रसोई का बजट आलू पर टिका होता है, इसे महंगा नहीं होना चाहिए...

Written by Mithun Prajapati | Published on: August 31, 2020
दोपहर का वक्त था। मार्किट में चहल पहल थी। बारिश आती थी फिर चली जाती थी। एक युवक आया दुकान के सामने खड़ा हुआ। मुंह में पान मसाला, कान में बाली, बाल सामने से रंगे हुए, ऐसा था उसका हुलिया। उस युवक का हुलिया जो ठीक मेरी दुकान के सामने आकर खड़ा हुआ था। उसके हाथ में मोबाइल था जिसमें भोजपुरी का एक वाहियात लिरिक्स वाला गाना बज रहा था। संगीत कान फोड़ू था। इतना भी नहीं जितना एक न्यूज एंकर चिल्लाता है। यह संगीत उससे थोड़ा नर्म ही था पर कान को दर्द देने में जरा भी कम न था। मेरा ध्यान गाने की लिरिक्स पर गया जो थोड़ा थोड़ा सुनाई भी दे रहा था। यह अति महिला विरोधी गाना था जिसे रिलीज होने से पहले ही बैन हो जाना चाहिए था। पर न हुआ।



यह गाना उस सुनने वाले युवक के लिए सामान्य था। जिनको वह गाना मेरे अलावा सुनाई दे रहा था या जो कोई उस गाने को और कहीं उस समय सुन रहा होगा उसके लिए वह गाना सुनना सामान्य बात हो सकती थी पर मेरे लिए नहीं। मैं अक्सर इस तरह के गाने सुनने वाले को टोक देता हूँ कि यह क्या सुन रहे हो? पर ऐसा हर समय नहीं किया जा सकता। टोकने से पहले सामने वाले व्यक्ति को समझना होता है। क्या वह गुस्सा होगा? पलटकर कुछ गलत तो नहीं बोल पड़ेगा? 

मैंने कई लोगों को टोका है। एक उम्रदराज पड़ोसी एक दिन ऐसा ही कुछ सुने जा रहे थे। मैंने कहा- यह तो बहुत ही वाहियात है। कुछ बेहतर सुनिए।

उन्होंने खीसें निपोर दी। कहने लगे- अब अच्छे गाने कहाँ बनते हैं?

मैंने कहा- पहले ही कहाँ बनते थे ? 

वे कहने लगे- ऐसा नहीं है। पहले के बिरहा, आल्हा, सोहर सुनकर मन खुश हो जाता था। अब सब लुप्त होता जा रहा है। 

मैंने कहा- यह अच्छे गाने थे ?
वे बोले- यह हमारी परंपरा, धरोहर थे।

मैंने कहा- इसमें क्या मिलता था? बिरहा में लोगों ने धर्म के गुणगान पुराणों का हवाला देते हुए वाहियात मनुवाद से लेकर तमात तरह के आडंबर समाज को थोपने की कोशिश भर दिखती है। आल्हा भी तो वही है। वीरता, राजा, लड़ाई युद्ध, महिला विरोधी विचार जातिवाद ही तो परोसता है समाज को। और बात सोहर की आती है तो सोचो कितना वाहियात रिवाज है यह पितृसत्ता का। बेटे के जन्म लेने पर गया जाता है। इन सब को लुप्त हो जाने में मुझे कोई दिक्कत नजर नहीं आती। ऐसे विचार, ऐसी संस्कृति ऐसी कला जो समाज में भेदभाव पैदा करे उसे बढ़ावा दे उसे खत्म ही हो जाना चाहिए। तरीका बना रहे पर जो कहा जा रहा है उसमें जरूर बदलाव होना चाहिए। 

वे बोले- तो क्या सुनें? तब भी तो कुछ न था सुनने को। 
मैंने कहा- यह आपके चयन पर निर्भर करता है। तमाम तरह के ऐसे गाने प्रेम से लेकर सामाजिक मुद्दों , वैचारिक विमर्श पर बनते रहे हैं। पर इन सब की पहुंच कम है, सुनने समझने वाले कम हैं। म्यूजिक कंपनियों में सवर्णवाद है, जातिवाद महिला विरोधी मानसिकता के लोग भरे पड़े हैं। जो वही परोसते हैं जिसे समाज मांग रहा होता है या जो वे आसानी से बना लेते हैं। 

वे बोले- कुछ सुनने के काबिल बताओ?
मैंने कहा- आपने कोशिश ही नहीं की कभी बेहतर जोन में जाने की। कभी गोरख पांडेय को सुना है? बिहार के संतोष झा जब किसी मंच से हारमोनियम हाथ मे लिए ढोलक की आवाज के बीच कहते हैं "लीजिये अब गोरख पांडेय का एक गीत जो आपके बीच प्रस्तुत है.. झकझोर दुनिया हो.... झकझोर दुनिया" इतना सुनते ही पूरे बदन में एक सिहरन सी पैदा हो जाती है....  

