22 जुलाई को कुंबकोणम के बिशप जीवनंदम अमलनाथन ने जातिगत तनावों और धर्मप्रांत की इस मामले को सुलझाने में कथित असमर्थता का हवाला देते हुए वार्षिक रथ यात्रा का बहिष्कार किया।

फोटो साभार : क्रिश्चियनिटी टुडे (सांकेतिक तस्वीर)
तमिलनाडु के कुम्बकोणम धर्मप्रांत में कोट्टापलयम गांव के दलित कैथोलिकों ने 21 जुलाई को जिला कलेक्टर कार्यालय के पास भूख हड़ताल की। यह आरोप लगाया कि उन्हें “जातिवादी” गालियों और भेदभाव का सामना करना पड़ा है।
प्रदर्शनकारियों ने यह आरोप लगाया कि उन्हें तमिलनाडु के त्रिची शहर स्थित सेंट मैरी मैग्डलीन चर्च में एक त्योहार में शामिल होने से रोका गया। यह कुम्बकोणम धर्मप्रांत के अंतर्गत आता है।
"दलित" शब्द भारत की प्राचीन जाति व्यवस्था के अंतर्गत "अछूतों" को दर्शाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है यानी वे लोग जिन्हें अशुद्ध माना जाता था और इसी कारण परंपरागत रूप से समाज से अलग थलग कर दिया जाता था। हालांकि भारतीय संविधान ने 1949 में जातिगत भेदभाव को आधिकारिक रूप से समाप्त कर दिया था फिर भी सामाजिक सोच और परंपराओं में उनका प्रभाव आज भी दिखाई देता है। दलित पारंपरिक रूप से भारत के सबसे गरीब और वंचित समुदायों में से एक रहे हैं।
भारत की ईसाई आबादी का बड़ा हिस्सा दलितों और आदिवासियों से आता है। आदिवासी वे लोग हैं जिन्हें पारंपरिक जाति व्यवस्था से बाहर माना गया है और जो अक्सर दलितों से भी अधिक भेदभाव का शिकार हुए हैं।
उन्हें अक्सर उन कैथोलिकों से भी अनुचित व्यवहार का सामना करना पड़ता है जो 'उच्च जातियों' से आते हैं और यह भारत में सभी धर्मों के लोगों को प्रभावित करने वाली एक सांस्कृतिक वास्तविकता है।
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, 20 से ज्यादा दलित कैथोलिक परिवारों ने अपने घरों पर काले झंडे फहराए और 14 जुलाई से शुरू हुए चर्च के 12 दिनों के वार्षिक महोत्सव के आखिरी दिन का बहिष्कार किया। सोमवार को उनमें से एक समूह ने कलेक्ट्रेट के पास अनशन किया और साप्ताहिक जनसुनवाई बैठक के दौरान एक ज्ञापन सौंपा, जिसमें उन्होंने चर्च के प्रशासन और धार्मिक अनुष्ठानों में समान अधिकारों की मांग की।
रिपोर्ट के अनुसार, 22 जुलाई को कुंबकोणम के बिशप जीवनंदम अमलनाथन ने जातिगत तनावों और धर्मप्रांत की इस मामले को सुलझाने में कथित असमर्थता का हवाला देते हुए वार्षिक रथ यात्रा का बहिष्कार किया।
जब अधिकारी स्थानीय स्तर पर मध्यस्थता बैठक आयोजित करने की कोशिश कर रहे थे तो दलित प्रतिनिधियों ने जोर देकर कहा कि बैठक में या तो बिशप या किसी वरिष्ठ धर्मप्रांतीय अधिकारी का होना आवश्यक है।
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए दलित ईसाई मतदाता जे. दोस प्रकाश ने कहा, "यह केवल दलितों की बात नहीं है कि बैठक में बिशप या किसी वरिष्ठ धर्मप्रांतीय अधिकारी का होना जरूरी है। यह केवल दलितों और गैर-दलितों का विवाद नहीं है। चर्च प्रशासन भी भेदभाव का हिस्सा है।"
उन्होंने आगे कहा, "महोत्सव समिति पूरी तरह से गैर-दलितों के नियंत्रण में है। हमें सदस्यता शुल्क देने या योजना बनाने में हिस्सा लेने जैसे मूलभूत अधिकार तक से वंचित रखा जाता है। दशकों के बाद भी हमारी गलियों में एक छोटा सा रथ भी नहीं आता।"
