MP: खंडवा में 40 आदिवासियों के घर तोड़े, फसलें नष्ट कर डालीं, वनाधिकार कानून की उड़ीं धज्जियां

Written by Navnish Kumar | Published on: July 16, 2021
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में गोरे अंग्रेजों के समय के दमनकारी ''देशद्रोह'' कानून की वैधता पर हैरानी जताते हुए सरकार से पूछा है कि आजादी के 75 साल बाद भी राजद्रोह कानून को बनाए रखने का क्या औचित्य है? लोगों ने भी कोर्ट की टिप्पणी का आगे बढ़कर स्वागत किया। यही नहीं, नागरिक अधिकारों से जुड़े एक और कानून ''आईटी एक्ट 66ए'' के दुरुपयोग को लेकर भी कोर्ट ने संज्ञान लिया। लेकिन सैंकड़ों साल से ऐतिहासिक अन्याय का शिकार रहा आदिवासी समाज आज भी वन विभाग के दमनकारी कानून का दमन सहने को मजबूर है, वो भी गोरे अंग्रेजों के बनाए दमनकारी ''भारतीय वन अधिनियम-1927'' कानून के तहत। यह भी तब, जब 2006 में नया ''वनाधिकार कानून-2006'' अमल में आ गया है जिसका उद्देश्य आदिवासी और अन्य परंपरागत (वनों पर निर्भरशील) समुदायों के वन भूमि पर अधिकारों (जो कभी अंग्रेजों ने उनसे छीन लिए थे!) को मान्यता प्रदान करना है। खास है कि वनाधिकार कानून-2006 की प्रस्तावना में ही आदिवासियों को ऐतिहासिक अन्नाय से निजात दिलाने की बात कही गई है जबकि अंग्रेजों के बनाए कानून ''वन अधिनियम-1927'' की प्रस्तावना में राजस्व बढ़ाने की बात है। एक तरह से अंग्रेजों ने यह कानून भारतीय वन संसाधनों की लूट के लिए बनाया था। कायदे से देखा जाए तो वनाधिकार कानून-2006, अंग्रेजों के बनाए कानून ''वन अधिनियम-1927'' को सुपरसीड करता है लेकिन हैरत की बात यह है कि आजादी के 75 साल बाद भी अंग्रेजों का यह दमनकारी कानून ''लोगों के रहने व आजीविका'' के संवैधानिक अधिकारों पर न सिर्फ भारी पड़ रहा है बल्कि इसकी आड़ में वन विभाग का दमन निरंतर जारी है और बढ़ता जा रहा है। मध्यप्रदेश आदि कई राज्यों में यह दमन बहुत ज्यादा बढ़ गया है।



ताजा मामला मध्यप्रदेश का ही है जहां वन मंत्री के गृह ज़िले में ही वन विभाग द्वारा हमला कर 40 आदिवासियों के घर तोड़ डाले गए। कैमिकल आदि से फसलें नष्ट कर दी गई। लूट के साथ आदिवासी समुदाय के लोगों को जिस तरह बर्बर तरीके से वन भूमि से जबरन बेदखल किया जा रहा है वह ऐतिहासिक अन्याय खत्म करने के लिए संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित वनाधिकार कानून-2006 पर अमल की भी पोल खोल दे रहा है। जी हां, कोरोना महामारी के बीच खंडवा ज़िले के जामनिया, नेगांव इलाक़े के भील और बरेला आदिवासी समुदाय के 40 से ज़्यादा आदिवासी परिवार जबरन बेघर कर दिए गए। इनके वनाधिकार दावों का परीक्षण तक भी नहीं किया गया और वन विभाग ने 10 जुलाई को इन आदिवासियों के घरों पर बुलडोज़र चला दिया।

