भाजपा हो या कांग्रेस या फिर आम आदमी पार्टी, हर किसी को मुस्लिमों के वोट चाहिए, लेकिन कोई भी इनके हाथों में प्रतिनिधित्व देना नहीं चाहता। जिसमें भाजपा ने तो पूरी तरह से अपने दरवाज़े बंद कर दिए हैं।
सौजन्य- DW
वो साल 1980 था, जब गुजरात राज्य के भीतर खाम (KHAM) यानी क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमानों का समीकरण बिठाया गया था, ये साल इस लिहाज से भी ऐतिहासिक था क्योंकि 12 मुसलमान विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे थे, लेकिन विडंबना है कि ये इतिहास कभी दोहराया नहीं जा सका और आज की तारीख में गुजरात के भीतर करीब 10 फीसदी मुसलमान होने के बावजूद राजनीति में भागीदारी महज़ दो फीसदी है।
यानी देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग गुजरात के भीतर अब ख़ुद को महज़ दो चीज़ों के लिए जिम्मेदार कहता है, एक तो अपने परिवार, बच्चों और खुद की सुरक्षा सुनिश्चित कर ले, दूसरा वक्त आने पर किसी भी राजनीतिक दल को वोट कर दे दे। अगर आज वो सोचे कि सरकार से टिकट मांग कर राजनीति का हिस्सा हो जाएंगे, तो उनके ज़ेहन में उत्तर प्रदेश वाला 80 बनाम 20 ज़रूर आ जाता होगा।
फिलहाल... साल 2022 के गुजरात विधानसभा चुनावों में भी मुसलमानों को राजनीति की मुख्य धारा से दूर ही रखा गया है। अब कांग्रेस को ही ले लीजिए, जो कर तो भारत जोड़ो यात्रा रही है, लेकिन राज्य के 182 उम्मीदवारों में महज़ 6 मुस्लिमों को टिकट दिया है, हालांकि ख़बर है कि कांग्रेस की अल्पसंख्यक इकाई ने इस बार मुस्लिम उम्मीदवारी के लिए 11 टिकट मांगे थे।
ख़ैर... कांग्रेस ने जिन मुस्लिमों को उम्मीदवार बनाया है, उनमें वांकाने सीट से मौजूदा विधायक मोहम्मद जावेद पीरजादा भी शामिल हैं, ममदभाई जंग जाट को अब्सदा सीट, सुलेनन पटेल को वागरा और असलम साइकिलवाला को सूरत पूर्व से टिकट दिया गया है।
वहीं राज्य में बड़े-बड़े दावे कर रही और कांग्रेस की जगह लेने पर अमादा आम आदमी पार्टी ने महज़ दो मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है।
अब अगर भाजपा की बात नहीं करेंगे तो बेईमानी होगी, लेकिन आपको बता दें कि भाजपा ने हर बार की तरह एक भी मुस्लिम को उम्मीदवार नहीं बनाया है।
फिलहाल राज्य की मौजूदा विधानसभा में सिर्फ तीन मुस्लिम विधायक हैं, और ऐसे में जिन मुद्दों पर चुनाव हो रहे हैं, ऐसा लगता है कि आने वाले वक्त में एक भी मुस्लिम विधायक राज्य में न रह जाए।
ये कहना ग़लत नहीं होगा कि राजनीति में धीरे-धीर खत्म की जा रही मुस्लिमों की भागीदारी भी एक बड़ा कारण है, जिसने गुजरात को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की हिंदुत्व वाली प्रयोगशाला बना कर रख दिया है। जहां पिछले 27 सालों से भाजपा राज तो कर रही है, लेकिन अल्पसंख्यकों के भीतर अपनी ज़िंदगी को लेकर खौफ हर पल रहता है।
इसका ताज़ा उदाहरण बिलक़ीस बानो मामला है, जिनके सभी दोषियों को बा-इज़्ज़त रिहा कर दिया गया, बाइज़्ज़त हम इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि 27 सालों से प्रदेश की सत्ता में राज कर रही भाजपा के विधायक कहते हैं, कि बिलक़ीस के मामले में दोषी ब्राह्मण थे, इसलिए वो संस्कारी हैं।
कैसे घटती चली गई मुस्लिमों की भागीदारी?
माधव सिंह सोलंकी जब सूबे में कांग्रेस पार्टी के सबसे बड़े नेता और मुख्यमंत्री थे, तब एक समय ऐसा था कि गुजरात विधानसभा में 17-17 मुस्लिमों को टिकट दिया जाता था, और इनमें से 11-12 चुनकर भी आते थे, लेकिन अब संख्या तीन पर आ गई है। इसका कारण यह है कि भाजपा को मुस्लिम वोट चाहिए नहीं और अब तक अकेले कांग्रेस लड़ती थी तो वह मान कर चलती थी कि मुसलमान मजबूरी में उसको ही वोट देंगे।
शायद यही कारण है कि 1980 में बने खाम समीकरण के बाद राजनीति में मुस्लिमों की भागीदारी का पतन शुरु हो गया। हालांकि 1985 में भी कांग्रेस ने खाम फॉर्मूले को आगे बढ़ाते हुए मु्स्लिम उम्मीदवारों की संख्या 11 कर दी (जो 1980 में 17 थी), और आठ मुस्लिम उम्मीदवारों ने जीत हासिल की भी।
इसके बाद 1990 के दशक में राम मंदिर का आंदोलन शुरू हुआ और हिंदुत्तव राजनीति के बीच भाजपा और उसकी सहयोगी जनता दल ने एक भी मुसलमान उम्मीदवार नहीं उतारा, कांग्रेस ने 11 मुस्लिम उम्मीदवारों को मौका दिया। जिनमें दो ही जीत हासिल कर पाए। 1995 के चुनाव में कांग्रेस के सभी 10 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव हार गए।
अब बारी थी गोधरा कांड की... जिसके बाद भड़के दंगों के कारण वोटों का ध्रुवीकरण बहुत तेजी से हुआ और कांग्रेस ने 2002 में सिर्फ पांच मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया। इसके बाद से कांग्रेस ने अभी तक किसी भी चुनाव में 6 मुस्लिम से ज्यादा उम्मीदवार नहीं उतारे हैं।
इन सबके बावजूद पिछले दिनों गुजरात में हुए एक सर्वे का दावा है कि राज्य के कुल मुस्लिमों में 47 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता कांग्रेस के समर्थन में हैं, जबकि आम आदमी को पसंद करने वाले मुस्लिम वोटरों की संख्या करीब 25 फीसदी है। एआईएमआईएम के साथ सिर्फ नौ प्रतिशत मुस्लिम वोटर हैं वहीं भाजपा के साथ 19 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं।
अगर इस सर्वे में ज़रा भी दम है, तो आप इसके कई मायने निकाल सकते हैं, क्योंकि गुजरात के भीतर मुस्लिम इलाकों की हालत बहुत बदतर है, उनकी सुरक्षा पर अक्सर सवाल खड़े होते हैं, कहने का अर्थ ये हैं कि पिछले लंबे वक्त से भाजपा सत्ता में है लेकिन इस समाज की ओर ध्यान से कभी देखा नहीं गया, शायद यही कारण है कि मुसलमान एक बार फिर कांग्रेस के ज़रिए ख़ुद की दशा सुधारना चाहते हैं, हालांकि ये भी उनकी मजबूरी ही है।
दूसरी ओर बग़ैर किसी विचारधारा के मैदान में कूदी आम आदमी पार्टी के मुफ्त बिजली पानी जैसे वादें भी लोगों को भा रहे होगें, क्योंकि भयंकर बेरोज़गारी के दौर में ऐसे वादे किसे नहीं पसंद आते है। इसके अलावा भाजपा को पसंद करने के पीछे एक साधारण सा कारण स्थानीय विधायकों और नेताओं का अपना प्रभाव और ‘सुरक्षा की गारंटी’ हो सकता है।
