देर भले हो लेकिन सही उद्देश्य और सही दिशा में संघर्ष के परिणाम हमेशा सुखद और उत्साह बढ़ाने वाले होते हैं। दुधवा के थारू आदिवासियों के मामले में यह बात सौ फीसदी सच साबित होती दिख रही है। 21 नवंबर को वनाधिकार कानून-2006 के तहत पलिया उपखंडीय समिति ने दुधवा के थारू आदिवासियों के लघु वन उपज (संसाधन) के सामुदायिक दावे-फार्मों पर स्वीकृति की मुहर लगा दी है और ज़िला स्तरीय समिति को भेज दिया है।
इससे थारू आदिवासियों का वनाधिकार का लंबा संघर्ष निर्णायक दौर में पहुंच गया है। जिसे लेकर आदिवासी व वनाश्रित समुदाय में उत्साह की लहर दौड़ गई है। हालांकि वनाधिकार की लंबी लड़ाई में यह एक पड़ाव मात्र है लेकिन छोटी छोटी (एक के बाद एक) सफलताओं से ही आगे के संघर्ष को ऊर्जा मिलती है और जीत की राह आसान होती है।
2011 में सूरमा गांव के आजाद होने से थारुओं के लंबे जनवादी संघर्ष को एक मुकाम मिला था। दुधवा नेशनल पार्क स्थित सूरमा गाव के हाईकोर्ट से विस्थापन के आदेश हो गए थे लेकिन वनाधिकार कानून-2006 आने के बाद, उप्र सरकार ने न सिर्फ विस्थापन को खारिज किया बल्कि लोगो के वनाधिकार को मान्यता देते गांव को पुनर्स्थापित किया था। उसके बाद जुलाई 2013 में सामुदायिक अधिकार को लेकर दावे किए गए थे जिसके करीब साढ़े 7 साल बाद एक बार फिर से थारू आदिवासियों की ज़िंदगी में सामुदायिक वनाधिकार के रूप में रोशनी की नई किरण आती दिख रही हैं तो खुशी व उत्साह होना लाज़िमी है।
लखीमपुर खीरी के पलिया कलां के इस पूरे संघर्ष का नेतृत्व कर रहे अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य रजनीश कहते हैं कि उपखंडीय समिति द्वारा सभी आपत्तियों का निस्तारण करते हुए, वनाधिकार दावों को ज़िला स्तरीय वनाधिकार समिति को भेज दिया गया है जिससे वनाधिकार कानून के तहत सामुदायिक अधिकारों की लड़ाई एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव पर पहुंच गई है।
खास है कि पलियाकलां तहसील सभागार में 21 नवंबर को एसडीएम डॉ अमरेश कुमार के नेतृत्व में थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच के साथ दावा निस्तारण को बैठक हुई, जिसमें 15 गांवों के सामुदायिक वनाधिकार के दावों का निस्तारण करते हुए, रिपोर्ट जिला स्तरीय कमेटी को भेज दी गई है। जिन गावों के दावे उपखंडीय समिति से पास हुए हैं उनमें दुधवा नेशनल पार्क के सूरमा, गबरोला, सारभूसी, भट्टा, किशन नगर, बंदर भरारी, जय नगर, देवराही, नझोटा, ढकिया, बिरिया, सुडा, भुडा, सरियापरा, कजरिया गांव शामिल हैं।
खास यह भी है कि इन सभी 15 गावों ने जुलाई 2013 में वनाधिकार कानून -2006 के तहत लघु वन संसाधन के लिए दावे प्रस्तुत किए थे। जिसमें आपत्तियों के निस्तारण को लेकर भी एक लंबा व संघर्ष से भरा इंतजार करना पड़ा है। अब आकर सफलता मिली है। उपखंड स्तरीय समिति में सकारात्मक निर्णय के बाद सूडा गांव में थारू आदिवासियों की बैठक हुई। जिसमें हर्ष जताते हुए आगे के कार्यक्रमों पर चर्चा की गई। पूर्व निगरानी समिति सदस्य रामचन्द्र राणा, जवाहर राणा, अनीता राणा, प्रताप राणा, सदई राणा, वीरमती राणा, दिनेश राणा आदि सभी ने हर्ष व्यक्त किया।
थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच के अध्यक्ष व अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य राम चन्दर राणा (बन्दर भरारी वाले) कहते हैं कि हमारे 15 गांवों के दावे जो उपखण्ड में पास होकर जिलाधिकारी को भेजे गये हैं उससे पूरे दुधवा क्षेत्र में खुशी की लहर है। अब हम जो गांव छूट गये हैं उनमें भी अभियान चला कर दावे पूरे करवायेंगे ताकि सदियों के ऐतिहासिक अन्याय से आदिवासी वनाश्रित समुदाय को मुक्ति मिलने का काम हो सके।
निबादा राना ग्राम सूडा कहती हैं कि उपखण्ड स्तरीय समिति द्वारा वनाधिकार कानून के तहत हमारे दावे पास करके जिलाधिकारी के पास भेजने से हम बहुत खुश हैं। क्योंकि यह दावे पास होने के बाद हमारे साथ जो ऐतिहासिक अन्याय हुआ है उससे मुक्ति मिलेगी। 2012 को मेरे खुद के ऊपर वनविभाग ने जंगल से जलौनी लकड़ी ले जाने के कारण जानलेवा हमला किया था। हमें अधिकार मिलने के बाद हमारी महिलाओं पर वन विभाग हमला नही कर पायेगा क्योंकि अब अपने जंगल की रक्षा भी हम खुद करेंगे।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय समिति की विशेष आमन्त्रित सदस्य सहवनिया राणा कहती हैं कि वनाधिकार कानून संशोधन 2012 के तहत हमने करीब 8 साल पहले दावे किये थे जो वन विभाग द्वारा अड़चने डालने और प्रशासन की लापरवाही से अभी तक लटके रहे। उपखण्ड स्तरीय समिति से पास होना हमारे लिये एक ऐतिहासिक जीत है जो लम्बे आंदोलन से ही सम्भव हो सकी। अधिकार मिलने के बाद जब हम अपनी सहकारी समितियां बनाकर आजीविका का साधन बनायेंगे तो नौजवान पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी का भविष्य भी सुरक्षित होगा और हम स्वास्थ और शिक्षा की व्यवस्था भी अपने स्तर पर बेहतर तरीके से कर सकेंगे।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य रजनीश गम्भीर कहते हैं कि निश्चित रूप से यह थारू समुदाय की महिलाओं की अगुआई में चले निरन्तर आंदोलन और सांगठनिक ताकत की एक ऐतिहासिक जीत होगी। लेकिन इससे चुनौतियां खत्म नहीं हुई हैं। या यूं कहें कि चुनौतियां बढ़ गई हैं। उन्होंने कहा कि आगे नई तरह की चुनौतिया होंगी जिसके लिए हम सब को सामूहिक तौर से तैयार रहना होगा।
रजनीश कहते हैं कि वनाधिकार कानून संशोधन 2012 के तहत किये गये दावो में वन संसाधनों पर हक की निहित है। जिसमें वनविभाग के हाथों से वनों की पूरी व्यवस्था समुदायों के हाथों में जानी है और ब्रिटिश काल से वनों पर काबिज वन विभाग इस हस्तांतरण को हरगिज तौर पर बरदाश्त नहीं करने वाला है। जिसे सांगठनिक ताकत से ही लड़कर समुदाय के लोग हासिल कर सकते हैं।
दूसरी बड़ी चुनौती संशोधन 2012 के तहत अपनी सहकारी समितियां बनाकर बाज़ार में सही मूल्य पर बेचना और लोगों की आजीविका के साधन बनाने व इस पूरी व्यवस्था को कायम करने की होगी, जोकि पूरी तरह से समुदायों के नियन्त्रण में ही रहनी है। लोगों को इसके लिये प्रशिक्षित करके समर्थ बनाने की होगी, जिससे वे निहित स्वार्थी तत्वों के हाथों में न खेल सकें। आने वाले समय में चुनौतियां और भी सामने आयेंगी लेकिन हमें पूरा विश्वास है कि महिलाओं की अगुआई में चले यहां के निरन्तर संघर्ष अगर इस मकाम को हासिल किया है तो वे आगे भी आने वाली बड़ी चुनौतियों का सामना करने में सक्षम साबित होंगे।
महत्वपूर्ण है कि दुधवा टाईगर रिज़र्व के अन्दर बसे इन 15 गांवों को वनों पर सामुदायिक अधिकार का मिलना जीत का एक महत्वपूर्ण पड़ाव होगा, लेकिन मंज़िल अभी बाकी है।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी कहते हैं कि दुधवा राष्ट्रीय पार्क के टाईगर रिजर्व क्षेत्र के आदिवासियों को वन उपज पर सामुदायिक अधिकार के दावो को उपखंड स्तरीय समिति से स्वीकृति मिलना वनाधिकार आंदोलन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है जो वनाश्रित समुदायों के अधिकारों के संघर्ष को ताकत देने का काम करेगी।
