MP: अवैध बेदखली और लूट के खिलाफ आदिवासियों का कलेक्ट्रेट घेराव, कहा- सरकार हमसे सीख ले कानून

Written by Navnish Kumar | Published on: July 21, 2021
अरसे से काबिज काश्त की जा रही वन भूमि से अवैध बेदखली और लूट को लेकर नेगांव जामनिया, खड़वा के हजारों आदिवासियों ने कलेक्टर कार्यालय का घेराव किया और वनाधिकार कानून के तहत जल, जंगल, जमीन पर अधिकार बहाली और अवैध बेदखली तथा लूट के दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई की मांग की। आदिवासियों ने एक सुर में हक लेकर ही दम लेने का आह्वान किया। 



खास है कि 2 हफ्ते पहले खंडवा जिले के नेगांव जामनिया क्षेत्र के 40 आदिवासियों को प्रशासन द्वारा वन भूमि से अवैध रूप से बेदखल कर दिया था। यही नहीं, पुलिस प्रशासन पर घरों को उजाड़ने और संपत्तियों की लूट के साथ, आदिवासियों की करीब 250 एकड़ जमीन में बोई फसल को भी कैमिकल आदि डालकर नष्ट कर दिए जाने के आरोप हैं। इसके विरोध में खंडवा और आसपास के ज़िलों के हजारों आदिवासियों ने इकट्ठा होकर कलेक्ट्रेट का घेराव किया और वनाधिकार कानून के तहत अधिकार सुनिश्चित करने और अवैध बेदखली व लूट के दोषी अफसरों पर कार्रवाई की मांग की। आदिवासी नेताओं ने दो टूक कहा कि अगर सरकार को कानून नहीं मालूम है तो वह हमसे सीख लें। 
 
खंडवा में जागृत आदिवासी दलित संगठन के लाल झंडे के नेतृत्व में मंगलवार को आदिवासी समुदाय के तीन हजार से ज्यादा लोगों ने कलेक्टर कार्यालय का घेराव व धरना प्रदर्शन किया। संगठन के नेताओं ने वन विभाग के वन अधिनियम का हवाला देते हुए आरोप लगाए कि वर्षों से जंगल की जमीन पर आदिवासी काबिज काश्त और निवास करते चले आ रहे हैं। लेकिन बिना सूचना दिए और उनके दावों का अंतिम निराकरण होने के पूर्व ही, उन्हें बेदर्दी के साथ जमीन से बेदखल कर दिया गया। बेबस लोगों को पीटा गया और सामान लूट ले गए। संगठन की प्रमुख माधुरी बेन ने बताया कि पुलिस प्रशासन व वन विभाग की बेदखली की कार्यवाही पूरी तरह से असंवैधानिक है। उन्होंने वन अधिकार अधिनियम की विभिन्न धाराओं का उल्लेख करते हुए वन विभाग की कार्यवाही को गैरकानूनी भी बताया।

खास है कि 2 हफ्ते पहले पुलिस, प्रशासन और वन विभाग ने संयुक्त कार्यवाही करते हुए नेगांव जामनिया क्षेत्र के जंगल से लगभग 250 एकड़ जमीन से आदिवासियों को अवैध तरीके से बेदखल कर दिया था। इसी के बाद से आदिवासी लगातार विरोध कर रहे हैं। विरोध प्रदर्शन में शामिल ज्यादातर आदिवासी महिलाओं का कहना था कि वन विभाग ने न केवल उन्हें जंगल में उनकी जमीन से बेदखल किया बल्कि उनके जानवर और संपत्ति की भी लूट की है और फसलों का नुकसान किया है। इसी को लेकर जागृत आदिवासी दलित संगठन के बैनर तले धरना प्रदर्शन में खंडवा के साथ खरगोन, बड़वानी, झाबुआ और बुरहानपुर जिलों के तीन हजार से ज्यादा आदिवासी लोग और कार्यकर्ता शामिल हुए और विरोध प्रदर्शन कर अवैध कार्यवाही के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों पर कार्रवाई करते हुए गिरफ्तारी की मांग की। 