अमलनाथन ने क्रक्स को बताया, "धर्मावलंबी हर साल पैरोकियल उत्सव मनाते हैं।"
बिशप ने कहा, "गिरजाघर के अंदर होने वाले विधि-संबंधी और सामुदायिक उत्सवों की जिम्मेदारी पैरिश पादरी की होती है। गिरजाघर के भीतर कोई भेदभाव नहीं होता। दलित लोग उद्घाटन और स्वागत समारोहों में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं, गायक मंडली में शामिल होते हैं, वे पाठक और संगीतकार होते हैं, प्रार्थनाएं करते हैं, दान इकट्ठा करते हैं और दूसरे काम भी करते हैं।"
हालांकि सार्वजनिक और बाहरी समारोहों में दलितों को भाग लेने की अनुमति गैर-दलित नहीं देते हैं। वे उन्हें रथ यात्रा में हिस्सा लेने की अनुमति तो देते हैं, लेकिन प्रशासन में शामिल नहीं करते और उनसे सदस्यता शुल्क भी नहीं लेते।
बिशप ने कहा, "हमने उन्हें बताया है कि यह सही नहीं है और उन्हें पैसे इकट्ठा करने चाहिए, सभी को शामिल करना चाहिए, इसे ठीक से दर्ज करना चाहिए और इसे सामान्य उद्देश्य के लिए खर्च किया जाना चाहिए।"
उन्होंने कहा, "वे इसके लिए तैयार नहीं हैं। मैंने उनसे अलग-अलग बातचीत करने की कोशिश की है। वे सख्त लगते हैं और अपनी परंपराओं को जारी रखना चाहते हैं। मैंने उन्हें कहा कि मैं इसे मंजूर नहीं करता। मैं उनकी समारोहों में शामिल होने को तैयार नहीं था। हम बातचीत की प्रक्रिया जारी रखेंगे ताकि उन्हें यह समझाया जा सके कि सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए।"
अमलनाथन ने क्रक्स से कहा, "यह मामला दलितों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में भी दायर किया गया है। हम कोर्ट को अपना जवाब देंगे। मैंने कहा है कि मैं सही के पक्ष में खड़ा रहूंगा। चर्च किसी भी प्रकार के भेदभाव का समर्थन नहीं करता। सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। हालांकि, हम इसे लागू करने में सक्षम नहीं हैं, क्योंकि यह चर्च के बाहर का मामला है।"
सीबीसीआई कार्यालय में दलितों और पिछड़े वर्गों के पूर्व राष्ट्रीय सचिव रहे फादर ज़ेड. देवसगया राज ने कहा कि भेदभाव और 'छुआछूत' की प्रथा भारत में धर्मनिरपेक्ष समाज से ईसाई धर्म में भी आई है, जिसकी जड़ें हिंदू धर्म में हैं।
उन्होंने क्रक्स को बताया, "अछूत प्रथा को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 द्वारा कानूनन समाप्त किया जा चुका है। लेकिन यह कई पूजा स्थलों में जारी है। मद्रास उच्च न्यायालय का एक निर्णय आया है कि विवादित हिंदू रथ यात्रा परंबलूर जिले के वेप्पंथट्टई गांव में दलितों की गलियों से होकर गुजरनी चाहिए, जो मारीअम्मन मंदिर के त्योहार का हिस्सा है।"
पादरी ने कहा, "तमिलनाडु बिशप काउंसिल के 1990 के दस बिंदु के कार्यक्रम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पूजा स्थलों और कब्रिस्तान में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। बाद में यह बात 2004 में तमिलनाडु बिशप काउंसिल की दलितों के समग्र विकास योजना और 2016 में सीबीसीआई की दलित सशक्तिकरण नीति द्वारा भी दोहराई गई।"
राज ने क्रक्स को बताया, "भेदभाव और छुआछूत केवल ईसाई भावना के खिलाफ ही नहीं हैं, बल्कि यह भारतीय कानून के भी खिलाफ है। कभी-कभी जाति के लोगों की इतनी ताकत होती है कि चर्च के नेता भी निर्णय नहीं ले पाते, क्योंकि चर्च का नेतृत्व ज्यादातर जाति के लोगों के हाथ में होता है,"