वे मोबाइल में इस गाने को ढूंढने लगे। कुछ दिन बाद वे मुझे इसी तरह जे अन्य गाने खुद सुझाने लगे। यह सुखद अनुभव था। एक दिन तो हबीब जालिब की नज्म गुनगुनाते मिल गए। अश्लीलता से हबीब जालिब और फैज तक का सफर यह मेरा खुद का तय किया हुआ रास्ता है। दूसरों को इस तरह बदलते देख अच्छा लगता है। 

पड़ोसी सज्जन अब अक्सर जनवादी गीत भोजपुरी से लेकर छत्तीसगढ़ी भाषा मे सुनते मिल जाते हैं। हबीब जालिब, फैज अहमद फैज को सुनते मिल जाते हैं। 

हां तो बात उस युवक की हो रही थी जो ठीक सामने आकर खड़ा हुआ था जिसके मोबाइल में अश्लील भोजपुरी गाना बजे जा रहा था। उस युवक ने गुटखे को दुकान के ठीक सामने थूक दिया और जो थूक अभी भी मुंह मे बचा था उसे होठों के माध्यम से संभालते हुए पूछा- आलू क्या भाव दिया ? 

मैंने गाने के लिरिक्स से ध्यान को खींचा और उसके पूछे गए सवाल के जवाब में कहा- 50 रुपये किलो। 

वह ठिठक गया। बज रहे गाने को बंद कर बोला- यह आलू है। 50 रुपये किलो क्यों है ? इसे तो सस्ता होना चाहिए। 

उसकी बात में दम था। आलू को 50 रूपये किलो नहीं होना चाहिए। सब्जियों के दाम भले आसमान पर हों पर आलू को 20 से 25 रुपये किलो से अधिक नहीं होना चाहिए। यह आम आदमी का खाना है। जब सब्जियां आसमान छूती हैं भाव के मामले में तब आम आदमी जो सब्जी नहीं अफोर्ड कर सकता वह आलू की तमाम चीजें बनाने लगता है। सोयाबीन आलू, अंडे आलू, सादा आलू, आलू उबाल के सब्जी और न जाने कितने प्रकार के व्यंजन बिना अन्य सब्जियों को मिलाये लोग बना लेते हैं। आलू की महंगाई रसोईं का बजट बिगाड़ देती है। 

उस युवक को मैंने जवाब में कहा- हां, इसे सस्ता होना चाहिए। पर यह मेरे बस में नहीं है। 
उस युवक ने कहा- मुझे 30 रुपये किलो दो। 

मैंने कहा- यह सम्भव नहीं है। यह अभी 42 से 45 रुपये मंडी में है। यहां इतना सस्ता कैसे बेच सकते हैं ?
मेरे इतना कहते ही युवक का ईगो हर्ट हो गया। जैसे वह कोई जज हो और जो कहे वह मुझे मान लेना चाहिए था नहीं तो मुझपर अवमानना का केस ठोंक देता।

वह गुस्साकर बोला- मुझे 30 में चाहिए तो चाहिए। महंगा है तो तुम जाकर बोलो व्यापारी को। मैं क्या करूँ ? 

उसके यह कहने में बड़ी लापरवाही थी कि मैं क्या करूँ? यह बात उसने गुस्से के साथ बेशक कही थी पर इसमें की लापरवाही मुझे खल गई। उसके कहने में चिंता के भाव होने चाहिए थे। जो नहीं थे। करने को वह बहुत कुछ कर सकता था। मसलन सोशल मीडिया पर प्रशासन के जिम्मेदार पद पर बैठे हुए लोगों को सूचित करते हुए पोस्ट लिख सकता था, विधायक सांसद या प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख सकता था या अपने नगर सेवक से मिलकर उन्हें इस बात से अवगत करा सकता था कि आलू के दाम आसमान पर हैं जो कि आम आदमी को भूख शांत कर लेने में बाधा डाल रहे हैं। इसके लिए कुछ किया जाना चाहिए। यदि लिखने में असमर्थ है तो छोटा वीडियो बनाकर अपने लोगों में सर्कुलेट कर सकता था और इस मुद्दे को आगे बढ़ा सकता था। और भी तमात तरह के उपाय हैं जो वह कर सकता था। जैसे कि जो सामाजिक राजनीतिक मुद्दों पर बोलने वाले हैं उनसे संपर्क साध इस मूल्यवृद्धि को लेकर बात करने को कह सकता था। 