विरोध रैली खंडवा वन विकास निगम कार्यालय के सामने होते हुए कलेक्टर कार्यालय तक निकाली गई और पुलिस प्रशासन द्वारा नियम कानूनों के उल्लंघन का तीखा विरोध किया गया। अधिकारियों से उनकी कार्यवाही की वैधता पर भी जवाब मांगा। यही नहीं प्रशासन द्वारा 40 आदिवासी परिवारों की "सरकारी" लूट का विरोध करते हुए बेघर हुए परिवारों के लिए तुरंत राहत हेतु अनाज एवं लूट में हुए नुकसान हेतु मुआवजे की भी मांग की गई। 



मंगलवार को सुबह करीब 11 बजे से ही कलेक्ट्रेट में आदिवासियों का आसपास के जिलों से ट्रैक्टर-ट्रालियों से आने का सिलसिला शुरू हो गया था। स्टेडियम के पास आदिवासी एकत्रित हुए और श्रम विभाग कार्यालय के सामने मैदान में बैठ गए। करीब एक घंटे यहां बैठकर जिला प्रशासन, वन विभाग और पुलिस के विरुद्ध गाने गाए। वक्ताओं ने कहा कि जंगल आदिवासियों का घर है। यहां से आदिवासियों ने जागृत आदिवासी दलित संगठन की माधुरी बेन और नितिन वर्गीस के साथ मिलकर रैली निकाली। महिलाएं रैली में आगे की तरफ शामिल रहीं। रैली वन विकास मंडल के कार्यालय के सामने आकर रूक गई। महिलाओं ने कार्यालय के सामने धरना देते हुए, नारेबाजी की और वन विभाग के अधिकारियों के खिलाफ जमकर भड़ास निकाली। उन पर जंगल बेचने का आरोप लगाया। इसके बाद कलेक्ट्रेट परिसर में पुलिस प्रशासन और वन विभाग के खिलाफ जमकर नारेबाजी की और शाम तक विरोध प्रदर्शन जारी रहा। आदिवासी नेताओं ने ''हम सब एक हैं, अपना हक लेकर रहेंगे'' का नारा देते हुए सामाजिक एकता पर भी जोर दिया। 

जागृत आदिवासी दलित संगठन की अध्यक्ष माधुरी बेन ने बताया कि नेगांव जामनिया क्षेत्र के जंगल से अवैधानिक तरीके से आदिवासियों को हटाया गया है। उनके घर उजाड़े गए हैं। इस अवैधानिक कार्रवाई के विरोध में धरना दिया गया है। कहा कि 10 जुलाई को नेगांव जामनीया में वन विभाग द्वारा अतिक्रमण हटाए जाने के नाम पर 40 से भी ज्यादा आदिवासी परिवारों के घरों को तोड़ा गया, उनके खेतों पर खड़ी फसल को नष्ट किया गया। फसलों पर दवा छींटकर जमीन को जहरीला बना दिया। जिससे पास के गांवों में गाय-भैंसों की मौत भी हुई। लोगों के घरों से 130 क्विंटल अनाज, 63 हजार नगदी, जेवर, 4 साइकल, 5 मोबाइल फोन, मुर्गियों और बकरियों के अलावा बर्तन भांडे की लूट की गई। वन विभाग द्वारा 6 लोगों का अपहरण कर डीएफओ कार्यालय में बंधक बनाकर रखा गया। इस घटना में वन अधिकार अधिनियम 2006 का उल्लंघन, मप्र हाई कोर्ट के आदेश की अवमानना और मप्र शासन के आदेशों का उल्लंघन हुआ है। 

जागृत दलित आदिवासी संगठन के बैनर तले आदिवासी समाज ने फॉरेस्ट विभाग के अफसरों की बर्खास्ती और नुकसान की भरपाई के लिए मुआवजे की मांग की है। अफसरों का यह हाल तब है जब वनाधिकार अधिनियम में 13 दिसंबर 2005 से पहले से वन क्षेत्रों के आधीन आदिवासी और अन्य वन समुदायों को व्यापक निजी और सामूहिक कानूनी वन अधिकार देने की व्यवस्था है। दावों की जांच करने के लिए तीन स्तरों पर व्यवस्था है, जिसमें ग्राम सभा सबसे महत्वपूर्ण है। ग्राम सभा के फैसलों पर अनुविभागीय और जिला स्तर पर अपील किया जा सकता है। वन विभाग की हिंसा देश भर में कुख्यात है, इसलिए आदिम जाति कल्याण विभाग को नोडल विभाग बनाया गया है। राजस्व अधिकारियों सहित हर स्तर के जांच में उनकी जिम्मेदारी तय की गई। कानून की धारा 4(5) के अनुसार इस तरह जांच प्रक्रिया पूर्ण होने तक किसी को भी बेदखल नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, स्वयं मध्यप्रदेश शासन के आदिम जाति कल्याण विभाग के 1 मई 2019 के आदेशानुसार, वनाधिकार अधिनियम के अंतर्गत दावों के पुनः जांच पूरी न हो जाने तक किसी भी दावेदार की बेदखली प्रतिबंधित है।



