"जातिप्रथा के अपने शक्ति स्त्रोत हैं, एक जातिवादी के पद पर जाते ही सारे संस्था या संगठन भी जातिवादी हो जाते हैं. आरक्षण वंचित जाति को उन शक्ति स्त्रोतों तक पहुँचा रहा है और वो भी उतने जातिवादी हैं. यह एक युद्ध की तैयारी की तरह है, जैसे दो विश्वयुद्धों से पहले पुरी दुनिया गुप्त संधियों के दौड़ में थी, जिसने युद्ध को रोका नहीं बल्कि राष्ट्रों के युद्ध को विश्व का युद्ध बना दिया. भारतीय समाज भी उसी दौड़ में है. जातिवाद भारत की सबसे बड़ी समस्या है और हमें इस पर खुल कर बात करनी चाहिए, वरना भारतीय समाज की ये गुप्त संधियाँ समाज को तोड़ कर रख देंगी."
जिन मित्रों को जातिप्रथा पर बात गैर ज़रुरी लगता है उनके लिए एक प्रसंग है कि इलाहबाद कोर्ट के एक विद्वान जज ने गंगाजल से अपने नये केबिन को धूलवाया क्योंकि उनसे पहले उसमें दलित जज थे.एक कानून का दलित छात्र बस छू देने के लिए मार दिया जाता है. आईए हम बात कर लें कि इससे पहले की कोई बात करने की गुंजाईश बचे ही नहीं.
गाँधी और अंबेडकर के मध्य ऐतिहासिक विवाद से हर कोई परिचित है, पर गाँधी ने कहा था कि अंबेडकर को जितनी घृणा और अपमान सहना पड़ा है वह किसी को भी कटू और अशांत बना सकता है और उसकी जगह मुझे भी यह सहना पड़ता तो मैं भी उतना ही विद्रोही होता. अंबेडकर ने हिंदु धर्म छोड़ दिया क्या गाँधी छोड़ पाते ? आज हर संगठन में अंबेडकर का फोटो गाँधी से भी प्रमुखता से है...क्या गाँधी आज अंबेडकर से कम प्रासंगिक हो गये हैं ?क्या बस फोटू लगा देने से काम बन जायेगा ?
दलितों की अपनी समिृद्ध परंपरा रही है. मगर शासक जाति की सत्ता और संस्कृति ने दलित संस्कृति को नकार दलित को निम्न मानव के रुप में स्थापित किया, इस सांस्कृतिक शिक्षा के कारण ही दलित ने दलित होना स्वीकार किया, वो भी सदियों तक. कुछ खास जातियाँ अपराधी जाति मानी गयी और अंग्रेजों ने भी अपनी तमाम आधुनिकता के दावे के बाद भी उसे ही मान लिया, आखिर उनका ही अम़रिका में गुलामों का कारोबार था. दलित आज भी इतने कंडीशंड है कि अत्याचारी जातियों को अब भी अगड़ी या उच्च जाति से संबोधित करता है, न कि शोषक या दलक जाति. ग्राम्शी के सांस्कृतिक संप्रुभुता का यह परफेक्ट उदाहरण है. अमरिका में ब्लैक लोगों के आंदोलन के साथ साथ काले लोंगो का अपना धर्मशास्त्र भी विकसित हुआ, वहाँ का ब्लैक चर्च की भूमिका आंदोलन में महत्वपूर्ण रही. मूल यह है कि दलितों को अपनी लडाई खुद लड़नी होगी और यह लड़ाई हाथापाई वाली नहीं होगी, संस्कृति की लडाई होगी है और हमें इस संघर्ष का निदान ज़ल्द करना पड़ेगा, वरना भारत को तोड़ने की चाह अब भी कईयों के दिल में है.
आरक्षण को लेकर दोनों तरफ से कटू संवाद जारी है. आरक्षण के समर्थक मित्रों को समझना चाहिए कि आरक्षण से क्षणिक और कुछ दूरगामी लाभ ज़रुर हुए हैं, मगर जातिप्रथा के संपूर्ण दोषों पुरा निदान नहीं दे पाया है और न दे पायेगा. आरक्षण ने कटूता को नई उँचाई दी है. मगर आरक्षण के विरोधी मित्र यह भी जान लें कि समस्या आरक्षण नहीं है, जातिप्रथा है. बिना जातिप्रथा को समाप्त किये आरक्षण को योग्यता का हनन महसूस करने वाले सज्जन वंचितों के मनोदशा में भी झांके. इस घृणा लीला कि कोई सीमा नहीं है. इधर कुछ दलित और पिछड़े समुदाय में यह बात चल रही है कि आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की 50 %की सीमा शोषक जातियों के लिए 50 % आरक्षण की तरह है और यह एक व्याख्या मात्र है, कोई मौलिक अधिकार वाली सीमा नहीं है एवं उनके मन में जाति के प्रतिशत के हिसाब से 80-85 % आरक्षण की इच्छा सुगबुगा रही है. पर दोनों पक्ष जान लें कि आरक्षण कोई अंतिम समाधान नहीं है, एक विटामिन या स्टेराईड की तरह है, जो समस्या को टाल भर रही है. अगर जातिप्रथा को तुरंत नहीं त्यागा गया, तो भविष्य आरक्षण के विटामिन की गोली से आगे शल्य चिकित्सा तक चली जायेगा. और इस समय गाँधी या अंबेडकर जैसा धैर्य नहीं है कि अंबेडकर के तर्ज पर सभी दलित जाति बोद्ध धर्म में शामिल हो जायें और दुसरे चुप बैठें. आज का समय करणी सेना और भीम सेना का है, भीम सेना अपने अधिकार के लिए लड़ेगी, मगर करणी सेना जैसा दुसरा पक्ष क्या केवल शोषण के अधिकार के लिए लड़ेगा. इस लड़ाई में एक बात तय है कि हार भारतीय समाज की होगी.
