जलवायु संकट से निपटने में आदिवासी-मूलनिवासी समुदायों की भूमिका

Written by Navnish Kumar | Published on: August 29, 2020
आदिवासी हैं तो जंगल हैं। वन विभाग न जंगल लगा सकता है और न जंगल बचा सकता है। आदिवासी मूलनिवासी समुदायों का सदियों से जंगल से तालमेल है। परस्पर सह-अस्तित्व का रिश्ता है। जंगल की रक्षा की बुनियादी और वैज्ञानिक समझ है। पीढ़ी दर पीढ़ी इस समझ व ज्ञान का विस्तार हो रहा है। इन्हें जंगल से अलग करके पर्यावरणीय न्याय की कल्पना करना भी बेमानी है। वैसे भी (अंग्रेज) सरकार और उसके द्वारा बनाया गया वन विभाग 150 साल पहले ही अस्तित्व में आया है। यही नहीं, वन विभाग की तो स्थापना ही जंगल काटने और राजस्व बढ़ाने के लिए हुई थी व है। जबकि आदिवासी समाज न सिर्फ जंगल बचाने का बुनियादी ज्ञान और सोच रखता है बल्कि इसके लिए लड़ता भी है। इतिहास है, भारत ही नहीं दुनिया भर में आदिवासियों ने ही जंगल बचाने की लड़ाई को लड़ा है। जीता है। आगे भी लड़ेंगे और जीतेंगे।



जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएन) की यूथ एडवाइजरी कमेटी सदस्य अर्चना सोरेंग से आदिवासी व वननिवासी समुदाय से संवाद का कुछ यही लब्बोलुआब है। अखिल भारतीय राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी यूनियन, सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस और वसुंधरा के नेतृत्व में वेबिनार के माध्यम से आदिवासी समुदाय के लोगों ने जंगल के संरक्षण और पर्यावरण न्याय पर बात रखी बल्कि वनाधिकार कानून के लागू करने को लेकर, समुदायों को पेश आ रही दिक्कतों को भी साझा किया। यूएन यूथ एडवाइजरी कमेटी सदस्य अर्चना सोरेंग ने समुदाय के जंगल से परस्पर सह अस्तित्व के रिश्ते, जलवायु संकट से निपटने के समाधान और वनाधिकार को लेकर चिंताओं को दुनिया के सबसे बड़े मंच यूएन की हाई पावर कमेटी के समक्ष रखने का भरोसा दिलाया। वेबिनार में समुदाय के लोगों ने कुछ इस तरह बातें रखी हैं। मसलन...
 
संयुक्त राष्ट्र की यूथ एडवाइजरी कमेटी सदस्य अर्चना सोरेंग खुद शुरुआत करते हुए कहती हैं कि पोस्ट कोविड की स्थितियों के दृष्टिगत यूएन का उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण (ग्रीनर इकोनॉमी और ग्रीनर लाइफ) को बढ़ावा देना है। वन आधारित जीविकोपार्जन तथा प्रदूषण कम करने को रिनिवेबल एनर्जी को बढ़ावा देने और उसी आधार पर पर्यावरण हितैषी (आर्थिक) नीतियां तैयार करते हुए सभी के लिए पर्यावरणीय न्याय सुनिश्चित करना है। उन्होंने कहा- हमारे (भारत के) पास परंपरागत ज्ञान का अकूत भंडार है जो बुजुर्गों से युवाओं को मिला है। जल, जंगल, जमीन बचाने को आदिवासी समुदायों का यही परंपरागत ज्ञान और पर्यावरणीय संरक्षण के पारंपरिक तौर-तरीके, जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने में भी कारगर हैं। 

