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लगभग साबित हो चुका है कि सेंगोल का भारत की स्वतंत्रता का प्रतीक होना एक ताजातरीन जुमला है।
पिछले कुछ दिनों में इतिहासकारों और पत्रकारों ने तमाम उपलब्ध स्रोत खंगाल डाले हैं।
ऐतिहासिक स्रोतों, जैसे उस जमाने में तमाम विभूतियों द्वारा लिखी गई आजादी विषयक किताबों, अखबारों में छपी खबरों और पत्र-पत्रिकाओं की रपटों में कहीं एक अक्षर नहीं मिला है जो बताता हो कि सेंगोल का उपयोग भारत की आजादी के समय सत्ता परिवर्तन के प्रतीक के रूप में किया गया था।
टाइम पत्रिका के जिस लेख को सरकारी डॉकेट में उद्धृत किया गया है, उसमें भी ऐसा कुछ नहीं कहा गया है।
इसमें कोई संदेह नहीं की कि मद्रास प्रेसिडेंसी के एक शैव मठ की ओर से यह स्थानीय सुनारों के द्वारा तैयार करवाया गया और फिर धार्मिक अनुष्ठान के साथ नेहरू जी को उपहार के रूप में दिया गया।
नेहरू जी धार्मिक कर्मकांडों में विश्वास नहीं करते थे, यह भी एक जानी-मानी बात है।
बावजूद इसके इतिहासकारों ने दर्ज किया है कि आजादी की ठीक पहले की घड़ी में उन्होंने बहुत सारे धार्मिक अनुष्ठानों में निजी रूप से शामिल होने की सहमति दे दी थी।
अनेक इतिहासकारों ने इसे उनके विचलन के रूप में देखा है और उनकी आलोचना की है।
जो भी हो उस बेहद नाजुक और जटिल मौके पर नेहरू जी ने धार्मिक अनुष्ठानों और उपहारों को स्वीकार कर मठों के स्वाभिमान को ठेस न पहुंचाने का फैसला किया।
बाद में इन उपहारों को पूरे सम्मान के साथ संग्रहालयों को सौंप दिया गया। जाहिर है ऐसे उपहारों की संख्या बहुत बड़ी रही होगी। संग्रहालय स्टाफ ने कई बार ऐसे उपहारों पर केवल अनुमान के आधार पर लेबल लगा दिया हो यह नामुमकिन नहीं है। कथित सेंगोल पर *टहलने की छड़ी* वाला लेबल इसी प्रक्रिया में लगा होगा।
विचार करने की बात है कि राजवंशों के जमाने में नए शासन अध्यक्ष के हाथों में राजदंड या धर्मदंड थमाने के पीछे पुरोहित वर्ग का प्रयोजन क्या हो सकता था।
राजदंड थमा देने भर से न तो किसी को सत्ता मिल सकती है न सत्ता परिवर्तन हो सकता है।
राजवंशों के जमाने में सिंहासन या तो युद्ध में जीत हासिल करके या फिर वंश परंपरा से ही पाया जा सकता था। लेकिन राजदंड का अनुष्ठान पुरोहित वर्ग को यह कहने का अवसर मुहैया करता है कि राज चाहे जैसे हासिल किया गया हो, उसकी वैधता पुरोहितों के द्वारा दी जा रही मान्यता पर निर्भर करती है।
सच पूछा जाए तो यह राजदंड या न्याय दंड नहीं बल्कि विप्र दंड है। यह राजसत्ता पर ब्राह्मण पुरोहितों के प्रभाव का प्रतीक है। सही मानी में यह धर्म सत्ता और राजसत्ता के पवित्र गठजोड़ का प्रतीक है।
यह राजा और ब्राह्मण दोनों के काम आता है। राजा ब्राह्मण के आशीर्वाद को ईश्वर के वरदान के रूप में प्रदर्शित करता है और बदले में ब्राह्मण को राजकीय संरक्षण प्रदान करता है।
ऐसी व्यवस्था में न्याय का मतलब ताकतवर के शोषण और अन्याय से कमजोर की रक्षा करना नहीं रह जाता है, जबकि होना ऐसा ही चाहिए।
ब्राह्मणवादी तंत्र में न्याय का एक ही मतलब है और वह है जाति व्यवस्था और वर्णाश्रम के कथित दैवी विधान की रक्षा करना। भारतीय धर्मशास्त्रों के मुताबिक इसी न्याय के लिए राजा मुकुट धारण करता है और इसी न्याय की स्थापना के लिए ईश्वर अवतार लेते हैं।
नंदिनाथ द्वारा प्रवर्तित शैव सिद्धांत भक्ति का एक लोक आंदोलन था। लेकिन दक्षिण के शक्तिशाली साम्राज्यों ने शिव मठों के साथ संश्रय कायम किया और और शैवागम के अध्यात्म को सत्ता के सुरक्षा कवच में बदल दिया। सभी राज-सत्ताएं धर्म का यही उपयोग करती हैं।
सत्ता हस्तांतरण या आज़ादी?
