..इससे अलग कुछ नहीं.
एक नन-फार्म-एक्सपर्ट के तौर पर जो मैं किसानों की समस्या और समाधान समझता हूं:
समस्या नंबर 1:
एमएसपी न समस्या है, न समाधान. मूल समस्या है कृषि लागत में सतत वृद्धि का होना. ये वृद्धि आवश्यक भी है और अनावाश्यक भी. उत्पादन बढाने के लिए लगातार केमिकल फर्टीलाइजर का इस्तेमाल बढा. एक हद के बाद अधिक उत्पादन के लिए और अधिक रासायनिक खाद का इस्तेमाल होने लगा. नतीजा, लागत बढती चली गई. तो मूल ध्यान इस पर देना है कि कृषि लागत कम कैसे होगी? एक तात्कालिक और कारगर कदम है कि आधे खेत में आज से ही जैविक खेती शुरु कर दीजिए. विशेष सूचना सरकार या एक्सपर्ट से लीजिए.
समस्या नंबर 2:
वर्चुअल वाटर का भयंकर दोहन हुआ. नतीजा विदर्भ और बुन्देलखंड जैसे सूखाग्रस्त क्षेत्र का निर्माण हुआ. अगर साइंटिफिक खेती ही करनी थी तो कम से कम ये समझते कि बदलते समय के साथ किन फसलों को कम उपजाना है, ताकि पानी की खपत कम हो. लेकिन, हम ऐस नहीं कर सके. वर्चुअल वाटर विभिषिका को समझने के लिए गूगल का सहारा लीजिए.
समस्या नंबर 3:
सिंचाई समस्या के कारण भी कृषि लागत बढती चली गई. सिंचाई सुविधा न होने, वर्षा जल का उचित संचयन न होने के कारण भूजल दोहन बढा. भूजल दोहन के लिए बोरिंग-तेल का खर्च बढा. सिंचाई की अवैग्यानिक पद्धति से भी सिंचाई का खर्च बढा. समाधान के बारे में एक्सपर्ट बता सकते है कि क्या स्प्रिंकल या बून्द-बून्द सिंचाई प्रणाली का इस्तेमाल भारतीय कृषि व्यवस्था में संभव है? क्या धान जैसी फसल के लिए यह सिंचाई प्रणाली कारगर साबित हो सकती है. सब्जी आदि के लिए तो कारगर है.
समस्या नंबर 4:
देशी बीज का नाश. उत्पादन बढाने के लिए विदेशी-हाइब्रिड बीजों के बढते इस्तेमाल ने देशी बीजों को खत्म कर दिया. देशी बीज का अर्थव्यवस्था ये था कि उपज से ही अगले साल के लिए मुफ्त में बीज मिल जाते थे. देशी बीज संरक्षण के लिए अपने देसी तरीके भी थी. सब लुप्त होते चले गए. नतीजतन, महंगे दामों पर विदेशी कंपनियों का बीज खरीदना पड रह है. 8 हजार रुपये किलो तक के बीज है बाजार में. जाहिर है, इससे भी कृषि लागत बढी. तो, बीज को ले कर, खास कर देसी बीज को ले कर क्या नीति बन सकती है, इस पर बात होनी चाहिए.
समस्या नंबर 5:
लैंड होल्डिंग सबसे बडी समस्या है. 70 फीसदी से अधिक किसानों के पास 2 एकड से अधिक की लैंड होल्डिंग नहीं है. वह 2 एकड भी टुकडों में बंटी है. अलग-अलग खेती करने के अपने नुकसान है. कृषि लागत बढना तय है. उत्पादन पर असर पडना तय है. चकबन्दी और भू-वितरण नीति पर राष्ट्रव्यापी समग्र नीति की जरूरत है.
समस्या नंबर 6:
मूल्यवर्द्धित उत्पाद में किसानों की हिस्सेदारी. सबसे बडी दिक्कत यही है कि 5 रुपये किलो बिकने वाले आलू का चिप्स 200 रुपये किलो बिकता है. अब इस 200 रुपये में किसान की हिस्सेदारी सिर्फ 5 रुपये है. सवाल है कि जो किसान आलू उपजा सकता है, वो “आलू की फैक्ट्री” क्यों नहीं लगा सकता? यानी, चिप्स बना कर बेचने का काम भी किसान करे, इसमें व्यवहारिक कठिनाई क्या है, मुझे समझ नहीं आता. अगर कठिनाई है भी, तो इसके समाधान के लिए हमने सरकारों को चुना है, वो क्या करती है? अगर कृषि उपज के मूल्य वर्द्धित उत्पादों में किसानों की हिस्सेदारी सुनिश्चित हो जाए तो फिर क्या जरूरत है ये स्वामीनाथ आयोग के रिपोर्ट की?
