वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन की नोडल एजेंसी आदिम जाति कल्याण मंत्रालय ने आदिवासियों को वन विभाग के रहमो-करम पर छोड़ दिया है! यह भी तब जब, वनाधिकार कानून-2006 में आदिवासियों के साथ जारी ऐतिहासिक अन्याय के लिए वन विभाग को जिम्मेदार ठहराया गया है। इसके चलते ही (वनाधिकार) कानून में आदिवासी मंत्रालय को नोडल जिम्मेदारी दी गई थी। लेकिन अब वन अधिनियम-1927 में संशोधन के जरिये सरकार, आदिवासी मंत्रालय की जगह वन विभाग को नोडल एजेंसी बनाने का मसौदा लेकर आई है। पिछले दिनों दोनों मंत्रालयों के साझा संबोधन में मसौदे की मंशा जाहिर की गई। यह मसौदा सामुदायिक वन प्रबंधन व गैर-इमारती वनोत्पादों के उपयोग में आदिवासी समुदायों की भागीदारी को सीमित करता है तथा नीति निर्धारण के क्षेत्र में वन मंत्रालय को महत्वपूर्ण स्थान देता है जो पूरी तरह से वनाधिकार कानून की भावना के ही खिलाफ है।
यही नहीं, वनाधिकार कानून में वन विभाग को मुंसिफ़ (सर्वोच्चता देने) बनाने वाला यह संशोधन वनवासियों के हकों को और कमजोर करेगा। सुदर्शन फ़ाकिर का मशहूर शे'र भी है कि..
मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है,
क्या मिरे हक में फ़ैसला देगा।
आदिवासियों की व्यथा को बखूबी उजागर करता है।
पिछले माह 22 जून, 2021 को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने कंसल्टेंसी संगठनों को कठोर और औपनिवेशिक भारतीय वन अधिनियम-1927 में व्यापक संशोधन का मसौदा तैयार करने के लिए आमंत्रित किया है। इसी भारतीय वन अधिनियम 1927 (IFA) के माध्यम से औपनिवेशिक शासन यानी अंग्रेज सरकार ने वन संसाधनों पर अधिक से अधिक शक्ति हासिल करने की कोशिश की थी। अब इस नये मसौदे के माध्यम से मोदी सरकार उससे भी कहीं आगे जाकर अपने अधिकारों को मजबूत करना चाहती है। यह विधेयक भारतीय वन अधिनियम 1927 की जगह लेगा जो संयुक्त वन प्रबंधन समिति (JFMC) के माध्यम से 'वनों का प्रबंधन' फॉरेस्ट ब्यूरोक्रेसी को देता है। और ऐसे वनों को आरक्षित वन घोषित करने के लिए मुआवजे का भुगतान करके आदिवासियों के व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों को खत्म करने की शक्ति भी देता है। मार्च 2019 में भी मोदी सरकार ने इस बाबत एक असफल प्रयास किया था।
2019 में भी वन मंत्रालय ने भारतीय वन अधिनियम-1927 में संशोधन का मसौदा प्रस्तुत किया था जिसका व्यापक विरोध और तीखी आलोचना हुई थी। इंडियन फॉरेस्ट (अमेंडमेंट) बिल 2019 में प्रस्तावित संशोधनों का उद्देश्य वनाधिकार अधिनियम-2006 (FRA) के तहत वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों और वनवासियों को दिए गए अधिकारों पर फिर से राज्य सत्ता (वन विभाग) को स्थापित करना था! जो कि वनाधिकार कानून-2006 के उस प्रावधान का भी उल्लंघन है जो वन भूमि और वन संसाधनों पर ग्राम सभा के माध्यम से वनों के संरक्षण और प्रबंधन का अधिकार वनवासी समुदायों को देता है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, 2019 के प्रस्तावित संशोधनों में ऐसे प्रावधान थे जो वन अधिकारियों को, वन संरक्षण के नाम पर किसी को भी गोली मारने तक की अनुमति देते थे और इसमें आपराधिक कार्रवाई का भी लेशमात्र खतरा है। यही नहीं, वे वन निवासियों को एक मामूली राशि (धारा 22ए (2), 30(बी)) देकर उनके वन अधिकारों को समाप्त भी कर सकते थे। यह विधेयक फॉरेस्ट ब्यूरोक्रेसी को वन अधिकारों के बारे में फैसला करने का अधिकार देता है और ऐसे वनों को 'आरक्षित वन' घोषित करने के लिए मुआवजे का भुगतान करके व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों को खत्म करने की पॉवर देता है। इसके क्लॉज 26 में आरक्षित वन में आग लगने या वन उपज चोरी या मवेशियों द्वारा चरने के मामले में, चारागाह या वन उपज के सभी अधिकार खत्म करने की बात है। एक तरह से ये प्रावधान फॉरेस्ट ब्यूरोक्रेसी को वन अधिकारों को समाप्त करने के लिए वीटो पॉवर देते हैं।