खास है कि मध्य प्रदेश में वनाधिकार कानून लागू करने के साथ निगरानी व क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने वाले वन विभाग की कमान प्रदेश के एक आदिवासी राजनेता के हाथों में है। वहीं वनाधिकार कानून की धारा 4 (5) के मुताबिक, दावों के निराकरण तक किसी की बेदखली नहीं की जा सकती है। जानकारों के अनुसार, मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के 23 अप्रैल और 15 जून के आदेशों मुताबिक भी 15 जुलाई तक प्रदेश में किसी प्रकार की बेदखली प्रतिबंधित है। यह सभी तथ्य हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि वन मंत्री के गृह जिले में ही इन नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं और इस काम में प्रशासन कठघरे में है। इस खबर से जुड़ी तस्वीरें हालात को बयान कर रही हैं। मामले में सबरंग द्वारा वन मंत्री, वन संरक्षक व कलेक्टर का पक्ष जानने की कोशिश की गई, लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो सका है। 



आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे जागृत आदिवासी दलित संगठन की माधुरी बेन बताती हैं कि 10 जुलाई को नेगांव जामनिया क्षेत्र में वन विभाग ने पुलिस फोर्स व जेसीबी के साथ हमला कर 40 आदिवासी परिवारों के घर तोड़ डाले और उनके खेत नष्ट कर दिए। संगठन के मुताबिक, दूसरे गांवों के ग्रामीणों को भी वन विभाग द्वारा बुलाया गया था जिनकी भीड़ से भी आदिवासियों के सामान मुर्गियां, बकरियां, अनाज, बर्तन, पैसे आदि लुटवाए गए। पत्थर और लाठीयों से आदिवासियों पर हमला किया गया। यहां तक कि महिलाओं को भी नहीं छोड़ा। इन परिवारों के पास अभी तन पर रह गए कपड़ों के अलावा कुछ नहीं बचा है। लेकिन न्याय के बजाय खंडवा के पुलिस प्रशासन द्वारा भी वन विभाग की शह पर, जामनिया निवासियों और कार्यकर्ताओं पर ही अवैध पुलिसिया कार्यवाही की जा रही है।

खास है कि ये परिवार, वन अधिकार अधिनियम के तहत दावेदार हैं और इस कानून की धारा 4 (5) के अनुसार दावों के निराकरण तक किसी को बेदखल नहीं किया जा सकता है। मप्र हाइकोर्ट के 23 अप्रैल और 15 जून के आदेशों के अनुसार भी 15 जुलाई तक प्रदेश में किसी प्रकार की बेदखली प्रतिबंधित है। इस हमले के दौरान पहले कई गांव निवासियों और इस कार्यवाही के वैधता पर सवाल करने वाले 3 सामाजिक कार्यकर्ताओं को मारते हुए अपहरण कर 12 घंटों तक वन विकास निगम के कार्यालय में रखा गया। हिरासत में लिए गए आदिवासियों में एक 12 साल की बच्ची भी शामिल है। आदिवासी कहते हैं कि 200 से ज़्यादा सुरक्षाबलों ने बिना किसी चेतावनी या सूचना के इलाक़े पर धावा बोला। उन्होंने आदिवासियों को पीटा और हिरासत में ले लिया। विभाग के अधिकारियों ने आदिवासियों को धमकाया और उन्हें गालियां दीं। 3 व्यक्तियों के फोन भी वन अमले द्वारा छीने गए है, जो अभी भी वापस नहीं लौटाए गए हैं।



खबर फैलते ही सैकड़ों आदिवासी, खंडवा पुलिस अधीक्षक के कार्यालय पर धरने पर बैठ गए, जिसके बाद देर रात तक बंधक बनाए गए व्यक्तियों को छोड़ा गया। इन व्यक्तियों के खिलाफ केस दर्ज़ होना बताया गया है, परंतु सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के उल्लंघन में इस बारे में पूरी जानकारी नहीं दी गई है। उनसे कोरे काग़ज़ पर हस्ताक्षर करवाया गया है या गिरफ्तारी नोटिस की प्राप्ति लेने के बाद, नोटिस ही नहीं दिया गया है।

आरोप है कि वन विभाग ने आदिवासियों के खेतों में फसलों पर कैमिकल आदि ज़हर भी छिड़का। बेघर हुए लोगों का आरोप है कि वन विभाग ने आदिवासियों को उनकी ज़मीन से पूरी तरह से बेदखल करने के इरादे से उनके खेतों पर ज़हर का छिड़काव किया, और बुलडोज़र से फसलों को नष्ट कर दिया। इन हालात में यह परिवार भूखे मरने की कगार पर हैं।

