बिहार के कैमूर आदिवासियों ने अपने हक-हकूक को लेकर आवाज क्या उठाई कि बिहार का पुलिस प्रशासन दमन पर उतर आया। आदिवासी समुदाय सालों से अपने वनाधिकार आदि परंपरागत और संवैधानिक अधिकारों तथा आजीविका (वन उपज आदि) की मांग करता आ रहा है, लेकिन कही कोई सुनवाई नहीं हो रहीं है। उल्टे टाइगर रिजर्व बनाने आदि की आड़ में इन्हें उजाड़ने (विस्थापन) की कोशिश जरूर की जा रही हैं। स्थानीय जनप्रतिनिधि आदि भी इस वंचित समुदाय की मांगों को लेकर मौन हैं। इसी सब से सभी जगह से निराश होकर समुदाय ने अपनी आवाज हुक्मरानों तक पहुंचाने को, प्रशासन का छोटे से बड़ा तक हर दरवाजा खटखटाया। पर कोई सुनवाई नहीं हुई। इस पर पर्चा निकाला और 10 व 11 सितंबर को शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन का ऐलान किया। धरना प्रदर्शन हुआ लेकिन सुनवाई नहीं हो सकी। कोई अधिकारी मिलने तक नहीं आया।
व्यवस्था की यह बेरुखी स्वाभिमानी आदिवासी समाज को अखरनी ही थी। लिहाज़ा अपनी आवाज तेज करने को वन विभाग का सांकेतिक घेराव किया तो बदले में मिली बिहार पुलिस की बर्बरता, लाठियां और गोली। पुलिस की गोली में तीन लोग घायल हो गए। आधा दर्जन से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारियां कर ली गईं। हक हकूक को शांतिपूर्ण धरने प्रदर्शन पर कोविड काल में पुलिसिया दमन को लेकर देशभर के वनाधिकार, सामाजिक और मानवाधिकार संगठनों ने भी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, गिरफ्तार लोगों को रिहा करने और घायलों को समुचित इलाज के साथ आदिवासी समुदाय को उनके हक हकूक को बिहार सरकार से आगे आने की अपील की है।
दरअसल मामला सड़ गल चुकी व्यवस्था का है। तो उससे कहीं ज्यादा चुने हुए जनप्रतिनिधियों की खामोशी का है। कैमूर के आदिवासियों का दर्द भी यही है कि आखिर आजादी के 73 साल बाद भी सत्ता व्यवस्था गरीबी-भुखमरी, महंगाई और विस्थापन व गोली-गाली से ज्यादा कुछ नहीं दे पाईं तो वो ऐसे जनप्रतिनिधियों को आखिर क्यूं चुने। जब इन्हें (चुने हुए जनप्रतिनिधियों को) उनकी पीड़ा का अहसास भर तक नहीं है। यही नहीं, सत्ता व्यवस्था की हिकारत से बिहार का यह आदिवासी समाज शासन व्यवस्था में इस कदर धैर्य खो बैठा कि पूरे समाज ने अधौरा में एकजुट हो, एक-स्वर के साथ चुनाव बहिष्कार करने और हक और अधिकार को निर्णायक लड़ाई का ऐलान कर डाला हैं। कहा चुनाव का ही बहिष्कार कर देंगे तो कम से कम ऐसे (असंवेदनशील) लोगों को चुनने का अफसोस तो नहीं होगा।
कैमूर व रोहताश बिहार का एक पिछड़ा आदिवासी इलाका हैं। झारखंड बनने के बाद बिहार में यही इलाका रह गया हैं जहां आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं। हालांकि झारखंड बनने के बाद भी इन लोगों के जीवन में कोई बेहतरी का अहसास नहीं जग सका है बल्कि समस्याएं बढ़ गई हैं। बिहार अब इन्हें वोट की उस ताकत के रूप में भी शायद नहीं देख रहा है जिसके खौफ से लोकतंत्र में सत्ताएं डरा करती हैं। शायद यही कारण भी है कि कैमूर