकास खण्ड गोगा, केवटम, ढोसरा, सहित दर्जनों गांवों में पूरे साल पीने के पानी का संकट बना रहता है। ग्रामीण दो-तीन किलोमीटर दूर से पानी ला रहे हैं। सोनभद्र में करीब 270 गांवों में पेयजल का गंभीर संकट है। पंचायती राज विभाग 408 टैंकरों से जलापूर्ति कर रहा है। इसके बावजूद स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। नदी, नाला, बांध और तालाबों का जलस्तर तेज़ी से खिसकने लगा है। राबर्ट्सगंज से सटे उरमौरा, लोढ़ी, रौंप, बिचपई, लोढ़ी, पोखरा, चकरिया, बसुहारी, दरमा, चेरूई, पल्हारी, सिलथम, पटना, कजियारी, बाकी, दरेव आदि गांवों में पानी के लिए बदतर स्थिति है। नगर पंचायत ओबरा, घोरावल, ओबरा, पिपरी, रेणुकूट, अनपरा और दुद्धी के कई इलाकों में पानी पाताल में चला गया है।
पूर्वांचल में सोनभद्र, मिर्जापुर और नौगढ़ (चंदौली) पहाड़ी इलाके हैं, जहां पानी के बगैर सब सूना है। हमने पूर्वांचल के कई गांवों में जाकर ज़मीनी हालात देखने की कोशिश की। पड़ताल में एक बात साबित हुई कि विकास के नाम पर यहां कई सालों से हज़ारों करोड़ रुपये खर्च किए गए, जिनमें से सबसे ज़्यादा पैसा पानी के संकट को दूर करने में खर्च किया गया। आदिवासी बहुल किसी भी गांव में अगर कोई जलसा या फिर शादी-विवाह होता है तो सबसे ज़्यादा मशक्कत पानी के लिए करनी पड़ती है।
नौगढ़ में पानी की समस्या को लेकर जुटे आदिवासी
पूर्व विधायक राजेंद्र सिंह कहते हैं, "गर्मी के दिनों में पूर्वांचल के पर्वतीय इलाकों में धरती जलविहीन हो जाती है। पेयजल की ज़्यादातर योजनाएं कागजी हैं और पानी के लिए लोग भटकने के लिए मजबूर हैं। पानी की सही कीमत जानना हो तो पूर्वांचल के चंदौली, मिर्जापुर और सोनभद्र के किसी भी गांव में चले जाइए। ऐसे गांवों की तादाद बहुत ज़्यादा है जहां रात का अंधेरा दूर भी नहीं होता कि लोग पानी की खोज में निकल पड़ते हैं। सबसे ज़्यादा दिक्कतें बुजुर्गों और बीमार लोगों को झेलनी पड़ती हैं। बढ़ते जल-संकट के बीच कई बार चूक हो जाती है तो बुजुर्ग प्यासे रह जाते हैं। जिन संकटग्रस्त गांवों में टैंकर से पानी नहीं पहुंचता, वहां चूल्हे तक ठंडे पड़ जाते हैं। बहुत से गांवों में पानी के स्रोत ऊंची जातियों के कब्ज़े में हैं। गरीबों और आदिवासियों को पानी उनके रहमोकरम पर ही मिल पाता है।"
पूर्वांचल के जंगलों में आदिवासियों के सरोकारों के लिए संघर्ष करने वाले अजय राय कहते हैं, "योगी सरकार ने जून 2020 में 'हर घर जल योजना' के तहत पूर्वांचल के पहाड़ी इलाकों में हर घर तक पाइपलाइन के ज़रिए पानी पहुंचाने का वादा किया था, लेकिन यह योजना कोई करिश्मा नहीं दिखा सकी है।" दूसरी ओर, जलशक्ति मंत्री स्वतंत्रदेव सिंह दावा करते हैं, "मिर्जापुर, सोनभद्र और चंदौली में हालात पहले और ज़्यादा खराब थे। हमारी सरकार हर घर तक पानी पहुंचाने में जुटी है। दशकों से चली आ रही समस्या को एक दिन में ख़त्म नहीं किया जा सकता। थोड़ा वक़्त लगेगा, लेकिन यूपी सरकार के प्रयास ज़रूर सफल होंगे।"
(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
Related: