संयुक्त राष्ट्र मानव पर्यावरण सम्मेलन के तिरेपन वर्ष बाद, जो एक ऐतिहासिक घटना के रूप में स्वीडन के स्टॉकहोम में पर्यावरण कार्यकर्ताओं, आदिवासी समुदायों, वैज्ञानिकों और अधिकारियों की भागीदारी से आयोजित हुआ था, हर साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। भरत डोगरा लिखते हैं कि भारत के स्थानीय समुदाय, विशेषकर महिलाएं, किस प्रकार बीज संरक्षण और पुनर्जीवन की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले रही हैं। ये समुदाय पारंपरिक ज्ञान को पुनर्जीवित कर रहे हैं और कॉर्पोरेट्स द्वारा इसे नियंत्रित कर लाभ कमाने के प्रयासों को विफल कर रहे हैं।

परंपरागत खेती में सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक था—बीजों का चयन, उन्हें सुरक्षित रखना और संरक्षित करना। कई ग्रामीण समुदायों में महिला किसान इस कार्य में प्रमुख भूमिका निभाती थीं। उनके पास इस संरक्षण से जुड़ी विशिष्ट दक्षताएं और गहन समझ होती थी। कई आदिवासी समुदाय विशेष रूप से अपने बीज संरक्षण प्रयासों के लिए प्रसिद्ध थे।
हालांकि यह लंबे समय से स्वीकार किया गया है, लेकिन जिस बात की अक्सर पर्याप्त सराहना नहीं की जाती, वह यह है कि बीज संरक्षण से जुड़े मामलों में इन पारंपरिक समुदायों का ज्ञान कितना उन्नत था।
भारत के केंद्रीय धान अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक डॉ. आर.एच. रिछारिया उन कुछ वरिष्ठ वैज्ञानिकों में थे जिन्होंने इस सच्चाई को गहराई से समझा। उन्होंने दूर-दराज के गांवों और आदिवासी समुदायों के बीच रहकर उनका जीवन निकट से देखा और संवाद स्थापित किया। इसी गहरे जुड़ाव के चलते वे इन समुदायों की बीज संरक्षण क्षमताओं को समझ पाए। लोगों और समुदायों पर केंद्रित उनके कार्य ने उन्हें भारत में उगाई जा रही 17,000 से अधिक धान की किस्मों का एक विशाल संकलन तैयार करने के लिए प्रेरित किया।
जैसा कि उन्होंने एक बार मुझसे कहा था, वे खासकर इस बात से प्रभावित थे कि आदिवासी समुदाय सैकड़ों किस्मों की विशेषताओं को न केवल याद रखते हैं, बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी आगे भी बढ़ाते हैं। उन्हें पता होता है कि कौन-सी किस्म किस प्रकार की भूमि के लिए उपयुक्त है, किसे अधिक जल की आवश्यकता है, कौन-सी सूखा सहन कर सकती है, उनकी पाक-गुणवत्ता, सुगंध, यहां तक कि औषधीय उपयोग क्या हैं। इस समृद्ध जानकारी का अधिकांश हिस्सा छत्तीसगढ़, विशेषकर बस्तर क्षेत्र के किसानों के संदर्भ में संकलित किया गया, जहां अन्य विशेषज्ञ अक्सर इन समुदायों को 'पिछड़ा' समझकर नजरअंदाज कर देते थे। लेकिन डॉ. रिछारिया ने इस ज्ञान की समृद्धि की सच्ची सराहना की और अपने सहकर्मियों को भी यही दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया।
डॉ. रिछारिया, जो कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से वनस्पति विज्ञान में डॉक्टरेट करने वाले भारत के प्रारंभिक और सबसे युवा वैज्ञानिकों में से एक थे, ने मुझसे कहा था कि कुछ किसान, विशेष रूप से महिलाएं, इस ज्ञान में अत्यंत दक्ष थीं। चूंकि हर किसान की समझ एक जैसी नहीं हो सकती, इसलिए कुछ ज्ञान को परंपरा या अनुष्ठान के रूप में संरक्षित किया गया ताकि वह सहजता से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित हो सके।
जहां एक ओर पारंपरिक खेती समुदायों की इन क्षमताओं को सशक्त बनाने की आवश्यकता थी, वहीं दुर्भाग्यवश, इसके विपरीत हुआ। कई कारणों से इन पारंपरिक क्षमताओं को लगातार कमजोर और उपेक्षित किया गया।

1960 के दशक के मध्य से शुरू हुई हरित क्रांति की रणनीति नई और विदेशी किस्मों व बीजों पर आधारित थी, जिसका मूल उद्देश्य पारंपरिक फसल प्रणालियों को समाप्त करना था। ये प्रणालियां स्थानीय अनुभवों और परिस्थितियों पर आधारित थीं।
स्थिति तब और बदतर हो गई जब कॉर्पोरेट हितों ने बीजों को मुनाफे का साधन और खेती पर नियंत्रण स्थापित करने का माध्यम बना लिया। उन्होंने पौधों और जीवन की किस्मों पर पेटेंट व बौद्धिक संपदा अधिकार लागू करने के लिए जबरदस्त दबाव डाला। उन्होंने ऐसी तकनीकों को बढ़ावा दिया जो उनके नियंत्रण को और मजबूत करें।
जैसे-जैसे फसलों और बीजों की विविधता किसानों के खेतों से गायब होने लगी, पारंपरिक ज्ञान भी प्रयोगशालाओं और जीन बैंकों तक सीमित होता गया। कंपनियों ने किसानों के सामूहिक ज्ञान और परंपरागत बीजों का प्रयोग कर उन्हें पेटेंट कर ‘नवीन किस्मों’ के रूप में बेच दिया। कभी-कभी इनमें आनुवंशिक हेरफेर कर उन्हें ऐसा रूप दिया गया जिससे इन पर उनका एकाधिकार और मजबूत हो सके। यह सब 'विज्ञान' और 'विकास' के नाम पर हुआ।
इस धोखे से उबरने में कुछ समय लगा, लेकिन जब आदिवासी और ग्रामीण समुदायों को अहसास हुआ कि उनके बीज, ज्ञान और आजीविका को क्षति पहुंच रही है, तब उन्होंने पुनः बीज संरक्षण की जिम्मेदारी अपने हाथों में लेना शुरू किया।
कई समुदाय, विशेषकर दूरदराज क्षेत्रों में, जहां विविधता अब भी कुछ हद तक बची थी, बीज संरक्षण के प्रयासों में जुट गए। उन्होंने यह समझा कि अगर किसान और समुदाय एकजुट होकर कार्य करें, तो बीजों की विविधता और संप्रभुता की रक्षा संभव है।
पुनर्जीवित होता पारंपरिक ज्ञान
हाल के वर्षों में भारत सहित कई देशों में समुदायों ने बीजों की विविधता को बचाने के लिए एक नई चेतना के साथ प्रयास शुरू किए हैं। यह एक तरह से पारंपरिक ज्ञान का पुनर्जन्म है। मैं स्वयं मध्य भारत के तीन राज्यों में वाग्धारा नामक संस्था द्वारा आयोजित एक बीज महोत्सव का साक्षी रहा हूं। संस्था के युवाओं ने लगभग 90 कार्यक्रम आयोजित किए, जिनमें एक हजार से अधिक गांवों की भागीदारी रही। इन मेलों में दुर्लभ बीजों का संग्रह लाया गया और उन्हें अन्य किसानों से साझा किया गया। महिलाओं की भागीदारी विशेष रूप से उत्साहपूर्ण थी।
यह प्रयास इसलिए सफल हो सका क्योंकि वाग्धारा ने बीज संरक्षण को अपने विकास कार्यक्रमों का अभिन्न अंग बनाया। इसने आदिवासी समुदायों की परंपरागत प्रवृत्तियों को फिर से मजबूत आधार दिया।
अपने कार्य के दौरान, जब मैं गढ़वाल क्षेत्र गया, तो मुझे 'बीज बचाओ आंदोलन' से बहुत कुछ सीखने को मिला। इस आंदोलन ने यह दिखाया कि पारंपरिक मिश्रित खेती प्रणालियां कैसे जैव विविधता और खाद्य सुरक्षा को बनाए रखती हैं। ‘बराहनाजा’ जैसे तरीकों को फिर से प्रासंगिक बना दिया गया जिसमें एक छोटे भूखंड पर 12 से अधिक फसलें एक साथ उगाई जाती हैं।

कई 'वैज्ञानिकों' और अधिकारियों की नज़र में यह प्रणाली 'पिछड़ी' मानी जाती थी, लेकिन बीज बचाओ आंदोलन ने इस सोच को चुनौती दी। कार्यकर्ताओं ने पदयात्राएं कीं, दुर्लभ बीजों को गांव-गांव ले जाकर बांटा और जानकारी संकलित की। महिला किसानों की भूमिका यहां भी अत्यंत महत्वपूर्ण रही।
यह स्पष्ट है कि किसानों की बीज संप्रभुता की रक्षा के लिए ऐसे प्रयासों की और आवश्यकता है। किसानों को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वे अपने बीजों को स्वतंत्र रूप से संरक्षित, उगाने और साझा कर सकें।
(लेखक सेव अर्थ नाउ अभियान के मानद संयोजक हैं। उनकी पुस्तकों में शामिल हैं- इंडियाज क्वेस्ट फॉर सस्टेनेबल फार्मिंग एंड हेल्दी फूड, सेविंग अर्थ फॉर चिल्ड्रेन, मैन ओवर मैशीन एंड अ डे इन 2071।)

परंपरागत खेती में सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक था—बीजों का चयन, उन्हें सुरक्षित रखना और संरक्षित करना। कई ग्रामीण समुदायों में महिला किसान इस कार्य में प्रमुख भूमिका निभाती थीं। उनके पास इस संरक्षण से जुड़ी विशिष्ट दक्षताएं और गहन समझ होती थी। कई आदिवासी समुदाय विशेष रूप से अपने बीज संरक्षण प्रयासों के लिए प्रसिद्ध थे।
हालांकि यह लंबे समय से स्वीकार किया गया है, लेकिन जिस बात की अक्सर पर्याप्त सराहना नहीं की जाती, वह यह है कि बीज संरक्षण से जुड़े मामलों में इन पारंपरिक समुदायों का ज्ञान कितना उन्नत था।
भारत के केंद्रीय धान अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक डॉ. आर.एच. रिछारिया उन कुछ वरिष्ठ वैज्ञानिकों में थे जिन्होंने इस सच्चाई को गहराई से समझा। उन्होंने दूर-दराज के गांवों और आदिवासी समुदायों के बीच रहकर उनका जीवन निकट से देखा और संवाद स्थापित किया। इसी गहरे जुड़ाव के चलते वे इन समुदायों की बीज संरक्षण क्षमताओं को समझ पाए। लोगों और समुदायों पर केंद्रित उनके कार्य ने उन्हें भारत में उगाई जा रही 17,000 से अधिक धान की किस्मों का एक विशाल संकलन तैयार करने के लिए प्रेरित किया।
जैसा कि उन्होंने एक बार मुझसे कहा था, वे खासकर इस बात से प्रभावित थे कि आदिवासी समुदाय सैकड़ों किस्मों की विशेषताओं को न केवल याद रखते हैं, बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी आगे भी बढ़ाते हैं। उन्हें पता होता है कि कौन-सी किस्म किस प्रकार की भूमि के लिए उपयुक्त है, किसे अधिक जल की आवश्यकता है, कौन-सी सूखा सहन कर सकती है, उनकी पाक-गुणवत्ता, सुगंध, यहां तक कि औषधीय उपयोग क्या हैं। इस समृद्ध जानकारी का अधिकांश हिस्सा छत्तीसगढ़, विशेषकर बस्तर क्षेत्र के किसानों के संदर्भ में संकलित किया गया, जहां अन्य विशेषज्ञ अक्सर इन समुदायों को 'पिछड़ा' समझकर नजरअंदाज कर देते थे। लेकिन डॉ. रिछारिया ने इस ज्ञान की समृद्धि की सच्ची सराहना की और अपने सहकर्मियों को भी यही दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया।
डॉ. रिछारिया, जो कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से वनस्पति विज्ञान में डॉक्टरेट करने वाले भारत के प्रारंभिक और सबसे युवा वैज्ञानिकों में से एक थे, ने मुझसे कहा था कि कुछ किसान, विशेष रूप से महिलाएं, इस ज्ञान में अत्यंत दक्ष थीं। चूंकि हर किसान की समझ एक जैसी नहीं हो सकती, इसलिए कुछ ज्ञान को परंपरा या अनुष्ठान के रूप में संरक्षित किया गया ताकि वह सहजता से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित हो सके।
जहां एक ओर पारंपरिक खेती समुदायों की इन क्षमताओं को सशक्त बनाने की आवश्यकता थी, वहीं दुर्भाग्यवश, इसके विपरीत हुआ। कई कारणों से इन पारंपरिक क्षमताओं को लगातार कमजोर और उपेक्षित किया गया।

1960 के दशक के मध्य से शुरू हुई हरित क्रांति की रणनीति नई और विदेशी किस्मों व बीजों पर आधारित थी, जिसका मूल उद्देश्य पारंपरिक फसल प्रणालियों को समाप्त करना था। ये प्रणालियां स्थानीय अनुभवों और परिस्थितियों पर आधारित थीं।
स्थिति तब और बदतर हो गई जब कॉर्पोरेट हितों ने बीजों को मुनाफे का साधन और खेती पर नियंत्रण स्थापित करने का माध्यम बना लिया। उन्होंने पौधों और जीवन की किस्मों पर पेटेंट व बौद्धिक संपदा अधिकार लागू करने के लिए जबरदस्त दबाव डाला। उन्होंने ऐसी तकनीकों को बढ़ावा दिया जो उनके नियंत्रण को और मजबूत करें।
जैसे-जैसे फसलों और बीजों की विविधता किसानों के खेतों से गायब होने लगी, पारंपरिक ज्ञान भी प्रयोगशालाओं और जीन बैंकों तक सीमित होता गया। कंपनियों ने किसानों के सामूहिक ज्ञान और परंपरागत बीजों का प्रयोग कर उन्हें पेटेंट कर ‘नवीन किस्मों’ के रूप में बेच दिया। कभी-कभी इनमें आनुवंशिक हेरफेर कर उन्हें ऐसा रूप दिया गया जिससे इन पर उनका एकाधिकार और मजबूत हो सके। यह सब 'विज्ञान' और 'विकास' के नाम पर हुआ।
इस धोखे से उबरने में कुछ समय लगा, लेकिन जब आदिवासी और ग्रामीण समुदायों को अहसास हुआ कि उनके बीज, ज्ञान और आजीविका को क्षति पहुंच रही है, तब उन्होंने पुनः बीज संरक्षण की जिम्मेदारी अपने हाथों में लेना शुरू किया।
कई समुदाय, विशेषकर दूरदराज क्षेत्रों में, जहां विविधता अब भी कुछ हद तक बची थी, बीज संरक्षण के प्रयासों में जुट गए। उन्होंने यह समझा कि अगर किसान और समुदाय एकजुट होकर कार्य करें, तो बीजों की विविधता और संप्रभुता की रक्षा संभव है।
पुनर्जीवित होता पारंपरिक ज्ञान
हाल के वर्षों में भारत सहित कई देशों में समुदायों ने बीजों की विविधता को बचाने के लिए एक नई चेतना के साथ प्रयास शुरू किए हैं। यह एक तरह से पारंपरिक ज्ञान का पुनर्जन्म है। मैं स्वयं मध्य भारत के तीन राज्यों में वाग्धारा नामक संस्था द्वारा आयोजित एक बीज महोत्सव का साक्षी रहा हूं। संस्था के युवाओं ने लगभग 90 कार्यक्रम आयोजित किए, जिनमें एक हजार से अधिक गांवों की भागीदारी रही। इन मेलों में दुर्लभ बीजों का संग्रह लाया गया और उन्हें अन्य किसानों से साझा किया गया। महिलाओं की भागीदारी विशेष रूप से उत्साहपूर्ण थी।
यह प्रयास इसलिए सफल हो सका क्योंकि वाग्धारा ने बीज संरक्षण को अपने विकास कार्यक्रमों का अभिन्न अंग बनाया। इसने आदिवासी समुदायों की परंपरागत प्रवृत्तियों को फिर से मजबूत आधार दिया।
अपने कार्य के दौरान, जब मैं गढ़वाल क्षेत्र गया, तो मुझे 'बीज बचाओ आंदोलन' से बहुत कुछ सीखने को मिला। इस आंदोलन ने यह दिखाया कि पारंपरिक मिश्रित खेती प्रणालियां कैसे जैव विविधता और खाद्य सुरक्षा को बनाए रखती हैं। ‘बराहनाजा’ जैसे तरीकों को फिर से प्रासंगिक बना दिया गया जिसमें एक छोटे भूखंड पर 12 से अधिक फसलें एक साथ उगाई जाती हैं।

कई 'वैज्ञानिकों' और अधिकारियों की नज़र में यह प्रणाली 'पिछड़ी' मानी जाती थी, लेकिन बीज बचाओ आंदोलन ने इस सोच को चुनौती दी। कार्यकर्ताओं ने पदयात्राएं कीं, दुर्लभ बीजों को गांव-गांव ले जाकर बांटा और जानकारी संकलित की। महिला किसानों की भूमिका यहां भी अत्यंत महत्वपूर्ण रही।
यह स्पष्ट है कि किसानों की बीज संप्रभुता की रक्षा के लिए ऐसे प्रयासों की और आवश्यकता है। किसानों को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वे अपने बीजों को स्वतंत्र रूप से संरक्षित, उगाने और साझा कर सकें।
(लेखक सेव अर्थ नाउ अभियान के मानद संयोजक हैं। उनकी पुस्तकों में शामिल हैं- इंडियाज क्वेस्ट फॉर सस्टेनेबल फार्मिंग एंड हेल्दी फूड, सेविंग अर्थ फॉर चिल्ड्रेन, मैन ओवर मैशीन एंड अ डे इन 2071।)