सामाजिक कार्यकर्ता माधुरी बेन कहती हैं कि वनाधिकार की यह प्रक्रिया प्रशासन द्वारा कभी भी विधिवत रूप से नहीं चलाई गई, जिस कारण बड़ी मात्रा में लोग त्रुटिपूर्वक अपात्र किए गए। यह स्वयं मध्य प्रदेश सरकार द्वारा सूप्रीम कोर्ट में कबूला गया है। इसी कारण प्रदेश में दावों की पुनः जांच आदेशित की गई थी। लेकिन अभी भी खंडवा जिले में करीब 2,416 (86%) और बुरहानपुर में 10,800 (99.5%) दावों का जांच प्रक्रिया लंबित है।

मप्र हाईकोर्ट ने 23 अप्रैल 2021 को पारित आदेश में कोरोना काल के दौरान किसी भी विभाग द्वारा बेदखली पर प्रतिबंध लगाया गया है। यह आदेश पहले 23 अगस्त तक जारी रहेगा। इसी तरह खंडवा जिले में वन कानून से जुड़े आदिवासियों पर अत्याचार के मामलों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश आरपी सोलंकी की अध्यक्षता में एक “शिकायत निवारण प्राधिकरण” स्थापित किया था। नेगांव, जामनिया निवासियों ने भी प्राधिकरण के सामने अपना पक्ष रखा था और प्राधिकरण ने 7 नवंबर 2015 में पाया कि 110 आदिवासी परिवारों का पूर्व से इस भूमि पर काबिज होना प्रतीत होता है।

ग्राम जामनिया की इस घटना में वन अधिकार अधिनियम 2006 का उल्लंघन हुआ है तो मप्र हाईकोर्ट के आदेश का अवमानना और मप्र शासन के आदेश का भी खुला उल्लंघन हुआ है। वन अधिकार अधिनियम की धारा 4 (5) के अनुसार इस तरह जांच प्रक्रिया पूर्ण होने तक किसी को भी बेदखल नहीं किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार भी कोरोना काल में बेदखली अवैध हैं। इसके अलावा, स्वयं मध्य प्रदेश शासन के आदिम जाति कल्याण विभाग के आदेश एक मई 2019 के अनुसार, वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत दावों के पुनः जांच पूरी न हो जाने तक किसी भी दावेदार की बेदखली प्रतिबंधित है। नेगाँव, जामनिया क्षेत्र में बेदखल किए गए 40 परिवारों का जांच प्रक्रिया कानूनानुसार शुरू ही नहीं हुई है! वन अधिकार की प्रक्रिया कभी भी विधिवत रूप से नहीं चलाई गई, जिस कारण बड़ी मात्रा में लोग त्रुटिपूर्वक अपात्र किए गए। यह स्वयं मध्य प्रदेश सरकार द्वारा सूप्रीम कोर्ट में कबूला गया है। 

इसी कारण मध्यप्रदेश में दावों की पुनः जांच आदेशित की गई थी। परंतु अभी भी ज़िला खंडवा में लगभग 2,416 (86%) और बुरहानपुर में 10,800 (99.5%) दावों का जांच प्रक्रिया लांबित है! इस कार्यवाही के दौरान 6 व्यक्तियों को जबरन उठा कर वन मंडलाधिकारी (निगम) चरण सिंह के ऑफिस मे बंधक बना कर रखे जाने और उनके फोन छीने का भी तीखा विरोध हुआ। मप्र हाईकोर्ट द्वारा (W.P. no 8820/2021) 23.04.21 को पारित आदेश में कोविड काल के कारण किसी भी विभाग द्वारा बेदखली पर प्रतिबंध लगाया गया है। यह आदेश पहले दिनांक 15.07.21 तक और अब 23.08.21 तक लगाया गया है। जिसकी भी अफसरों द्वारा धज्जियां उड़ा दी गई हैं।