आदिवासी कार्यकर्ताओं का आरोप है कि वनोपज, पशुपालन और छोटी किसानी पर निर्भर इन परिवारों ने वन अधिकार अधिनियम के तहत भूमि अधिकारों के लिए आवेदन किया हुआ है। ऐसे में वन विभाग की यह कार्रवाई अवैध है। कार्यकर्ताओं का मानना है कि वन विभाग की कार्रवाई वन अधिकार अधिनियम के साथ-साथ जबलपुर अदालत के फ़ैसले का भी पूरी तरह से उल्लंघन है। अदालत ने महामारी के बीच किसी भी तरह की बेदखली पर रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट के भी आदेश हैं। इसके अलावा परिवारों की भूमि अधिकारों के लिए लड़ाई भी चल रही है। वनाधिकार कानून की धारा 4 (5) के तहत किसी को भी जमीन से तब तक बेदखल नहीं किया जा सकता जब तक उसके दस्तावेज़ों और दावों की निगरानी नहीं हो जाती।



कोरोना काल में बेघर होकर खुले में जीवन गुजारने को मजबूर आदिवासियों की चिंताएं अब और बढ़ गई हैं। बारिश के मौसम में यह आदिवासी अब कहां जाएंगे, इस बात का किसी के पास कोई जवाब नहीं है। जागृत संगठन ने मांग की है कि इस अभियान को अंजाम देने वाले अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके अलावा आदिवासी परिवारों को राहत दिए जाने की भी मांग है।

जागृत आदिवासी दलित संगठन की ओर माधुरी बेन, नितिन वर्गीस और अंतराम अवासे के साथ 50 से अधिक आदिवासी कलेक्टर कार्यालय पहुंचे और अपना पक्ष रखा। माधुरी बेन ने बताया कि अवैध रूप से कार्रवाई करते हुए आदिवासियों के झोपड़े तोड़े गए। इसके लिए वन विकास निगम और वन मंडल के अधिकारियों पर अत्याचार अधिनियम में प्रकरण दर्ज किया जाए। आदिवासियों को गिरफ्तार करने वाले रेंजर और अन्य अधिकारियों पर भी अतिशिघ्र कार्रवाई हो। कार्रवाई के दौरान आदिवासियों के रुपये, अनाज, मवेशी और घरेलू सामान की लूट की गई है। यह करने वाले रोहणी, भामझड़, सलाई, भेरूखेड़ा और जामनिया के ग्रामीणों पर भी प्रकरण पंजीबद्ध किया जाए। आदिवासी परिवारों के नुकसान की भरपाई करते हुए उन्हे मुआवजा दिया जाए। इसके साथ ही अन्य मांगें भी संगठन के द्वारा की गई है। अपनी इन मांगों को लेकर माधुरी बेन का कहना है कि समय रहते जिला प्रशासन उनकी मांगों की सुनवाई नहीं करता है तो वे आंदोलन को मजबूर होगे। आदिवासियों के साथ आंदोलन किया जाएगा।

संगठन के अनुसार, उनकी मांग है कि अवैध बेदखली और लूट का नेतृत्व कर रहे डीएफ़ओ चरण सिंह एवं अन्य अधिकारियों पर ‘वन अधिकार अधिनियम’ और हाइकोर्ट आदेशों की अवमानना के लिए कार्यवाही किया जाए तथा आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल करने के लिए अत्याचार अधिनियम के अंतर्गत केस दर्ज कर गिरफ्तार किया जाए। मारपीट, अपहरण कर बंधक बनाने के बारे में वन अमले पर अत्याचार अधिनियम के अन्तरगत एफ़आईआर दर्ज कर कार्यवाही की जाए। बेघर हुए परिवारों को तुरंत खाने के लिए राशन की सामाग्री उपलब्ध की जाए एवं उनको हुए नुकसान का मुआवजा दिया जाए। यही नहीं, बंधक बनाए गए व्यक्तियों के चोरी किए गए फोन तुरंत लौटाए जाए और बंधक बनाए गए व्यक्तियों द्वारा सभी झूठे एवं असत्य कागजी दस्तावेज़ों को खारिज किया जाए।