हम शोषक दलक जाति वाले मित्रों को यह गलत लगे. मगर याद रहे कि अगड़ी जाति के विकास हेतु दलित जाति का विकास भी ज़रुरी है, पूर्ण विकसित राष्ट्र हेतु संपुर्ण जनता का विकास ज़रुरी है. तीसरी सदी तक प्राचीन भारत में जब तक जातिप्रथा कम प्रभावी था, मौर्य, कुषाण आदि ने सिकंदर का भगाया या मध्य एशिया तक भारतीय साम्राज्य को ले गये, जो फिर कभी नहीं हुआ, पर जैसे ही जातिप्रथा चरम पर आया विदेशी आक्रमणकारी हमें हराते रहे. सवाल यह है कि हमें जातिगत कटुता इतना प्रिय है कि हम भारतीय समाज और उसके राष्ट्र को विनाश की ओर ले जाना ज्यादा पसंद करेंगें... बनिस्बत जातिवाद छोड़ने के.
जातिप्रथा के अपने शक्ति स्त्रोत है, एक जातिवादी के पद पर जाते ही सारे संस्था या संगठन भी जातिवादी हो जाते हैं. आरक्षण वंचित जाति को उन शक्ति स्त्रोतों तक पहुँचा रहा है और वो भी उतने जातिवादी हैं. यह एक युद्ध की तैयारी की तरह है, जैसे दो विश्वयुद्धों से पहले पुरी दुनिया गुप्त संधियों के दौड़ में था, जिसने युद्ध को रोका नहीं बल्कि राष्ट्रों को युद्ध को विश्व का युद्ध बना दिया. भारतीय समाज भी उसी दौड़ में है.जातिवाद भारत की सबसे बड़ी समस्या है और हमें इस पर खुल के बात करनी चाहिए, वरना भारतीय समाज की ये गुप्त संधियाँ समाज को तोड़ कर रख देंगी.
शांतिपूर्ण समाधान होना चाहिए और जातिप्रथा का अंत ही एक समाधान है. मगर यह शांतिपूर्ण ढंग से होगा कैसे , इस सवाल का ठोस ज़वाब किसी के पास नहीं है.
(आज धागा पर जातिवाद पर संवाद हो रहा है)
जिन मित्रों को जातिप्रथा पर बात गैर ज़रुरी लगता है उनके लिए एक प्रसंग है कि इलाहबाद कोर्ट के एक विद्वान जज ने गंगाजल से अपने नये केबिन को धूलवाया क्योंकि उनसे पहले उसमें दलित जज थे.एक कानून का दलित छात्र बस छू देने के लिए मार दिया जाता है. आईए हम बात कर लें कि इससे पहले की कोई बात करने की गुंजाईश बचे ही नहीं.
गाँधी और अंबेडकर के मध्य ऐतिहासिक विवाद से हर कोई परिचित है, पर गाँधी ने कहा था कि अंबेडकर को जितनी घृणा और अपमान सहना पड़ा है वह किसी को भी कटू और अशांत बना सकता है और उसकी जगह मुझे भी यह सहना पड़ता तो मैं भी उतना ही विद्रोही होता. अंबेडकर ने हिंदु धर्म छोड़ दिया क्या गाँधी छोड़ पाते ? आज हर संगठन में अंबेडकर का फोटो गाँधी से भी प्रमुखता से है...क्या गाँधी आज अंबेडकर से कम प्रासंगिक हो गये हैं ?क्या बस फोटू लगा देने से काम बन जायेगा ?
दलितों की अपनी समिृद्ध परंपरा रही है. मगर शासक जाति की सत्ता और संस्कृति ने दलित संस्कृति को नकार दलित को निम्न मानव के रुप में स्थापित किया, इस सांस्कृतिक शिक्षा के कारण ही दलित ने दलित होना स्वीकार किया, वो भी सदियों तक. कुछ खास जातियाँ अपराधी जाति मानी गयी और अंग्रेजों ने भी अपनी तमाम आधुनिकता के दावे के बाद भी उसे ही मान लिया, आखिर उनका ही अम़रिका में गुलामों का कारोबार था. दलित आज भी इतने कंडीशंड है कि अत्याचारी जातियों को अब भी अगड़ी या उच्च जाति से संबोधित करता है, न कि शोषक या दलक जाति. ग्राम्शी के सांस्कृतिक संप्रुभुता का यह परफेक्ट उदाहरण है. अमरिका में ब्लैक लोगों के आंदोलन के साथ साथ काले लोंगो का अपना धर्मशास्त्र भी विकसित हुआ, वहाँ का ब्लैक चर्च की भूमिका आंदोलन में महत्वपूर्ण रही. मूल यह है कि दलितों को अपनी लडाई खुद लड़नी होगी और यह लड़ाई हाथापाई वाली नहीं होगी, संस्कृति की लडाई होगी है और हमें इस संघर्ष का निदान ज़ल्द करना पड़ेगा, वरना भारत को तोड़ने की चाह अब भी कईयों के दिल में है.