यही नहीं मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, वन अधिकारी बिना किसी वारंट के छापेमारी और गिरफ्तारी कर सकते थे और किसी भी वनवासी की संपत्ति को जब्त कर सकते थे। इससे भी बदतर यह है कि यह विधेयक सशस्त्र बलों के लिए 'अशांत क्षेत्रों' में लागू सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) अधिनियम 1958 के तहत ब्यूरोक्रेसी को असीमित अधिकार देता है। इसके तहत अगर वे कोई ज्यादती या गलत काम करते हैं तो यह कानून उन्हें अभियोजन से सुरक्षा देता है। राज्य की पूर्व अनुमति के बिना वन अधिकारियों के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। इसके लिए किसी कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा जांच के लिए सशर्त अनुमति दी जाएगी। विधेयक कहता है कि ब्यूरोक्रेसी को यह सुरक्षा 'वन अपराध को रोकने के लिए' दी जा रही है। वहीं, अगर वन विभाग किसी पर अवैध वस्तुएं रखने आदि का आरोप लगाता है, तो उसमें आरोपी को ही अपनी बेगुनाही साबित करनी होगी, आरोप लगाने वाले को नहीं।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, 2019 में प्रस्तावित मसौदे की क्लॉज 66 एक फॉरेस्ट अपराधी यानी 'वन' के प्रति कोई अपराध करने वाले को आतंकवादी की तरह मानता है। यह कानून आरोपी पर यह बोझ डालता है कि वह खुद को बेगुनाह साबित करें। जबकि बाकी मामलों में मौजूदा आपराधिक कानून अभियोजन पर अपराध साबित करने का दबाव डालता है। यह कानून किसी एक व्यक्ति की गलतियों के लिए उस व्यक्ति के अलावा पूरे 'वनवासी समुदाय' या राज्य में कानूनी तौर पर पंजीकृत संगठन को दोषी ठहराता है, लेकिन इसे लेकर कोई स्पष्टीकरण नहीं देता है। यहां तक कि यह कानून राज्य सरकार को किसी पर दर्ज केस वापस लेने का अधिकार भी नहीं देता। यह अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार को होगा।
विधेयक के मसौदे में कहा गया है कि राज्य सरकारें राजनीतिक लाभ के लिए दर्ज मामलों को वापस ले लेती हैं। इस पर अंकुश लगाया जाना चाहिए क्योंकि इस तरह का लचीलापन वन क्षेत्र के विनाश का कारण है। केंद्र सरकार के पास राज्यों के अधिकारों को खत्म करने और वन प्रबंधन में हस्तक्षेप करने की भी शक्ति होगी और इस संबंध में ज्यादातर अपराधों को गैरजमानती बना दिया गया है।
यानी कुल मिलाकर देखें तो...यदि यह मसौदा कानून बन गया होता, तो यह भारत के जंगलों में कानून के शासन को समाप्त कर देता और उन्हें गंभीर युद्धक्षेत्र में बदल देता। इसने वनाधिकार अधिनियम 2006 (FRA) को कुटिलता से उलट दिया होता, जो लोगों की डेढ़ सदी की लंबी लड़ाई के बाद कानून बना था। प्रथम दृष्ट्या ही यह मसौदा न केवल गैर कानूनी है बल्कि वनाधिकार (मान्यता) कानून की मूल आत्मा के साथ भी एक भद्दा मज़ाक है।