माधुरी के अनुसार, अंग्रेजों के वन क़ानून के कारण आदिवासियों ने उनके खिलाफ सबसे तीखे, दिलेर और बहादुराना संघर्ष किए थे। वन अधिकार अधिनियम अंग्रेजों द्वारा किया गया “ऐतिहासिक अन्याय” को खत्म करने के लिए पारित किया गया था, पर उसे दरकिनार कर अंग्रेजों का अत्याचार ‘आज़ाद’ भारत में जारी रखा गया है। आज़ादी की लड़ाई में शहीद हुए इस क्षेत्र के टंटया भील, वीर सिंग गोंड, गंजन कोरकू, भीमा नायक जैसे योद्धाओं की कुर्बानी को अपमानित करते हुए, उनके वंशजों के साथ इस तरह का बर्ताव किया जा रहा है।

जागृत आदिवासी दलित संगठन द्वारा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, वन मंत्री कुंवर विजय शाह, आदिवासी कल्याण मंत्री मीना सिंह मांडवे तथा मुख्य सचिव, वन सचिव प्रमुख मुख्य वन संरक्षक और ज़िला प्रशासन को मामले की विस्तृत जानकारी देते हुए मांग किया है कि अवैध बेदखली, लूट, और मारपीट व अपहरण कर बंधक बनाने के सरकारी डकैती और गुंडागर्दी के खिलाफ ‘अत्याचार अधिनियम’ और आईपीसी के अंतर्गत सख्त कार्यवाही होनी चाहिए। साथ ही पीड़ित परिवारों को मुआवजा और उनके लिए आवास और राशन व्यवस्था किया जान चाहिये। संगठन ने चेताया है कि अन्यथा व्यापक आंदोलन किया जाएगा। उधर, प्रशासन इसे अतिक्रमण बता रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार भारी अमले के साथ घेराबंदी करते हुए कार्रवाई करने वाली एसडीएम ममता खेड़ी ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान वन विभाग की जमीन पर अतिक्रमण किया गया था जिसे हटाने के लिए कार्रवाई की गई।

खास है कि मध्य प्रदेश में बड़ी संख्या में आदिवासियों व परंपरागत वननिवासियों को वनाधिकार अधिनियम, 2006 के तहत पट्टा नहीं दिया जा रहा है। इससे उनके सामने रहने-जीने का संकट उत्पन्न हो गया है। वे सभी दहशत में हैं कि कहीं सरकार उन्हें बेघर न कर दे। बीते दिनों विधानसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में राज्य के आदिम जाति कल्याण मंत्री द्वारा बताया गया कि आदिवासियों एवं परंपरागत वननिवासियों द्वारा को उनके कब्ज़े की वन भूमि का पट्टा के लिए मध्यप्रदेश सरकार को 6 जुलाई, 2020 तक 3.79 लाख आवेदन प्राप्त हुए। इनमें से मात्र 716 आवेदन स्वीकृत किए गए। लगभग 2.85 लाख आवेदनों को ख़ारिज कर दिया गया और शेष पर निर्णय लिया जाना बाकी है। इतनी बड़ी संख्या में आवेदनों को खारिज किए जाने से वनों में रहने वाले लगभग 4 लाख ज्यादा आदिवासियों एवं परंपरागत वनवासी परिवारों के समक्ष आवास और जीविका की समस्या उत्पन्न हो गई है। 