आपको यह भी बता दें कि सत्ताधारी दल भाजपा ने भले ही मुस्लिम उम्मीदवार उतारा तो एक भी नहीं लेकिन उनके वोटों के लिए प्लान ज़रूर तैयार कर रखा है। दरअसल अल्पसंख्यक वोट बैंक को साधने के लिए भाजपा के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ ने एक अभियान शुरू किया है, जिसे ‘अल्पसंख्यक मित्र’ नाम दिया गया। इसका लक्ष्य था कि जहां मुसलमानों की संख्या है, वहां ऐसे 100 लोगों को खुद से जोड़ा जाए जो किसी राजनीति दल के साथ न हों और उनका अपने समुदाय के बीच प्रभाव भी हो। इनमें आध्यात्मिक नेता, पेशेवर कारोबारी और सरकारी नौकरी वाले लोग भी हो सकते हैं। कहने का मतलब ये है कि भाजपा का लक्ष्य सीधे तौर पर प्रदेश के कुल मुसलमानों में से 50 फीसदी मुसलमानों को साधने का है।
यहीं पर आपको एक बात और बताते चलें कि 1998 में भाजपा ने पहली बार भरूच ज़िले की वागरा सीट से एक मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट दिया था, जिनका नाम अब्दुलगनी कुरैशी था, मग़र वो हार गए थे। फिर अगले चुनाव तक राज्य की राजनीति में नरेंद्र मोदी की एंट्री हो चुकी थी, और शायद यहीं से गुजरात में मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए भाजपा के रास्ते पूरी तरह से बंद कर दिए गए थे।
आपको बता दें कि गुजरात में 34 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां मुस्लिम मतदाताओं की आबादी 15 फीसदी से ज्यादा है, जबकि 20 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोटरों की संख्या 20 फीसदी से अधिक है।
यानी कुछ विधानसभा सीटे ऐसी हैं, जहां मुसलमान जीत का पलड़ा किसी भी दिशा में झुका सकते हैं, लेकिन राजनीति में उनकी भागीदारी न के बराबर है।
साभार- न्यूजक्लिक
सौजन्य- DW
वो साल 1980 था, जब गुजरात राज्य के भीतर खाम (KHAM) यानी क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमानों का समीकरण बिठाया गया था, ये साल इस लिहाज से भी ऐतिहासिक था क्योंकि 12 मुसलमान विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे थे, लेकिन विडंबना है कि ये इतिहास कभी दोहराया नहीं जा सका और आज की तारीख में गुजरात के भीतर करीब 10 फीसदी मुसलमान होने के बावजूद राजनीति में भागीदारी महज़ दो फीसदी है।
यानी देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग गुजरात के भीतर अब ख़ुद को महज़ दो चीज़ों के लिए जिम्मेदार कहता है, एक तो अपने परिवार, बच्चों और खुद की सुरक्षा सुनिश्चित कर ले, दूसरा वक्त आने पर किसी भी राजनीतिक दल को वोट कर दे दे। अगर आज वो सोचे कि सरकार से टिकट मांग कर राजनीति का हिस्सा हो जाएंगे, तो उनके ज़ेहन में उत्तर प्रदेश वाला 80 बनाम 20 ज़रूर आ जाता होगा।
फिलहाल... साल 2022 के गुजरात विधानसभा चुनावों में भी मुसलमानों को राजनीति की मुख्य धारा से दूर ही रखा गया है। अब कांग्रेस को ही ले लीजिए, जो कर तो भारत जोड़ो यात्रा रही है, लेकिन राज्य के 182 उम्मीदवारों में महज़ 6 मुस्लिमों को टिकट दिया है, हालांकि ख़बर है कि कांग्रेस की अल्पसंख्यक इकाई ने इस बार मुस्लिम उम्मीदवारी के लिए 11 टिकट मांगे थे।