दरअसल इन्हीं व्यापक आलोचनाओं के चलते तत्कालीन पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने नवंबर 2020 में इस मसौदे को अस्वीकार कर दिया था। उस पर नजर रखते हुए, जावड़ेकर ने कहा था कि “हम किसी भी संदेह को दूर करने के लिए भारतीय वन अधिनियम में संशोधन के मसौदे को पूरी तरह से वापस ले रहे हैं। आदिवासी अधिकारों की पूरी तरह से रक्षा की जाएगी और वे वनों के विकास में महत्वपूर्ण हितधारक बने रहेंगे। यह तब था जब भारतीय वन अधिनियम में बदलावों का मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी सरकार और उसके नौकरशाहों द्वारा ही निजी कंपनियों को सौंपी गई थी।
वनाधिकार कानून-2006, शिकार को छोड़कर सभी तरह के वन अधिकारों को मान्यता देता है। इनमें व्यक्तियों और समुदाय के अधिकारों के साथ बस्तियों (ग्राम सभाओं) के क्षेत्रीय अधिकार आदि शामिल हैं। इसमें वनों, वन्यजीवों और जैव विविधता की रक्षा करने के अधिकार को वन विभाग से ग्राम सभा में स्थानांतरित कर दिया गया था। यह कानून इसलिए बनाया गया था क्योंकि "पैतृक भूमि पर वन अधिकारों और उनके आवास को औपनिवेशिक काल के दौरान और साथ ही स्वतंत्र भारत में राज्य के वनों के प्रबंधन में पर्याप्त रूप से मान्यता प्रदान नहीं की गई थी, परिणामस्वरूप लोगों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ था।
यही नहीं, 18 साल पहले वन संरक्षण और आदिवासी लोगों के अधिकारों के बारे में राष्ट्रीय वन नीति-1988 में भी महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव किया गया और "आदिवासी लोगों और जंगलों के बीच सहजीवी संबंध" को मान्यता दी गई थी। इसके बाद 2006 में एफआरए पारित होने से 'सहजीवी संबंध' के इस लक्ष्य को पूर्ण रूप से मान्यता प्रदान की गईं।
ये भी एनडीए-2 की ही सरकार थी जिसमें सार्वजनिक संसाधनों को निजी पूंजी में स्थानांतरित करने की ''अंतर्निहित'' वाली नीति के साथ, केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने मार्च-2018 में, 1988 के दस्तावेज़ के प्रतिस्थापन के रूप में राष्ट्रीय वन नीति का मसौदा जारी किया गया। इस मसौदे में एफआरए और इसके ग्राम सभा-आधारित ढांचे की पूरी तरह अनदेखी की गई और पीपीपी (निजी- सार्वजनिक भागीदारी) के तहत, निजी संस्थाओं के माध्यम से वनों के प्रबंधन और वाणिज्यिक वृक्षारोपण को बेशर्मी से बढ़ावा दिया। इसका उद्देश्य औद्योगिक और अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए वृक्षों के आवरण और उत्पादकता में वृद्धि करना था। इस सब में इस तथ्य को भी पूरी तरह नकार दिया गया कि देश के आधे से अधिक वन, वर्तमान में ग्राम सभाओं के अधिकार क्षेत्र में हैं।
आदिवासी मंत्रालय के जवाब को लेकर कई महीने तक विरोध प्रदर्शन हुए थे। तब कही जाकर जून 2018 में, आदिवासी मामलों के सचिव ने पर्यावरण सचिव को लिखा कि पर्यावरण मंत्रालय के पास वनों से संबंधित नीति तैयार करने के लिए कोई "विशेषाधिकार" नहीं है। दरअसल 12 साल पहले, 17 मार्च 2006 को, "वन भूमि पर वनवासी और अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों से संबंधित कानून सहित सभी मामलों" को वनों के विषय से अलग कर दिया गया था। और इसे पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार के (व्यवसाय का आवंटन) नियम 1961 में संशोधन के माध्यम से, जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया गया। इसने वनों पर पर्यावरण मंत्रालय के कथित एकाधिकार को समाप्त कर दिया था। इसी सब से, MOTA ने कहा है कि राष्ट्रीय वन नीति 2018 के मसौदे में "वनों के पारंपरिक संरक्षकों यानी आदिवासियों की अवहेलना" की गई हैं और "व्यवसायीकरण के लिए वन संसाधनों के बढ़ते निजीकरण, औद्योगीकरण और डायवर्जन पर जोर दिया गया हैं। इसी से नए मसौदे को लेकर वन एवं पर्यावरण (एमओईएफ) तथा आदिवासी मंत्रालय (एमओटीए) के बीच एक टकराव भी दिखा था। ऐसा ही टकराव प्रस्तावित नई वन नीति (2020) में देखा जा सकता है जो अभी तक सार्वजनिक नहीं हैं।