यही नहीं, मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार गत 27 जून, 2020 को वनाधिकार पट्टों के आवेदनों के निराकरण की समीक्षा के दौरान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि “निरस्त किए गए 3.58 लाख से अधिक पट्टे आदिवासियों को दिए जाएंगे। अधिकारी माइडंसेट बना लें, गरीब के अधिकारों को मैं छिनने नहीं दूंगा। काम में थोड़ी भी लापरवाही की तो सख्त कार्रवाई होगी।” मुख्यमंत्री ने कहा कि प्रदेश में बड़ी संख्या में आदिवासियों/वननिवासियों के वनाधिकार दावों को निरस्त किया जाना दर्शाता है कि अधिकारियों ने इस काम को गंभीरता से लिया ही नहीं। उन्होंने आगे कहा था कि, “आदिवासी/वननिवासी समुदाय ऐसा वर्ग है, जो अपनी बात ढ़ंग से रख भी नहीं पाता। ऐसे में उनसे साक्ष्य मांगना तथा उसके आधार पर पट्टों को निरस्त करना नितांत अनुचित है। सभी कलेक्टर एवं डीएफओ सभी प्रकरणों का पुनरीक्षण करें एवं एक सप्ताह में रिपोर्ट दें। वनवासियों को पट्टा देना ही है।” परंतु, शिवराज सिंह चौहान के आश्वासन के बावजूद भी वन विभाग, वनाश्रितों को लगातार प्रताड़ित कर जंगलों से बेदखल कर रहा है। 

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, बीते 22 जुलाई, 2020 को अनुपपुर जिले के पुष्पराजगढ़ तहसील के ग्राम बेंदी के डूमर टोला में बैगा आदिवासी समुदाय के लगभग 50 परिवारों की 103 एकड़ खेती की जमीन पर वन विभाग ने कब्जा कर लिया और खेतों में लगी धान की तैयार फसल को नष्ट कर दिया। इसके पहले 11 जुलाई, 2020 को रीवा जिले की गुढ़ तहसील के ग्राम हरदी में वन विभाग ने आदिवासियों-वनवासियों के लगभग 100 मकान बिना किसी सूचना के तोड़ दिए। वहीं 27 जून, 2020 को सिंगरौली जिले के बंधा गांव में आदिवासियों के घरों पर वन विभाग ने बुल्डोज़र चला दिया। होशंगाबाद जिले में भी वनों से सटे वनग्राम डांगपुरा, खकरापुरा, मानागांव समेत अनेक गांवों में वन कर्मियों द्वारा ज़बरदस्ती लोगों को हटाया जा रहा है, जिसके विरोध में आदिवासियों ने 6 अक्टूबर, 2020 को रैली निकालकर राज्यपाल के नाम ज्ञापन सौंपा था। वहीं बैतूल जिले में भी 32 गांवों के हजारों आदिवासियों को बेदखल करने की कोशिश हो रही है।

वन अधिकार अधिनियम, 2006 के मध्यप्रदेश में लागू होने से लेकर आज तक प्रदेश में विकासखंड एवं जिला स्तर की समितियों द्वारा 95 प्रतिशत से अधिक दावों को तीन पीढ़ियों के कब्जे के प्रमाण उपलब्ध नहीं होने के बहाने कहकर खारिज किया जा चुका है। जबकि अधिनियम की धारा 2(ण) एवं धारा 4(3) में तीन पीढ़ियों के कब्जे के प्रमाण उपलब्ध करवाने का कोई उल्लेख नही है बल्कि 13 दिसंबर, 2005 तक आदिवासियों वनवासियों द्वारा संबंधित भूमि पर काबिज रहने का उल्लेख है। ब्लाॅक, तहसील और जिला स्तर के राजस्व अधिकारी तथा वन अधिकारी ग्राम सभा की भूमिका को भी नजरअंदाज कर रहे हैं। उसी क्षेत्र में निवास करने से संबंधित शासकीय रिकॉर्ड में उपलब्ध अभिलेख एवं दस्तावेजों का विवरण पंचायत, ब्लॉक एवं जिला स्तरीय वनाधिकार समितियों को उपलब्ध नही करवाया जा रहा है। जानकारों के अनुसार, ग्रामसभा जिस दावे का अनुमोदन करती है उसे विकासखंड और जिला स्तरीय समितियां वन विभाग और राजस्व विभाग के बीच विवादित मामला बताकर अमान्य कर देती हैं। जबकि वनाधिकार कानून 2006 के खंड 13 के तहत 2005 से पहले संबंधित भूमि पर काबिज होने की दंड रसीद या भूमि से संबंधित अन्य दस्तावेज अथवा नियम 13 (झ) के तहत ग्राम के बुजुर्ग के कथन को ग्रामसभा के सदस्य एक नोडल (विकासखण्ड) अधिकारी की उपस्थिति में कब्ज़े के प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। विकासखंड स्तरीय समिति द्वारा ग्रामसभा के दावों को खारिज किया जाना एक तरह से ग्रामसभा के अधिकारों का उल्लंघन हैं। दूसरा, वन अधिकार कानून 2006 की धारा 3(1)ज के अनुसार वनग्रामों को राजस्व ग्राम का दर्जा दिया जाना था।