पादरी ने कहा, “अब तक, दलित ईसाइयों ने चर्च के नेताओं से भेदभाव खत्म करने की गुहार लगाई है, लेकिन अब वे न्याय की उम्मीद में अदालत का सहारा लेने लगे हैं।”
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प्रदर्शनकारियों ने यह आरोप लगाया कि उन्हें तमिलनाडु के त्रिची शहर स्थित सेंट मैरी मैग्डलीन चर्च में एक त्योहार में शामिल होने से रोका गया। यह कुम्बकोणम धर्मप्रांत के अंतर्गत आता है।
"दलित" शब्द भारत की प्राचीन जाति व्यवस्था के अंतर्गत "अछूतों" को दर्शाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है यानी वे लोग जिन्हें अशुद्ध माना जाता था और इसी कारण परंपरागत रूप से समाज से अलग थलग कर दिया जाता था। हालांकि भारतीय संविधान ने 1949 में जातिगत भेदभाव को आधिकारिक रूप से समाप्त कर दिया था फिर भी सामाजिक सोच और परंपराओं में उनका प्रभाव आज भी दिखाई देता है। दलित पारंपरिक रूप से भारत के सबसे गरीब और वंचित समुदायों में से एक रहे हैं।
भारत की ईसाई आबादी का बड़ा हिस्सा दलितों और आदिवासियों से आता है। आदिवासी वे लोग हैं जिन्हें पारंपरिक जाति व्यवस्था से बाहर माना गया है और जो अक्सर दलितों से भी अधिक भेदभाव का शिकार हुए हैं।
उन्हें अक्सर उन कैथोलिकों से भी अनुचित व्यवहार का सामना करना पड़ता है जो 'उच्च जातियों' से आते हैं और यह भारत में सभी धर्मों के लोगों को प्रभावित करने वाली एक सांस्कृतिक वास्तविकता है।
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, 20 से ज्यादा दलित कैथोलिक परिवारों ने अपने घरों पर काले झंडे फहराए और 14 जुलाई से शुरू हुए चर्च के 12 दिनों के वार्षिक महोत्सव के आखिरी दिन का बहिष्कार किया। सोमवार को उनमें से एक समूह ने कलेक्ट्रेट के पास अनशन किया और साप्ताहिक जनसुनवाई बैठक के दौरान एक ज्ञापन सौंपा, जिसमें उन्होंने चर्च के प्रशासन और धार्मिक अनुष्ठानों में समान अधिकारों की मांग की।
रिपोर्ट के अनुसार, 22 जुलाई को कुंबकोणम के बिशप जीवनंदम अमलनाथन ने जातिगत तनावों और धर्मप्रांत की इस मामले को सुलझाने में कथित असमर्थता का हवाला देते हुए वार्षिक रथ यात्रा का बहिष्कार किया।
जब अधिकारी स्थानीय स्तर पर मध्यस्थता बैठक आयोजित करने की कोशिश कर रहे थे तो दलित प्रतिनिधियों ने जोर देकर कहा कि बैठक में या तो बिशप या किसी वरिष्ठ धर्मप्रांतीय अधिकारी का होना आवश्यक है।
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए दलित ईसाई मतदाता जे. दोस प्रकाश ने कहा, "यह केवल दलितों की बात नहीं है कि बैठक में बिशप या किसी वरिष्ठ धर्मप्रांतीय अधिकारी का होना जरूरी है। यह केवल दलितों और गैर-दलितों का विवाद नहीं है। चर्च प्रशासन भी भेदभाव का हिस्सा है।"
उन्होंने आगे कहा, "महोत्सव समिति पूरी तरह से गैर-दलितों के नियंत्रण में है। हमें सदस्यता शुल्क देने या योजना बनाने में हिस्सा लेने जैसे मूलभूत अधिकार तक से वंचित रखा जाता है। दशकों के बाद भी हमारी गलियों में एक छोटा सा रथ भी नहीं आता।"
अमलनाथन ने क्रक्स को बताया, "धर्मावलंबी हर साल पैरोकियल उत्सव मनाते हैं।"