आरक्षण को लेकर दोनों तरफ से कटू संवाद जारी है. आरक्षण के समर्थक मित्रों को समझना चाहिए कि आरक्षण से क्षणिक और कुछ दूरगामी लाभ ज़रुर हुए हैं, मगर जातिप्रथा के संपूर्ण दोषों पुरा निदान नहीं दे पाया है और न दे पायेगा. आरक्षण ने कटूता को नई उँचाई दी है. मगर आरक्षण के विरोधी मित्र यह भी जान लें कि समस्या आरक्षण नहीं है, जातिप्रथा है. बिना जातिप्रथा को समाप्त किये आरक्षण को योग्यता का हनन महसूस करने वाले सज्जन वंचितों के मनोदशा में भी झांके. इस घृणा लीला कि कोई सीमा नहीं है. इधर कुछ दलित और पिछड़े समुदाय में यह बात चल रही है कि आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की 50 %की सीमा शोषक जातियों के लिए 50 % आरक्षण की तरह है और यह एक व्याख्या मात्र है, कोई मौलिक अधिकार वाली सीमा नहीं है एवं उनके मन में जाति के प्रतिशत के हिसाब से 80-85 % आरक्षण की इच्छा सुगबुगा रही है. पर दोनों पक्ष जान लें कि आरक्षण कोई अंतिम समाधान नहीं है, एक विटामिन या स्टेराईड की तरह है, जो समस्या को टाल भर रही है. अगर जातिप्रथा को तुरंत नहीं त्यागा गया, तो भविष्य आरक्षण के विटामिन की गोली से आगे शल्य चिकित्सा तक चली जायेगा. और इस समय गाँधी या अंबेडकर जैसा धैर्य नहीं है कि अंबेडकर के तर्ज पर सभी दलित जाति बोद्ध धर्म में शामिल हो जायें और दुसरे चुप बैठें. आज का समय करणी सेना और भीम सेना का है, भीम सेना अपने अधिकार के लिए लड़ेगी, मगर करणी सेना जैसा दुसरा पक्ष क्या केवल शोषण के अधिकार के लिए लड़ेगा. इस लड़ाई में एक बात तय है कि हार भारतीय समाज की होगी.
हम शोषक दलक जाति वाले मित्रों को यह गलत लगे. मगर याद रहे कि अगड़ी जाति के विकास हेतु दलित जाति का विकास भी ज़रुरी है, पूर्ण विकसित राष्ट्र हेतु संपुर्ण जनता का विकास ज़रुरी है. तीसरी सदी तक प्राचीन भारत में जब तक जातिप्रथा कम प्रभावी था, मौर्य, कुषाण आदि ने सिकंदर का भगाया या मध्य एशिया तक भारतीय साम्राज्य को ले गये, जो फिर कभी नहीं हुआ, पर जैसे ही जातिप्रथा चरम पर आया विदेशी आक्रमणकारी हमें हराते रहे. सवाल यह है कि हमें जातिगत कटुता इतना प्रिय है कि हम भारतीय समाज और उसके राष्ट्र को विनाश की ओर ले जाना ज्यादा पसंद करेंगें... बनिस्बत जातिवाद छोड़ने के.
जातिप्रथा के अपने शक्ति स्त्रोत है, एक जातिवादी के पद पर जाते ही सारे संस्था या संगठन भी जातिवादी हो जाते हैं. आरक्षण वंचित जाति को उन शक्ति स्त्रोतों तक पहुँचा रहा है और वो भी उतने जातिवादी हैं. यह एक युद्ध की तैयारी की तरह है, जैसे दो विश्वयुद्धों से पहले पुरी दुनिया गुप्त संधियों के दौड़ में था, जिसने युद्ध को रोका नहीं बल्कि राष्ट्रों को युद्ध को विश्व का युद्ध बना दिया. भारतीय समाज भी उसी दौड़ में है.जातिवाद भारत की सबसे बड़ी समस्या है और हमें इस पर खुल के बात करनी चाहिए, वरना भारतीय समाज की ये गुप्त संधियाँ समाज को तोड़ कर रख देंगी.
शांतिपूर्ण समाधान होना चाहिए और जातिप्रथा का अंत ही एक समाधान है. मगर यह शांतिपूर्ण ढंग से होगा कैसे , इस सवाल का ठोस ज़वाब किसी के पास नहीं है.
(आज धागा पर जातिवाद पर संवाद हो रहा है)