मणिपुर हिंसा के पीछे पॉम ऑइल निर्माताओं का पहाड़ी जमीन हड़पना मकसद!

Written by CJP Team | Published on: July 26, 2023
मई, 2023 से मणिपुर सांप्रदायिक हिंसा की चपेट का शिकार रहा है. इस हिंसा की शुरूआत 3 मई को हुई थी जिसपर अभी तक क़ाबू नहीं पाया जा सका है. इस मामले की देखरेख के लिए केन्द्र सरकार ने मणिपुर के लिए एक सुरक्षा सलाहकार नामित किया था. ‘द वॉयर’ की 5 मई की रिपोर्ट के मुताबिक़, बिना किसी औपचारिक घोषणा या आदेश के सरकारी अधिकारियों ने एक प्रेस कांफ्रेंस कर राज्य में भारतीय संविधान के आर्टिकल 355 को लागू करने का ऐलान किया था. मणिपुर पुलिस प्रमुख ने 6 मई को घोषणा के बाद राज्य में इंटरनेट सेवा भी बंद कर दी थी. इसी बीच 2 कुकी औरतों को भीड़ द्वारा नग्न कर परेड करवाने और लैंगिक अपराध की घटना भी वायरल वीडियो के जरिए सामने आई.



मणिपुर में जारी हिंसा के दौरान मानवाधिकारों पर लगातार हमला हुआ है. अब तक राज्य में क़रीब 130 से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं जबकि हज़ारों की संख्या में लोग विस्थापित भी हुए हैं. इस कड़ी में अनेक चर्च और मंदिरों को जलाने की घटनाएं सामने आई हैं.  

ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य में हिंसा उच्च न्यायालय के उस फैसले के विरोध में सभी आदिवासी छात्र संघ (एटीएसयूएम) के विरोध प्रदर्शन के बाद भड़की है, जिसमें बहुसंख्यक (मैदानी) मैतेयी समुदाय को राज्य में अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने का समर्थन किया गया है. वे कुल जनसंख्या का लगभग 53% हैं। लगभग 33 लाख लोगों की आबादी वाले राज्य में इतने बड़े पैमाने पर गृह युद्ध छिड़ने के वास्तविक कारण के पीछे विभिन्न अटकलें और अनेकों सिद्धांत हैं.

कुछ का मानना है कि ये बीरेन सिंह की सरकार द्वारा कथित अफ़ीम तस्कर कुकी समुदाय पर शिकंजा कसने का नतीजा है तो कुछ का मानना है कि म्यांमार से प्रवासन ने राज्य की तस्वीर बिगाड़ दी है. इन्हीं में से एक दावा ये भी है कि जारी हिंसा, पॉम ऑयल के उत्पादन के लिए मैतेयी समुदाय के कुछ प्रभावशाली लोगों द्वारा कुकी समुदाय की पहाड़ी ज़मीन प्रभुत्व जमाने की योजना का नतीजा है.

गौरतलब है कि मणिपुर के कुल क्षेत्रफल का 10% हिस्सा घाटी के रूप में है जो मैतेयी लोगों का घर है और शेष क्षेत्र पहाड़ियाँ हैं जिनमें कुकी, ज़ो और नागा समुदाय का निवास है। सभी सरकारी कार्यालय, अस्पताल, प्रमुख व्यापारिक केंद्र और शैक्षणिक संस्थान मैदानी हिस्सों में आते हैं जबकि उत्तरपूर्वी क्षेत्रीय विकास मंत्रालय (DONER) के मुताबिक़ पहाड़ी इलाक़ों में इन सभी का अभाव है.

मैतेयी समुदाय द्वारा लंबे समय से अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल करने की मांग की जा रही थी, जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता थी: यह एक जटिल मांग भी है क्योंकि समुदाय को अपने समकक्षों के मामले में विशेषाधिकार प्राप्त है; वे राज्य में अनुसूचित जाति (एससी) के रूप में आरक्षण का भी लाभ उठाते हैं और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) व आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (ईबीसी) श्रेणियों का आरक्षण भी उन्हें मिलता रहा है। मैतेयी वर्ग की भाषा भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में दर्ज 22 भाषाओं में शुमार है और राज्य में प्रचलित सामान्य भाषा के तौर पर इस्तेमाल की जाती है.

मैतेयी समुदाय द्वारा अनुसूचित जनजाति (ST) के दर्जे की मांग करना निराधार दिखता है. अनुसूचित जनजाति (ST) श्रेणी में शामिल होने के लिए ज़रूरी भौगोलिक कटाव, समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पिछड़ापन, विशेष संस्कृति आदि शर्तों पर भी मैतेयी वर्ग कहीं से भी खरा नहीं उतरता है. हालांकि इन दायरों पर  संविधान की मुहर नहीं है लेकिन ये तार्किक रूप से स्थापित है.
 
इसके अलावा राज्य में बर्मा और अन्य राज्य से आए प्रवासियों की संख्या को लगातार मणिपुरी संस्कृति और परंपरा के लिए ख़तरे के रूप में परिभाषित किया जा रहा है. मुख्यमंत्री बीरेन सिंह के दावे के अनुसार राज्य में 2000 बर्मा के निवासी मौजूद हैं. ग़ौरतलब है कि 2011 की जनगणना के डेटा के मुताबिक़ मणिपुर की आबादी क़रीब 2.8 मिलियन दर्ज की गई थी और इतनी बड़ी आबादी को 2000 लोगों की मौजूदगी से कोई ख़तरा नहीं हो सकता है.  बता दें कि मणिपुर में ‘इनर लाइन परमिट सिस्टम’ काम करता है जिसके तहत सुरक्षा के मद्देनज़र वहां भारत के दूसरे हिस्सों के लोगों के दाख़िल होने और ठहरने को नियंत्रित किया जाता है.
 
यह स्पष्ट है कि मैतेयी को एसटी सूची में शामिल करने का मुद्दा भूमि तक आसान पहुंच से संबंधित मुद्दा है. मैतेयी वर्ग को अनुसूचित जनजाति (ST) में शामिल करने के बाद पहाड़ी इलाक़ों में उनके लिए ज़मीन की ख़रीदारी करने की प्रक्रिया आसान हो जाएगी. जबकि मैतेयी वर्ग के लिए फिलहाल ये अधिकार मणिपुर भूमि सुधार अधिनियम (MLR) के सेक्शन 158  और 1960 के ‘भूमि सुधार अधिनियम’ के तहत वर्जित है.

मणिपुर के मूल निवासियों का एक बड़ा वर्ग आर्थिक रूप से कमजोर और अशिक्षित है और राज्य में विधानसभा सीटों के असमान आवंटन के कारण उनके पास ज्यादा राजनीतिक शक्ति भी नहीं है, जो कि मैदानी इलाकों के लिए 40 और पहाड़ी इलाकों के लिए 20 सीटें हैं। पहाड़ी लोगों का दूसरा डर यह है कि नौकरियों और परीक्षाओं के मामले में अनुसूचित जनजाति के लिए 31% आरक्षण नहीं मिलेगा। पहाड़ी समुदाय के डर को सरकार की नवीनतम कार्रवाई से बल मिलता है, जहां सीमाओं का फिर से रेखांकन किया गया और विभिन्न क्षेत्र जो पहाड़ी के हिस्से थे, उन्हें घाटी क्षेत्र में जोड़ दिया गया। सरकार पर बहुसंख्यकों के पक्ष में पक्षपातपूर्ण तरीके से काम करने का आरोप लगाया गया है क्योंकि उनका तुष्टिकरण उन्हें राज्य में दीर्घकालिक राजनीतिक प्रभुत्व सुनिश्चित कर सकता है।

मणिपुर में जारी हिंसा का एक तार 2021 में मुख्यमंत्री बीरेन सिंह के एक बयान से भी जुड़ता है. 2021 में एक सेमिनार में हिस्सा लेते हुए मैतेयी समुदाय से नाता रखने वाले मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने मणिपुर में पॉम ऑयल मिशन पर काम करने के लिए 100 दिन का एक्शन-प्लॉन तय किया था.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ क़रीब 9,67,981 हेक्टेयर ज़मीन को पॉम ऑयल के उत्पादन को बढ़ावा देने के मक़सद से वृक्षारोपण के लिए चिन्हित किया गया है. इस योजना के ज़मीन पर उतरने के बाद इंडोनेशिया और मलेशिया से पॉम ऑयल का निर्यात बंद कर दिया जाएगा. फ़िलहाल 38,000 हेक्टेयर ज़मीन पर वृक्षारोपण का काम पहले से शुरू कर दिया गया है.
 
फ़्रंटियर मणिपुर को इंटरव्यू देने के दौरान पॉम ऑयल मिशन के सलाहकार M S खाईदेम ने कहा था कि केंद्र सरकार ने इस मिशन को 11,000 करोड़ के फ़ंड के साथ 5 सालों के लिए मंज़ूरी दी है. इन 11,000 करोड़ रूपयों में से 80%  हिस्सा केंन्द्र सरकार की हिस्सेदारी होगी जबकि शेष 20 % उत्तरपूर्व की राज्य सरकारों की हिस्सेदारी होगी. इस दौरान उन्होंने यह भी कहा कि 6 ज़िलों की परिधि में क़रीब 66,652 हेक्टेयर  ज़मीन इसके लिए उपयोगी क्षेत्र में शुमार की गई है. ये 6 ज़िले इंफ़ाल वेस्ट (14,516 हेक्टेयर) , थोउबल (18,475 हेक्टेयर) , बिष्णुपुर (10,389 हेक्टेयर), चूरचांदपुर (11,662 हेक्टेयर), चंदेल (6,803 हेक्टेयर) और उखरूल (4,808 हेक्टेयर) हैं. इसके अलावा राज्य सरकार ने मणिपुर के जिरिबाम ज़िले में भी 7,715 हेक्टेयर ज़मीन को वृक्षारोपण के लिए निर्धारित किया है. इस ज़िले में पहले से ही नारियल आदि की खेती की जाती है. इस इंटरव्यू में खाईदेम ने यह भी कहा कि मणिपुर पॉम ऑयल के उत्पादन में शामिल होने वाला भारत का 22वां राज्य होगा. ये ज़िले पहाड़ी इलाक़ों में आते हैं जो कि कुकी समुदाय का निवास है.

पॉम ऑयल उत्पादन का पर्यावरण पर प्रभाव

पॉम ऑयल के लिए फ़सल तैयार करने में अत्यधिक पानी की खपत होती है. प्रति हेक्टेयर क़रीब 45,000 लीटर पानी की सिंचाई मिट्टी की उर्वरता के काफ़ी नुकसानदायक है. पेड़ों के बीच क़रीब 30 फ़ीट का फ़ासला होना चाहिए लेकिन पॉम की खेती इस समूची जगह को ढांप लेती है जिससे कि किसी और पेड़ को उगाना मुश्किल हो जाता है. इससे पहले मिज़ोरम में क़रीब 29,000 हेक्टेयर ज़मीन पर पॉम के पेड़ लगाए गए थे जिसके नतीजे में उत्तरपूर्व के सबसे बड़े पॉम ऑयल उत्पादक के रूप में दर्ज होने के बावजूद मिज़ोरम की मिट्टी की उर्वरता नष्ट हो गई और बड़ी तादाद में जंगलों की कटाई हुए. दुनिया भर में पर्यावरणविद दावा करते रहे हैं कि पॉम ऑयल किसी भी क्षेत्र में वनस्पतियों की उपज के लिए ख़तरनाक है. 2004 में पॉम ऑयल उत्पादन के पर्यावरणीय ख़तरों को भांपते हुए  RSPO (Round table on sustainable palm oil) का गठन किया गया था.

इसके अलावा यह भी ग़ौरतलब है कि आर्थिक अभावों से जूझते आदिवासी और स्थानीय किसान इस उत्पादन की ज़िम्मेदारी संभालने में असक्षम हैं जिसका अर्थ है कि इसमें कार्पोरेट जगत का दख़ल होगा. मंत्री, नेता, राजनीतिक रूप से मज़बूत नौकरशाह, हथियारबंद समूह और ठेकेदार इस योजना से लाभ उठाएंगे. फिर Godrej Agrovet Ltd, पतंजलि ग्रुप की Ruchi Soya Industries Ltd  और 3F Oil Palm Aggrotech Private Ltd जैसी कंपनियां भी इस परियोजना से अधिकतम लाभ उठाएंगी.