आदिवासी और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा हाल ही में एक संयुक्त संबोधन में 6 जुलाई-2021 को 'वनाधिकार अधिनियम के अधिक प्रभावी कार्यान्वयन के लिए संयुक्त मसौदे' पर हस्ताक्षर किए। पूर्व पर्यावरण मंत्री जावड़ेकर ने मंत्रालयों और विभागों के बीच ''साइलो में कार्य को गति प्रदान करने की दिशा में इसे एक प्रतिमान बदलाव" का नाम दिया। अगस्त 2020 के बाद से ही दोनों मंत्रालयों के बीच डिस्कशन जारी था जो 'संयुक्त संबोधन' में भी सामने आया है। कहा कि आगे भी किसी मामले "दोनों मंत्रालय संयुक्त रूप से मामले पर विचार करेंगे और उसके बाद ही स्पष्टीकरण या दिशानिर्देश आदि जारी कर सकते हैं।
हालांकि, वन भूमि पर वनाधिकारों से संबंधित सभी मामले आज भी आदिवासी मंत्रालय के ही अधीन हैं। यह एफआरए कार्यान्वयन के लिए नोडल मंत्रालय है और इसने फ्रंटलाइन वन कर्मचारियों को अपने संबंधित अधिकार क्षेत्र के तहत वनों के संरक्षण और प्रबंधन की योजना तैयार करने में ग्राम सभाओं की सहायता करने के लिए कहा है। मगर "इस तरह के संरक्षण, प्रबंधन व कार्य योजनाओं (वर्किंग प्लान्स) को वन विभाग की प्रबंधन योजनाओं के साथ एकीकृत करना, कानून के विपरीत है। कानून के तहत ग्राम सभाएं अपनी योजना बनाने और वन विभाग की कार्य योजना या प्रबंधन को संशोधित करने" के लिए स्वतंत्र है।
संयुक्त संबोधन में राज्य सरकारों को भी ग्राम सभाओं को वनों की रक्षा और प्रबंधन के लिए संयुक्त वन प्रबंधन समितियों को "उपयुक्त निर्देश देने" के लिए कहा गया है। ये निश्चित रूप से वन विभाग के नियंत्रण में इकाइयां हैं लेकिन अंततः ग्राम सभाओं के पास "वन्यजीव, वन और जैव विविधता की रक्षा" करने का अधिकार है।
संयुक्त संबोधन में आदिवासी मंत्रालय ने फारेस्ट ब्यूरोक्रेसी को सभी स्तरों पर एफआरए कार्यान्वयन को नियंत्रित करने के लिए कहा है जो पूरी तरह से कानून के विपरीत हैं। ऐसे में भारत के पारंपरिक वननिवासी और आदिवासी बारीकी से देख रहे हैं कि पर्यावरण मंत्रालय आगे क्या करेगा और आदिवासी मामलों का मंत्रालय कैसे प्रतिक्रिया देगा।
दरअसल मामला जंगलों को कैसे और किसके द्वारा शासित किया जाना है, का है। 'वनाधिकार अधिनियम-2006 ऐतिहासिक रूप से अलग-थलग पड़ चुके अधिकारों को मान्यता देने के लिए लाया गया था। जबकि यह मसौदा वन विभाग के नियंत्रण को फिर से हासिल करने का एक प्रयास है।
विशेषज्ञों ने भी इसे लेकर आशंका जाहिर की है कि यह विधेयक वनवासियों को सशक्त बनाने के बजाय फॉरेस्ट ब्यूरोक्रेसी की शक्तियों को बढ़ाता है और इस तरह FRA ने जो अधिकार दिए थे, उसे यह छीनता है। फॉरेस्ट ब्यूरोक्रेसी को वन अधिकारों की पहचान करने और उन्हें मान्यता देने का अधिकार होगा। यह ग्राम सभा और अन्य (जिला और उप-जिला स्तर) समितियों के अधिकारों और भूमिकाओं के मद्देनजर पूरी तरह से विरोधाभासी है। विशेषज्ञ हैरानी जताते हुए कहते हैं, वन निवासियों की सदियों पुरानी समस्याओं के पीछे फॉरेस्ट ब्यूरोक्रेसी ही असली कारण हैं खलनायक है। लेकिन उनकी शक्ति को और क्रूर बना दिया गया है तो ऐसे में अब आदिवासी भी कैसे व क्या लाभ ले सकेंगे, अपने आप में सवाल हैं?