बहरहाल, एमएसपी कभी किसान समस्या का समाधान नहीं हो सकता. वैसे भी अगर किसनों को अपनी उपज का वास्तविक मूल्य मिल जाए तो फिर उपभोक्ताओं की समस्याएं अलग मुंह बाए खडी हो जाएंगी. मतलब, ये नहीं कि उन्हें उनकी उपज का सही मूल्य न मिले. लेकिन, उसके मिलने के तरीके अलग हो सकते है. फसल बीमा असफल है. कर्ज का बोझ है. तात्कालिक उपाय के तौर पर देश के सभी किसानों का कर्ज माफ किया जा सकता है लेकिन यह कभी भी दीर्घकालिक और व्यवहारिक समधान नहीं हो सकता.
तो मैं क्या समझूं? किसान मूर्ख हैं. कहना तो नहीं चाहता. लेकिन प्रतीत ऐसा ही हो रहा है. क्या किसान नेता उन्हें बेवकूफ बना रहे हैं. निश्चित तौर पर. फिर उपाय? उपाय यही है कि किसानों का नेता कभी भी योगेन्द्र यादव या राहुल गांधी नहीं हो सकते. किसान का नेत उसे ही होना होगा जो किसनों की वास्त्विक समस्य समझता हो और वास्तविक समाधन जानता हो.
जो भी किसान नेता एमएसपी और स्वामीनाथन अयोग की बात करत है, जो भी राजनैतिक नेता कर्ज माफी को किसान समस्या का समाधान बताता हो, वह किसनों को बेवकूफ बना रहा है, देश को बेवकूफ बना रहा है...यही अंतिम सत्य है. इससे इतर कोई सत्य हो तो बताइए....
एक नन-फार्म-एक्सपर्ट के तौर पर जो मैं किसानों की समस्या और समाधान समझता हूं:
समस्या नंबर 1:
एमएसपी न समस्या है, न समाधान. मूल समस्या है कृषि लागत में सतत वृद्धि का होना. ये वृद्धि आवश्यक भी है और अनावाश्यक भी. उत्पादन बढाने के लिए लगातार केमिकल फर्टीलाइजर का इस्तेमाल बढा. एक हद के बाद अधिक उत्पादन के लिए और अधिक रासायनिक खाद का इस्तेमाल होने लगा. नतीजा, लागत बढती चली गई. तो मूल ध्यान इस पर देना है कि कृषि लागत कम कैसे होगी? एक तात्कालिक और कारगर कदम है कि आधे खेत में आज से ही जैविक खेती शुरु कर दीजिए. विशेष सूचना सरकार या एक्सपर्ट से लीजिए.
समस्या नंबर 2:
वर्चुअल वाटर का भयंकर दोहन हुआ. नतीजा विदर्भ और बुन्देलखंड जैसे सूखाग्रस्त क्षेत्र का निर्माण हुआ. अगर साइंटिफिक खेती ही करनी थी तो कम से कम ये समझते कि बदलते समय के साथ किन फसलों को कम उपजाना है, ताकि पानी की खपत कम हो. लेकिन, हम ऐस नहीं कर सके. वर्चुअल वाटर विभिषिका को समझने के लिए गूगल का सहारा लीजिए.
समस्या नंबर 3:
सिंचाई समस्या के कारण भी कृषि लागत बढती चली गई. सिंचाई सुविधा न होने, वर्षा जल का उचित संचयन न होने के कारण भूजल दोहन बढा. भूजल दोहन के लिए बोरिंग-तेल का खर्च बढा. सिंचाई की अवैग्यानिक पद्धति से भी सिंचाई का खर्च बढा. समाधान के बारे में एक्सपर्ट बता सकते है कि क्या स्प्रिंकल या बून्द-बून्द सिंचाई प्रणाली का इस्तेमाल भारतीय कृषि व्यवस्था में संभव है? क्या धान जैसी फसल के लिए यह सिंचाई प्रणाली कारगर साबित हो सकती है. सब्जी आदि के लिए तो कारगर है.