युवा वनाधिकार कार्यकर्ता आमिर हमजा ने वन, वन्य जीवों और वनाश्रित समुदाय के परस्पर रिश्ते और पारंपरिक जानकारियों (ज्ञान) के आधार पर जैव विविधता और पर्यावरण के संरक्षण पर प्रकाश डाला। हमजा पशुपालन से जुड़े वन गुर्जर समुदाय से जुड़े हैं। वह बताते हैं कि वह लैंटाना घास औऱ कैंजू पापड़ी आदि जो जंगली जानवरों और जंगल दोनों के लिए खतरनाक हैं, को खत्म करते हैं। हमजा बताते हैं कि कैंजू पापड़ी से जंगल हरा भरा दिखता है लेकिन यह पर्यावरण के लिए खतरनाक है। मसलन इसे न जानवर खाते हैं और न ही इनके नीचे घास उग पाता है। यही नहीं, हमजा कहते हैं कि उल्टे पशुओं के गोबर से जंगल को लाभ होता हैं। वह कहते हैं कि पर्यावरण संरक्षण समुदाय के जरिये ही सम्भव है। वनाश्रित समुदाय हैं तो जंगल भी सुरक्षित हैं। 

मुम्बई ऐरे फारेस्ट से जुड़ी मनीषा कहती हैं कि आदिवासी प्रकृति को भगवान मानते हैं। इसी से जंगल में रहते हुए जंगल को बचाते हैं जबकि इसके उलट सरकार लोगों को हटाने के लिए जंगल हटाना चाहती हैं। वनाधिकार कार्यकर्ता कृष्णा गोंड वनाधिकार कानून के लागू न हो पाने को आदिवासी व जंगल दोनों के लिए समस्या के तौर पर देखती हैं। 

क्रांतिकारी वनाधिकार कार्यकर्ता सुकालो पीढ़ी दर पीढ़ी पारंपरिक ज्ञान के विस्तार (हस्तांतरण) पर प्रकाश डालते हुए कहती हैं कि यही ज्ञान जंगल को संजोए हुए है। सुकालो एकजुट संघर्ष के बल पर वन भूमि से बड़ी-बड़ी कंपनियों और वन विभाग को भगाने का आह्वान करती हैं। कोल आदिवासियों के बीच काम कर रहीं रानी वनाधिकार कानून को लागू न होने देने की दिक्कतों को गिनाती हैं।

सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस की सचिव तीस्ता सीतलवाड़ कहती हैं कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने को पर्यावरण संरक्षण जरूरी है जो वन समुदायों की भागेदारी के बिना संभव नहीं है। तीस्ता ने नए वाटरवेज जैसे कानूनों तथा पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) में प्रस्तावित बदलाव को ध्यान में रखते हुए, यूएन के लिए अपना मैनिफेस्टो तैयार करने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज जल, जंगल जमीन (प्रकृति) को न सिर्फ कुदरत मानता है बल्कि उनकी, जमीन को धरती माता मानने वाली जीवन शैली में भी यह सब समाहित हैं। 

वसुंधरा के निदेशक गिरि राव कहते हैं कि जो लोग जंगल बचा रहे वो शरणार्थियों की जिंदगी जी रहे हैं। उन्होंने कहा कि वनाधिकार कानून वनाश्रितों के अधिकारों को मान्यता देता है लेकिन नौकरशाह कहते हैं कि वन गुर्जर बायो डायवर्सिटी को नष्ट कर रहे हैं लेकिन हैरत की बात है कि टूरिस्ट बायो डायवर्सिटी को नष्ट नहीं करते हैं। 

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी कहते हैं कि समाज (आदिवासी समुदाय) और जंगल का हज़ारों साल का नैसर्गिक (प्राकृतिक) संबंध है। जबकि सरकार (ब्रिटिश), व्यवस्था (वन विभाग) सब बाद में आएं हैं। महज डेढ़ सौ साल पुराने हैं। दूसरा यह समझना जरूरी हैं कि वन विभाग की स्थापना ही जंगल काटने और राजस्व बढ़ाने के लिए हुई थी। तो वह जंगल कैसे बचाएगा? इसलिए वन समुदाय सुरक्षित नही हैं तो जंगल भी सुरक्षित नहीं हैं। 

यही नहीं, चौधरी कहते हैं कि भारत के संविधान में हैं कि जल, जंगल व जमीन पर पहला हक समाज का है। सरकार बेच नहीं सकती हैं जो बेच रही हैं। यूएन के ह्यूमन राइट (मानवाधिकार) चार्टर में भी बाकायदा इसका जिक्र है। इस वेबीनार का संचालन अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की उप महासचिव रोमा मलिक ने किया।

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