Related:
MP: अवैध बेदखली और लूट के खिलाफ आदिवासियों का कलेक्ट्रेट घेराव, कहा- सरकार हमसे सीख ले कानून
खंडवा के आदिवासियों ने बताया- वन विभाग ने कानून तोड़कर किस तरह उजाड़ डाले उनके आशियाने
कैमूर: आदिवासियों ने हक-हकूक मांगा तो मिली गोली
यही नहीं, वनाधिकार कानून में वन विभाग को मुंसिफ़ (सर्वोच्चता देने) बनाने वाला यह संशोधन वनवासियों के हकों को और कमजोर करेगा। सुदर्शन फ़ाकिर का मशहूर शे'र भी है कि..
मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है,
क्या मिरे हक में फ़ैसला देगा।
आदिवासियों की व्यथा को बखूबी उजागर करता है।
पिछले माह 22 जून, 2021 को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने कंसल्टेंसी संगठनों को कठोर और औपनिवेशिक भारतीय वन अधिनियम-1927 में व्यापक संशोधन का मसौदा तैयार करने के लिए आमंत्रित किया है। इसी भारतीय वन अधिनियम 1927 (IFA) के माध्यम से औपनिवेशिक शासन यानी अंग्रेज सरकार ने वन संसाधनों पर अधिक से अधिक शक्ति हासिल करने की कोशिश की थी। अब इस नये मसौदे के माध्यम से मोदी सरकार उससे भी कहीं आगे जाकर अपने अधिकारों को मजबूत करना चाहती है। यह विधेयक भारतीय वन अधिनियम 1927 की जगह लेगा जो संयुक्त वन प्रबंधन समिति (JFMC) के माध्यम से 'वनों का प्रबंधन' फॉरेस्ट ब्यूरोक्रेसी को देता है। और ऐसे वनों को आरक्षित वन घोषित करने के लिए मुआवजे का भुगतान करके आदिवासियों के व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों को खत्म करने की शक्ति भी देता है। मार्च 2019 में भी मोदी सरकार ने इस बाबत एक असफल प्रयास किया था।
2019 में भी वन मंत्रालय ने भारतीय वन अधिनियम-1927 में संशोधन का मसौदा प्रस्तुत किया था जिसका व्यापक विरोध और तीखी आलोचना हुई थी। इंडियन फॉरेस्ट (अमेंडमेंट) बिल 2019 में प्रस्तावित संशोधनों का उद्देश्य वनाधिकार अधिनियम-2006 (FRA) के तहत वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों और वनवासियों को दिए गए अधिकारों पर फिर से राज्य सत्ता (वन विभाग) को स्थापित करना था! जो कि वनाधिकार कानून-2006 के उस प्रावधान का भी उल्लंघन है जो वन भूमि और वन संसाधनों पर ग्राम सभा के माध्यम से वनों के संरक्षण और प्रबंधन का अधिकार वनवासी समुदायों को देता है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, 2019 के प्रस्तावित संशोधनों में ऐसे प्रावधान थे जो वन अधिकारियों को, वन संरक्षण के नाम पर किसी को भी गोली मारने तक की अनुमति देते थे और इसमें आपराधिक कार्रवाई का भी लेशमात्र खतरा है। यही नहीं, वे वन निवासियों को एक मामूली राशि (धारा 22ए (2), 30(बी)) देकर उनके वन अधिकारों को समाप्त भी कर सकते थे। यह विधेयक फॉरेस्ट ब्यूरोक्रेसी को वन अधिकारों के बारे में फैसला करने का अधिकार देता है और ऐसे वनों को 'आरक्षित वन' घोषित करने के लिए मुआवजे का भुगतान करके व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों को खत्म करने की पॉवर देता है। इसके क्लॉज 26 में आरक्षित वन में आग लगने या वन उपज चोरी या मवेशियों द्वारा चरने के मामले में, चारागाह या वन उपज के सभी अधिकार खत्म करने की बात है। एक तरह से ये प्रावधान फॉरेस्ट ब्यूरोक्रेसी को वन अधिकारों को समाप्त करने के लिए वीटो पॉवर देते हैं।
