मैं सेक्यूलर सूडो भला

Published on: 01-15-2016


 
क्रिकेट मेरी रगों में है। भारत मैच के दौरान मुझे बचपन में बड़ा टेंशन होता था। अगर वनडे मैच आखिरी ओवर तक खिंच जाए तो मैं बेचैन होकर टहलने लगता था। नाखून चबाता था और क्रिकेट को लेकर इस पागलपन की वजह से अक्सर परिवार वालों की डांट भी खाता था। लेकिन मेरा लंगोटिया यार मुझसे चार कदम आगे था। जब तक मैच चलता वह जावेद मियांदाद और सलीम मलिक के करीबी रिश्तेदारों को पंचम स्वर में बारी-बारी से याद करता रहता। वह हमारे उन दोस्तों के करीबी रिश्तेदारों को भी याद करना नहीं भूलता, जो साले उसके हिसाब से इंडिया की हार की खुशी मना रहे होंगे। वक्त के साथ हम दोनो बड़े हुए। मेरा लंगोटिया यार सवा सोलह आने सच्चा राष्ट्रवादी निकला और मैं सेक्युलर का सेक्युलर रहा और वो भी एकदम सूडो वाला।

मैं सूडो वाला सेक्युलर हूं, ये मेरे राष्ट्रवादी लंगोटिया यार ने तय किया है। मैने भी चुपचाप मान लिया, बचपन की दोस्ती ठहरी। वैसे भी भारत में सिर्फ राष्ट्रवादी लोग ही तय कर सकते हैं कि इस देश के बाकी लोग क्या हैं। राष्ट्रवादी बनना आसान नहीं है। सच्ची भावना चाहिए, जो ज्यादातर लोगो में नहीं होती। मेरे दोस्त में ये भावना इस कदर कूट-कूटकर भरी है कि अगर कोई सवाल उठाए तो उसे वहीं कूट दे। मेरे दोस्त को संस्कृत के पांच मंत्र ठीक से नहीं आते। लेकिन भावना देखिए, जब भी वह सनातन धर्म पर व्याख्यान देता है, तो मुहल्ला हिल जाता है। कश्मीर पर हम दोनो की राय में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। हम दोनो मानते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। फर्क सिर्फ इतना है कि वह अपने कमरे में बैठे-बैठे फूंक मारकर धारा 370 को उड़ा देता है, फौज भेजकर पीओके को छुड़वा लेता है। इस कार्रवाई में अक्सर पानी का ग्लास उलट जाता है। कभी-कभी चाय के प्याले भी टूट जाते हैं। लेकिन कोई बात नहीं राष्ट्र के नाम इतनी कुर्बानी नहीं तो फिर जीना किस काम का। ख़ैर मैं ये सब कुछ नहीं कर पाता हूं। इसीलिए मेरा दोस्त सच्चा राष्ट्रवादी है और मैं सेक्युलर हूं और वह भी एकदम सूडो वाला।

जैसा कि मैने ऊपर बताया कई मामलों में हमारी सहमति है। कुछ ख़ास मौको पर सड़क पर उतरकर हुड़दंग करने वाले दाढ़ी-टोपी वालों से मुझे चिढ़ है और ज़ाहिर है, मेरे लंगोटिया यार को मुझसे भी ज्यादा चिढ़ है। मुझे पूरे सावन में लाउडस्पीकर बजाने वाले, रास्ता रोकने वाले और राहगीरों की पिटाई करने वाले कांवड़ियों से भी चिढ़ है। मुझे ट्रैफिक रोककर ज़बरदस्ती शरबत पिलाने वालों और बीच सड़क तलवार भांजकर अपनी मर्दानगी दिखाने वालों से भी चिढ़ है। लेकिन मेरे दोस्त को इन सब से प्यार है। उसकी चिढ़ सिर्फ दाढ़ी-टोपी वालों से ही है, इसलिए वह सच्चा राष्ट्रवादी है और मैं सेक्युलर हूं और वो भी सूडो वाला।

मैं पाकिस्तान की पॉलिटिकल आइडियॉलजी से घृणा करता हूं। लेकिन पाकिस्तान के लोगो से घृणा नहीं करता। मेरे दोस्त को पाकिस्तान की पॉलिटिकल आइडियॉलजी से प्यार है, लेकिन वह पाकिस्तान के लोगो से नफरत करता है। उसे लगता है कि बंटवारे के बाद सारे पाकिस्तानियों को पाकिस्तान भेज दिया गया होता तो मामला निबट जाता।