समस्या नंबर 4:
देशी बीज का नाश. उत्पादन बढाने के लिए विदेशी-हाइब्रिड बीजों के बढते इस्तेमाल ने देशी बीजों को खत्म कर दिया. देशी बीज का अर्थव्यवस्था ये था कि उपज से ही अगले साल के लिए मुफ्त में बीज मिल जाते थे. देशी बीज संरक्षण के लिए अपने देसी तरीके भी थी. सब लुप्त होते चले गए. नतीजतन, महंगे दामों पर विदेशी कंपनियों का बीज खरीदना पड रह है. 8 हजार रुपये किलो तक के बीज है बाजार में. जाहिर है, इससे भी कृषि लागत बढी. तो, बीज को ले कर, खास कर देसी बीज को ले कर क्या नीति बन सकती है, इस पर बात होनी चाहिए.
समस्या नंबर 5:
लैंड होल्डिंग सबसे बडी समस्या है. 70 फीसदी से अधिक किसानों के पास 2 एकड से अधिक की लैंड होल्डिंग नहीं है. वह 2 एकड भी टुकडों में बंटी है. अलग-अलग खेती करने के अपने नुकसान है. कृषि लागत बढना तय है. उत्पादन पर असर पडना तय है. चकबन्दी और भू-वितरण नीति पर राष्ट्रव्यापी समग्र नीति की जरूरत है.
समस्या नंबर 6:
मूल्यवर्द्धित उत्पाद में किसानों की हिस्सेदारी. सबसे बडी दिक्कत यही है कि 5 रुपये किलो बिकने वाले आलू का चिप्स 200 रुपये किलो बिकता है. अब इस 200 रुपये में किसान की हिस्सेदारी सिर्फ 5 रुपये है. सवाल है कि जो किसान आलू उपजा सकता है, वो “आलू की फैक्ट्री” क्यों नहीं लगा सकता? यानी, चिप्स बना कर बेचने का काम भी किसान करे, इसमें व्यवहारिक कठिनाई क्या है, मुझे समझ नहीं आता. अगर कठिनाई है भी, तो इसके समाधान के लिए हमने सरकारों को चुना है, वो क्या करती है? अगर कृषि उपज के मूल्य वर्द्धित उत्पादों में किसानों की हिस्सेदारी सुनिश्चित हो जाए तो फिर क्या जरूरत है ये स्वामीनाथ आयोग के रिपोर्ट की?
बहरहाल, एमएसपी कभी किसान समस्या का समाधान नहीं हो सकता. वैसे भी अगर किसनों को अपनी उपज का वास्तविक मूल्य मिल जाए तो फिर उपभोक्ताओं की समस्याएं अलग मुंह बाए खडी हो जाएंगी. मतलब, ये नहीं कि उन्हें उनकी उपज का सही मूल्य न मिले. लेकिन, उसके मिलने के तरीके अलग हो सकते है. फसल बीमा असफल है. कर्ज का बोझ है. तात्कालिक उपाय के तौर पर देश के सभी किसानों का कर्ज माफ किया जा सकता है लेकिन यह कभी भी दीर्घकालिक और व्यवहारिक समधान नहीं हो सकता.
तो मैं क्या समझूं? किसान मूर्ख हैं. कहना तो नहीं चाहता. लेकिन प्रतीत ऐसा ही हो रहा है. क्या किसान नेता उन्हें बेवकूफ बना रहे हैं. निश्चित तौर पर. फिर उपाय? उपाय यही है कि किसानों का नेता कभी भी योगेन्द्र यादव या राहुल गांधी नहीं हो सकते. किसान का नेत उसे ही होना होगा जो किसनों की वास्त्विक समस्य समझता हो और वास्तविक समाधन जानता हो.
जो भी किसान नेता एमएसपी और स्वामीनाथन अयोग की बात करत है, जो भी राजनैतिक नेता कर्ज माफी को किसान समस्या का समाधान बताता हो, वह किसनों को बेवकूफ बना रहा है, देश को बेवकूफ बना रहा है...यही अंतिम सत्य है. इससे इतर कोई सत्य हो तो बताइए....