आज असली सवाल यह है कि नए संसद भवन में विप्र दंड की स्थापना का वास्तविक राजनीतिक अभिप्राय क्या है।
गांधी, नेहरू, सुभाष और पटेल जैसे नेताओं ने भारत की आजादी को महज सत्ता परिवर्तन के रूप में नहीं देखा था। वे सपने में भी यह नहीं सोचते थे कि भारत की जनता ने जिस बात के लिए संघर्ष किया था वह यह थी कि राज-सत्ता ब्रिटिश शासकों के हाथों से निकलकर भारतीय नेताओं के हाथों में चली आए।
वे तो एक आजाद लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी हिंदुस्तान के लिए लड़े थे, जिसमें सत्ता जनता के हाथों में आनी थी। यह पुराने किस्म की राजसत्ता थी ही नहीं जो एक राजा से दूसरे राजा तक हस्तांतरित की जा सकती थी।
यह जनता की सार्वभौम सत्ता थी। यह अहस्तांतरणीय थी। इसलिए आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री ने इस क्षण को नियति के साथ भारतीय जनता के करार के अंशतः पूरे होने के रूप में रेखांकित किया था।
नियति के साथ भारतीय जनता का करार था हर आंख के आंसू पोछने का। सबसे कमजोर व्यक्ति के लिए न्याय और गरिमा सुनिश्चित करने का। विजनरी नेहरू यह समझते थे कि आजादी के साथ ही यह करार मुकम्मल नहीं हो गया है। उसके मुकम्मल होने की दिशा में यह केवल एक छोटा सा कदम है।
नियति के साथ करार का सबसे बड़ा महत्व है कि वह नए आजाद हुए देश के लिए न्याय और प्रगति के सुंदर भविष्य का एक नक्शा रचता है। यह वही नक्शा है जिसे डॉक्टर अंबेडकर ने भारत के संविधान के रूप में संजोया था।
इसलिए भारत की जनता के लिए आजादी का प्रतीक देश के संविधान के सिवा कुछ और नहीं हो सकता। कोई धार्मिक प्रतीक तो बिलकुल नहीं हो सकता।
नेहरू इस बात को समझते थे, इसलिए उन्होंने इस कथित सेंगोल को संग्रहालय के हवाले करना सबसे बेहतर समझा। उसे संग्रहालय से निकालकर संसद में स्थापित करना नियति के उस करार के साथ एक भारी धोखा है।
प्रतीकात्मक रूप से यह लोकतांत्रिक राज्य को ब्राह्मण राज्य में बदलने की कार्यवाही है। जो सत्ता को जनता के हाथों से छीन कर परंपरागत पुरोहित वर्ग के हाथों में पहुंचा देने की।
हैरानी की बात नहीं कि इस कार्रवाई के लिए उस दिन को चुना गया है जो हिंदुत्व के सिद्धांतकार सावरकर का जन्मदिन भी है।
अपनी सबसे प्रसिद्ध रचना हिंदुत्व में सावरकर ने दिखाया है कि भारतीय हिंदू राष्ट्र की रक्षा चतुर्वर्ण के संस्कारों की सुरक्षा पर निर्भर करती है।
उसी पुस्तक में उन्होंने यह भी लिखा है कि सच्चा हिंदू या भारतीय होने के लिए सबसे जरूरी शर्त है भारतीय आर्ष ग्रंथों द्वारा प्रचारित मूल्यों का जीवन संस्कार के रूप में आभ्यंतरीकरण।
पुस्तक में यह बात खुल कर कही नहीं गई है लेकिन सभी जानते हैं कि आर्ष ग्रंथों द्वारा प्रतिपादित संस्कार चतुर्वर्ण के मूल्य हैं।
बेशक यह तकलीफ की बात है अगर संसद में विप्र दंड की स्थापना को बहुजन अवाम और बहुजन पार्टियों का समर्थन मिलता है।
लेकिन प्रतीकों की राजनीति करने वालों को याद रखना चाहिए कि न्याय के लिए जनता का संघर्ष इतिहास की सबसे निर्णायक शक्ति है। एक न एक दिन जनता इस खेल को समझ ही जाती है और और राजदंड को राजा के हाथों से छीन कर अपने हाथों में ले लेती है।
(लेखक हिंदी के वरिष्ठ आलोचक और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं।)
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