ख़ैर... कांग्रेस ने जिन मुस्लिमों को उम्मीदवार बनाया है, उनमें वांकाने सीट से मौजूदा विधायक मोहम्मद जावेद पीरजादा भी शामिल हैं, ममदभाई जंग जाट को अब्सदा सीट, सुलेनन पटेल को वागरा और असलम साइकिलवाला को सूरत पूर्व से टिकट दिया गया है।
वहीं राज्य में बड़े-बड़े दावे कर रही और कांग्रेस की जगह लेने पर अमादा आम आदमी पार्टी ने महज़ दो मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है।
अब अगर भाजपा की बात नहीं करेंगे तो बेईमानी होगी, लेकिन आपको बता दें कि भाजपा ने हर बार की तरह एक भी मुस्लिम को उम्मीदवार नहीं बनाया है।
फिलहाल राज्य की मौजूदा विधानसभा में सिर्फ तीन मुस्लिम विधायक हैं, और ऐसे में जिन मुद्दों पर चुनाव हो रहे हैं, ऐसा लगता है कि आने वाले वक्त में एक भी मुस्लिम विधायक राज्य में न रह जाए।
ये कहना ग़लत नहीं होगा कि राजनीति में धीरे-धीर खत्म की जा रही मुस्लिमों की भागीदारी भी एक बड़ा कारण है, जिसने गुजरात को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की हिंदुत्व वाली प्रयोगशाला बना कर रख दिया है। जहां पिछले 27 सालों से भाजपा राज तो कर रही है, लेकिन अल्पसंख्यकों के भीतर अपनी ज़िंदगी को लेकर खौफ हर पल रहता है।
इसका ताज़ा उदाहरण बिलक़ीस बानो मामला है, जिनके सभी दोषियों को बा-इज़्ज़त रिहा कर दिया गया, बाइज़्ज़त हम इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि 27 सालों से प्रदेश की सत्ता में राज कर रही भाजपा के विधायक कहते हैं, कि बिलक़ीस के मामले में दोषी ब्राह्मण थे, इसलिए वो संस्कारी हैं।
कैसे घटती चली गई मुस्लिमों की भागीदारी?
माधव सिंह सोलंकी जब सूबे में कांग्रेस पार्टी के सबसे बड़े नेता और मुख्यमंत्री थे, तब एक समय ऐसा था कि गुजरात विधानसभा में 17-17 मुस्लिमों को टिकट दिया जाता था, और इनमें से 11-12 चुनकर भी आते थे, लेकिन अब संख्या तीन पर आ गई है। इसका कारण यह है कि भाजपा को मुस्लिम वोट चाहिए नहीं और अब तक अकेले कांग्रेस लड़ती थी तो वह मान कर चलती थी कि मुसलमान मजबूरी में उसको ही वोट देंगे।
शायद यही कारण है कि 1980 में बने खाम समीकरण के बाद राजनीति में मुस्लिमों की भागीदारी का पतन शुरु हो गया। हालांकि 1985 में भी कांग्रेस ने खाम फॉर्मूले को आगे बढ़ाते हुए मु्स्लिम उम्मीदवारों की संख्या 11 कर दी (जो 1980 में 17 थी), और आठ मुस्लिम उम्मीदवारों ने जीत हासिल की भी।
इसके बाद 1990 के दशक में राम मंदिर का आंदोलन शुरू हुआ और हिंदुत्तव राजनीति के बीच भाजपा और उसकी सहयोगी जनता दल ने एक भी मुसलमान उम्मीदवार नहीं उतारा, कांग्रेस ने 11 मुस्लिम उम्मीदवारों को मौका दिया। जिनमें दो ही जीत हासिल कर पाए। 1995 के चुनाव में कांग्रेस के सभी 10 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव हार गए।
अब बारी थी गोधरा कांड की... जिसके बाद भड़के दंगों के कारण वोटों का ध्रुवीकरण बहुत तेजी से हुआ और कांग्रेस ने 2002 में सिर्फ पांच मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया। इसके बाद से कांग्रेस ने अभी तक किसी भी चुनाव में 6 मुस्लिम से ज्यादा उम्मीदवार नहीं उतारे हैं।
