7 जुलाई 2006 को हुए विनाशकारी धमाकों के करीब दो दशक बाद बॉम्बे हाई कोर्ट ने मनगढ़ंत सबूतों, हिरासत में टॉर्चर और जांच में संकीर्ण सोच को बेनकाब किया और मौत व उम्रकैद की सजा को पलटते हुए भारत की आतंकवाद विरोधी न्याय व्यवस्था की कड़ी निंदा की।

न्यायमूर्ति अनिल किलोर और न्यायमूर्ति एस.सी. चंदक वाली बॉम्बे हाई कोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ ने 18 जुलाई 2024 को साल 2006 के मुंबई ट्रेन बम धमाकों (जिसे आमतौर पर 7/11 केस कहा जाता है) में दोषी ठहराए गए 12 लोगों की सजा को पलट दिया। इस त्रासदी में 189 लोगों की मौत हो गई थी और 820 से ज्यादा घायल हुए थे। अन्य महत्वपूर्ण निष्कर्षों के अलावा, कोर्ट ने सोमवार (21 जुलाई 2025) को बरी किए जाने का फैसला सुनाते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपों को साबित करने में "पूरी तरह असफल" रहा। पुलिस का दावा था कि आरोपियों ने प्रेशर कुकर में बम बनाकर उन्हें ट्रेन में शाम के समय लगाया था जो कि शहर में यात्रियों के लिए बेहद व्यस्त समय होता है।
इस बीच महाराष्ट्र सरकार ने बॉम्बे बम विस्फोट मामले में सभी आरोपियों को बरी करने के बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीमकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने सॉलिसिटर जनरल के तत्काल उल्लेख के बाद मामले को गुरुवार को सूचीबद्ध करने पर सहमति व्यक्त की।

ज्ञात हो कि ये रिहाई उस फैसले के करीब आठ साल बाद हुआ है जब साल 2015 में एक विशेष मकोका (MCOCA) अदालत ने पांच आरोपियों को मृत्युदंड और बाकी सात को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। विशेष महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) अदालत ने आरोपियों को भारतीय दंड संहिता (IPC), गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA), मकोका (MCOCA) और विस्फोटक अधिनियमों (Explosives Acts) के तहत दोषी ठहराया था। कुल मिलाकर, सभी आरोपी 19 वर्षों तक लगातार जेल में रहे। इन 12 आरोपियों में से एक आरोपी कमाल अहमद मोहम्मद वकील अंसारी की मौत 2021 में नागपुर जेल में COVID-19 की वजह से हो गई थी।
यह फैसला केवल निचली अदालत के फैसले को पलटने वाला नहीं है बल्कि यह जांच में हुई चूक, अभियोजन की विफलता और न्यायिक अधिकारियों की लापरवाही की कड़ी निंदा भी है। हाई कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष के मामले में "गंभीर कमियाँ" थीं, जिससे सजा असुरक्षित और अन्यायपूर्ण हो गई।
19 साल तक जेल में रहने के दौरान इन लोगों को कभी जमानत नहीं मिली। कोविड-19 महामारी जैसे गंभीर हालात में भी या जब उनके करीबी रिश्तेदारों की मौत हुई, तब भी उन्हें जेल से कोई राहत नहीं मिली। 21 जुलाई 2025 को हाई कोर्ट ने उन्हें एक साधारण “पर्सनल रिकॉग्निजेंस (PR) बॉन्ड” पर रिहा किया है, जिसका मतलब है कि उन्हें जेल से बाहर निकलने के लिए कोई पैसा जमा नहीं करना पड़ा।
मामले की पृष्ठभूमि
11 जुलाई 2006 को मुंबई की उपनगरीय ट्रेन की फर्स्ट क्लास डिब्बों में सात सिलसिलेवार बम धमाके व्यस्त समय के दौरान हुए। इन हमलों की भयावहता, उनकी सटीकता और बड़े पैमाने पर हुए नुकसान ने तुरंत ही एक व्यापक तलाशी अभियान शुरू करवा दिया। कुछ ही महीनों में तत्कालीन कांग्रेस सरकार में महाराष्ट्र की आतंकवाद विरोधी दस्ते (ATS) ने इस मामले को सुलझाने का दावा किया और 13 लोगों को गिरफ्तार किया। ये सभी आरोपी मुस्लिम समुदाय से थे और समाज के हाशिए पर रहने