यही नहीं मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, वन अधिकारी बिना किसी वारंट के छापेमारी और गिरफ्तारी कर सकते थे और किसी भी वनवासी की संपत्ति को जब्त कर सकते थे। इससे भी बदतर यह है कि यह विधेयक सशस्त्र बलों के लिए 'अशांत क्षेत्रों' में लागू सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) अधिनियम 1958 के तहत ब्यूरोक्रेसी को असीमित अधिकार देता है। इसके तहत अगर वे कोई ज्यादती या गलत काम करते हैं तो यह कानून उन्हें अभियोजन से सुरक्षा देता है। राज्य की पूर्व अनुमति के बिना वन अधिकारियों के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। इसके लिए किसी कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा जांच के लिए सशर्त अनुमति दी जाएगी। विधेयक कहता है कि ब्यूरोक्रेसी को यह सुरक्षा 'वन अपराध को रोकने के लिए' दी जा रही है। वहीं, अगर वन विभाग किसी पर अवैध वस्तुएं रखने आदि का आरोप लगाता है, तो उसमें आरोपी को ही अपनी बेगुनाही साबित करनी होगी, आरोप लगाने वाले को नहीं।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, 2019 में प्रस्तावित मसौदे की क्लॉज 66 एक फॉरेस्ट अपराधी यानी 'वन' के प्रति कोई अपराध करने वाले को आतंकवादी की तरह मानता है। यह कानून आरोपी पर यह बोझ डालता है कि वह खुद को बेगुनाह साबित करें। जबकि बाकी मामलों में मौजूदा आपराधिक कानून अभियोजन पर अपराध साबित करने का दबाव डालता है। यह कानून किसी एक व्यक्ति की गलतियों के लिए उस व्यक्ति के अलावा पूरे 'वनवासी समुदाय' या राज्य में कानूनी तौर पर पंजीकृत संगठन को दोषी ठहराता है, लेकिन इसे लेकर कोई स्पष्टीकरण नहीं देता है। यहां तक कि यह कानून राज्य सरकार को किसी पर दर्ज केस वापस लेने का अधिकार भी नहीं देता। यह अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार को होगा।
विधेयक के मसौदे में कहा गया है कि राज्य सरकारें राजनीतिक लाभ के लिए दर्ज मामलों को वापस ले लेती हैं। इस पर अंकुश लगाया जाना चाहिए क्योंकि इस तरह का लचीलापन वन क्षेत्र के विनाश का कारण है। केंद्र सरकार के पास राज्यों के अधिकारों को खत्म करने और वन प्रबंधन में हस्तक्षेप करने की भी शक्ति होगी और इस संबंध में ज्यादातर अपराधों को गैरजमानती बना दिया गया है।
यानी कुल मिलाकर देखें तो...यदि यह मसौदा कानून बन गया होता, तो यह भारत के जंगलों में कानून के शासन को समाप्त कर देता और उन्हें गंभीर युद्धक्षेत्र में बदल देता। इसने वनाधिकार अधिनियम 2006 (FRA) को कुटिलता से उलट दिया होता, जो लोगों की डेढ़ सदी की लंबी लड़ाई के बाद कानून बना था। प्रथम दृष्ट्या ही यह मसौदा न केवल गैर कानूनी है बल्कि वनाधिकार (मान्यता) कानून की मूल आत्मा के साथ भी एक भद्दा मज़ाक है।
दरअसल इन्हीं व्यापक आलोचनाओं के चलते तत्कालीन पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने नवंबर 2020 में इस मसौदे को अस्वीकार कर दिया था। उस पर नजर रखते हुए, जावड़ेकर ने कहा था कि “हम किसी भी संदेह को दूर करने के लिए भारतीय वन अधिनियम में संशोधन के मसौदे को पूरी तरह से वापस ले रहे हैं। आदिवासी अधिकारों की पूरी तरह से रक्षा की जाएगी और वे वनों के विकास में महत्वपूर्ण हितधारक बने रहेंगे। यह तब था जब भारतीय वन अधिनियम में बदलावों का मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी सरकार और उसके नौकरशाहों द्वारा ही निजी कंपनियों को सौंपी गई थी।