इस दौरान आदिवासियों द्वारा खंडवा जिले में हो रही अवैध कटाई करने वालो को वन विभाग द्वारा संरक्षण दिए जाने का भी विरोध किया गया। आदिवासियों के अनुसार, निमाड में अवैध लकड़ी की तस्करी में लिप्त एवं पैसों के बदले अवैध कटाई को मौन समर्थन देने वाला वन विभाग आदिवासियों के ऊपर जंगल नष्ट करने के झूठे आरोपों की आड़ में अपना भ्रष्टाचार छुपना चाह रहा है। हीरापुर वाकड़ी क्षेत्र में हो रहे कटाई की लगातार 1 साल से ग्रामीणों द्वारा शिकायत की जा रही है, पर वन विभाग कोई कार्यवाही नहीं कर रहा है। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा छतरपुर जिले में हीरे के खदान के लिए 2.15 लाख से भी ज्यादा पेड़ों को नष्ट करने की सरकार के योजनाओं का भी तीखा विरोध किया गया। उल्लेखनीय है कि पर्यावरण संबन्धित संसदीय समिति के अनुसार, देशभर में पिछले पाँच साल में 1.75 लाख एकड़ जंगल उद्योगों को हस्तांतरित किए जा चुके हैं।



कार्यक्रम में आदिवासी छात्र संगठन की ओर से प्रदेश अध्यक्ष प्रकाश बंडोद एवं प्रदेश महासचिव पीयूष मोझले ने भी आदिवासियों के साथ खड़े होकर अधिकारियों पर कार्यवाही की मांग की तथा कोई कार्यवाही न होने पर पूरे आदिवासी समाज द्वारा प्रदेश भर में आंदोलन की चेतावनी भी दी गई। खास यह भी कि खंडवा व बुरहानपुर रेंज में 5 हजार से ज्यादा आदिवासियों ने वन भूमि पर पट्‌टों के लिए दावे लगा रखे हैं। इस कारण सीधे तौर पर वन विभाग बेदखल नहीं कर पा रहा है। गुड़ी रेंज में दो हजार से ज्यादा अतिक्रमणकारियों के दावे लगे हुए है। इसी को लेकर लोगों में डर भी है कि कही प्रशासन उन्हें भी बेदखल कर दे, इसलिए सभी एकजुट है और अधिकारों की बहाली को लेकर वन विभाग व प्रशासन से आरपार के मूड में है। 

इधर, जिला प्रशासन का कहना है कि पिछले दिनों जामनिया क्षेत्र में जंगल की जमीन को मुक्त कराने संबंधी वन विभाग की कार्यवाही में पूरी पारदर्शिता बरती गई है। जंगल में बाहरी जिलों के लोगों द्वारा पेड़ काटकर अतिक्रमण करने संबंधी तमाम दस्तावेज वन विभाग के पास है। खंडवा एसडीएम ममता खेड़े ने कहा कि संगठन के लोगों ने अलग-अलग जिलों से कार्यकर्ताओं को बुलाकर यह प्रदर्शन किया। संगठन ने इस प्रदर्शन के बारे में कोई पूर्व अनुमति नहीं ली। कोरोना गाइडलाइन का पालन भी नहीं किया गया जिस पर उचित कार्रवाई की जाएगी। उधर, आदिवासी जागृत संगठन के पदाधिकारी नितिन वर्गीस आदि ने पुलिस अधीक्षक से मिलकर जबरिया बेदख़ली की कार्रवाई को वनाधिकार कानून का खुला उल्लंघन बताते हुए, नियम विरुद्ध करार दिया। कहा अगर अफसरों को कानून मालूम नहीं हैं तो वह उनसे सीख लें।