वाले आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से थे। उस समय कांग्रेस सरकार के नेतृ्त्व में ATS ने जिन कई मामलों की जांच की, उनमें पुलिस की तरफ से मुस्लिम युवाओं के साथ भेदभाव और उन्हें झूठे आतंकवादी मामलों में फंसाने को लेकर गंभीर सवाल खड़े हुए। मालेगांव 2006 बम धमाका भी ऐसा ही एक मामला था। उदाहरण के तौर पर, मालेगांव 2006 ब्लास्ट केस में शुरू में गिरफ्तार किए गए मुस्लिम लोगों को बाद में नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (NIA) द्वारा जांच संभालने के बाद पूरी तरह बरी कर दिया गया। नई जांच से सामने आया कि यह धमाका उन आरोपियों की साजिश थी जो हिंदू समुदाय से ताल्लुक रखते थे।
7/11 ट्रेन ब्लास्ट मामले में अभियोजन पक्ष ने यह आरोप लगाया था कि इसमें पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI, आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और प्रतिबंधित संगठन सिमी (स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया) के कार्यकर्ताओं की सीमापार साजिश शामिल थी, जिसमें भारत में मौजूद कुछ सहयोगियों से भी मदद ली गई थी। जैसा कि ऊपर बताया गया है यह मामला महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट (MCOCA) के तहत चलाया गया, साथ ही भारतीय दंड संहिता (IPC), विस्फोटक अधिनियम, और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत भी आरोप लगाए गए थे।
मुकदमा, दोषसिद्धि और सजा
इस मामले की सुनवाई 2007 में एक विशेष मकोका (MCOCA) अदालत में शुरू हुई। अभियोजन पक्ष ने मुख्य रूप से कबूलनामों, परिस्थितिजन्य साक्ष्यों, कॉल डेटा रिकॉर्ड्स, और कथित बरामदगियों पर भरोसा करते हुए 2015 में 12 आरोपियों को दोषी साबित करवाने में सफलता पाई।
● 5 लोगों को फांसी की सजा दी गई
● 7 को उम्रकैद की सजा मिली
जबकि एक आरोपी वाहिद शेख को 9 साल जेल में बिताने के बाद 2015 में बरी कर दिया गया।
हालांकि, शुरुआत से ही बचाव पक्ष के वकीलों और मानवाधिकार संगठनों ने गंभीर चिंताएं जताईं:
● ज्यादातर आरोपियों ने अपने कबूलनामे वापस ले लिए और पुलिस द्वारा यातना का आरोप लगाया।
● गवाहों के बयान एक-दूसरे से मेल नहीं खाते थे और विपरीत थे।
● विस्फोटकों से जुड़ी महत्वपूर्ण फोरेंसिक सबूत कमजोर या अस्पष्ट थे।
● कॉल डेटा लोकेशन मैपिंग में गलत जानकारी दी गई थी या वह वैज्ञानिक रूप से ठीक से साबित नहीं हो पाई थी।
● दूसरी जांच में पूरी तरह से अलग आरोपी समूह सामने आए।
हाई कोर्ट का निष्कर्ष: अभियोजन पक्ष की विश्वसनीयता धराशायी हो गई
हाई कोर्ट के 671 पन्नों के फैसले ने अभियोजन पक्ष के दावे को एक-एक कर के गलत साबित कर दिया। इसके मुख्य निष्कर्ष निम्नलिखित थे:
1. अविश्वसनीय स्वीकारोक्तियां: न्यायालय ने यह कहा कि भले ही MCOCA के तहत दी गई स्वीकारोक्तियां स्वीकार्य हों, उन्हें बेहद सावधानी से परखा जाना चाहिए। न्यायालय ने निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान दिया:
● अभियुक्तों ने अपनी स्वीकारोक्तियों से तुरंत और बार-बार मुकरने की कोशिश की।
● ऐसे ठोस सबूत सामने आए जो हिरासत में हुई प्रताड़ना की पुष्टि करते हैं।
● चिकित्सीय रिकॉर्ड और हलफनामों से ज़बरदस्ती की पुष्टि होती है।
● कई स्वीकारोक्तियां शब्दों में एक जैसी थीं, जिससे स्क्रिप्ट तैयार किए गए (स्क्रिप्टेड) होने का संकेत मिलता है।
2. कमजोर परिस्थितिजन्य साक्ष्य: अभियोजन पक्ष किसी भी अभियुक्त को बम की खरीदने, बनाने या स्थापित करने से विश्वसनीय रूप से जोड़ने में असफल रहा। इन असफलताओं में शामिल हैं:
● किसी भी प्रत्यक्षदर्शी ने अभियुक्तों को रेलवे स्टेशनों पर नहीं देखा।
● कथित बम-निर्माण स्थलों पर किए गए फॉरेंसिक परीक्षण निर्णायक साबित नहीं हुए।
● अभियुक्तों से कथित तौर पर मिले ट्रेवेल रूट और नक्शे सार्वजनिक रूप से उपलब्ध थे।
3. कॉल डेटा रिकॉर्ड और लोकेशन मैपिंग में त्रुटियां: एटीएस ने यह साबित करने के लिए पूरी तरह से मोबाइल फोन डेटा पर निर्भरता जताई कि अभियुक्त संपर्क में थे और धमाके वाली जगहों के नजदीक मौजूद थे। लेकिन न्यायालय ने पाया कि:
● सेल टावर के स्थानों की चुनींदा व्याख्या की गई थी।
● मैपिंग अभियुक्तों की धमाका स्थलों पर मौजूदगी को निर्णायक रूप से साबित नहीं कर पाया।
● कुछ मोबाइल नंबरों को कभी भी स्पष्ट रूप से अभियुक्तों से नहीं जोड़ा जा सका।
4. फर्जी बरामदगियां और गवाहों के बयानों में विरोधाभास
● कई बरामद की गई चीजें प्लांट की गई निकलीं या बिना किसी स्वतंत्र गवाह के अवैध तरीके से बरामद की गईं।
● मुख्य अभियोजन गवाहों, जिनमें पुलिस अधिकारी और पंच गवाह शामिल थे, ने विरोधाभासी बयान दिए।
● एक प्रमुख गवाह पहले घाटकोपर धमाके के एक अलग मामले में गवाही दे चुका था, जिससे निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं।
5. प्रेशर कुकर के सबूत को खारिज कर दिया गया
जांचकर्ताओं ने शुरू में दुकानदारों के बयानों को हाइलाइट किया था, जिनमें "कश्मीरी दिखने वाले युवकों" द्वारा प्रेशर कुकर खरीदने की बात कही गई थी, लेकिन बिना ठोस वजह के इन सुरागों को मुकदमे के दौरान छोड़ दिया गया। फिर भी, अभियोजन पक्ष ने बाद में इस थ्योरी को फिर से पेश किया जो जांच में मनमानी और असंगत रवैये को दर्शाता है।
6. MCOCA की अवैध मंजूरी
MCOCA की धारा 23(1) के तहत एक वरिष्ठ अधिकारी (अतिरिक्त पुलिस महानिरीक्षक एस.के. जैसवाल) की मंजूरी अनिवार्य थी लेकिन इसे तथ्यात्मक रूप से प्रमाणित नहीं किया गया। मंजूरी पत्र गवाह के सामने कभी प्रस्तुत नहीं किया गया। उच्च न्यायालय ने इसे रद्द कर दिया।
बरी किए गए: दोष के साये में बीता एक दशक
नीचे दिए गए टेबल में 12 बरी किए गए लोगों और उनकी सजा का विवरण दिया गया है:

न्यायमूर्ति अनिल किलोर और न्यायमूर्ति एस.सी. चंदक वाली बॉम्बे हाई कोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ ने 18 जुलाई 2024 को साल 2006 के मुंबई ट्रेन बम धमाकों (जिसे आमतौर पर 7/11 केस कहा जाता है) में दोषी ठहराए गए 12 लोगों की सजा को पलट दिया। इस त्रासदी में 189 लोगों की मौत हो गई थी और 820 से ज्यादा घायल हुए थे। अन्य महत्वपूर्ण निष्कर्षों के अलावा, कोर्ट ने सोमवार (21 जुलाई 2025) को बरी किए जाने का फैसला सुनाते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपों को साबित करने में "पूरी तरह असफल" रहा। पुलिस का दावा था कि आरोपियों ने प्रेशर कुकर में बम बनाकर उन्हें ट्रेन में शाम के समय लगाया था जो कि शहर में यात्रियों के लिए बेहद व्यस्त समय होता है।
इस बीच महाराष्ट्र सरकार ने बॉम्बे बम विस्फोट मामले में सभी आरोपियों को बरी करने के बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीमकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने सॉलिसिटर जनरल के तत्काल उल्लेख के बाद मामले को गुरुवार को सूचीबद्ध करने पर सहमति व्यक्त की।