वनाधिकार कानून-2006, शिकार को छोड़कर सभी तरह के वन अधिकारों को मान्यता देता है। इनमें व्यक्तियों और समुदाय के अधिकारों के साथ बस्तियों (ग्राम सभाओं) के क्षेत्रीय अधिकार आदि शामिल हैं। इसमें वनों, वन्यजीवों और जैव विविधता की रक्षा करने के अधिकार को वन विभाग से ग्राम सभा में स्थानांतरित कर दिया गया था। यह कानून इसलिए बनाया गया था क्योंकि "पैतृक भूमि पर वन अधिकारों और उनके आवास को औपनिवेशिक काल के दौरान और साथ ही स्वतंत्र भारत में राज्य के वनों के प्रबंधन में पर्याप्त रूप से मान्यता प्रदान नहीं की गई थी, परिणामस्वरूप लोगों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ था।
यही नहीं, 18 साल पहले वन संरक्षण और आदिवासी लोगों के अधिकारों के बारे में राष्ट्रीय वन नीति-1988 में भी महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव किया गया और "आदिवासी लोगों और जंगलों के बीच सहजीवी संबंध" को मान्यता दी गई थी। इसके बाद 2006 में एफआरए पारित होने से 'सहजीवी संबंध' के इस लक्ष्य को पूर्ण रूप से मान्यता प्रदान की गईं।
ये भी एनडीए-2 की ही सरकार थी जिसमें सार्वजनिक संसाधनों को निजी पूंजी में स्थानांतरित करने की ''अंतर्निहित'' वाली नीति के साथ, केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने मार्च-2018 में, 1988 के दस्तावेज़ के प्रतिस्थापन के रूप में राष्ट्रीय वन नीति का मसौदा जारी किया गया। इस मसौदे में एफआरए और इसके ग्राम सभा-आधारित ढांचे की पूरी तरह अनदेखी की गई और पीपीपी (निजी- सार्वजनिक भागीदारी) के तहत, निजी संस्थाओं के माध्यम से वनों के प्रबंधन और वाणिज्यिक वृक्षारोपण को बेशर्मी से बढ़ावा दिया। इसका उद्देश्य औद्योगिक और अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए वृक्षों के आवरण और उत्पादकता में वृद्धि करना था। इस सब में इस तथ्य को भी पूरी तरह नकार दिया गया कि देश के आधे से अधिक वन, वर्तमान में ग्राम सभाओं के अधिकार क्षेत्र में हैं।
आदिवासी मंत्रालय के जवाब को लेकर कई महीने तक विरोध प्रदर्शन हुए थे। तब कही जाकर जून 2018 में, आदिवासी मामलों के सचिव ने पर्यावरण सचिव को लिखा कि पर्यावरण मंत्रालय के पास वनों से संबंधित नीति तैयार करने के लिए कोई "विशेषाधिकार" नहीं है। दरअसल 12 साल पहले, 17 मार्च 2006 को, "वन भूमि पर वनवासी और अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों से संबंधित कानून सहित सभी मामलों" को वनों के विषय से अलग कर दिया गया था। और इसे पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार के (व्यवसाय का आवंटन) नियम 1961 में संशोधन के माध्यम से, जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया गया। इसने वनों पर पर्यावरण मंत्रालय के कथित एकाधिकार को समाप्त कर दिया था। इसी सब से, MOTA ने कहा है कि राष्ट्रीय वन नीति 2018 के मसौदे में "वनों के पारंपरिक संरक्षकों यानी आदिवासियों की अवहेलना" की गई हैं और "व्यवसायीकरण के लिए वन संसाधनों के बढ़ते निजीकरण, औद्योगीकरण और डायवर्जन पर जोर दिया गया हैं। इसी से नए मसौदे को लेकर वन एवं पर्यावरण (एमओईएफ) तथा आदिवासी मंत्रालय (एमओटीए) के बीच एक टकराव भी दिखा था। ऐसा ही टकराव प्रस्तावित नई वन नीति (2020) में देखा जा सकता है जो अभी तक सार्वजनिक नहीं हैं।