'पाकिस्तानियों' को पाकिस्तान भेजने की अपनी योजना वह फेसबुक के ज़रिये पूरे देश को बताता है, इसलिए वह सच्चा राष्ट्रवादी है और मैं उसके पोस्ट फारवर्ड नहीं करता, इसलिए मैं सेक्युलर हूं और वह भी सूडो वाला। हमारी दोस्ती ठीक-ठीक चल रही थी। लेकिन पिछले कुछ दिनो से उसका राष्ट्रवाद इस तरह कुंलाचे मार रहा है कि मैं डरने लगा हूं कि कहीं मैं सूडो सेक्युलर से पाकिस्तानी ना बना दिया जाऊं। कसाब पर हुए खर्चे का हिसाब वह कुछ इस तरह मांगता है, जैसे ऑर्थर रोड के अंडा सेल में मैं ही उसके साथ रोज़ मुर्ग बिरयानी उड़ाता था। बांग्लादेश से होनेवाले घुसपैठ पर मुझसे इस अंदाज़ में सवाल करता है, जैसे लगता है कि सारे घुसपैठियों को बोरियों में भरकर में मैने अपने ताऊजी के गोदाम में छिपा रखा है। चलो माना आइडियॉलजी की मूंगफली है, टाइम पास के लिए ठीक है, कोई शिकायत नहीं। लेकिन अब मामला कुछ ज्यादा ही आगे बढ़ चला है। अब वह मेरी देशभक्ति के साथ मेरे हिंदू होने पर भी सवाल उठाने लगा है। अत्यंत व्यक्तिगत मामला है, फिर भी बता दूं कि पूजा-पाठ की परंपरा मेरे घर में शुरू से ही रही है। मैं गायत्री मंत्र और महामृत्युंजय सुनकर बड़ा हुआ हूं और दुर्गा सप्तशती का एक बड़ा हिस्सा अब भी याद है। इसलिए पांच मंत्र ठीक से ना जानने वाला कोई भी आदमी मुझे ये बताने की जुर्रत नहीं कर सकता कि हिंदू होना क्या होता है। मेरे लिए मेरा धर्म मेरा निजी मामला है। तुम्हारे लिए धर्म सिर्फ पॉलिटकल आइडियॉलजी के लिए इस्तेमाल होने वाली चीज़ है। अगर तुम्हे लगता है कि हिंदू संस्कृति, सनातन धर्म और तुम्हारा राष्ट्रवाद खतरे में है, तो तुम अपने घर में बंजी जंपिंग करो, अपने फर्नीचर तोड़ो, ग्लास तोड़ो, जो करना है, करो। मुझे मत पकाओ प्लीज़। अपनी इन्ही भावनाओं के साथ मैंने अपने प्रिय मित्र को कवितानुमा एक चीज़ भी प्रेषित की.. आप भी पढ़िए

 गर्व से से कहो कि हम हिंदू हैं
लेकिन मेरे कान में चीखकर मत कहो
गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं
लेकिन इतनी ज़ोर से मत कहो
कि तुम्हारे हिंदू होने पर शक होने लगे
गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं
लेकिन इतनी बार मत कहो कि यह लगे
कि तुम्हारे पास इसके सिवा
गर्व करने के लिए कुछ और नहीं है
तुम्हे अपने हिंदू होने पर गर्व है
लेकिन हिंदू धर्म तुम्हारे होने पर शर्मिंदा है
 
आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यह सब पढ़कर मेरे 16 आने सच्चे राष्ट्रवादी दोस्त की क्या प्रतिक्रिया हुई होगी। मैं ऐसी प्रतिक्रियाओं का आदी हूं। वैचारिक बहस दुनिया के किसी भी सवाल पर हो सकती है। जिसके पास विचार होते हैं, वह जवाब विचारों से देता है। जहां विचार नहीं होते वहां नारे होते हैं और नारे चूकने लगते हैं तो गालियां होती हैं। लेकिन गालियां देने की भी सीमा है। मुंह थक जाता है तो कहना पड़ता है, ये सिकुलर लोग बड़े बेशर्म है। बैचो.. इनमें संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं है। इनसे उलझना ठीक नहीं है। अब मैं क्या जवाब दूं। सिर्फ इतना कह सकता हूं कि जिस हिंदू धर्म की ठेकेदारी का दावा आप कर रहे हैं, उसकी ध्वजा तो हज़ारो साल से लहरा रही है। कृपया लंगोट उतारकर धर्म ध्वजा बनाने की गलती मत कीजिये, इससे धर्म की इज्ज़त जाएगी और आपकी तो खैर है ही नहीं।
स्वतंत्र स्तम्भकार. पेशे के तौर पर 35 साल से पत्रकारिता में. आठ साल तक (2004-12) टीवी टुडे नेटवर्क के चार चैनलों आज तक, हेडलाइन्स टुडे, तेज़ और दिल्ली आज तक के न्यूज़ डायरेक्टर. 1980 से 1995 तक प्रिंट पत्रकारिता में रहे और इस बीच नवभारत टाइम्स, रविवार, चौथी दुनिया में वरिष्ठ पदों पर काम किया. 13-14 साल की उम्र से किसी न किसी रूप में पत्रकारिता और लेखन में सक्रियता रही.

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