ज्ञात हो कि ये रिहाई उस फैसले के करीब आठ साल बाद हुआ है जब साल 2015 में एक विशेष मकोका (MCOCA) अदालत ने पांच आरोपियों को मृत्युदंड और बाकी सात को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। विशेष महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) अदालत ने आरोपियों को भारतीय दंड संहिता (IPC), गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA), मकोका (MCOCA) और विस्फोटक अधिनियमों (Explosives Acts) के तहत दोषी ठहराया था। कुल मिलाकर, सभी आरोपी 19 वर्षों तक लगातार जेल में रहे। इन 12 आरोपियों में से एक आरोपी कमाल अहमद मोहम्मद वकील अंसारी की मौत 2021 में नागपुर जेल में COVID-19 की वजह से हो गई थी।
यह फैसला केवल निचली अदालत के फैसले को पलटने वाला नहीं है बल्कि यह जांच में हुई चूक, अभियोजन की विफलता और न्यायिक अधिकारियों की लापरवाही की कड़ी निंदा भी है। हाई कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष के मामले में "गंभीर कमियाँ" थीं, जिससे सजा असुरक्षित और अन्यायपूर्ण हो गई।
19 साल तक जेल में रहने के दौरान इन लोगों को कभी जमानत नहीं मिली। कोविड-19 महामारी जैसे गंभीर हालात में भी या जब उनके करीबी रिश्तेदारों की मौत हुई, तब भी उन्हें जेल से कोई राहत नहीं मिली। 21 जुलाई 2025 को हाई कोर्ट ने उन्हें एक साधारण “पर्सनल रिकॉग्निजेंस (PR) बॉन्ड” पर रिहा किया है, जिसका मतलब है कि उन्हें जेल से बाहर निकलने के लिए कोई पैसा जमा नहीं करना पड़ा।
मामले की पृष्ठभूमि
11 जुलाई 2006 को मुंबई की उपनगरीय ट्रेन की फर्स्ट क्लास डिब्बों में सात सिलसिलेवार बम धमाके व्यस्त समय के दौरान हुए। इन हमलों की भयावहता, उनकी सटीकता और बड़े पैमाने पर हुए नुकसान ने तुरंत ही एक व्यापक तलाशी अभियान शुरू करवा दिया। कुछ ही महीनों में तत्कालीन कांग्रेस सरकार में महाराष्ट्र की आतंकवाद विरोधी दस्ते (ATS) ने इस मामले को सुलझाने का दावा किया और 13 लोगों को गिरफ्तार किया। ये सभी आरोपी मुस्लिम समुदाय से थे और समाज के हाशिए पर रहने वाले आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से थे। उस समय कांग्रेस सरकार के नेतृ्त्व में ATS ने जिन कई मामलों की जांच की, उनमें पुलिस की तरफ से मुस्लिम युवाओं के साथ भेदभाव और उन्हें झूठे आतंकवादी मामलों में फंसाने को लेकर गंभीर सवाल खड़े हुए। मालेगांव 2006 बम धमाका भी ऐसा ही एक मामला था। उदाहरण के तौर पर, मालेगांव 2006 ब्लास्ट केस में शुरू में गिरफ्तार किए गए मुस्लिम लोगों को बाद में नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (NIA) द्वारा जांच संभालने के बाद पूरी तरह बरी कर दिया गया। नई जांच से सामने आया कि यह धमाका उन आरोपियों की साजिश थी जो हिंदू समुदाय से ताल्लुक रखते थे।
7/11 ट्रेन ब्लास्ट मामले में अभियोजन पक्ष ने यह आरोप लगाया था कि इसमें पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI, आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और प्रतिबंधित संगठन सिमी (स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया) के कार्यकर्ताओं की सीमापार साजिश शामिल थी, जिसमें भारत में मौजूद कुछ सहयोगियों से भी मदद ली गई थी। जैसा कि ऊपर बताया गया है यह मामला महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट (MCOCA) के तहत चलाया गया, साथ ही भारतीय दंड संहिता (IPC), विस्फोटक अधिनियम, और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत भी आरोप लगाए गए थे।
मुकदमा, दोषसिद्धि और सजा
