भारत में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिन्होंने देश को निराश किया है. नेता-अफसर तो उन लोगों में हैं ही जिनकी वजह से देश आज मानव विकास में दुनिया का सबसे गया-बीता देश है. वैज्ञानिकों ने भी देश को नोबेल पुरस्कारों से निहाल कर दिया हो ऐसा नहीं है. हम आम तौर पर पश्चिम की विकसित की गई टेक्नोलॉजी की नकल करके अपनी पीठ ठोकने वाले देश हैं.
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हमारी श्रेष्ठ प्रतिभाएं आज भी विदेशी कंपनियों के लिए सस्ता लेबर बनने के लिए मरी जा रही हैं. देश को पुलिस से लेकर सरकारी कर्मचारियों ने भी समय-समय पर शर्मिंदा किया है. हमारे विश्वविद्यालयों के शिक्षक एक भी ऐसी यूनिवर्सिटी नहीं दे सके हैं, जिसकी गिनती दुनिया की श्रेष्ठ 200 में की जा सके. भारत के सैनिकों ने कारगिल को अपनी गफलत में लगभग गंवा ही दिया था, जिसे फिर से हासिल करने के लिए सैकड़ों जवान कुर्बान हो गए.
चीन के हाथों पराजय का किस्सा याद करके अब भी टीस उठती है. भारत में विश्वस्तरीय बुद्धिजीवियों और विचारकों का घनघोर अकाल है. ये वे लोग हैं, जिन्हें अपना काम ढंग से करने के लिए पैसे मिलते हैं, लेकिन वे अपना काम ढंग से कर नहीं पाए. भारत दुनिया का महान देश नहीं है, तो यह इन लोगों की, हम सबकी साझ जिम्मेदारी है.
लेकिन कोई है, जिसने कभी अपनी वाहवाही नहीं चाही. जिसे कभी कोई मेडल नहीं मिलता, जो खुद इतना तबाह है कि हर साल हजारों की संख्या में वे आत्महत्या कर लेते हैं, सरकार जिनके प्रति नाम मात्र को जवाबदेह है लेकिन वह साल दर साल, हर साल इतना अनाज उगा कर देता है कि इस देश के हर आदमी का पेट भर जाता है.
देश में खाने वालों की हर साल बढ़ती संख्या के लिए हमारा अन्नदाता हर साल इतना उगा देता है कि न सिर्फ हर किसी का पेट गले तक भर जाए, बल्कि भंडार भी ठसाठस भरे रहें. वह इतना ज्यादा उगाकर देता है कि सरकार उन्हें गोदाम में रख नहीं पाती और हर सालों ढेर सारा अनाज खुले में पड़ा सड़ जाता है.
वह हमारे देश का किसान है. असली आम आदमी. वह अपने सिर पर आम आदमी होने का दंभ पालने वाली कोई टोपी नहीं पहनता. सादगी उसके लिए पाखंड या अहंकार का कारण नहीं है. वह सादगी में जीता है तो इसलिए कि वह ऐसे ही जी सकता है और अगर उसके पास ठाट करने के लिए कुछ होता है तो वह ठाट से भी जीता है.
देश का शहरी मध्यम वर्ग जब प्याज या टमाटर की कीमत बढऩे पर हाय-तौबा मचाता है, तो वह यह भूल जाता है कि जब कृषि उपज की कीमत गिरती है तो हमारा अन्नदाता कई बार आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है. इस देश में पिछले 50 साल में जिन चीजों के दाम सबसे कम बढ़े हैं, उनमें से लगभग सारी चीजें खेतों में उगती हैं.
यह इस देश की त्रासदी है कि खेतों की उपज बढ़ रही है, लेकिन कुल अर्थव्यवस्था में खेती का हिस्सा घट रहा है. जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में खेती का हिस्सा 1980 में 40 फीसदी होता था, जो अब घटकर 14 फीसदी से भी कम रह गया है. जाहिर है कि कृषि उपज की कीमत बाकी चीजों की तुलना में कम बढ़ी है. जिसकी मार हमारे अन्नदाता पर पड़ी है.
क्या इसका मतलब यह है कि किसान अपनी बदहाली के बावजूद किसानी करते रहना चाहता है? ऐसा कतई नहीं है. खेती उसका प्यार नहीं है, मजबूरी है. बात सिर्फ इतनी है कि वह अपनी मजबूरी को बढिय़ा से निभा रहा है. मौका मिलने पर वह खेती को छोडऩा चाहेगा. और ऐसा होना ही चाहिए. क्या आप बेहतर नौकरी मिलने पर पुरानी नौकरी नहीं छोडऩा चाहते हैं? क्या आप बेहतर बिजनेस का मौका मिलने पर पुराना बिजनेस नहीं बदल लेते?