बहुत से लोग ऐसा करते हैं। यह बात अलग है कि आजकल मुद्दे उठाने सरकार को समस्याओं से अवगत कराने वालों को जेल में ठूसा जा रहा है। जेल में तो अच्छा करने वालों को भी डाल दिया जा रहा है उसका क्या? डॉक्टर कफ़ील का क्या गुनाह है? अपने पैसे से बच्चों तक ऑक्सीजन सिलेंडर पहुंचाना? बच्चों की जान बचाना? आखिर किस बात की सजा भुगत रहा वो आदमी? सुधा भारद्वाज का क्या गुनाह है? कितने दिन तक उस बहादुर सामाजिक मानवाधिकार कार्यकर्ता को जेल में रखा जाएगा? क्या गुनाह है इन सबका? समाज की बेहतरी के लिए आगे आना, कुछ करना गुनाह कब से हो गया? 

उस युवक ने इन सबको न करते हुए एक सब्जी वाले से झगड़ना उचित समझा। और वह झगड़ रहा था। उसने दो चार बार कहा- मुझे 30 में ही चाहिए। 

उसकी ऊंची आवाज को सुन एक दो लोग जो रास्ते मे चले जा रहे थे उन्होंने आनंद लेने के उद्देश्य से अपने पैरों को रोक दिया। क्यों न रोकें पैर ? आदमी घर से टेलीविजन छोड़ बाहर की दुनिया मे कदम रखता है तो कुछ मनोरंजक मिल रहा है तो कैसे छोड़ दे? यही तो मनोरंजन है। किसी की लड़ाई, किसी के व्यक्तिगत संबंध, किसी का अफेयर, किसी की मौत का रहस्य, किसी की बेइज्जती, बदनामी। 

लोग जमा होने लगे। पीछे पुलिस की गाड़ी गुजर रही थी। कुछ लोगों को खड़े देख साइड में रुक गई। उस युवक ने कहा- अब तो मैं फ्री में लूंगा। 

यह बात उसने लोगों को इकट्ठे होते देख कह दी। मामला ईगो वाला था। पर अब बेइज्जती में बदल रहा था। उसे लगा उसके यह कहने से मैं डरकर 30 में देने को तैयार हो जाऊंगा। अगल बगल लोगों को देख वह शर्मिंदगी महसूस कर रहा था। उसके चेहरे को देख यह बात आसानी से समझी जा सकती थी। पर पीछे कैसे हटे ? 

उसने धमकी भरे लहजे में फिर कहा- तू मुझे आलू दे नहीं तो तेरी शिकायत सलीम भाय से करूँगा। कल तक दुकान हट जाएगी। 

उसकी इस धमकी से मैं विचलित न हुआ। इस तरह की बातें अक्सर होती रहती हैं। मुझे उसपर बस तरस आ रहा था। वह जिस तरह के भाई से शिकायत करने को कह रहा था उस तरह के भाई अक्सर गली चौराहे पर दिख जाते हैं। इन भाइयों की विशेषता यह होती है कि नगर सेवक से लेकर विधायक के साथ फोटो खिंचवा के वीर हो जाते हैं और चार लोगों में अपने को उनका नेता मान लेते हैं। मेरे जरा भी न रिएक्ट करने से वह इधर उधर लोगों को देखने लगा। तबतक पीछे से एक पुलिस वाले ने उसके सिर में हाथ से ठोका। वह सकपका गया। पीछे पुलिस देख काय नाय, काय नाय साहेब कहते हुए अपने रास्ते चलने लगा। जो कुछ लोगों की भीड़ जमा हो गई थी वह अब छटने लगी। 

कई दिन गुजर गए। न भाय दिखा न भाय के नाम पर धमकी देने वाला। आलू का दाम अब भी 50 बना हुआ है। जो न कहीं चर्चा में है न चर्चा का विषय। हां ग्राहकों की खीज इस बात को लेकर अक्सर दिख जाए करती है। पर देश में एक ही मुद्दा बचा है। शायद बताने की जरूरत नहीं....

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