इस मामले की सुनवाई 2007 में एक विशेष मकोका (MCOCA) अदालत में शुरू हुई। अभियोजन पक्ष ने मुख्य रूप से कबूलनामों, परिस्थितिजन्य साक्ष्यों, कॉल डेटा रिकॉर्ड्स, और कथित बरामदगियों पर भरोसा करते हुए 2015 में 12 आरोपियों को दोषी साबित करवाने में सफलता पाई।
● 5 लोगों को फांसी की सजा दी गई
● 7 को उम्रकैद की सजा मिली
जबकि एक आरोपी वाहिद शेख को 9 साल जेल में बिताने के बाद 2015 में बरी कर दिया गया।
हालांकि, शुरुआत से ही बचाव पक्ष के वकीलों और मानवाधिकार संगठनों ने गंभीर चिंताएं जताईं:
● ज्यादातर आरोपियों ने अपने कबूलनामे वापस ले लिए और पुलिस द्वारा यातना का आरोप लगाया।
● गवाहों के बयान एक-दूसरे से मेल नहीं खाते थे और विपरीत थे।
● विस्फोटकों से जुड़ी महत्वपूर्ण फोरेंसिक सबूत कमजोर या अस्पष्ट थे।
● कॉल डेटा लोकेशन मैपिंग में गलत जानकारी दी गई थी या वह वैज्ञानिक रूप से ठीक से साबित नहीं हो पाई थी।
● दूसरी जांच में पूरी तरह से अलग आरोपी समूह सामने आए।
हाई कोर्ट का निष्कर्ष: अभियोजन पक्ष की विश्वसनीयता धराशायी हो गई
हाई कोर्ट के 671 पन्नों के फैसले ने अभियोजन पक्ष के दावे को एक-एक कर के गलत साबित कर दिया। इसके मुख्य निष्कर्ष निम्नलिखित थे:
1. अविश्वसनीय स्वीकारोक्तियां: न्यायालय ने यह कहा कि भले ही MCOCA के तहत दी गई स्वीकारोक्तियां स्वीकार्य हों, उन्हें बेहद सावधानी से परखा जाना चाहिए। न्यायालय ने निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान दिया:
● अभियुक्तों ने अपनी स्वीकारोक्तियों से तुरंत और बार-बार मुकरने की कोशिश की।
● ऐसे ठोस सबूत सामने आए जो हिरासत में हुई प्रताड़ना की पुष्टि करते हैं।
● चिकित्सीय रिकॉर्ड और हलफनामों से ज़बरदस्ती की पुष्टि होती है।
● कई स्वीकारोक्तियां शब्दों में एक जैसी थीं, जिससे स्क्रिप्ट तैयार किए गए (स्क्रिप्टेड) होने का संकेत मिलता है।
2. कमजोर परिस्थितिजन्य साक्ष्य: अभियोजन पक्ष किसी भी अभियुक्त को बम की खरीदने, बनाने या स्थापित करने से विश्वसनीय रूप से जोड़ने में असफल रहा। इन असफलताओं में शामिल हैं:
● किसी भी प्रत्यक्षदर्शी ने अभियुक्तों को रेलवे स्टेशनों पर नहीं देखा।
● कथित बम-निर्माण स्थलों पर किए गए फॉरेंसिक परीक्षण निर्णायक साबित नहीं हुए।
● अभियुक्तों से कथित तौर पर मिले ट्रेवेल रूट और नक्शे सार्वजनिक रूप से उपलब्ध थे।
3. कॉल डेटा रिकॉर्ड और लोकेशन मैपिंग में त्रुटियां: एटीएस ने यह साबित करने के लिए पूरी तरह से मोबाइल फोन डेटा पर निर्भरता जताई कि अभियुक्त संपर्क में थे और धमाके वाली जगहों के नजदीक मौजूद थे। लेकिन न्यायालय ने पाया कि:
● सेल टावर के स्थानों की चुनींदा व्याख्या की गई थी।
● मैपिंग अभियुक्तों की धमाका स्थलों पर मौजूदगी को निर्णायक रूप से साबित नहीं कर पाया।
● कुछ मोबाइल नंबरों को कभी भी स्पष्ट रूप से अभियुक्तों से नहीं जोड़ा जा सका।
4. फर्जी बरामदगियां और गवाहों के बयानों में विरोधाभास
● कई बरामद की गई चीजें प्लांट की गई निकलीं या बिना किसी स्वतंत्र गवाह के अवैध तरीके से बरामद की गईं।
● मुख्य अभियोजन गवाहों, जिनमें पुलिस अधिकारी और पंच गवाह शामिल थे, ने विरोधाभासी बयान दिए।
● एक प्रमुख गवाह पहले घाटकोपर धमाके के एक अलग मामले में गवाही दे चुका था, जिससे निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं।
5. प्रेशर कुकर के सबूत को खारिज कर दिया गया
जांचकर्ताओं ने शुरू में दुकानदारों के बयानों को हाइलाइट किया था, जिनमें "कश्मीरी दिखने वाले युवकों" द्वारा प्रेशर कुकर खरीदने की बात कही गई थी, लेकिन बिना ठोस वजह के इन सुरागों को मुकदमे के दौरान छोड़ दिया गया। फिर भी, अभियोजन पक्ष ने बाद में इस थ्योरी को फिर से पेश किया जो जांच में मनमानी और असंगत रवैये को दर्शाता है।