इससे थारू आदिवासियों का वनाधिकार का लंबा संघर्ष निर्णायक दौर में पहुंच गया है। जिसे लेकर आदिवासी व वनाश्रित समुदाय में उत्साह की लहर दौड़ गई है। हालांकि वनाधिकार की लंबी लड़ाई में यह एक पड़ाव मात्र है लेकिन छोटी छोटी (एक के बाद एक) सफलताओं से ही आगे के संघर्ष को ऊर्जा मिलती है और जीत की राह आसान होती है।
2011 में सूरमा गांव के आजाद होने से थारुओं के लंबे जनवादी संघर्ष को एक मुकाम मिला था। दुधवा नेशनल पार्क स्थित सूरमा गाव के हाईकोर्ट से विस्थापन के आदेश हो गए थे लेकिन वनाधिकार कानून-2006 आने के बाद, उप्र सरकार ने न सिर्फ विस्थापन को खारिज किया बल्कि लोगो के वनाधिकार को मान्यता देते गांव को पुनर्स्थापित किया था। उसके बाद जुलाई 2013 में सामुदायिक अधिकार को लेकर दावे किए गए थे जिसके करीब साढ़े 7 साल बाद एक बार फिर से थारू आदिवासियों की ज़िंदगी में सामुदायिक वनाधिकार के रूप में रोशनी की नई किरण आती दिख रही हैं तो खुशी व उत्साह होना लाज़िमी है।
लखीमपुर खीरी के पलिया कलां के इस पूरे संघर्ष का नेतृत्व कर रहे अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य रजनीश कहते हैं कि उपखंडीय समिति द्वारा सभी आपत्तियों का निस्तारण करते हुए, वनाधिकार दावों को ज़िला स्तरीय वनाधिकार समिति को भेज दिया गया है जिससे वनाधिकार कानून के तहत सामुदायिक अधिकारों की लड़ाई एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव पर पहुंच गई है।
खास है कि पलियाकलां तहसील सभागार में 21 नवंबर को एसडीएम डॉ अमरेश कुमार के नेतृत्व में थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच के साथ दावा निस्तारण को बैठक हुई, जिसमें 15 गांवों के सामुदायिक वनाधिकार के दावों का निस्तारण करते हुए, रिपोर्ट जिला स्तरीय कमेटी को भेज दी गई है। जिन गावों के दावे उपखंडीय समिति से पास हुए हैं उनमें दुधवा नेशनल पार्क के सूरमा, गबरोला, सारभूसी, भट्टा, किशन नगर, बंदर भरारी, जय नगर, देवराही, नझोटा, ढकिया, बिरिया, सुडा, भुडा, सरियापरा, कजरिया गांव शामिल हैं।
खास यह भी है कि इन सभी 15 गावों ने जुलाई 2013 में वनाधिकार कानून -2006 के तहत लघु वन संसाधन के लिए दावे प्रस्तुत किए थे। जिसमें आपत्तियों के निस्तारण को लेकर भी एक लंबा व संघर्ष से भरा इंतजार करना पड़ा है। अब आकर सफलता मिली है। उपखंड स्तरीय समिति में सकारात्मक निर्णय के बाद सूडा गांव में थारू आदिवासियों की बैठक हुई। जिसमें हर्ष जताते हुए आगे के कार्यक्रमों पर चर्चा की गई। पूर्व निगरानी समिति सदस्य रामचन्द्र राणा, जवाहर राणा, अनीता राणा, प्रताप राणा, सदई राणा, वीरमती राणा, दिनेश राणा आदि सभी ने हर्ष व्यक्त किया।
थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच के अध्यक्ष व अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य राम चन्दर राणा (बन्दर भरारी वाले) कहते हैं कि हमारे 15 गांवों के दावे जो उपखण्ड में पास होकर जिलाधिकारी को भेजे गये हैं उससे पूरे दुधवा क्षेत्र में खुशी की लहर है। अब हम जो गांव छूट गये हैं उनमें भी अभियान चला कर दावे पूरे करवायेंगे ताकि सदियों के ऐतिहासिक अन्याय से आदिवासी वनाश्रित समुदाय को मुक्ति मिलने का काम हो सके।
निबादा राना ग्राम सूडा कहती हैं कि उपखण्ड स्तरीय समिति द्वारा वनाधिकार कानून के तहत हमारे दावे पास करके जिलाधिकारी के पास भेजने से हम बहुत खुश हैं। क्योंकि यह दावे पास होने के बाद हमारे साथ जो ऐतिहासिक अन्याय हुआ है उससे मुक्ति मिलेगी। 2012 को मेरे खुद के ऊपर वनविभाग ने जंगल से जलौनी लकड़ी ले जाने के कारण जानलेवा हमला किया था। हमें अधिकार मिलने के बाद हमारी महिलाओं पर वन विभाग हमला नही कर पायेगा क्योंकि अब अपने जंगल की रक्षा भी हम खुद करेंगे।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय समिति की विशेष आमन्त्रित सदस्य सहवनिया राणा कहती हैं कि वनाधिकार कानून संशोधन 2012 के तहत हमने करीब 8 साल पहले दावे किये थे जो वन विभाग द्वारा अड़चने डालने और प्रशासन की लापरवाही से अभी तक लटके रहे। उपखण्ड स्तरीय समिति से पास होना हमारे लिये एक ऐतिहासिक जीत है जो लम्बे आंदोलन से ही सम्भव हो सकी। अधिकार मिलने के बाद जब हम अपनी सहकारी समितियां बनाकर आजीविका का साधन बनायेंगे तो नौजवान पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी का भविष्य भी सुरक्षित होगा और हम स्वास्थ और शिक्षा की व्यवस्था भी अपने स्तर पर बेहतर तरीके से कर सकेंगे।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य रजनीश गम्भीर कहते हैं कि निश्चित रूप से यह थारू समुदाय की महिलाओं की अगुआई में चले निरन्तर आंदोलन और सांगठनिक ताकत की एक ऐतिहासिक जीत होगी। लेकिन इससे चुनौतियां खत्म नहीं हुई हैं। या यूं कहें कि चुनौतियां बढ़ गई हैं। उन्होंने कहा कि आगे नई तरह की चुनौतिया होंगी जिसके लिए हम सब को सामूहिक तौर से तैयार रहना होगा।
रजनीश कहते हैं कि वनाधिकार कानून संशोधन 2012 के तहत किये गये दावो में वन संसाधनों पर हक की निहित है। जिसमें वनविभाग के हाथों से वनों की पूरी व्यवस्था समुदायों के हाथों में जानी है और ब्रिटिश काल से वनों पर काबिज वन विभाग इस हस्तांतरण को हरगिज तौर पर बरदाश्त नहीं करने वाला है। जिसे सांगठनिक ताकत से ही लड़कर समुदाय के लोग हासिल कर सकते हैं।
दूसरी बड़ी चुनौती संशोधन 2012 के तहत अपनी सहकारी समितियां बनाकर बाज़ार में सही मूल्य पर बेचना और लोगों की आजीविका के साधन बनाने व इस पूरी व्यवस्था को कायम करने की होगी, जोकि पूरी तरह से समुदायों के नियन्त्रण में ही रहनी है। लोगों को इसके लिये प्रशिक्षित करके समर्थ बनाने की होगी, जिससे वे निहित स्वार्थी तत्वों के हाथों में न खेल सकें। आने वाले समय में चुनौतियां और भी सामने आयेंगी लेकिन हमें पूरा विश्वास है कि महिलाओं की अगुआई में चले यहां के निरन्तर संघर्ष अगर इस मकाम को हासिल किया है तो वे आगे भी आने वाली बड़ी चुनौतियों का सामना करने में सक्षम साबित होंगे।
महत्वपूर्ण है कि दुधवा टाईगर रिज़र्व के अन्दर बसे इन 15 गांवों को वनों पर सामुदायिक अधिकार का मिलना जीत का एक महत्वपूर्ण पड़ाव होगा, लेकिन मंज़िल अभी बाकी है।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी कहते हैं कि दुधवा राष्ट्रीय पार्क के टाईगर रिजर्व क्षेत्र के आदिवासियों को वन उपज पर सामुदायिक अधिकार के दावो को उपखंड स्तरीय समिति से स्वीकृति मिलना वनाधिकार आंदोलन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है जो वनाश्रित समुदायों के अधिकारों के संघर्ष को ताकत देने का काम करेगी।