पहाड़ और रोहतास के आदिवासियों को कानून आने के बावजूद वनाधिकार तक नहीं मिल सके हैं। उल्टे, कैमूर क्षेत्र को टाइगर रिजर्व घोषित करने की आड़ में आदिवासी समुदाय को एक बार फिर से उजड़ने (बड़े विस्थापन) का डर सता रहा है। सताए भी क्यों नहीं, इनके अधिकार तो दूर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के बुनियादी मुद्दों तक पर निजाम (सत्ता) और दिन-रात गरीबों की ताबेदारी का दावा करते नहीं थकने वाले जनप्रतिनिधि तक बड़ा सा मौन ताने हैं।
इसी को भांप, कैमूर (आदिवासी समुदाय) ने समय रहते जाग जाने का आह्वान किया है। कैमूर मुक्ति मोर्चा पदाधिकारियों का कहना है कि भले विधानसभा चुनाव अभी घोषित न हुए हो लेकिन चर्चाएं जोर पकड़ने लगी हैं। चुनावी राजनेता, जनता को ठगने और छलने को एक बार फिर अपने अपने क्षेत्र में आने-जाने लगे हैं। अपने-अपने ढ़ंग से जनता को गुमराह करने में लगे हैं। अब भले ये आज खुद को जनता का सबसे बड़ा हितैषी और रखवाला बताते हुए, लोगों को लुभाने में लग गए हैं। तरह-तरह की बातें कर रहे हैं। कोई जनता में खैरात बांट रहा है, तो कोई जातीय और क्षेत्रीय अधार पर जनता को गुमराह करने व बांटने में लगा है। लेकिन कोई भी जनता की बुनियादी समस्या उठाने और उसे हल करने की बात आज भी नहीं कर रहा हैं।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण वह खुद यानि कैमूर व रोहतास जिले का पठारी भाग है। जहां सबको पता है कि जनता को वन सेंचुरी तथा बाघ अभ्यारण्य (टाइगर रिजर्व) के नाम पर जल-जंगल-ज़मीन से वंचित करने की तैयारी की जा रही हैं। वहीं, प्लांटेशन के नाम पर लोगों को उनके खेतों व घरों से भी उजाड़ा जा रहा है। उनके परंपरागत औजारों टांगी आदि को जंगल में ले जाने से रोका जा रहा है। टांगी छीन ली जा रही है। सूखी लकड़ी, महुआ, पत्ता, जंगी आदि तोड़ने तथा उसके खरीद बिक्री पर रोक लगाया जा रहा है। साथ ही आम जनता को कोविड में फर्जी मुकदमें और नोटिस देकर ड़राया धमकाया जा रहा है।
इस तरह उनके परंपरागत और संवैधानिक अधिकार को छीना जा रहा है। आजीविका से वंचित किया जा रहा है, लेकिन इस पर कोई भी चुनावी नेता नहीं बोल रहा है। जिसके चलते कैमूर रोहतास पहाड़ की जनता तबाह होने वाली है। इसे छोड़कर यहां चुनाव का और कोई मुद्दा हो ही नही सकता है। लेकिन चुनावी राजनेता इस मुद्दे को उठाना तो दूर, इस पर चर्चा तक नहीं करना चाह रहे हैं। मतलब साफ है कि जनता के दुःख-तकलीफ से उन्हें चुनावी बेला में भी कोई मतलब नजर नहीं आ रहा है।
आज वन विभाग बाघ अभ्यारण्य के नाम पर पूरे पहाड़ की जनता को विस्थापित करने की तैयारी कर रहा है, ऐसे में चुनाव बहिष्कार के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं हैं। कम से कम उन्हें ऐसे असंवेदनशील जनप्रतिनिधि चुनने का अफसोस तो नहीं होगा।