बिशप ने कहा, "गिरजाघर के अंदर होने वाले विधि-संबंधी और सामुदायिक उत्सवों की जिम्मेदारी पैरिश पादरी की होती है। गिरजाघर के भीतर कोई भेदभाव नहीं होता। दलित लोग उद्घाटन और स्वागत समारोहों में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं, गायक मंडली में शामिल होते हैं, वे पाठक और संगीतकार होते हैं, प्रार्थनाएं करते हैं, दान इकट्ठा करते हैं और दूसरे काम भी करते हैं।"
हालांकि सार्वजनिक और बाहरी समारोहों में दलितों को भाग लेने की अनुमति गैर-दलित नहीं देते हैं। वे उन्हें रथ यात्रा में हिस्सा लेने की अनुमति तो देते हैं, लेकिन प्रशासन में शामिल नहीं करते और उनसे सदस्यता शुल्क भी नहीं लेते।
बिशप ने कहा, "हमने उन्हें बताया है कि यह सही नहीं है और उन्हें पैसे इकट्ठा करने चाहिए, सभी को शामिल करना चाहिए, इसे ठीक से दर्ज करना चाहिए और इसे सामान्य उद्देश्य के लिए खर्च किया जाना चाहिए।"
उन्होंने कहा, "वे इसके लिए तैयार नहीं हैं। मैंने उनसे अलग-अलग बातचीत करने की कोशिश की है। वे सख्त लगते हैं और अपनी परंपराओं को जारी रखना चाहते हैं। मैंने उन्हें कहा कि मैं इसे मंजूर नहीं करता। मैं उनकी समारोहों में शामिल होने को तैयार नहीं था। हम बातचीत की प्रक्रिया जारी रखेंगे ताकि उन्हें यह समझाया जा सके कि सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए।"
अमलनाथन ने क्रक्स से कहा, "यह मामला दलितों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में भी दायर किया गया है। हम कोर्ट को अपना जवाब देंगे। मैंने कहा है कि मैं सही के पक्ष में खड़ा रहूंगा। चर्च किसी भी प्रकार के भेदभाव का समर्थन नहीं करता। सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। हालांकि, हम इसे लागू करने में सक्षम नहीं हैं, क्योंकि यह चर्च के बाहर का मामला है।"
सीबीसीआई कार्यालय में दलितों और पिछड़े वर्गों के पूर्व राष्ट्रीय सचिव रहे फादर ज़ेड. देवसगया राज ने कहा कि भेदभाव और 'छुआछूत' की प्रथा भारत में धर्मनिरपेक्ष समाज से ईसाई धर्म में भी आई है, जिसकी जड़ें हिंदू धर्म में हैं।
उन्होंने क्रक्स को बताया, "अछूत प्रथा को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 द्वारा कानूनन समाप्त किया जा चुका है। लेकिन यह कई पूजा स्थलों में जारी है। मद्रास उच्च न्यायालय का एक निर्णय आया है कि विवादित हिंदू रथ यात्रा परंबलूर जिले के वेप्पंथट्टई गांव में दलितों की गलियों से होकर गुजरनी चाहिए, जो मारीअम्मन मंदिर के त्योहार का हिस्सा है।"
पादरी ने कहा, "तमिलनाडु बिशप काउंसिल के 1990 के दस बिंदु के कार्यक्रम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पूजा स्थलों और कब्रिस्तान में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। बाद में यह बात 2004 में तमिलनाडु बिशप काउंसिल की दलितों के समग्र विकास योजना और 2016 में सीबीसीआई की दलित सशक्तिकरण नीति द्वारा भी दोहराई गई।"
राज ने क्रक्स को बताया, "भेदभाव और छुआछूत केवल ईसाई भावना के खिलाफ ही नहीं हैं, बल्कि यह भारतीय कानून के भी खिलाफ है। कभी-कभी जाति के लोगों की इतनी ताकत होती है कि चर्च के नेता भी निर्णय नहीं ले पाते, क्योंकि चर्च का नेतृत्व ज्यादातर जाति के लोगों के हाथ में होता है,"
पादरी ने कहा, “अब तक, दलित ईसाइयों ने चर्च के नेताओं से भेदभाव खत्म करने की गुहार लगाई है, लेकिन अब वे न्याय की उम्मीद में अदालत का सहारा लेने लगे हैं।”
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