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हमारी श्रेष्ठ प्रतिभाएं आज भी विदेशी कंपनियों के लिए सस्ता लेबर बनने के लिए मरी जा रही हैं. देश को पुलिस से लेकर सरकारी कर्मचारियों ने भी समय-समय पर शर्मिंदा किया है. हमारे विश्वविद्यालयों के शिक्षक एक भी ऐसी यूनिवर्सिटी नहीं दे सके हैं, जिसकी गिनती दुनिया की श्रेष्ठ 200 में की जा सके. भारत के सैनिकों ने कारगिल को अपनी गफलत में लगभग गंवा ही दिया था, जिसे फिर से हासिल करने के लिए सैकड़ों जवान कुर्बान हो गए.
चीन के हाथों पराजय का किस्सा याद करके अब भी टीस उठती है. भारत में विश्वस्तरीय बुद्धिजीवियों और विचारकों का घनघोर अकाल है. ये वे लोग हैं, जिन्हें अपना काम ढंग से करने के लिए पैसे मिलते हैं, लेकिन वे अपना काम ढंग से कर नहीं पाए. भारत दुनिया का महान देश नहीं है, तो यह इन लोगों की, हम सबकी साझ जिम्मेदारी है.
लेकिन कोई है, जिसने कभी अपनी वाहवाही नहीं चाही. जिसे कभी कोई मेडल नहीं मिलता, जो खुद इतना तबाह है कि हर साल हजारों की संख्या में वे आत्महत्या कर लेते हैं, सरकार जिनके प्रति नाम मात्र को जवाबदेह है लेकिन वह साल दर साल, हर साल इतना अनाज उगा कर देता है कि इस देश के हर आदमी का पेट भर जाता है.
देश में खाने वालों की हर साल बढ़ती संख्या के लिए हमारा अन्नदाता हर साल इतना उगा देता है कि न सिर्फ हर किसी का पेट गले तक भर जाए, बल्कि भंडार भी ठसाठस भरे रहें. वह इतना ज्यादा उगाकर देता है कि सरकार उन्हें गोदाम में रख नहीं पाती और हर सालों ढेर सारा अनाज खुले में पड़ा सड़ जाता है.
वह हमारे देश का किसान है. असली आम आदमी. वह अपने सिर पर आम आदमी होने का दंभ पालने वाली कोई टोपी नहीं पहनता. सादगी उसके लिए पाखंड या अहंकार का कारण नहीं है. वह सादगी में जीता है तो इसलिए कि वह ऐसे ही जी सकता है और अगर उसके पास ठाट करने के लिए कुछ होता है तो वह ठाट से भी जीता है.
देश का शहरी मध्यम वर्ग जब प्याज या टमाटर की कीमत बढऩे पर हाय-तौबा मचाता है, तो वह यह भूल जाता है कि जब कृषि उपज की कीमत गिरती है तो हमारा अन्नदाता कई बार आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है. इस देश में पिछले 50 साल में जिन चीजों के दाम सबसे कम बढ़े हैं, उनमें से लगभग सारी चीजें खेतों में उगती हैं.
यह इस देश की त्रासदी है कि खेतों की उपज बढ़ रही है, लेकिन कुल अर्थव्यवस्था में खेती का हिस्सा घट रहा है. जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में खेती का हिस्सा 1980 में 40 फीसदी होता था, जो अब घटकर 14 फीसदी से भी कम रह गया है. जाहिर है कि कृषि उपज की कीमत बाकी चीजों की तुलना में कम बढ़ी है. जिसकी मार हमारे अन्नदाता पर पड़ी है.
क्या इसका मतलब यह है कि किसान अपनी बदहाली के बावजूद किसानी करते रहना चाहता है? ऐसा कतई नहीं है. खेती उसका प्यार नहीं है, मजबूरी है. बात सिर्फ इतनी है कि वह अपनी मजबूरी को बढिय़ा से निभा रहा है. मौका मिलने पर वह खेती को छोडऩा चाहेगा. और ऐसा होना ही चाहिए. क्या आप बेहतर नौकरी मिलने पर पुरानी नौकरी नहीं छोडऩा चाहते हैं? क्या आप बेहतर बिजनेस का मौका मिलने पर पुराना बिजनेस नहीं बदल लेते?