दूसरा, इस निरंकुश और बहरी सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने तथा अपनी ताकत का एहसास कराने के लिए ये कदम उठाना बहुत जरूरी है। यही समय है कि ऐसे नेताओं और सरकार से पूछा जाए कि उन्हें क्यों चुना जाए? पिछले 72 सालों से जनता उन्हें चुनती आ रही है, इसके बदले में उन्हें क्या मिला? सिवाय मंहगाई, बेरोजगारी, विस्थापन और भुखमरी के। और आज कोरोना की आड़ में पूरे देश को पूंजीपतियों को बेच रहे हैं।
यह हैं प्रमुख मांगे----
शासन प्रशासन समुदाय की मांगों पर गंभीरता से विचार करें और वनाधिकार कानून के तहत उनके परंपरागत व संविधानिक (कानूनी) हक हकूक देने का काम करे ताकि यह वंचित तबके भी देश के साथ कोरोना जैसी महामारी से लड़ सके। प्रमुख मांगो में कैमूर पहाड़ का प्रशासनिक पुनर्गठन करते हुए पांचवीं अनुसूची क्षेत्र घोषित करने, छोटा नागपुर कास्तकारी अधिनियम को लागू करने, पेशा कानून को तत्काल प्रभाव से लागू करने, कैमूर पहाड़ वन जीव अभ्यारण्य और बाघ अभ्यारण्य को तत्काल खत्म करने, वनाधिकार कानून 2006 को तत्काल प्रभाव से लागू करने शामिल हैं।
समाजिक व मानवाधिकार संगठन भी बरसे-----
कैमूर (बिहार) के अधौरा प्रखंड में आदिवासियों पर पुलिस द्वारा गोली चलाने को लेकर देश के सामाजिक और मानवाधिकार संगठनों ने कड़ी प्रतिक्रिया जताई हैं। कहा हैं कि कोविड के समय में आदिवासियों की समस्याओं को सुनने और समाधान करने की बजाय पुलिस का लाठीयां व गोली चलाना, कमजोर तबकों के प्रति उसके निर्मम रवैये को ही दर्शाता हैं।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय उप महासचिव रोमा ने फायरिंग की कड़ी निंदा करते हुए कहा कि 6 माह से भी ज्यादा से आदिवासी समाज अपनी वनाधिकार की मांगों आदि को पुलिस प्रशासन के सामने उठाता आ रहा हैं लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं है। कानून को बने 14 वर्ष होने को आये लेकिन बिहार सरकार ने अभी तक इस कानून को धरातल पर लागू नही किया हैं। थककर समाज ने मांगो को लेकर परचा भी निकाला और शांतिपूर्ण आंदोलन का ऐलान किया लेकिन बिहार का प्रशासन नहीं चेता और आदिवासियों के हक हकूकों की लगातार अनदेखी करता रहा हैं। अब जब आदिवासियों ने गूंगी बहरी सरकार को जगाने को वन विभाग का घेराव कर सांकेतिक बंदी करनी चाही तो पुलिस प्रशासन दमन पर उतर आया। सरई नार, बरकट्टा और चफना के तीन लोग घायल है जबकि कैमूर मुक्ति मोर्चा के आधा दर्जन से ज्यादा लोगो को गिरफ्तार किया गया हैं। दूसरा मोर्चा कार्यालय डॉ विनियन आश्रम से पुलिस ताले तोड़कर मोटरसाइकिल आदि भी निकाल ले गई हैं।
रोमा ने कहा कि कोविड संकट की आड़ में प्रशासन लगातार गैर कानूनी तरीके से आदिवासियों की बेदखली की कोशिशों में लगा है। यह हाल तब है जब बेदखली पर सुप्रीम कोर्ट का स्टे ऑर्डर भी हैं। कहा कोविड की आड़ में गरीब आदिवासी को हक़ न देना अन्याय हैं। क्रूरता हैं। इसकी वह निंदा करती हैं।