यहां गौरतलब यह भी है कि सैंकड़ों साल से ऐतिहासिक अन्याय का शिकार रहा आदिवासी समाज आज भी वन विभाग के दमनकारी कानून का दमन सहने को मजबूर है, वो भी गोरे अंग्रेजों के बनाए दमनकारी ''भारतीय वन अधिनियम-1927'' कानून के तहत। यह भी तब, जब 2006 में नया ''वनाधिकार कानून-2006'' अमल में आ गया है जिसका उद्देश्य आदिवासी और अन्य परंपरागत (वनों पर निर्भरशील) समुदायों के वन भूमि पर अधिकारों (जो कभी अंग्रेजों ने उनसे छीन लिए थे!) को मान्यता प्रदान करना है। खास है कि वनाधिकार कानून-2006 की प्रस्तावना में ही आदिवासियों को ऐतिहासिक अन्याय से निजात दिलाने की बात कही गई है जबकि अंग्रेजों के बनाए कानून ''वन अधिनियम-1927'' की प्रस्तावना में राजस्व बढ़ाने की बात है। एक तरह से अंग्रेजों ने यह कानून भारतीय वन संसाधनों की लूट के लिए बनाया था। कायदे से देखा जाए तो वनाधिकार कानून-2006, अंग्रेजों के बनाए कानून ''वन अधिनियम-1927'' को सुपरसीड करता है लेकिन हैरत की बात यह है कि आजादी के 75 साल बाद भी अंग्रेजों का यह दमनकारी कानून ''लोगों के रहने व आजीविका'' के संवैधानिक अधिकारों पर न सिर्फ भारी पड़ रहा है बल्कि इसकी आड़ में वन विभाग का दमन निरंतर जारी है और बढ़ता जा रहा है। मध्यप्रदेश आदि कई राज्यों में यह दमन बहुत ज्यादा बढ़ गया है। यह भी तब, जब मध्य प्रदेश में वनाधिकार कानून लागू करने के साथ निगरानी व क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने वाले वन विभाग की कमान प्रदेश के एक आदिवासी राजनेता के हाथों में है। 

खास है कि मध्य प्रदेश में बड़ी संख्या में आदिवासियों व परंपरागत वननिवासियों को वनाधिकार अधिनियम, 2006 के तहत पट्टा नहीं दिया जा रहा है। इससे उनके सामने रहने-जीने का संकट उत्पन्न हो गया है। वे सभी दहशत में हैं कि कहीं सरकार उन्हें बेघर न कर दे। बीते दिनों विधानसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में राज्य के आदिम जाति कल्याण मंत्री द्वारा बताया गया कि आदिवासियों एवं परंपरागत वननिवासियों द्वारा को उनके कब्ज़े की वन भूमि का पट्टा के लिए मध्यप्रदेश सरकार को 6 जुलाई, 2020 तक 3.79 लाख आवेदन प्राप्त हुए। इनमें से मात्र 716 आवेदन स्वीकृत किए गए। लगभग 2.85 लाख आवेदनों को ख़ारिज कर दिया गया और शेष पर निर्णय लिया जाना बाकी है। इतनी बड़ी संख्या में आवेदनों को खारिज किए जाने से वनों में रहने वाले लगभग 4 लाख ज्यादा आदिवासियों एवं परंपरागत वनवासी परिवारों के समक्ष आवास और जीविका की समस्या उत्पन्न हो गई है। 



यही नहीं, मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार गत 27 जून, 2020 को वनाधिकार पट्टों के आवेदनों के निराकरण की समीक्षा के दौरान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि “निरस्त किए गए 3.58 लाख से अधिक पट्टे आदिवासियों को दिए जाएंगे। अधिकारी माइडंसेट बना लें, गरीब के अधिकारों को मैं छिनने नहीं दूंगा। काम में थोड़ी भी लापरवाही की तो सख्त कार्रवाई होगी।” मुख्यमंत्री ने कहा कि प्रदेश में बड़ी संख्या में आदिवासियों/वननिवासियों के वनाधिकार दावों को निरस्त किया जाना दर्शाता है कि अधिकारियों ने इस काम को गंभीरता से लिया ही नहीं। उन्होंने आगे कहा था कि, “आदिवासी/वननिवासी समुदाय ऐसा वर्ग है, जो अपनी बात ढ़ंग से रख भी नहीं पाता। ऐसे में उनसे साक्ष्य मांगना तथा उसके आधार पर पट्टों को निरस्त करना नितांत अनुचित है। सभी कलेक्टर एवं डीएफओ सभी प्रकरणों का पुनरीक्षण करें एवं एक सप्ताह में रिपोर्ट दें। वनवासियों को पट्टा देना ही है। परंतु, परिणाम ढाक के तीन पात वाला ही हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के आश्वासन के बावजूद भी वन विभाग, वनाश्रितों को लगातार प्रताड़ित कर जंगलों से बेदखल कर रहा है। ताजा मामला इसका जीता जागता सबूत हैं कि किस तरह बिना दावों के निस्तारण ही वन विभाग व प्रशासन, कोरोना काल में भी जबरिया बेदखली पर आमादा हैं।

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