10 अगस्त 2020 को भारत सरकार के जनजातीय कार्य मंत्री अर्जुन मुंडा व वन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर द्वारा अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के संयुक्त महामंत्री विष्णुकांत एवं गिरीश कुबेर की उपस्थिति में जनजातियों के हितों के संवर्धन के लिए बैठक आयोजित की गई। इस बैठक में अर्जुन मुंडा ने स्वीकार किया कि सामुदायिक संसाधनों के वनाधिकार को अब तक मात्र 8 से 10 प्रतिशत मामलों में मान्यता दी गयी है। उसे निश्चित काल अवधि में मिशन मोड से 100 प्रतिशत करना सुनिश्चित किया जाए। यहां यह भी जानना जरूरी हैं कि जनजातीय मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वन भूमि पर फ़रवरी 2021 के अंत तक देश भर में कुल 20 लाख से ज़्यादा दावे (20,01,919), जिसमें दोनों व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार शामिल हैं, खारिज कर दिए गए थे. इतने ही दावे स्वीकार भी किए गए हैं. यह आंकड़ा कुल दावों का लगभग 45% है, जबकि 4.61 लाख दावे लंबित हैं। 

वनाधिकार कानून की बात करें तो खास है कि देश को आजादी मिलने के 60 साल बाद देश की संसद ने वनाश्रितों के साथ ऐतिहासिक अन्याय होना स्वीकार किया और 2006 में वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को मान्यता देने के लिए अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 बनाया। यह केवल वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को ही मान्यता देने का नहीं, बल्कि देश के जंगलों एवं पर्यावरण को बचाने में वनाश्रित समुदाय के योगदान को भी मान्यता देने वाला कानून है। यह कानून, 1927 के औपनिवेशिक युग के भारतीय वन अधिनियम के असंतुलन को ठीक करने के लिए लाया गया। वन अधिकार अधिनियम, 2006 पहला और एकमात्र कानून है जो भूमि और खेती पर महिलाओं के स्वतंत्र अधिकारों को मान्यता देता है। इस कानून में जंगलों में रहने वाले आदिवासी समूहों और अन्य वननिवासियों को संरक्षण देते हुए उनके पारंपरिक भूमियों पर अधिकार देने का प्रावधान है। सामुदायिक पट्टे का भी प्रावधान है, जिसके अनुसार ग्राम के जंगल और जमीन पर स्थानीय ग्रामसभा का ही अधिकार होगा। आदिवासी लोगों को कुछ निश्चित दस्तावेज दिखाकर जमीनों पर अपना दावा जताने के बाद, अधिकारी द्वारा इन दस्तावेजों के आधार पर आदिवासियों और वननिवासियों के दावों की जांच कर वनाधिकार पट्टा दिया जाता है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि वनाधिकार कानून 2006 बनने के डेढ़ दशक बाद भी पात्र होने के बावजूद देश में बड़ी संख्या में आदिवासियों एवं परंपरागत वननिवासियों के दावे को मान्य नहीं किया जा सका है। उल्टे वन विभाग के अधिकारियों द्वारा आदिवासियों/परंपरागत वननिवासियों के विरुद्ध अनैतिक कार्यवाहियां की गईं, उनके घर जलाए गए, उनके साथ मारपीट की गई और उनके विरुद्ध प्रकरण भी दर्ज किए गए हैं। 

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