इन सबके बावजूद पिछले दिनों गुजरात में हुए एक सर्वे का दावा है कि राज्य के कुल मुस्लिमों में 47 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता कांग्रेस के समर्थन में हैं, जबकि आम आदमी को पसंद करने वाले मुस्लिम वोटरों की संख्या करीब 25 फीसदी है। एआईएमआईएम के साथ सिर्फ नौ प्रतिशत मुस्लिम वोटर हैं वहीं भाजपा के साथ 19 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं।
अगर इस सर्वे में ज़रा भी दम है, तो आप इसके कई मायने निकाल सकते हैं, क्योंकि गुजरात के भीतर मुस्लिम इलाकों की हालत बहुत बदतर है, उनकी सुरक्षा पर अक्सर सवाल खड़े होते हैं, कहने का अर्थ ये हैं कि पिछले लंबे वक्त से भाजपा सत्ता में है लेकिन इस समाज की ओर ध्यान से कभी देखा नहीं गया, शायद यही कारण है कि मुसलमान एक बार फिर कांग्रेस के ज़रिए ख़ुद की दशा सुधारना चाहते हैं, हालांकि ये भी उनकी मजबूरी ही है।
दूसरी ओर बग़ैर किसी विचारधारा के मैदान में कूदी आम आदमी पार्टी के मुफ्त बिजली पानी जैसे वादें भी लोगों को भा रहे होगें, क्योंकि भयंकर बेरोज़गारी के दौर में ऐसे वादे किसे नहीं पसंद आते है। इसके अलावा भाजपा को पसंद करने के पीछे एक साधारण सा कारण स्थानीय विधायकों और नेताओं का अपना प्रभाव और ‘सुरक्षा की गारंटी’ हो सकता है।
आपको यह भी बता दें कि सत्ताधारी दल भाजपा ने भले ही मुस्लिम उम्मीदवार उतारा तो एक भी नहीं लेकिन उनके वोटों के लिए प्लान ज़रूर तैयार कर रखा है। दरअसल अल्पसंख्यक वोट बैंक को साधने के लिए भाजपा के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ ने एक अभियान शुरू किया है, जिसे ‘अल्पसंख्यक मित्र’ नाम दिया गया। इसका लक्ष्य था कि जहां मुसलमानों की संख्या है, वहां ऐसे 100 लोगों को खुद से जोड़ा जाए जो किसी राजनीति दल के साथ न हों और उनका अपने समुदाय के बीच प्रभाव भी हो। इनमें आध्यात्मिक नेता, पेशेवर कारोबारी और सरकारी नौकरी वाले लोग भी हो सकते हैं। कहने का मतलब ये है कि भाजपा का लक्ष्य सीधे तौर पर प्रदेश के कुल मुसलमानों में से 50 फीसदी मुसलमानों को साधने का है।
यहीं पर आपको एक बात और बताते चलें कि 1998 में भाजपा ने पहली बार भरूच ज़िले की वागरा सीट से एक मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट दिया था, जिनका नाम अब्दुलगनी कुरैशी था, मग़र वो हार गए थे। फिर अगले चुनाव तक राज्य की राजनीति में नरेंद्र मोदी की एंट्री हो चुकी थी, और शायद यहीं से गुजरात में मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए भाजपा के रास्ते पूरी तरह से बंद कर दिए गए थे।
आपको बता दें कि गुजरात में 34 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां मुस्लिम मतदाताओं की आबादी 15 फीसदी से ज्यादा है, जबकि 20 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोटरों की संख्या 20 फीसदी से अधिक है।
यानी कुछ विधानसभा सीटे ऐसी हैं, जहां मुसलमान जीत का पलड़ा किसी भी दिशा में झुका सकते हैं, लेकिन राजनीति में उनकी भागीदारी न के बराबर है।
साभार- न्यूजक्लिक