29 मार्च 2023 को केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम भी पारित किया है जिसके बाद ज़मीन पर अधिकार की लड़ाई नए सिरे से प्रासंगिक हो गई है.

टी.एन. गोदावर्मन थिरूमुल्कपड़ बनाम संघ सरकार व अन्य [(1997) 2 SCC 267] मामले में सुप्रीम कोर्ट ने वन संरक्षण अधिनियम FCA ज़मीन को मुख्य जंगलों (notified forests) से बढ़ाकर सभी जंगलों पर लागू कर दिया था. संशोधन विधेयक विशेष रूप से ऐसे 'रिकॉर्डेड' जंगलों को लक्षित करता है और एफसीए के दायरे में केवल उन्हीं भूमि को शामिल करने का प्रस्ताव करता है जो 25 अक्टूबर, 1980 को या उसके बाद जंगल के रूप में दर्ज की गई हैं - इस प्रकार गोदावर्मन फैसले के दायरे को सीमित कर दिया गया है। नए संशोधन अधिनियम में कहा गया है कि मूल कानून में संशोधन की आवश्यकता है क्योंकि यह पारिस्थितिक, सामाजिक और पर्यावरणीय विकास के लिए चुनौती है। संशोधन का उद्देश्य निजी निगमों को आसान पहुंच प्रदान करते हुए वन भूमि को गैर-वानिकी उपयोग के लिए परिवर्तित करना है। 

चूंकि पूर्वोत्तर के लगभग सभी क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से 100 किलोमीटर से अधिक दूर नहीं हैं, इसलिए यह संशोधन अधिक से अधिक निजी निगमों के लिए परिदृश्य में प्रवेश करने और इस वन भूमि को पैसा निकालने वाली बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में बदलने के लिए एक स्पष्ट संकेत है। इससे यह स्पष्ट है कि सरकार भारी पारिस्थितिक और पर्यावरणीय लागत को दांव पर लगाकर अपनी आर्थिक वृद्धि को बढ़ाने पर भी नजर गड़ाए हुए है।

मणिपुर में जारी ख़तरनाक हिंसा के पीछे ज़मीन हड़पने और जंगल और घरों से आदिवासियों और राज्य के अल्पसंख्यक समुदायों को बेदख़ल करने की योजना साफ़ ज़ाहिर होती है. आर्थिक तरक़्की, ताक़त और दौलत की दौड़ में इंसानों और क़ुदरत को दरकिनार करने की इस कोशिश का ख़ामियाज़ा अगली पीढ़ियों पर लंबे समय तक असर डालेगा.
 
(इस लेख को नबील मसूद ने क़लमबद्ध किया है जो कि इस वक़्त CJP के साथ बतौर इंटर्न सक्रिय हैं.)

स्त्रोत -
1) Palm oil production – https://blog.mygov.in/the-launch-of-oil-palm-project-manipur/

2) interview of consultant for palm oil production- https://thefrontiermanipur.com/stage-set-for-big-push-to-oil-palms-plantation-in-manipur/

3) 2023 bill on forest conservation amendment – https://prsindia.org/billtrack/the-forest-conservation-amendment-bill-2023

4) Manipur land reform act – 

https://www.bing.com/ck/a?!&&p=bc9d06b597d870d8JmltdHM9MTY5MDE1NjgwMCZpZ3VpZD0zMDIwNDkyMy0yYTRhLTY1NWEtMjA2Zi01OWVkMmIyYjY0ZDUmaW5zaWQ9NTE5OQ&ptn=3&hsh=3&fclid=30204923-2a4a-655a-206f-59ed2b2b64d5&psq=mlr+and+lr+act+1960&u=a1aHR0cHM6Ly93d3cuaW5kaWFjb2RlLm5pYy5pbi9iaXRzdHJlYW0vMTIzNDU2Nzg5LzE1MzEvMS8xOTYwMzMucGRm&ntb=1

5 criteria for schedule tribe – 
https://vikaspedia.in/social-welfare/scheduled-tribes-welfare/scheduled-tribes-in-india#:~:text=The%20criterion%20followed%20for%20specification,but%20has%20become%20well%20established.

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