प्रमुख मानवाधिकार संगठन सेंटर फॉर जस्टिस एंड पीस ने भी कैमूर गोली कांड की निंदा की है। संगठन सचिव तीस्ता सीतलवाड़ ने कहा कि गरीब दलित आदिवासी समाज के हक मांगने पर गोली चलाना क्रूरतापूर्ण कार्रवाई हैं व संविधान का उल्लंघन है। वह इसकी पुरजोर निंदा करती हैं। उधर, बुंदेलखंड दलित आदिवासी अधिकार अभियान ने भी गोली कांड की भर्त्सना की हैं। कैमूर क्षेत्र किसान महिला मज़दूर संगर्ष समिति सोनभद्र उप्र की अध्यक्ष सोकालो गोंड ने भी इस गोली कांड की घोर निंदा की है। थारू आदिवासी महिला किसान मजदूर मंच की निवादा राणा ने भी कहा कि आदिवासियो को भी जीने का हक़ है इस तरह से सरकार दमन ना करें।
व्यवस्था की यह बेरुखी स्वाभिमानी आदिवासी समाज को अखरनी ही थी। लिहाज़ा अपनी आवाज तेज करने को वन विभाग का सांकेतिक घेराव किया तो बदले में मिली बिहार पुलिस की बर्बरता, लाठियां और गोली। पुलिस की गोली में तीन लोग घायल हो गए। आधा दर्जन से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारियां कर ली गईं। हक हकूक को शांतिपूर्ण धरने प्रदर्शन पर कोविड काल में पुलिसिया दमन को लेकर देशभर के वनाधिकार, सामाजिक और मानवाधिकार संगठनों ने भी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, गिरफ्तार लोगों को रिहा करने और घायलों को समुचित इलाज के साथ आदिवासी समुदाय को उनके हक हकूक को बिहार सरकार से आगे आने की अपील की है।
दरअसल मामला सड़ गल चुकी व्यवस्था का है। तो उससे कहीं ज्यादा चुने हुए जनप्रतिनिधियों की खामोशी का है। कैमूर के आदिवासियों का दर्द भी यही है कि आखिर आजादी के 73 साल बाद भी सत्ता व्यवस्था गरीबी-भुखमरी, महंगाई और विस्थापन व गोली-गाली से ज्यादा कुछ नहीं दे पाईं तो वो ऐसे जनप्रतिनिधियों को आखिर क्यूं चुने। जब इन्हें (चुने हुए जनप्रतिनिधियों को) उनकी पीड़ा का अहसास भर तक नहीं है। यही नहीं, सत्ता व्यवस्था की हिकारत से बिहार का यह आदिवासी समाज शासन व्यवस्था में इस कदर धैर्य खो बैठा कि पूरे समाज ने अधौरा में एकजुट हो, एक-स्वर के साथ चुनाव बहिष्कार करने और हक और अधिकार को निर्णायक लड़ाई का ऐलान कर डाला हैं। कहा चुनाव का ही बहिष्कार कर देंगे तो कम से कम ऐसे (असंवेदनशील) लोगों को चुनने का अफसोस तो नहीं होगा।
कैमूर व रोहताश बिहार का एक पिछड़ा आदिवासी इलाका हैं। झारखंड बनने के बाद बिहार में यही इलाका रह गया हैं जहां आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं। हालांकि झारखंड बनने के बाद भी इन लोगों के जीवन में कोई बेहतरी का अहसास नहीं जग सका है बल्कि समस्याएं बढ़ गई हैं। बिहार अब इन्हें वोट की उस ताकत के रूप में भी शायद नहीं देख रहा है जिसके खौफ से लोकतंत्र में सत्ताएं डरा करती हैं। शायद यही कारण भी है कि कैमूर पहाड़ और रोहतास के आदिवासियों को कानून आने के बावजूद वनाधिकार तक नहीं मिल सके हैं। उल्टे, कैमूर क्षेत्र को टाइगर रिजर्व घोषित करने की आड़ में आदिवासी समुदाय को एक बार फिर से उजड़ने (बड़े विस्थापन) का डर सता रहा है। सताए भी क्यों नहीं, इनके अधिकार तो दूर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के बुनियादी मुद्दों तक पर निजाम (सत्ता) और दिन-रात गरीबों की ताबेदारी का दावा करते नहीं थकने वाले जनप्रतिनिधि तक बड़ा सा मौन ताने हैं।