6. MCOCA की अवैध मंजूरी
MCOCA की धारा 23(1) के तहत एक वरिष्ठ अधिकारी (अतिरिक्त पुलिस महानिरीक्षक एस.के. जैसवाल) की मंजूरी अनिवार्य थी लेकिन इसे तथ्यात्मक रूप से प्रमाणित नहीं किया गया। मंजूरी पत्र गवाह के सामने कभी प्रस्तुत नहीं किया गया। उच्च न्यायालय ने इसे रद्द कर दिया।
बरी किए गए: दोष के साये में बीता एक दशक
नीचे दिए गए टेबल में 12 बरी किए गए लोगों और उनकी सजा का विवरण दिया गया है:


बचाव पक्ष के वकीलों की भूमिका और न्याय के लिए लंबी लड़ाई
इस बरामदगी का श्रेय वकीलों की एक मजबूत टीम और उन परिवारों को जाता है जिन्होंने कभी हार नहीं मानी। जांच शुरू होते ही, 29 सितंबर 2006 को, धमाके के दो महीने बाद मुंबई पुलिस के उस समय के कमिश्नर ए.एन. रॉय ने कहा था कि दो कश्मीरी युवक स्थानीय बाजार गए और दो दुकानों से प्रेशर कुकर खरीदे। रॉय ने बताया था कि इन्हीं प्रेशर कुकरों से बेहद घातक बम बनाए गए। इसलिए इस धमाके को ‘प्रेशर कुकर धमाका’ कहा जाने लगा।
जैसा कि अब अक्सर “आतंकवाद मामलों” की रिपोर्टिंग में होता है, इन धमाकों के बाद मीडिया की खबरें लगभग पूरी तरह पुलिस द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस में दी गई जानकारी पर ही आधारित थीं। इसलिए महीनों तक इन घातक धमाकों के बाद, इन सभी लोगों पर तरह-तरह के आरोप लगाए गए-जैसे पाकिस्तान जाकर हथियार ट्रेनिंग लेना, अपने घरों में RDX (रिसर्च डिपार्टमेंट एक्सप्लोसिव), अमोनियम नाइट्रेट, नाइट्राइट और पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन तेल जमा करना आदि। प्रेशर कुकर वाली थ्योरी जल्द ही गायब हो गई और चार्जशीट में इसका कोई जिक्र नहीं था। आठ साल बाद, MCOCA कोर्ट में अंतिम दलील पेश करने के समय इस मामले के विशेष लोक अभियोजक राजा ठाकरे ने फिर से इस थ्योरी को पेश किया। हाई कोर्ट में अभियुक्तों के पक्ष में पेश हुए अधिवक्ता रामकृष्णन और उनकी सहयोगी राय ने अपनी अंतिम दलीलों में जांच की इन कमजोरियों को पूरी तरह उजागर किया। पुलिस ने दावा किया था कि सिलसिलेवार बम धमाकों के दो महीने बाद, दो लोग सामने आए और बताया कि मई 2006 में दो ‘कश्मीरी दिखने वाले युवकों’ ने कई प्रेशर कुकर खरीदे थे। इन दोनों लोगों के बयान दर्ज किए गए। इन्हें अहम गवाह माना जाना चाहिए था लेकिन जांच एजेंसी ने मुकदमे के दौरान इनके बयानों को “अविश्वसनीय” कहते हुए पूरी तरह खारिज कर दिया। इसका मतलब था कि अभियोजन पक्ष के कथित थ्योरी की एक बुनियादी नींव ही कमजोर थी।
अभियुक्तों के वकील ने दलील दी, “यह मानना असंभव है कि गवाहों के अनुसार अभियुक्तों ने सितंबर में पूछताछ के दौरान प्रेशर कुकर का जिक्र किया था, क्योंकि प्रेशर कुकर की कहानी एटीएस को केवल 28.09.2006 के बाद ही याद आई, जब दुकानदारों के बयान दर्ज किए गए जिनमें बताया गया कि कश्मीरी युवकों ने बड़ी संख्या में प्रेशर कुकर खरीदे थे। पूरे इस अवधि के दौरान एटीएस का कहना था कि अभियुक्त उनसे कोई सुराग नहीं दे रहे थे। वास्तव में, एक भी रिमांड आवेदन इस आधार पर नहीं लिया गया कि उन्हें प्रेशर कुकर की पहचान करनी थी या अभियुक्तों ने प्रेशर कुकर के बारे में बात की थी।”