आदिवासी और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा हाल ही में एक संयुक्त संबोधन में 6 जुलाई-2021 को 'वनाधिकार अधिनियम के अधिक प्रभावी कार्यान्वयन के लिए संयुक्त मसौदे' पर हस्ताक्षर किए। पूर्व पर्यावरण मंत्री जावड़ेकर ने मंत्रालयों और विभागों के बीच ''साइलो में कार्य को गति प्रदान करने की दिशा में इसे एक प्रतिमान बदलाव" का नाम दिया। अगस्त 2020 के बाद से ही दोनों मंत्रालयों के बीच डिस्कशन जारी था जो 'संयुक्त संबोधन' में भी सामने आया है। कहा कि आगे भी किसी मामले "दोनों मंत्रालय संयुक्त रूप से मामले पर विचार करेंगे और उसके बाद ही स्पष्टीकरण या दिशानिर्देश आदि जारी कर सकते हैं।
हालांकि, वन भूमि पर वनाधिकारों से संबंधित सभी मामले आज भी आदिवासी मंत्रालय के ही अधीन हैं। यह एफआरए कार्यान्वयन के लिए नोडल मंत्रालय है और इसने फ्रंटलाइन वन कर्मचारियों को अपने संबंधित अधिकार क्षेत्र के तहत वनों के संरक्षण और प्रबंधन की योजना तैयार करने में ग्राम सभाओं की सहायता करने के लिए कहा है। मगर "इस तरह के संरक्षण, प्रबंधन व कार्य योजनाओं (वर्किंग प्लान्स) को वन विभाग की प्रबंधन योजनाओं के साथ एकीकृत करना, कानून के विपरीत है। कानून के तहत ग्राम सभाएं अपनी योजना बनाने और वन विभाग की कार्य योजना या प्रबंधन को संशोधित करने" के लिए स्वतंत्र है।
संयुक्त संबोधन में राज्य सरकारों को भी ग्राम सभाओं को वनों की रक्षा और प्रबंधन के लिए संयुक्त वन प्रबंधन समितियों को "उपयुक्त निर्देश देने" के लिए कहा गया है। ये निश्चित रूप से वन विभाग के नियंत्रण में इकाइयां हैं लेकिन अंततः ग्राम सभाओं के पास "वन्यजीव, वन और जैव विविधता की रक्षा" करने का अधिकार है।
संयुक्त संबोधन में आदिवासी मंत्रालय ने फारेस्ट ब्यूरोक्रेसी को सभी स्तरों पर एफआरए कार्यान्वयन को नियंत्रित करने के लिए कहा है जो पूरी तरह से कानून के विपरीत हैं। ऐसे में भारत के पारंपरिक वननिवासी और आदिवासी बारीकी से देख रहे हैं कि पर्यावरण मंत्रालय आगे क्या करेगा और आदिवासी मामलों का मंत्रालय कैसे प्रतिक्रिया देगा।
दरअसल मामला जंगलों को कैसे और किसके द्वारा शासित किया जाना है, का है। 'वनाधिकार अधिनियम-2006 ऐतिहासिक रूप से अलग-थलग पड़ चुके अधिकारों को मान्यता देने के लिए लाया गया था। जबकि यह मसौदा वन विभाग के नियंत्रण को फिर से हासिल करने का एक प्रयास है।
विशेषज्ञों ने भी इसे लेकर आशंका जाहिर की है कि यह विधेयक वनवासियों को सशक्त बनाने के बजाय फॉरेस्ट ब्यूरोक्रेसी की शक्तियों को बढ़ाता है और इस तरह FRA ने जो अधिकार दिए थे, उसे यह छीनता है। फॉरेस्ट ब्यूरोक्रेसी को वन अधिकारों की पहचान करने और उन्हें मान्यता देने का अधिकार होगा। यह ग्राम सभा और अन्य (जिला और उप-जिला स्तर) समितियों के अधिकारों और भूमिकाओं के मद्देनजर पूरी तरह से विरोधाभासी है। विशेषज्ञ हैरानी जताते हुए कहते हैं, वन निवासियों की सदियों पुरानी समस्याओं के पीछे फॉरेस्ट ब्यूरोक्रेसी ही असली कारण हैं खलनायक है। लेकिन उनकी शक्ति को और क्रूर बना दिया गया है तो ऐसे में अब आदिवासी भी कैसे व क्या लाभ ले सकेंगे, अपने आप में सवाल हैं?
Related:
MP: अवैध बेदखली और लूट के खिलाफ आदिवासियों का कलेक्ट्रेट घेराव, कहा- सरकार हमसे सीख ले कानून
खंडवा के आदिवासियों ने बताया- वन विभाग ने कानून तोड़कर किस तरह उजाड़ डाले उनके आशियाने
कैमूर: आदिवासियों ने हक-हकूक मांगा तो मिली गोली