इसी को भांप, कैमूर (आदिवासी समुदाय) ने समय रहते जाग जाने का आह्वान किया है। कैमूर मुक्ति मोर्चा पदाधिकारियों का कहना है कि भले विधानसभा चुनाव अभी घोषित न हुए हो लेकिन चर्चाएं जोर पकड़ने लगी हैं। चुनावी राजनेता, जनता को ठगने और छलने को एक बार फिर अपने अपने क्षेत्र में आने-जाने लगे हैं। अपने-अपने ढ़ंग से जनता को गुमराह करने में लगे हैं। अब भले ये आज खुद को जनता का सबसे बड़ा हितैषी और रखवाला बताते हुए, लोगों को लुभाने में लग गए हैं। तरह-तरह की बातें कर रहे हैं। कोई जनता में खैरात बांट रहा है, तो कोई जातीय और क्षेत्रीय अधार पर जनता को गुमराह करने व बांटने में लगा है। लेकिन कोई भी जनता की बुनियादी समस्या उठाने और उसे हल करने की बात आज भी नहीं कर रहा हैं।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण वह खुद यानि कैमूर व रोहतास जिले का पठारी भाग है। जहां सबको पता है कि जनता को वन सेंचुरी तथा बाघ अभ्यारण्य (टाइगर रिजर्व) के नाम पर जल-जंगल-ज़मीन से वंचित करने की तैयारी की जा रही हैं। वहीं, प्लांटेशन के नाम पर लोगों को उनके खेतों व घरों से भी उजाड़ा जा रहा है। उनके परंपरागत औजारों टांगी आदि को जंगल में ले जाने से रोका जा रहा है। टांगी छीन ली जा रही है। सूखी लकड़ी, महुआ, पत्ता, जंगी आदि तोड़ने तथा उसके खरीद बिक्री पर रोक लगाया जा रहा है। साथ ही आम जनता को कोविड में फर्जी मुकदमें और नोटिस देकर ड़राया धमकाया जा रहा है।
इस तरह उनके परंपरागत और संवैधानिक अधिकार को छीना जा रहा है। आजीविका से वंचित किया जा रहा है, लेकिन इस पर कोई भी चुनावी नेता नहीं बोल रहा है। जिसके चलते कैमूर रोहतास पहाड़ की जनता तबाह होने वाली है। इसे छोड़कर यहां चुनाव का और कोई मुद्दा हो ही नही सकता है। लेकिन चुनावी राजनेता इस मुद्दे को उठाना तो दूर, इस पर चर्चा तक नहीं करना चाह रहे हैं। मतलब साफ है कि जनता के दुःख-तकलीफ से उन्हें चुनावी बेला में भी कोई मतलब नजर नहीं आ रहा है।
आज वन विभाग बाघ अभ्यारण्य के नाम पर पूरे पहाड़ की जनता को विस्थापित करने की तैयारी कर रहा है, ऐसे में चुनाव बहिष्कार के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं हैं। कम से कम उन्हें ऐसे असंवेदनशील जनप्रतिनिधि चुनने का अफसोस तो नहीं होगा।
दूसरा, इस निरंकुश और बहरी सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने तथा अपनी ताकत का एहसास कराने के लिए ये कदम उठाना बहुत जरूरी है। यही समय है कि ऐसे नेताओं और सरकार से पूछा जाए कि उन्हें क्यों चुना जाए? पिछले 72 सालों से जनता उन्हें चुनती आ रही है, इसके बदले में उन्हें क्या मिला? सिवाय मंहगाई, बेरोजगारी, विस्थापन और भुखमरी के। और आज कोरोना की आड़ में पूरे देश को पूंजीपतियों को बेच रहे हैं।
यह हैं प्रमुख मांगे----