वकीलों ने इस मामले में सख्त MCOCA कानून के लागू होने पर भी सवाल उठाए। वकीलों ने बताया कि MCOCA की धारा 23(1) के तहत, MCOCA के अंतर्गत किसी अपराध की जानकारी दर्ज करने से पहले अतिरिक्त पुलिस आयुक्त (ACP) या उससे उच्च अधिकारी की पूर्व मंजूरी आवश्यक होती है। उस समय मुंबई की आतंकवाद निरोधक दस्ते के उप पुलिस महानिरीक्षक/अतिरिक्त पुलिस आयुक्त एस.के. जयसवाल थे और उन्होंने कथित तौर पर आवश्यक मंजूरी दी थी, लेकिन उन्हें कभी भी गवाही के लिए पेश नहीं किया गया।
उच्च न्यायालय ने इस दलील को स्वीकार करते हुए अपने फैसले में जिक्र किया, “श्री एस.के. जयसवाल, जिन्होंने पूर्व में स्वीकृति दी थी, उन्होंने स्वयं गवाही के लिए न्यायालय में उपस्थित होकर उस स्वीकृति पत्र की सामग्री को प्रमाणित नहीं किया। केवल गवाह संख्या 174 द्वारा श्री जयसवाल के हस्ताक्षर की पहचान कर लेना, पूर्व स्वीकृति की सामग्री को साबित नहीं करता।”
उड़ीसा हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. एस. मुरलीधर ने दो अभियुक्तों-मुजम्मिल अताउर रहमान शेख और जमीर अहमद लतीफुर रहमान शेख - की ओर से पक्ष रखा। हाई कोर्ट में अभियुक्तों की ओर से पेश होने वाली कानूनी टीम में कई वकील शामिल थे, जिनमें अहम बहस करने वाले वकील नित्या रामकृष्णन, युग मोहित चौधरी, एस. नागमुथु और डॉ. एस. मुरलीधर शामिल थे। उनके साथ वहाब शेख, शरीफ शेख, पायोशी रॉय और स्तुति राय सहित कई अन्य वकील भी टीम का हिस्सा थे। इन वकीलों ने यह दलील दी थी कि अभियोजन पक्ष का मामला कमजोर था और निचली अदालत ने अभियुक्तों को दोषी ठहराते समय गलतियां कीं। इस मामले में राजा ठाकरे को विशेष लोक अभियोजक नियुक्त किया गया था।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, अंतिम चरण से ठीक पहले अपनी दलीलों में मुरलीधर ने जांच को पक्षपातपूर्ण और मीडिया से प्रभावित बताया। उन्होंने कहा:
"बेकसूर लोगों को जेल भेज दिया जाता है और फिर कई साल बाद जब वे रिहा होते हैं तो उन्हें अपनी जिंदगी को दोबारा पटरी पर लाना लगभग नामुमकिन हो जाता है। पिछले 17 साल से ये अभियुक्त जेल में हैं। वे एक दिन के लिए भी बाहर नहीं आए। उनके जिंदगी का सबसे कीमती समय खत्म हो गया। ऐसे मामलों में, जहां लोगों में गुस्सा होता है, वहां पुलिस का रवैया अक्सर यही होता है कि पहले किसी को दोषी मान लो और फिर सबूत ढूंढे जाते हैं। ऐसे मामलों में पुलिस अधिकारी प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं और जिस तरह से मीडिया कवरेज करता है, उससे मानो किसी की गुनहगार होने की छवि तय हो जाती है। कई ऐसे कथित आतंकवाद मामलों में जांच एजेंसियां बुरी तरह विफल रही हैं।"
उन्होंने अदालत से आग्रह किया कि वह उस अपूरणीय नुकसान जैसे बर्बाद हुए साल, कलंकित हुए परिवार और न पीड़ितों को न्याय मिला, न ही अभियुक्तों को मानसिक शांति पर भी विचार करे। 2015 में बरी हुए वहीद शेख ने ‘इनोसेंस नेटवर्क’ नाम से एक जन अभियान की शुरुआत की और भारत में आतंकवाद से जुड़े मुकदमों की प्रक्रिया के मुखर आलोचक बन गए। उन्होंने किताबें लिखीं, पीएचडी की पढ़ाई की और बाकी 12 अभियुक्तों के लिए कानूनी सहायता के लिए कोऑर्डिनेट किया।
एक कानूनी पुनर्विचार और उसके प्रभाव
यह मामला उन गंभीर खामियों की तीखी निंदा करता है:
● जांच में संकीर्ण दृष्टिकोण: एटीएस ने अपनी पक्षपाती नैरेटिव के साथ जांच को जल्दबाजी में बंद कर दिया और अन्य संभावित सुरागों की जांच करने में असफल रहा।
● राज्य की दलीलों के प्रति न्यायिक पक्षपात: ट्रायल कोर्ट ने कानूनी प्रक्रियाओं की अनदेखी करते हुए संदिग्ध कबूलनमे और भरोसेमंद न होने वाले सबूतों को स्वीकार कर लिया।
● अपील की समीक्षा में देरी: अपील की सुनवाई में आठ वर्षों की देरी का मतलब था कि अभियुक्तों ने बरी होने से पहले ही अपनी सजा का ज्यादातर हिस्सा काट लिया था।
बॉम्बे हाई कोर्ट का फैसला केवल बरी करने तक सीमित नहीं है बल्कि यह संस्थागत भरोसे का एक छोटा सा हिस्सा वापस लाता है, साथ ही भारत में आतंकवाद की जांच और अभियोजन के तरीके पर गंभीर चिंताएं भी उठाता है। हालांकि, बरी किए गए लोगों के लिए यह शायद बहुत देर हो चुकी है। बिना मुआवजे और बिना माफी के जेल में बिताए गए वर्षों का समय, टूटे हुए परिवार और बर्बाद हुई इज्जत का दाग उनके साथ रहेगा।
व्यवस्थागत असर: पीड़ितों को न्याय की कोई प्राप्ति नहीं और जांच प्रक्रिया में शामिल लोगों की जवाबदेही नहीं हुई
जहां बरी हुए लोग आजाद हैं, वहीं 7/11 बम धमाकों के पीड़ितों को न तो न्याय मिला और न ही कोई जवाब। जांच का नेतृत्व करने वाली एटीएस की कार्यप्रणाली पर अब गंभीर सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि इस मामले और 2006 के मालेगांव विस्फोट- दोनों की जांच प्रक्रियात्मक लापरवाही और सांप्रदायिक सोच की भेंट चढ़ चुकी हैं।
मालेगांव में भी शुरुआत में मुस्लिम लोगों को आरोपी बनाया गया, लेकिन NIA की जांच में जब हिंदुत्ववादी उग्रवादियों की भूमिका सामने आई तो उन्हें बरी कर दिया गया। यह समान घटनाएं दर्शाती हैं कि भारत में आतंकवाद की जांच कई बार फॉरेंसिंग सबूतों के बजाय राजनीतिक दबाव और सांप्रदायिक सोच से संचालित होती हैं।
अब्दुल वहीद शेख और 'इनोसेंस नेटवर्क'
गिरफ्तारी के समय अब्दुल वहीद शेख एक स्कूल शिक्षक थे, लेकिन 2015 में रिहा होने के बाद वे एक दृढ़ और मुखर मानवाधिकार कार्यकर्ता बन गए। उन्होंने 'इनोसेंस नेटवर्क' की शुरुआत की। यह एक ऐसा अभियान जो उनके साथ गिरफ्तार किए गए 12 अन्य लोगों की रिहाई के लिए समर्पित था। वहीद ने जेल में बिताए अपने अनुभवों पर किताबें लिखीं, भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली पर गहन शोध किया और हाल ही में इसी विषय पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने जमीयत उलेमा-ए-हिंद के साथ मिलकर इस मामले में बेहद संजीदगी और विस्तार से काम किया।
निष्कर्ष: एक चरमराई व्यवस्था बेनकाब
2006 के मुंबई लोकल ट्रेन धमाकों को अब सिर्फ उनकी क्रूरता के लिए नहीं, बल्कि न्याय की एक बड़ी विफलता के रूप में भी याद किया जाएगा। बॉम्बे हाई कोर्ट का फैसला आपराधिक न्याय व्यवस्था के एक मूल सिद्धांत की फिर से पुष्टि करता है कि आरोप साबित करना राज्य की जिम्मेदारी है और जब तक किसी पर संदेह से परे अपराध साबित न हो जाए वह निर्दोष माना जाता है। यह मामला आतंकवाद से जुड़ी जांच में तत्काल सुधार, अभियोजन पक्ष की ज्यादा जवाबदेही और बेगुनाह ठहराए गए लोगों के लिए एक मजबूत मुआवजा प्रणाली की जरूरत को साफ तौर पर सामने रखता है।
इस पूरे मामले में एक बुनियादी सवाल अब भी अनसुलझा है कि क्या उन बेगुनाह आरोपियों और उनके परिवारों को, जिनकी ज़िंदगियां उजड़ गईं, जिनकी रोजी-रोटी छिन गई और जिन्हें समाज से पूरी तरह अलग थलग कर दिया गया, कोई न्याय मिलेगा? क्या उन्हें कोई मुआवजा या पुनर्वास मिलेगा?
इतना ही नहीं, जांच में गंभीर चूक और पक्षपात के लिए जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों- विशेष रूप से मुंबई एटीएस के अधिकारियों- पर अब तक कोई ठोस कार्रवाई न होना हमारी न्याय व्यवस्था की एक गहरी खामी है।
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