शासन प्रशासन समुदाय की मांगों पर गंभीरता से विचार करें और वनाधिकार कानून के तहत उनके परंपरागत व संविधानिक (कानूनी) हक हकूक देने का काम करे ताकि यह वंचित तबके भी देश के साथ कोरोना जैसी महामारी से लड़ सके। प्रमुख मांगो में कैमूर पहाड़ का प्रशासनिक पुनर्गठन करते हुए पांचवीं अनुसूची क्षेत्र घोषित करने, छोटा नागपुर कास्तकारी अधिनियम को लागू करने, पेशा कानून को तत्काल प्रभाव से लागू करने, कैमूर पहाड़ वन जीव अभ्यारण्य और बाघ अभ्यारण्य को तत्काल खत्म करने, वनाधिकार कानून 2006 को तत्काल प्रभाव से लागू करने शामिल हैं।
समाजिक व मानवाधिकार संगठन भी बरसे-----
कैमूर (बिहार) के अधौरा प्रखंड में आदिवासियों पर पुलिस द्वारा गोली चलाने को लेकर देश के सामाजिक और मानवाधिकार संगठनों ने कड़ी प्रतिक्रिया जताई हैं। कहा हैं कि कोविड के समय में आदिवासियों की समस्याओं को सुनने और समाधान करने की बजाय पुलिस का लाठीयां व गोली चलाना, कमजोर तबकों के प्रति उसके निर्मम रवैये को ही दर्शाता हैं।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय उप महासचिव रोमा ने फायरिंग की कड़ी निंदा करते हुए कहा कि 6 माह से भी ज्यादा से आदिवासी समाज अपनी वनाधिकार की मांगों आदि को पुलिस प्रशासन के सामने उठाता आ रहा हैं लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं है। कानून को बने 14 वर्ष होने को आये लेकिन बिहार सरकार ने अभी तक इस कानून को धरातल पर लागू नही किया हैं। थककर समाज ने मांगो को लेकर परचा भी निकाला और शांतिपूर्ण आंदोलन का ऐलान किया लेकिन बिहार का प्रशासन नहीं चेता और आदिवासियों के हक हकूकों की लगातार अनदेखी करता रहा हैं। अब जब आदिवासियों ने गूंगी बहरी सरकार को जगाने को वन विभाग का घेराव कर सांकेतिक बंदी करनी चाही तो पुलिस प्रशासन दमन पर उतर आया। सरई नार, बरकट्टा और चफना के तीन लोग घायल है जबकि कैमूर मुक्ति मोर्चा के आधा दर्जन से ज्यादा लोगो को गिरफ्तार किया गया हैं। दूसरा मोर्चा कार्यालय डॉ विनियन आश्रम से पुलिस ताले तोड़कर मोटरसाइकिल आदि भी निकाल ले गई हैं।
रोमा ने कहा कि कोविड संकट की आड़ में प्रशासन लगातार गैर कानूनी तरीके से आदिवासियों की बेदखली की कोशिशों में लगा है। यह हाल तब है जब बेदखली पर सुप्रीम कोर्ट का स्टे ऑर्डर भी हैं। कहा कोविड की आड़ में गरीब आदिवासी को हक़ न देना अन्याय हैं। क्रूरता हैं। इसकी वह निंदा करती हैं।
प्रमुख मानवाधिकार संगठन सेंटर फॉर जस्टिस एंड पीस ने भी कैमूर गोली कांड की निंदा की है। संगठन सचिव तीस्ता सीतलवाड़ ने कहा कि गरीब दलित आदिवासी समाज के हक मांगने पर गोली चलाना क्रूरतापूर्ण कार्रवाई हैं व संविधान का उल्लंघन है। वह इसकी पुरजोर निंदा करती हैं। उधर, बुंदेलखंड दलित आदिवासी अधिकार अभियान ने भी गोली कांड की भर्त्सना की हैं। कैमूर क्षेत्र किसान महिला मज़दूर संगर्ष समिति सोनभद्र उप्र की अध्यक्ष सोकालो गोंड ने भी इस गोली कांड की घोर निंदा की है। थारू आदिवासी महिला किसान मजदूर मंच की निवादा राणा ने भी कहा कि आदिवासियो को भी जीने का हक़ है इस तरह से सरकार दमन ना करें।